विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२७ जीवात्मा, प्रकृति और परमात्मा
वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य में तीन पदार्थ हैं। बाहरी पदार्थ शरीर है जो मनुष्य का स्थूल शरीर कहलाता है और जिसमें आँख, नाक, कान आदि इंद्रियाँ हैं। आँख इंद्रिय नहीं है; वह केवल गोलक है। उस गोलक के परे इंद्रिय है। इसी प्रकार कान श्रोत्रंद्रिय नहीं हैं; वे गोलक मात्र हैं। उनके परे इंद्रिय है जिसे आधुनिक शरीर-विज्ञान में केंद्र कहते हैं। यदि आँख का केंद्र नष्ट हो जाय तो आँख देख नहीं सकती। यही दशा हमारी सारी इंद्रियों की है। फिर इंद्रियों को भी किसी पदार्थ का स्वयं बोध नहीं हो सकता, जब तक उनके साथ औरों का मेल वा संयोग न हो। यह मन है। कितनी ही बार आपके देखने में यह आया होगा कि आप किसी और विचार में लगे थे। घड़ी बजी और आपने उसे सुना नहीं। यह क्यों? कान था ही, उसमें कंप गए और वे मस्तिष्क तक पहुँचे; पर आपने फिर भी नहीं सुना। कारण यह था कि मन इंद्रियों से युक्त नहीं था। बाह्य पदार्थों के संस्कार को इंद्रियाँ ग्रहण करती हैं और जब मन उनसे संयुक्त रहता है, तब वह संस्कारों को ले लेता है और उसे मानों वह रंग दे देता है जिसे अहंकार कहते हैं। मान लो कि मैं एक काम में लगा हूँ और मेरे हाथ की उँगली में एक मच्छड़ काट लेता है। मुझे उसका काटना इसलिये नहीं जान पड़ता कि मेरा मन किसी और काम में लगा रहता है। फिर जब मेरा मन इंद्रियों से संयुक्त होता है, तब मुझे वेदना होती है। जब मुझे वेदना होती है, तब मुझे मच्छड़ के काटने का बोध होता है। अतः केवल मन का इंद्रियों से संयुक्त रहना ही पर्याप्त नहीं है, इच्छा के रूप में वेदना का होना भी आवश्यक ठहरा। वह शक्ति जिसके कारण वेदना होती है, ज्ञानशक्ति वा बुद्धि कहलाती है। पहले बाहरी इंद्रियों के गोलक का होना आवश्यक है, फिर इंद्रियों का, फिर इंद्रियों के साथ मन के संयोग का, फिर वेदना के लिये बुद्धि के प्रति संयोग का; और जब ये सब बातें हो चुकीं, तब द्रष्टा और फिर दृश्य के भाव की उत्पत्ति होती है और तब कहीं जाकर प्रत्यक्ष ज्ञान वा बोध होता है। इंद्रियों के गोलक शरीर में होते हैं। गोलकों के परे इंद्रियाँ हैं, फिर उनसे परे मन है। फिर बुद्धि, फिर अहंकार है। इसी अहंकार से मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, आदि भावों की उत्पत्ति होती है। ये सब क्रियाएँ एक शक्ति से होती हैं। इस शक्ति को संस्कृत में प्राण कहते हैं। यह शरीर मनुष्य का एक भाग है जिसमें इंद्रियों के गोलक हैं। इसे स्थूल शरीर कहते हैं। इसके भीतर इंद्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार हैं। इन सब के साथ प्राण मिलकर एक 'संयोग' बनता है जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह अत्यंत सूक्ष्म तत्वों या मूलों से बने होते हैं―इतने सूक्ष्म कि शरीर में कितना ही आघात पहुँचे, पर इससे उनको कोई हानि नहीं पहुँचती। वे शरीर के विकार प्राप्त होने पर भी बने ही रहते हैं। स्थूल शरीर स्थूल पदार्थों का होता है और यह सदा बनता और विकार को प्राप्त होता रहता है। पर भीतर की इंद्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार की रचना सूक्ष्म पदार्थों से है। इतने सूक्ष्म कि जिससे वे कल्प कल्पांतर तक बनी रहती हैं। