विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/३२ मुक्त आत्मा

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(३२) मुक्त आत्मा।

सांख्य दर्शन द्वैत सत्ता, प्रकृति और पुरुष तक आकर रुक जाता है और आगे नहीं बढ़ सकता। पुरुष की संख्या अनंत मानी गई है। वे असंग वा शुद्ध हैं; उनका नाश नहीं हो सकता और इसी लिये वे प्रकृति से भिन्न हैं। प्रकृति परिणाम को प्राप्त होती हुई समस्त गोचर पदार्थों को अभिव्यक्त करती है। सांख्य के मतानुसार पुरुष अक्रिय है। वह स्वरूप से शुद्ध है और पुरुष के मोक्ष के हेतु प्रकृति सारी सृष्टि को उत्पन्न करती है। पुरुष

को प्रकृति से विलग जानने से मोक्ष प्राप्त होता है। यह भी [ २८२ ]
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हम देख चुके हैं कि सांख्य शास्त्र यह मानने पर विवश हुआ है कि पुरुष विभु वा सर्वगत है। शुद्ध वा केवल होकर पुरुष परिच्छिन्न नहीं हो सकता। कारण परिच्छेद तो देश-काल वा परिणाम के कारण होता है। परिच्छिन्न होने के लिये वा परि- च्छेद के लिये देश में होने की अर्थात् शरीर की आवश्यकता है; और शरीर प्रकृति ही में है। यदि पुरुष के रूप है तो वह प्रकृति है; इसी लिये पुरुष अरूप है। और जो अरूप है, उसे यह नहीं कह सकते कि यहाँ है, वहाँ है, वा कहीं और है। वह अवश्य विभु वा सर्वव्यापक होगा। इसके आगे सांख्य दर्शन की पहुँच नहीं।

वेदांत दर्शन की इस पर पहली आपत्ति यह है कि यह निश्चय ठीक नहीं है। यदि प्रकृति असंग वा शुद्ध हो और पुरुष भी शुद्ध हों तो दो शुद्ध पदार्थ ठहरेंगे; और वह सारी युक्ति जिससे पुरुष का विभुत्व सिद्ध किया जाता है, प्रकृति के विभुत्व पर प्रयुक्त होगी; और प्रकृति भी देशकाल और परिणाम से परे ठहरेगी; और फिर कोई विकार वा अभिव्यक्ति न हो सकेगी। फिर एक और कठिनाई पड़ेगी कि दो शुद्ध पदार्थ ठह- रेंगे; और यह असंभव है। इस पर वेदांत का समाधान क्या है? वेदांत कहता है कि सांख्यशास्त्र का यह कथन है कि प्रकृति और स्थूल भूतों से महत् तक उसके सब विकार जड़ हैं। उनके परे एक चेतन पदार्थ की आवश्यकता है जो मन को विचार में और प्रकृति को काम करने के लिये प्रेरित करता है। इसमें वह

चेतन सत्ता है जो विश्व से परे है; उसी को हम ब्रह्म कहते हैं और [ २८३ ]
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इसी लिये ब्रह्म से जगत भिन्न नहीं है। वही विश्व रूप बन गया है। वह विश्व का न केवल निमित्त कारण है, अपितु उपादान कारण भी है। कारण से कार्य्य भिन्न नहीं है, अपितु कारण का ही रूपांतर कार्य्य है। यह हमें नित्य का अनुभव है। अतः यही सत्ता प्रकृति का भी कारण है। वेदांत के सारे संप्र- दायों और मतों को, चाहे द्वैत हो, विशिष्टाद्वैत हो वा अद्वैत हो, पहले यह मानना पड़ता है कि ब्रह्म विश्व का न केवल निमित्त कारण, अपितु प्रधान कारण है और जो कुछ है, सब वही है। वेदांत की दूसरी बात यह है कि सारी आत्माएँ ब्रह्म के अंश हैं, अप्रमेय अग्नि की चिनगारी हैं। जैसे अग्नि से सहस्रों चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही उस पुराण पुरुष से आत्माएँ निकली हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर क्या इतने पर संतोष होता है? अनंत के अंश से अभिप्राय क्या है? अनंत अविभाज्य है; अनंत के अंश नहीं हो सकते। अनंत का विभाग कहाँ? इसका अर्थ क्या है कि यह सब उसकी चिनगारियाँ हैं? इसका समाधान अद्वैतवादी वेदांती इस प्रकार करते हैं कि प्रत्येक आत्मा ब्रह्म का अंश नहीं, अपितु स्वयं ही ब्रह्म है। फिर अनेक क्यों हैं? सूर्य्य का प्रतिबिंब सहस्रों घड़ों में पड़ता है। वह तदनुसार ही प्रत्येक घड़े में दिखाई पड़ता है। पर इतने से क्या सूर्य्य सहस्रों हो जाता है? वे सब हैं तो प्रतिबिंब ही। सूर्य्य तो एक ही बना रहता है। यही दशा आत्माओं की है। वे

