विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/३३ एक ही अनेक भासमान है

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

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एक ही अनेक भासमान है।
(न्यूयार्क सन् १८९६)

वैराग्य से ही भिन्न भिन्न योगों का भेद है। कर्मी कर्म के फल को त्यागता है। भक्त सब क्षुद्र प्रेमों को सर्वशक्तिमान् व्यापक प्रेम के लिये त्यागता है। योगी अपने अनुभवों को त्यागता है; क्योंकि योग का सिद्धांत है कि प्रकृति यद्यपि पुरुष के अनुभव के लिये है और अंत में उसे यह ज्ञान करा देती है कि वह प्रकृति नहीं है, पर सदा प्रकृति से वह अलग बना रहता है। ज्ञानी सब कुछ त्याग देता है, क्योंकि उसके दर्शन का [ ३०१ ]सिद्धांत है कि प्रकृति है हो नहीं―न भूत में, न भविष्य में, न वर्त- मान में। इन उच्च प्रसंगों में उपयोगिता का प्रश्न हो ही नहीं सकता; उसका करना ही अनुपयुक्त है। और यदि कोई पूछे भी तो बहुत छानबीन करने पर हमें उस उपयोगिता के प्रश्न में मिलेगाही क्या? उनके लिये सुख का वह आदर्श है, जिससे मनुष्य को अधिक सुख की प्राप्ति हो। इन उच्च पदार्थों की अपेक्षा जिनसे उनकी आर्थिक अवस्था का सुधार नहीं होता न उन्हें अधिक सुख की प्राप्ति होती है, बड़ी उपयोगिता का पदार्थ है। सारे विज्ञान केवल इसी एक अभिप्राय से हैं कि मनुष्य को सुख मिले; और जिससे उसे अधिक सुख होता है, उसे वह ग्रहण कर लेता है और जिससे कम सुख की प्राप्ति होती है, उसे त्याग देता है। हम यह देख चुके हैं कि सुख या तो शरीर में होता है, या मन में, या आत्मा में। पशुओं में और अनेक क्षुद्र मनुष्यों में जो लग- भग पशुओं ही से हैं, केवल शरीर ही सुख का आधार है। कोई मनुष्य वैसे सुख से नहीं खा सकता जैसे मर-भुक्खा कुत्ता वा भेड़िया खाता है। अतः कुत्त और भेड़िए का सुख उसके शरीर ही तक है। मनुष्यों में सुख की ऊँची अवस्था हमें देख पड़ती है, अर्थात् मन वा विचार का सुख; और ज्ञानी में सुख की सर्वोच्च दशा देखी जाती है, अर्थात् आध्यात्मिक वा आत्मा का सुख। अतः ज्ञानी के लिये यह आत्मज्ञान अत्यंत उपयोगी है क्योंकि इससे उसे सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। इंद्रियों को सुख पहुँचानेवाले भौतिक पदार्थ पूर्ण उपयोगी नहीं हो सकते [ ३०२ ]क्योंकि उनमें वह आनंद नहीं मिलता जो ज्ञान में मिलता है। और इसके अतिरिक्त ज्ञान ही एक मात्र लक्ष्य है; और सचमुच वही, जहाँ तक हम जानते हैं, सबसे श्रेष्ठ सुख है। जो अज्ञान में कर्म करनेवाले हैं, वे देवताओं के पशु हैं। देवता का प्रयोग यहाँ विद्वान् और बुद्धिमान के लिये है। जो लोग कर्म करते और परिश्रम करते हैं और कल की भाँति काम करते रहते हैं, उनको सचमुच जीवन का सुख नहीं होता। सुख तो केवल पंडितों ही को होता है। एक धनी लाखों रुपए देकर एक चित्र मोल लेता है। पर उसका आनंद वही पाता है जो उसके गुण को समझता है; और यदि धनी उस कला को नहीं जानता तो वह उसके लिये किसी काम का नहीं है, वह उसका स्वामी मात्र है। संसार भर में वही अकेला पंडित वा बुद्धिमान् पुरुष है जो संसार के सुख को त्यागता है। अज्ञानी पुरुष कभी सुख का भोग नहीं कर सकता। वह दूसरों के लिये अज्ञानवश काम करता रहता है।