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि कोई उनको रोक नहीं सकता, वे हर एक अवरोध को पार कर सकते हैं। जैसे स्थूल शरीर जड़ है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर भी जड़ है, वह सूक्ष्म पदार्थों से बना भले ही हो। यद्यपि उसके एक भाग को मन, दूसरे को बुद्धि और तीसरे को अहंकार कहते हैं, पर यह आप जान सकते हैं कि उनमें कोई ज्ञाता नहीं हो सकता। उनमें कोई द्रष्टा वा साक्षी नहीं हो सकता। मन, बुद्धि वा अहंकार की क्रियाएँ किसी दूसरे के लिये हैं। ये सब सूक्ष्म भूतों से भले ही बने हों, पर वे स्वयंप्रकाश नहीं हैं। उनमें स्वतः प्रकाश नहीं है। यह मेज की अभिव्यक्ति जो हो रही है, किसी भौतिक पदार्थ के कारण नहीं है। अतः उनकी आड़ में कोई अवश्य है जो उनका द्रष्टा, भोक्ता और अभिव्यक्त करनेवाला है। उसे आत्मा कहते हैं। वही सबका सच्चा द्रष्टा है। बाह्य इंद्रिय गोलक और इंद्रियाँ संस्कार को ग्रहण करती हैं और उनको मन के पास ले जाती हैं। मन बुद्धि को देता है और बुद्धि पर उनका प्रतिबिंब दर्पणंवत् पड़ता है जिसकी दूसरी पीठ आत्मा है। वह उन्हें देखता है और अपनी आज्ञा देता है। यह इन करणों का अधिष्ठाता है, गृहपति और शरीर का राजा है। अहंकार, बुद्धि, मन, इंद्रियाँ, गोलक और शरीर सब उसके शासन को मानते हैं। वही इन सबको व्यक्त कर रहा है। वही मनुष्य की आत्मा है। हम देखते हैं कि जो बात विश्व के एक अणु वा लघु अंश में है, वही सारे विश्व में भी होगी। यदि विश्व का नियम साम्य है तो विश्व के एक एक अंश की रचना उसी नियम पर हुई है जिससे समस्त विश्व की है। अतः हम सहज में विचार सकते हैं कि इस स्थूल भौतिक पिंड के परे जिसे हम अपना विश्व कहते हैं, कोई सूक्ष्म भौतिक विश्व भी अवश्य है जिसे हम मन कहते हैं; और उसके परे आत्मा है जिसके कारण सारे ज्ञान होते हैं और जो इस विश्व का शासक और अधिपति है। जो आत्मा सब मनों के परे है, उसे प्रत्यगात्मा कहते हैं; और वह आत्मा जो इस विश्व के परे उसका शासक और अधिपति है, ईश्वर कहलाता है।
दूसरी विचारणीय बात यह है ये सव कहाँ से उत्पन्न होते हैं। उत्तर यह है कि उत्पन्न होने से क्या अभिप्राय है। यदि इसका यह आशय है कि शून्य से किसी पदार्थ की उत्पत्ति हो सकती है, तब तो यह असंभव है। यह सब सृष्टि और अभिव्यक्तियाँ जो देख पड़ती हैं, शून्य से कभी उत्पन्न नहीं
हुई हैं। बिना कारण के कार्य्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। पर
कार्य्य है क्या? कारण ही का तो रूपांतर मात्रा है। यह शीशा
है। मान लीजिए कि हम इसकी बुकनी कर डालें और रासा-
यनिक परिक्रिया से इसे नष्ट कर दें; तो क्या आप समझते हैं
कि यह शून्य हो जायगा? कदापि नहीं। रूप भले ही नष्ट हो
जाय, पर वह अंश जिससे वह बना है, रह जायगा। वे इंद्रि-
यातीत दशा को क्यों न प्राप्त हो जायँ, पर वे रहते हैं अवश्य;
और नितांत संभव है कि उन अंशो से फिर शीशा बन सके।
जैसे यह एक दशा में सत्य है, वैसे ही यह सब दशाओं में
सत्य हो सकता है। असद् से सद् की उत्पत्ति कभी नहीं हो
सकती। न सद् कभी असद् हो सकता है। यह सूक्ष्म से
सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल हो सकता है। समुद्र से भाप उठ-
कर मेंह की बूँँद बनती है, वह पर्वत पर जाती है, फिर वह
पानी हो जाती है और सैकड़ों मील बहकर समुद्र में पहुँचती
है। बीज से वृक्ष होता है। वृक्ष नष्ट हो जाता है और बीज