प्रतिबिंब मात्र हैं, सत् नहीं हैं। ‘मैं’ यह विश्व का ईश्वर, [ २८४ ]
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विश्व में एक पूर्ण सत्ता है। और ये सब प्राणीमात्र मनुष्य, पशु, कीट, पतंगादि सब प्रतिबिंब मात्र हैं, सत् नहीं हैं। वह केवल प्रकृति के ऊपर मिथ्या आभास मात्र हैं। विश्व केवल एक ही ब्रह्म है। वही 'मैं' 'तुम' आदि के रूप में भासमान हो रहा है। पर यह भिन्न भिन्न भासमान होना अंत को भ्रम मात्र है। उसका विभाग नहीं हुआ, पर विभाग केवल भासमान हो रहा है। यह भेद इस कारण है कि हम उसे देशकाल और परिणाम के जाल की आड़ से देखते हैं। जब मैं ब्रह्म को देशकाल और परिणाम के जाल से देखता हूँ, तब वह मुझे भौतिक जगत् भासमान होता है। जब मैं कुछ और ऊँचे स्थान से उसी जाल द्वारा देखता हूँ, तब वह मुझे पशु के रूप में देख पड़ता है। और ऊँचे से देखने पर मनुष्य, और और ऊँचे से देवता है। वह विश्व में एक ही पूर्ण सत्ता है और वह सत्ता हम ही हैं। मैं वही हूँ, आप वही हैं। उसके अंश नहीं, पूर्ण हैं। वह शाश्वत ज्ञाता है जो इस गोचर जगत् की आड़ में है; वह गोचर है। वही द्रष्टा है, वही द्दग्:वही मैं हूँ, वही आप हैं। पर यह है कैसे? ज्ञाता को जानें कैसे? ज्ञाता अपने को नहीं जान सकता। मैं सबको देखता हूँ, पर अपने आपको नहीं देखता। वही आत्मा, वही ज्ञाता, सबका अधीश्वर, सत्पुरुष ही विश्व के सारे आभास का कारण है। पर यह असंभव है कि वह अपने को देख सके, अपने को जान, सके, सिवा इसके कि अपना प्रतिबिंब देखे। आपको अपना मुँह

बिना दर्पण के नहीं दिखाई देता। इसी प्रकार आत्मा को अपना [ २८५ ]
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स्वरूप बिना प्रतिबिंब के दिखाई नहीं पड़ सकता। अतः यह सारा विश्व ब्रह्म ही है जो अपने को जानने का प्रयत्न कर रहा है। यह प्रतिबिंब पहले प्रोटोल्पाज्म वा ऐकेंद्रिय जंतु के ऊपर प्रतिबिंबित होता है; फिर वनस्पति पर, फिर कीट-पतंग, पशु- पक्षी आदि प्राणियों पर; और जैसा जैसा आदर्श मिलता है, वैसा वैसा प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है; और अंत को उसका सर्वो- त्कृष्ट आदर्श प्राप्त पुरुष होता है। जैसे अपना रूप देखनेवाला मनुष्य पहले मैले पानी में अपना प्रतिबिंब देखता है तो उसे केवल आकार देख पड़ता है। फिर वह शुद्ध निर्मल जलाशय के पास जाता है। वहाँ उससे अधिक स्पष्ट प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। फिर वह चमकीले धातु की चद्दर पर देखता है। वहाँ और साफ देख पड़ता है; और अंत को वह दर्पण हाथ में लेता है और उसमें अपने यथार्थ रूप को देखता है; तब उसे अपने रूप का बोध होता है। अतः प्राप्तपुरुष ब्रह्म का सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिंब है जो स्वयं द्रष्टा और स्वयं दृग् है। अब आपकी समझ में आ गया कि क्यों मनुष्य स्वभाव से ही सबकी उपासना करता है। प्राप्तपुरुषों की उपासना स्वभाव से ही सब देशों में ईश्वरवत् क्यों होती है? आप जैसा चाहें, कहें; वे उपासना करने योग्य हैं, उनकी उपासना होगी। यही कारण है कि मनुष्य अवतारों की उपासना करते हैं। ईसा की उपासना होती है, भगवान् बुद्धदेव की पूजा होती है। वे लोग ब्रह्म की पूर्ण अभिव्यक्तियाँ