यहाँ तक तो हम अद्वैतवादियों के सिद्धांत को देख चुके हैं कि वे केवल 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' मानते हैं। हम यह भी देख चुके हैं कि कैसे समस्त विश्व में एक ही ब्रह्म की सत्ता है और वही सत्ता इंद्रियों द्वारा देखने से जगत्-रूप, प्राकृ- तिक जगत् भासमान होती है। जब वही मन द्वारा देखा जाता है, तब वह मानसिक लोक दिखाई पड़ता है; और जब हम उसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तब वही अनंत पूर्ण ब्रह्म बोध [ ३०३ ]होता है। मन में यह भले प्रकार समझ लेना चाहिए कि मनुष्य में प्रत्यगात्मा नहीं है। मैंने पहले इसे समझाने के लिये मान लिया था। पर यहाँ केवल एक ब्रह्म ही है, एक ही आत्मा है; और जब उसी को इंद्रियों के द्वारा, इंद्रियों की भावनाओं से देखते हैं, तब उसी को शरीर कहते हैं। जब उसी को विचार द्वारा देखते हैं, तब मन कहते हैं। और जब उसे उसी के रूप में देखते हैं, तब उसी को आत्मा या अद्वितीय ब्रह्म कहते हैं। अतः यह ठीक नहीं है कि एक ही में तीन पदार्थ हैं―शरीर, मन और आत्मा। यद्यपि समझाने के लिये ऐसा मान लिया गया था, पर सब आत्मा ही हैं। उसी को भिन्न भिन्न दृष्टियों से कभी शरीर, कभी मन और कभी आत्मा कहते हैं। एक ही सत्ता है जिसे अज्ञानी संसार कहते हैं। जब मनुष्य कुछ और ऊँचे जाता है तब उसी सत्ता को वह विचार का लोक वा मनोलोक कहता है। फिर जब ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और अज्ञान का नाश हो जाता है, भ्रम मिट जाता है, तब मनुष्य को जान पड़ता है कि यह सब आत्मा ही है, दूसरा कुछ नहीं। सोऽहम्―मैं वह ब्रह्म हूँ; यह अंतिम सिद्धांत है। विश्व में न तीन हैं, न दो हैं, केवल एक है, सब एक ही है। वही एक माया के कारण अनेक भासमान हो रहा है, जैसे रज्जु में सर्प। यह वही रज्जु है जो साँप भासमान हुआ था। दो पदार्थ नहीं हैं, रस्सी अलग और साँप अलग। कोई इन दोनों को एक साथ एक ही स्थान पर देखता है। द्वैत और अद्वैत अति सुंदर दार्शनिक शब्द हैं; [ ३०४ ]पर प्रत्यक्ष में हमें सत् और असत् एक ही समय दिखाई नहीं पड़ते। हम सब जन्म के अद्वेत हैं, हम करें तो क्या करें। हमें सदा एक ही देख पड़ता है। जब हम रज्जु देखते हैं तब हमें सर्प दिखाई ही नहीं पड़ता; और जब हम साँप को देखते हैं, तब रज्जु बिलकुल ही नहीं देख पड़ती; वह रह ही नहीं जाती। मान लीजिए कि आप अपने एक मित्र को देख रहे हैं जो सड़क पर आ रहा है। आप उसे अच्छे प्रकार पहचा- नते हैं। पर आप अपने सामने के अंधकार और कुहरे के कारण उसे दूसरा मनुष्य समझते हैं। जब आपको आपका मित्र कोई और दिखाई पड़ता है, तव आप अपने मित्र को नितांत नहीं देखते, वह लुप्त रहता है। आप एक ही को देखते हैं। मान लीजिए, देवदत्त आपका मित्र है। पर जब आपको देवदत्त यज्ञदत्त दिखाई पड़ता है, तब आप देवदत्त को नहीं देखते। प्रत्येक दशा में आपको देख पड़ता है एक ही। जब आप अपने को शरीर के रूप में देखते हैं, आप शरीर हैं; दूसरे कुछ नहीं हैं। मनुष्यों में विशेष लोग ऐसा ही देखते हैं। वे आत्मा, मन इत्यादि की बातें भले ही किया करें, पर वे देखेंगे स्थूल रूप ही से स्पर्श, रस, रूप इत्यादि। फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो चेतनता की किसी विशेष अवस्था में अपने को मन वा विचार के रूप में देखा करते हैं। आपको वह सर हम्फरी डेवी की बात स्मरण होगी जो अपने चेलों के सामने ‘हँसती गैस’ (Laughing gas) की परीक्षा कर रहे थे और अचानक एक [ ३०५ ]जली टूट गई और गैस निकलने लगी। कहीं साँस लेने से गैस उनके भीतर चली गई। उससे उन्हें थोड़ी देर के लिये देह को सुधि भूल गई और वही पदार्थ जो उन्हें स्थूल रूप मेंदे ख पड़ते थे, विचार वा मनोरूप में दिखाई पड़ने लगे। थोड़ी देर तक वे उसी दशा में पड़े रहे। फिर उन्होंने अपने शिष्यों से उस अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया कि उस दशा में हमें सारा विश्व विचार-संभूत देख पड़ता था। उस गैस के प्रभाव से हम थोड़े काल के लिये विदेह हो गए थे और जो हमें पहले शरीर से रूप में देख पड़ता था, उसी को हम विचार के रूप में देखने लगे थे। जब ज्ञान की दशा उससे भी अधिक उच्च हो जाती है, जब यह छोटे ज्ञान सदा के लिये जाते रहते हैं, तब उसका प्रकाश दिखाई पड़ता है जो इसके परे है। तब हमें सच्चिदानंद विश्वात्मा के दर्शन होते हैं और उस ब्रह्म का साक्षात् हो जाता है जो ज्ञानस्वरूप, आनंद-स्वरूप, अनुपम, अप्रमेय, नित्य शुद्ध बुद्ध, मुक्तखभाव, आकाशवत्, सर्वगत, अनंत और निर्विकार है। वह आपके अंतःकरण में, ध्यान में प्रकट होगा, साक्षात् दर्शन देगा।