रह जाता है। फिर दूसरा बीज उत्पन्न होता है और अंत को
फिर बीज ही रह जाता है। इसी प्रकार चक्कर चलता रहता
है। पक्षी को देखिए। वह अंडे से निकलता है, सुंदर पक्षी हो
जाता है। जीवन भर जीता है, फिर मर जाता है और अंडे
बीज रूप में रह जाते हैं। यही अवस्था पशुओं और मनुष्यों की
भी है। सब किसी बीज से, किसी पूर्व रूप से वा सूक्ष्म दशा
से उत्पन्न होते हैं; स्थूल से स्थूल होते जाते हैं और अंत को
इसी प्रकार चलता रहता है। एक समय आता है जब यह
समस्त विश्व सूक्ष्म होते होते अंत को तिरोभूत हो जाता है
और अति सूक्ष्म अवस्था को धारण कर लेता है। हमें आधु-
निक विज्ञान और ज्योतिषशास्त्र के द्वारा जान पड़ता है कि
यह पृथ्वी ठंढी होती जाती है। कालांतर में यह बहुत ठंढी हो
जायगी और तब यह छिन्न भिन्न हो जायगी और इतनी सूक्ष्म
हो जायगी कि यह आकाश के रूप में हो जायगी। पर फिर
भी परमाणु रह जायँगे और उनसे पुनः दूसरी पृथ्वी उत्पन्न
होगी। फिर वह लुप्त हो जायगी और दूसरी बनेगी। इस
प्रकार पहले यह विश्व अपने कारण में लय हो जायगा; फिर
इसकी सामग्री इकट्ठी हो जायगी और दूसरा रूप धारण
करेगी। वह लहर की भाँति उठती बैठती रहेगी। कारण में
लय होने और फिर निकलकर रूप धारण करने की यह क्रिया
चलती रहेगी। इसी को संस्कृत में संकोच और विकाश कहते
हैं। सारे विश्व में संकोच और विकाश होता रहता है। आधु-
निक विज्ञान की बोलचाल में उनका अवरोह और आरोह
होता रहता है। आपने आरोह के संबंध में सुना होगा कि
रूपों का विकाश कैसे तुच्छ रूपों से धीरे धीरे उन्नति होते होते
होता है। हम जानते हैं कि विश्व में शक्ति की मात्रा सदा एक
ही रहती है और द्रव्य का नाश नहीं होता। आप किसी
प्रकार द्रव्य का एक अणु भी कम नहीं कर सकते। आप एक
छटाँक बल को निकाल नहीं सकते हैं, न मिला ही सकते हैं।
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विकाश से अभिव्यक्ति में भेद पड़ता रहता है। अतः यह कल्प पूर्व कल्प के संकोच का विकाश है और इस विकाश का फिर संकोच होगा। सब सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते जायँगे और फिर दूसरे कल्प का आरंभ होगा। इस प्रकार सारा विश्व अपनी कक्षा में जा रहा है। अतः हम देखते हैं कि इस दृष्टि से कि असद् से सद् की उत्पत्ति होती है, कोई सृष्टि होती ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि यह अभिव्यक्ति है और ईश्वर उसका अभिव्यंजक है। विश्व मानो उसके श्वास प्रश्वास की भाँति उससे निकलता और उसमें पैठता रहता है। वेदों में एक उपमा के रूप में इसका क्या ही अच्छा वर्णन किया गया है। ‘महाभूत इस विश्व को श्वास की तरह खींचता और फेंकता रहता है।’ जैसे हम छोटे छोटे कणों वा अणुओं को श्वास से बाहर निकालते और फिर भीतर ले जाते रहते हैं। यह तो बहुत ही ठीक है, पर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या यह पहला कल्प है? उत्तर यह है कि पहले कल्प का अर्थ क्या है। कल्प तो कुछ है ही नहीं। यदि आप काल का आदि मानें, तब तो वह काल रहा ही नहीं। तनिक काल के आरंभ का तो ध्यान कीजिए; फिर आपको उसके आगे भी काल को मानना पड़ेगा। तनिक देश के आरंभ का ध्यान कीजिए, आपको उससे परे भी देश दिखाई
पड़ेगा। देश और काल अनंत हैं; अतः उनका आदि और अंत
नहीं है। यह विचार इस विचार से कहीं अच्छा है कि ईश्वर
ने सृष्टि को पाँच मिनट में रच डाला और फिर वह सोने
लगा और अब तक सोता ही है। इसके अतिरिक्त इससे ईश्वर