हैं। वे ईश्वर की उन सब कल्पनाओं से जो आप और हम कर [ २८६ ]
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सकते हैं, कहीं ऊँचे हैं। ऐसी कल्पनाओं से प्राप्तपुरुष ही उत्तम है। उसी में परिधि पूरी होती है, द्रष्टा और दृग् एक हो जाते हैं। उसी में सारे भ्रमों का अंत है और उसके स्थान में इस ज्ञान का उदय होता है कि ‘मैं सदा पूर्ण ब्रह्म था’। फिर यह बंधन कहाँ से आया? भला यह संभव कैसे है कि यह पूर्ण ब्रह्म विकारी होकर अपूर्ण बन जाय? यह हो कैसे सकता है कि मुक्त बद्ध हो जाय? अद्वैतवाद का कथन है वह कभी बद्ध नहीं था, सदा मुक्त था। आकाश में नाना वर्ण के बादल दिखाई पड़ते हैं। वे क्षणमात्र रहते और फिर तीन तेरह हो जाते हैं। आकाश ज्यों का त्यों शुभ्र नीलवर्ण बना रहता है। आकाश में विकार नहीं होता, बादल में विकार भले ही होता रहे। इसी प्रकार आप सदा पूर्ण हैं, नित्य पूर्ण हैं। आपके स्वरूप को न कोई बदलता है न बदलेगा। यह सारे भाव कि मैं अपूर्ण हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, पापी हूँ, मन हूँ, बुद्धि हूँ, मैंने सोचा, मैं विचारूँगा, इत्यादि सब मृगतृष्णावत् हैं। आप कभी सोचते नहीं, कभी आपके शरीर नहीं था, आप कभी अपूर्ण नहीं थे। आप इस विश्व के आनंदमय अधिपति हैं―सब भूत और भविष्य के एकमात्र शासक, सर्वशक्तिमान, सूर्य्य, चंद्र, तारा, ग्रहोपग्रह, पृथिवी, समस्त जगत् के एकमात्र शासक। आपके ही कारण सूर्य्य में प्रकाश है, आप ही तारों को चमकाते हैं, आप ही से पृथ्वो सुंदर देख पड़ती है। यह आपकी महिमा है कि

सब परस्पर प्रेम करते और आकृष्ट हो रहे हैं। आप सब में [ २८७ ]
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हैं और आप ही सब हैं। किसे त्यागिएगा, किसे ग्रहण कीजि- एगा। आप ही तो सब कुछ हैं। जब यह ज्ञान आता है तब भ्रम दूर भाग जाता है।