अब यह सुनिए कि अद्वैत सिद्धांत से स्वर्ग नरकादि की बातों का जिन्हें भिन्न भिन्न धर्मवाले मानते हैं,समाधान क्या है। जब कोई मनुष्य मर जाता है, तब लोग कहा करते हैं कि वह स्वर्ग में जाता है, नरक में जाता है, यहाँ जाता है, वहाँ जाता है, मरकर पुनः जन्म लेता है, स्वर्ग में शरीर धारण करता है, दूसरे [ ३०६ ]लोक में उत्पन्न होता है, इत्यादि। यह सब भ्रम है, मिथ्या है। न स्वर्ग है न नरक है, न यह लोक है, न परलोक है; सब भ्रम है। इनकी कहीं सत्ता ही नहीं है, ये हैं ही नहीं। बच्चे से बहुत से भूतों की कहानियाँ कहिए, और उसे कहिए कि संध्या समय गली में जाओ। वहाँ एक ठूँठ है। वह बच्चे को देख पड़ेगा। उसे वही भूत के रूप में उसे पकड़ने के लिये हाथ पसारे हुए देख पड़ेगा। मान लीजिए कि गली की ओर से कोई कामी पुरुष अपनी प्रेमिका से मिलने के लिये आ रहा है। वही ठूँठ उसे स्त्री के रूप में भासित होगा। चौकीदार को वही ठूँठ चोर के रूप में भासमान होगा। चोर को वही चौकीदार देख पड़ेगा। पर वास्तव में है क्या? है तो ठूँठ ही न जो भिन्न रूपों में भास- मान हुआ? ठूँठ सत्य है; और शेष जो देख पड़े, मन के भिन्न भिन्न विकार थे जो भासमान हुए। एक ही सत्ता है, वही आत्मा, वही ब्रह्म; न कहीं कोई आता है न कहीं जाता है। जब कोई मनुष्य अज्ञानी होता है, तब वह स्वर्ग वा किसी और लोक के जाने की कामना रखता है और आजन्म उसकी भावना करता रहता है। जब वह मर जाता है, तब संसार के स्वप्न का अंत हो जाता है और उसे यही लोक स्वर्ग भासमान होता है। यहाँ उसे देवता देख पड़ते हैं, उड़ते हुए देवदूत वा फरिश्ते दिखाई पड़ते हैं। जैसी भावना होती है, वैसा ही उसे देख पड़ता है। यदि कोई मनुष्य आजन्म अपने पितरों को देखने की कामना रखता है तो उसे ब्रह्मा से लेकर उसके पिता [ ३०७ ]तक सब यहीं देख पड़ते हैं। कारण यह है कि उनका बनानेवाला वही है। यदि वह और भी अज्ञानी हो और भडरियों ने उसे नरक की बातों से डरा दिया हो और नाना प्रकार की यातनाओं का भय दिखला रखा हो तो मरने पर उसे यही लोक नरक देख पड़ेगा। जिसे जन्म लेना और मरना कहते हैं, वह है क्या? केवल स्वप्न के दृश्य का बदलना है। न तो आप हिलते हैं और न वह हिलता है जिस पर आप अपनी भावना का आरोप करते हैं। आप अचल निर्विकार हैं। आप आ जा कैसे सकते हैं? यह असंभव है कि आप सर्वव्यापक हों। आकाश अचल है। उसके ऊपर बादल आते जाते रहते हैं और हम समझते हैं कि आकाश चल रहा हैं। वैसे ही जब हम रेलगाड़ी पर सवार होते हैं तब हम समझते हैं कि किनारे के खेत चले जा रहे हैं। पर बात ऐसी नहीं होती; खेत नहीं चलते, किंतु चलती है रेलगाड़ी। आप जहाँ थे वही हैं। यह स्वप्न, यह बादल भागे जा रहे हैं। एक स्वप्न