नित्य स्रष्टा जान पड़ता है। लहर चढ़ती उतरती रहती है
और वह उस नित्य क्रिया का प्रेरक है। जैसे विश्व अनादि
और अनंत है, वैसे ही ईश्वर भी है। हमारी समझ में ऐसा
होना आवश्यक है; क्योंकि यदि हम कहते हैं कि कभी सृष्टि
नहीं थी, चाहे वह सूक्ष्म रूप में हो वा स्थूल रूप में, तो
इससे यह मतलब निकलता है कि तब ईश्वर ही नहीं था;
क्योंकि ईश्वर को तो हस विश्व का साक्षी मानते हैं। जब
विश्व नहीं था, तब वह भी नहीं था। एक बात दूसरी से
निकलती है। कारण के भाव से कार्य्य की सिद्धि होती है। यदि
कार्य्य नहीं तो कारण कहाँ। अतः यह निगमन निकलता है
कि यदि विश्व नित्य है तो ईश्वर भी नित्य है।
आत्म भी नित्य अवश्य है। क्यों? हम पहली बात यह देखते हैं कि आत्मा भौतिक नहीं है। न यह स्थूल शरीर है और न सूक्ष्म शरीर है जिसे हम मन और बुद्धि कहते हैं। न यह भौतिक शरीर है और न यह वह है जिसे ईसाई लोग आध्यात्मिक शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर और आध्यात्मिक शरीर दोनों विकारवान् हैं। स्थूल शरीर में तो क्षण प्रति क्षण विकार होता रहता है और आध्यात्मिक शरीर बहुत दिन तक बना रहता है; और जब वह
छूट जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाता है। जब मनुष्य मुक्त हो
जाता है, तब आध्यात्मिक शरीर छिन्न भिन्न हो जाता है।
स्थूल शरीर, जब जब मनुष्य मरता है तब तब, छिन्न भिन्न होता
रहता है। आत्मा किसी और पदार्थ से नहीं बना है, अतः वह
अविनाशी है। नाश से हमारा क्या प्रयोजन है? नाश कहते
हैं उन पदार्थों के छिन्न भिन्न हो जाने को जिनसे वह वस्तु
बनी हो। यदि शीशा टूट जाय और उसके पदार्थ छिन्न भिन्न
हो जायँ तो शीशे का नाश हो जायगा। अंशों के इसी छिन्न
भिन्न होने को नाश कहते हैं। इससे यह मतलब निकलता है
कि जो अंशो वा टुकड़ों से नहीं बना है, उसका नाश नहीं है।
आत्मा किसी पदार्थ से नहीं बना है। यह अविभाज्य एकता
है। इसी युक्ति से यह अनादि भी अवश्य है। अतः आत्मा
अनादि और अनंत है।
अब तीन पदार्थ हुए। एक प्रकृति है जो अनंत तो है, पर विकारवाली है। सारी प्रकृति अनादि और अनंत है, पर उसमें नित्य विकार होता रहता है। यह उसी नदी की भाँति है जो समुद्र में सहस्रों वर्ष से बहती जा रही है। वह है तो वही नदी, पर उसमें क्षण क्षण पर विकार होता रहता है, जल के अंश अपने स्थान को निरंतर बदलते रहते हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर निर्विकार और नियंता है। और आत्मा भी ईश्वर की भाँति नित्य और निर्विकार है, पर नियंता के अधीन है। एक स्वामी है, दूसरा दास है और तीसरी प्रकृति है।
ईश्वर विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है।
कारण का कार्य्य के उत्पन्न करने के लिये रहना आवश्यक है।
यही नहीं, कारण ही कार्य्य हो जाता है। शीशा कुछ पदार्थों
और कुछ शक्तियों से, जिन्हें बनानेवाला काम में लाता है, बनता
है। शीशे में शक्ति और द्रव्य दोनों हैं। जो शक्ति लगी है वह
संसक्ति के रूप में है। यदि संसक्ति की शक्ति न रहे तो शीशे
के अंश अलग अलग हो जायँ। द्रव्य भी शीशे में है। केवल
रूप बदल गया है। कारण ही कार्य्य हो गया है। जो आपको
कार्य्य दिखाई पड़ता है, वह आपको सदा कारण में देख
पड़ेगा। कारण ही कार्य्य रूप में व्यक्त होता है। अब यह
परिणाम निकलता है कि ईश्वर यदि विश्व का कारण है, और