दूसरे स्वप्न के पीछे आता रहता है जिनमें लगाव नहीं। इस संसार में नियम वा लगाव तो कुछ है ही नहीं, पर हम समझ रहे हैं कि इसमें बहुत अधिक संबंध है। आप लोगों ने Alice in Wonderland नामक पुस्तक पढ़ी होगी। वह बच्चों के लिये बड़ी ही अद्भुत पुस्तक है जो इस देश में लिखी गई है। मैं तो उसको पढ़कर फड़क उठा। मैं बहुत दिनों से बच्चों के लिये ऐसी पुस्तक लिखना चाहता था। जिस बात से मुझे [ ३०८ ]
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सबसे अधिक प्रसन्नता हुई, वह ऐसी थी कि जिसे आप अत्यंत असंबद्ध समझते हैं, अर्थात् जिसमें कोई लगाव वा संबद्ध न था। एक भाव आया और फिर उसके स्थान पर दूसरा उचकक आया; दोनों नितांत असंबद्ध, कुछ लगाव नहीं। जब आप बच्चे थे, आप ने उस संबंध को अद्भुत समझ रखा था। अतः लेखक ने अपने बचपन के विचारों का संग्रह कर दिया जो बचपन की दशा में उसके लिये नितांत संबद्ध थे; और यह पुस्तक बच्चों के लिये लिख दी। बाकी सारी पुस्तकें जो लोग इस विचार से लिख हैं कि बच्चों में वे अपने भावों को भर दें और वे मनुष्यों की भाँति उसे ग्रहण करे, व्यर्थ हैं। हम भी तो बड़े बच्चे ही हैं। संसार वैसा ही असंबद्ध वस्तु है। Alice in Wonder- land में किसी प्रकार का संबंध ही नहीं है। जब हम एक ही बात अनेक बार परंपरा विशेष के अनुसार होती हुए देखते हैं तो हम उसे कारण और कार्य्य का नाम देते हैं और कहने लगते हैं कि यही बात फिर होगी। जब यह स्वप्न जाता रहता है तब दूसरा स्वप्न आता है जो ठीक इसी की भाँति असं- बद्ध होता है। जब तक हम स्वप्न देखते रहते हैं तब तक उसकी बातें हमें संबद्ध देख पड़ती हैं। स्वप्न की अवस्था में हमें उसकी असंबद्धता का विचार भी नहीं होता; उसकी असंबद्धता जापाने पर ही प्रतीत होती है। जब हम संसार-रूपी स्वप्न से जागते हैं और इसे तथ्य के साथ तुलना करते हैं, तब यह हमें