विश्व कार्य्य है तो ईश्वर ही विश्व वन गया है। यदि आत्मा
कार्य्य और ईश्वर कारण है तो ईश्वर ही आत्मा बन गया है।
प्रत्येक आत्मा इसी लिये ईश्वर का एक अंश है। जैसे अग्नि से
अनेक चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही अनंत शाश्वत विश्वा-
त्मा से यह आत्मा निकलते हैं।
हम यह देख चुके हैं कि नित्य ईश्वर और नित्य प्रकृति है। और अनंत संख्यक आत्माएँ भी हैं। यह धर्म की प्रथम श्रेणी है। इसे द्वैतवाद कहते हैं जिसमें मनुष्य अपने को ईश्वर से निरंतर पृथक् देखता है―जिसमें ईश्वर पृथक् है, आत्मा पृथक् है और प्रकृति पृथक् है। यह द्वैतवाद है जिससे द्रष्टा और दृश्य सर्वत्र एक दूसरे से विरुद्ध और अलग अलग हैं। उसमें
द्रष्टा और दृश्य के भेद से द्वैत दिखाई पड़ता है। जब मनुष्य
ईश्वर को देखता है, तब वह उसे दृश्यवत् दिखाई पड़ता है और
वह अपने को द्रष्टा जानता है। वे नितांत पृथक् हैं। यह मनुष्य
और ईश्वर का द्वैतभाव है। धर्म का प्रायः यही पहला रूप है।
अब वह विचार आता है जिसको मैं अभी प्रकट कर चुका हूँ। मनुष्य यह जानने लगता है कि ईश्वर विश्व का कारण है और विश्व कार्य्य है। ईश्वर ही विश्व और आत्मा हो गया है; पर वह एक अंश मात्र है और ईश्वर पूर्ण है। हम अति तुच्छ हैं, केवल अग्नि की चिनगारी के समान हैं और सारा विश्व ईश्वर की अभिव्यक्ति मात्र है। यह दूसरी श्रेणी है। संस्कृत में इसी को विशिष्टाद्वैत कहते हैं। जैसे यह शरीर है और शरीर आत्मा को आवृत्त किए हुए है और आत्मा शरीर में व्याप्त है, अतः यह सारा विश्व और आत्मा मानों ईश्वर का शरीर है। जब स्थूल अभिव्यक्ति होती है, तब भी विश्व ईश्वर का शरीर ही रहता है। जैसे मनुष्य की आत्मा मनुष्य के शरीर और मन की आत्मा है, वैसे ही ईश्वर हमारी आत्माओं की भी आत्मा है। आप सब लोगों ने यह बातें सारे धर्मों में सुनी होंगी कि ईश्वर हमारी आत्माओं की भी आत्मा है। इस वाक्य का यही अर्थ है। वही उनमें रहता है, उनको प्रेरित करता है और उनका शासन करता है। पहली श्रेणी द्वैतवाद में हममें से प्रत्येक पृथक् पृथक् है और ईश्वर तथा प्रकृति से सका के लिये अलग है। दूसरे में हम अलग तो हैं, पर ईश्वर
से पृथक् नहीं है। हम सब छोटे छोटे अणु के समान हैं जो
समष्टि में रहते हैं और वह समष्टि ईश्वर है। हम पृथक् तो हैं,
पर ईश्वर के साथ एकीभूत हैं। हम सब उसमें हैं। हम सब
उसी के अंश हैं। अतः हम एक ही हैं। फिर भी मनुष्य मनुष्य
में, मनुष्य और ईश्वर में विभिन्नता और पार्थक्य है भी, पर
नहीं भी है।
फिर एक और सूक्ष्म प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अनंत के विभाग हो सकते हैं। अनंत के भाग का अर्थ क्या है? यदि आप तर्क करें तो आपको यह असंभव प्रतीत होगा। अनंत के भाग हो नहीं सकते, वह सदा अनंत ही रहेगा। यदि उसका भाग हो सकेगा तो प्रत्येक भाग भी अनंत ही होगा। दो अनंत हो नहीं सकते। मान लो दो हों भी, तो एक दूसरे को ससीम करेंगे और दोनों ससीम हो जायँगे। अनंतता एक ही रहेगी और वह अविभक्त रहेगी। इस प्रकार यह परिणाम निकलता है कि अनंतता एक ही है,अनेक नहीं; और एक अनंत आत्मा की छाया करोड़ों दर्पणों में पड़ रही है और भिन्न भिन्न आत्माओं के रूप में भासमान हो रही है । वही अनंत आत्मा इस विश्व का आधारभूत है जिसे ईश्वर कहते हैं। वही अनंत आत्मा मनुष्य के मन का अधारभूत है; और उसकी ओट में वह है जिसे मनुष्य की आत्मा कहते हैं ।