नितांत असंबद्ध और मिथ्या जान पड़ता है। असंबद्धता की [ ३०९ ]
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गठरी हम नहीं जानते कहाँ से आ जाती है; पर इतना मात्र हम जानते हैं कि इसका अंत होगा। इसी का नाम माया है। यह आकाश में उड़ते हुए बादलों की धजियों का समूह है। उन्हीं के कारण यह विकारवान भासित हो रहा है और आप जो सूर्य्य हैं, निर्विकार हैं। जब आप उसी निर्विकार सत्ता को बाहर से देखते हैं, तब उसे ईश्वर कहते हैं और जब उसी को भीतर से देखते हैं तब उसको ‘मैं’ कहते हैं। पर वह है एक ही। आप से पृथक् कोई ईश्वर नहीं है न आप से ऊँचा कोई ईश्वर है। सब देवता आपके सामने तुच्छ हैं, ईश्वर का वा आकाश के पिता का सारा भाव आप ही की छाया तो है। ईश्वर स्वयं आप का प्रतिरूप है। ‘ईश्वर ने मनुष्य को अपने अनुरूप बनाया’ यह वाक्य मिथ्या है। सत्य यह है कि मनुष्य ने ईश्वर को अपने प्रतिरूप बनाया। सारे विश्व में हम ईश्वर को अपने प्रतिरूप पर बना रहे हैं। हम ही ईश्वर को बनाते, उसके पैरों पर पड़ते और उसकी पूजा करते हैं; और जब यह स्वप्न उदय होता है तब हम उससे प्रेम करते हैं।

यह समझने की बात है कि इस व्याख्यान का तत्व और निचोड़ यह है कि संसार में केवल एक ही सत्ता है; और उसी सत्ता को जब हम भिन्न भिन्न परिस्थितियों से होकर देखते हैं, तब वही पृथ्वी, स्वर्ग, नरक, ईश्वर, देवता, मनुष्य, भूत, प्रेत, राक्षस, संसार और अन्य सारे रूपों में भासित होती है। पर

इन बहुतों में 'वह' जो उस एक को इस मृत्यु-सागर में देखता [ ३१० ]
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है, जो उस एक जीवन को विश्व में तैरता हुआ देखता है, जो उसका साक्षात्कार करता है, जिसमें विकार नहीं, उसी के लिये शाश्वत सुख है, दूसरे के लिये नहीं। उसी एक को साक्षात् करना चाहिए। दूसरा प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि उसका साक्षात् कैसे किया जाय? यह स्वप्न टूटेगा कैसे? हम इस निद्रा से कि हम मनुष्य, स्त्री, पुरुष आदि हैं, जागें कैसे? हम विश्व की अनंत सत्ता हैं और क्षुद्र रूप धारण किए हुए हैं; किसी की मीठी वा कड़ुई बातों के वश में पड़कर पुरुष, स्त्री आदि बने हैं। कैसा भयानक राग है, कैसी भयानक दासता है! मैं जो मुख दुःख से अलग हूँ, जिसका प्रतिबिंब सारा विश्व है, जिसके प्रकाश के एक एक कण सूर्य्य, चंद्र और तारे हैं, वही मैं इस प्रकार दारुण दासता में पड़ा हूँ। आप मेरे शरीर में चुटकी काटते हैं तो मुझे पीड़ा होती है। आप मीठी बातें कहते हैं तो मैं प्रसन्न हो जाता हूँ। मेरी दशा तो देखिए-शरीर का दास बना हूँ, मन का दास बना हूँ, संसार का दास हूँ, अच्छे बुरे शब्दों का दास हूँ, इंद्रियों का दास, सुख का दास, जीवन मरण का दास, एक एक करके सबका दास हो रहा हूँ। इस दासत्व को तोड़ना चाहिए। पर वह टूटे कैसे? अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति का क्रम यह है ‘आत्मा वा अरे श्रोतव्य मन्तव्य निदध्यासितव्य’ सत्य को पहले सुनना चाहिए, फिर मनन करना चाहिए, फिर निदध्याँँसन

करना चाहिए। अहं ब्रह्म का निरंतर चिंतन करो, सब विचारों [ ३११ ]
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को विरोधी जानकर त्याग दो। उन सब विचारों को जो यह कहें कि आप स्त्री हैं पुरुष हैं, छोड़ दीजिए। शरीर को जाने दीजिए, मन को जाने दीजिए, देवताओं और राक्षसों को जाने दीजिए। सबको त्याग दीजिए और उसी ब्रह्म का अव- लंबन कीजिए। जहाँ एक दूसरे को सुनता है, एक दूसरे को देखता है, वहीं क्षुद्र है। जहाँ एक दूसरे की नहीं सुनता, एक दूसरे को नहीं देखता, वहीं ब्रह्म है। वहीं महान् है जहाँ द्रष्टा और दृग् एक हो जाते हैं। जब मैं ही श्रोता, मैं ही वक्ता, मैं ही उपदेष्टा, मैं ही उपदेश, मैं ही सृष्टि हूँ, तभी भय का नाश होता है। वहाँ दूसरा कोई है ही नहीं; भय किसका? वहाँ तो मैं ही अकेला हूँ। फिर भय किसका होगा? इसका नित्य श्रवण करना चाहिए। सब विचारों को छोड़ देना चादिए, सबको त्याग देना चाहिए। इसी का बार बार निरंतर जप करना चाहिए इसी को कानों ले सुनना चाहिए; यहाँ तक कि यह मन में पहुँच जाय, एक एक नाड़ी, एक एक नस में घुस जाय, रक्त को एक एक बूँँद में यही रंग भर जाय कि सोऽहम् सोऽहम्। यहाँ तक कि मृत्यु के द्वार पर भी मुँह से यही सोऽहम् का शब्द निकले। भारतवर्ष में एक संन्यासी था जो शिवोऽहम् कहा करता था। एक दिन उस पर एक बाघ टूटा और उसे घसीटकर उसने मार डाला। जब तक उसमें प्राण रहे, वह शिवोऽहं शिवोऽहं करता रहा। उसके मुँँह से शिवोऽहं का शब्द निकलता रहा। मृत्यु के द्वार पर

बड़े से बड़ा भय हो, घने से घना जंगल हो, आपके मुँह से सोऽहं [ ३१२ ]
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का शब्द निकलता रहे। दिन रात सोऽहं का शब्द जपा करो। यह कभी न कहो कि मैं हीन या पापी हूँ। आपकी सहायता कौन करेगा? आप संसार के सहायक हैं। विश्व में आपकी कौन सहायता कर सकता है? आपकी सहायता करने को मनुष्य, देवता और दैत्य कहाँ बैठे हैं? आप पर प्रभाव किसका पड़ सकता है? आप विश्व के देवता हैं, आप कहाँ सहायता माँग रहे हैं? कहीं और से कभी सहायता नहीं मिली है। जब मिली तब आपसे ही मिली। अज्ञान की दशा में आपने प्रार्थना की और वह सुनी गई। आपने समझा कि किसी और ने सुना; पर आपने आप ही अपनी प्रार्थना को अज्ञात रूप में सुना। सहायता आप ही के भीतर से मिली और आपने अज्ञानवश समझ लिया कि किसी और ने सहायता की। आपके बाहर कहीं सहायता नहीं, आप विश्व के स्रष्टा हैं। रेशम के कीड़े की भाँति आपने अपने को आवृत्त कर रखा है। आपको बचा कौन सकता है? अपना आवरण काट डालिए और जैसे कुसियारी का कीड़ा कुसियारी को काटकर तितली बनकर बाहर निकल आता है, बाहर आ जाइए, मुक्त हो जाइए। तभी आपको सत्य दिखाई पड़ेगा। सदा आप सोऽहं सोऽहं कहा कीजिए। यह वह शब्द है जिससे आपके अंतःकरण के मल का नाश हो जायगा। यही शब्द है जिससे वह शक्ति जो आपके भीतर प्रसुप्त दशा में पड़ी है, जाग उठेगी। यह शक्ति

केवल निरंतर सत्य को सुनने से ही बाहर लाई जा सकती [ ३१३ ]
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है। उसको प्रकट करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। जहाँ कहीं निर्बलता के विचार मिलें, वहाँ पाँव न रखो। यदि ज्ञानी होना चाहते हो तो सब प्रकार की निर्बलता त्याग दो।

अभ्यास आरंभ करने के पहले अपने मन को सारी शंकाओं से साफ कर लो। वादविवाद, तर्क और युक्ति को त्याग दो और जब अपने मन में यह निश्चय कर लो कि यही सत्य है दूसरा नहीं, तब विशेष तर्क न करो, अपना मुँह बंद कर लो। न तर्क-वितर्क करो न उसे सुनो। अधिक तर्क से काम क्या? तुम ने निश्चय कर लिया है, अपने प्रश्न का समा- धान कर लिया है। फिर रह क्या गया? अब तो केवल सत्य का साक्षात् कहना रह गया है। व्यर्थ तर्क में समय क्यों खोते हो? अब तो सत्य का निदध्यासन करना है। सारे विचार जो आपके पोषक हों, उन्हें ग्रहण कीजिए और जो विरोधी हों, उन्हें त्याग दीजिए। भक्त मूर्तियों, प्रतीक और ईश्वर का ध्यान करते हैं। यह सहज मार्ग है, पर धीमा है। योगी शरीर के भिन्न भिन्न चक्रों का ध्यान करता है और अपने मन में शक्तियों का संपादन करता है। ज्ञानी कहता है कि मन तो है ही नहीं, और न शरीर ही है। शरीर और मन के इस भाव को जाने देना चाहिए, निकाल देना चाहिए। वह सबका निषेध करता है; और जो बच रहता है, वही आत्मा है। यही विश्लेषण का ढंग

है। ज्ञानी चाहता है कि विश्व को विश्लेषण द्वारा आत्मा से [ ३१४ ]
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अलग कर दे। यह कहना सहज है कि मैं ज्ञानी हूँ, पर ज्ञान होना बहुत कठिन काम है। वेद में कहा है कि मार्ग दुर्गम है, छुरे की धार पर चलना है। निराश मत हो; जागो, उठो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो, विश्राम मत करो।

अतः ज्ञानी का निदध्यासन क्या है? वह शरीर और मन के प्रत्येक विचार से ऊपर जाना चाहता है; वह इस भाव को निकाल देना चाहता है कि मैं शरीर हूँ। क्योंकि जब मैं यह कहता हूँ कि ‘मैं स्वामी हूँ’ तब शरीर के भाव का उदय हो जाता है। फिर मुझे करना क्या चाहिए? मुझे मन को एक ठोकर देनी चाहिए और कहना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ। राग आवे वा मृत्यु ही घोर रूप धारण कर क्यों न आवे, इसकी चिंता किसे है? मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर को साफ सुथरा क्यों करते हो? क्या फिर और भ्रम में पड़ने के लिये? दासत्व में पड़े रहने के लिये? इसे त्यागो। मैं शरीर नहीं हूँ। ज्ञानी का मार्ग यही है। भक्त कहता है कि भगवान् ने मुझे शरीर दिया है; मैं शांति-पूर्वक भवसागर से पार हो जाऊँगा; मुझे इससे प्रेम करना चाहिए जब तक इसे पार न कर जाऊँ। योगी कहता है कि मुझे शरीर का संयम करना चाहिए कि मैं शांति- पूर्वक रहूँ और अंत को मोक्ष प्राप्त करूँ। ज्ञानी कहता है कि मैं रुकूँगा नहीं; अभी इसी क्षण अपने लक्ष्य पर पहुँचूँगा। वह कहता है कि मैं सदी से मुक्त हूँ; कभी बद्ध नहीं हूँ; मैं सदा

से इस विश्व का अधीश्वर हूँ। मुझे प्राप्त कौन बनावेगा? [ ३१५ ]
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मुझे पूर्ण कौन करेगा? मैं तो स्वयं प्राप्त हूँ, पूर्ण हूँ। जब मुझे अपूर्णता दिखाई पड़ती है, तब मेरे ही मन के अध्यारोप से। उसको अपूर्णता कहाँ दिखाई पड़ सकती है, यदि उसके भीतर अपूर्णता न हो? ज्ञानी पूर्णता और अपूर्णता की चिंता नहीं करता। उसके लिये यह कुछ भी नहीं है। मुक्त होते ही उसे पाप पुण्य कुछ नहीं देख पड़ते। भला बुरा रह नहीं जाता। भला बुरा देखता कौन है? वही न जिसके भीतर होता है? शरीर को कौन देखता है? वही न जो यह समझता है कि मैं शरीर हूँ? जिस क्षण आप से यह भाव कि मैं शरीर हूँ, छूट जायगा आपको संसार देख ही न पड़ेगा। यह सदा के लिये नष्ट हो जायगा, मिट जायगा। ज्ञानी अपने को आध्यात्मिक विश्वास वा प्रताति के बल से प्रकृति के बंधन से अलग कर लेना चाहता है। यही निषेधात्मक मार्ग है जिसे “नेति नेति” कहते हैं।



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