मैं एक बार भारतवर्ष की मरुभूमि में गया। वहाँ महीना भर चलता रहा और मुझै नित्य सामने सुंदर जलाशय आदि का दृश्य दिखाई पड़ता रहा। एक दिन मुझे प्यास लगी। मैं पानी के लिये ऐसे ही एक सरोवर की ओर चला। पर मेरा पास पहुँचना था कि सरोवर का कहीं पता नहीं। उस समय मुझे ध्यान हुआ कि यह तो वही मृग-जल है जिसे मैं जन्म भर पढ़ता रहा हूँ।मैं अपनी मूर्खता का स्मरण कर हँसने लगा कि मैं महीने भर इन जलाशयों के मनोहर दृश्य को देखता रहा और जान न सका कि यह है क्या। दूसरे दिन मैं फिर चला और, फिर वही दृश्य सामने आया; पर साथ यह विचार भी उत्पन्न हुश्रा कि यह मृग-जल है। ज्ञान उत्पन्न हुआ कि वह भ्रम जाता रहा। इसी प्रकार विश्व का भी भ्रम एक न एक दिन छूट ही जायगा। सब लुप्त हो जायगा और जाता रहेगा। यही साक्षा- त्कार है। दर्शन हँसी की बात नहीं है और न कहने सुनने की चीज है। यह साक्षात् करने की चीज है। शरीर न रह जायगा, पृथ्वी और सारे पदार्थ जाते रहेंगे, यह भाव कि मैं शरीर वा मन हूँ, कभी न कभी छूट जायगा, जाता रहेगा; वा यदि कर्म का शेष हो गया, तब तो इनका क्षय हो जायगा और ये फिर आने के

नहीं। पर यदि कुछ भी कर्म रह गया―जैसे कुम्हार का चाक [ २८८ ]
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वर्तन बनने पर भी फिरता हो रहता है―तो यह शरीर यात्रा- भ्रम नष्ट होने पर कुछ काल तक बना रहेगा। फिर तो यह संसार पुरुष, स्त्री, पशु आदि सब वैसे ही देख पड़ेंगे जैसे मुझे दूसरे दिन मृग-जल देख पड़ा। पर उनका वह भ्रम बना रहेगा। साथ ही उसके यह विचार उत्पन्न होगा कि मैं इनके स्वरूप को जानता हूँ, यह बंधन के कारण फिर न होंगे, न फिर दुःख-मोह- शोक होगा। जब कोई दुःख आ ही जायगा, तब मन चट कह देगा कि मैं जानता हूँ कि तुम सब मृगजल के समान हो। जब मनुष्य इस अवस्था को पहुँच जाता है, तब उसे जीवन्मुक्त कहते हैं। ज्ञानयोगी का लक्ष्य इस जन्म में जीवन्मुक्ति का लाभ है। जीवन्मुक्त वही है जो इस संसार में अनासक्त होकर रहे। वह पद्म पत्र के समान है जो पानी में तो रहता है, पर जिस पर पानी ठहरता नहीं। वही सब मनुष्यों में, नहीं नहीं सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। उसने ब्रह्म से अपनी एकता जान ली है, उसने साक्षात् कर लिया है कि मैं और ब्रह्म एक ही हैं। जब आप यह सम- झते रहेंगे कि आपमें और ईश्वर में अणु मात्र का अंतर है, तभी आपको भय है। पर जब आपको यह ज्ञान हो जाय कि आप वही हैं, कोई भेद नहीं, कुछ अंतर नहीं, आप वही हैं, सब वही हैं, केवल वही, तो फिर भय कहाँ? वहाँ कौन किसे देखे? कौन किसे पूजे? कौन किससे बोले? कौन किसकी सुने? जहाँ एक दूसरे को देखता है, एक दूसरे से बोलता है, एक दूसरे की

सुनता है, वहीं लघुता है। जहाँ न कोई किसी को देखता है, [ २८९ ]
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न कोई किसी से कहता है, न कोई, किसी की सुनता है, वहीं बड़ाई है, वहीं महत् है, वहीं ब्रह्म है। वह होकर आप सदा वही रहेंगे। फिर संसार का क्या होगा? संसार की हमसे भलाई क्या होगी? ऐसे प्रश्न फिर उठेंगे ही नहीं। बच्चा कहता है कि मेरी जलेबी किस काम आवेगी? लड़का कहता है, मैं बड़ा हो जाऊँगा तो मेरे खिलौने क्या होंगे? मैं तो बड़ा न होऊँगा। लड़की कहती है, मैं बड़ी होऊँगी तो मेरी गुड़िया क्या होगी? ऐसे ही संसार के विषय के प्रश्न भी हैं। न यह कभी था, न है और न होगा। यदि हमें आत्मा के स्वरूप का बोध हो जाय, यदि हम यह जान जायँ कि सचमुच संसार कुछ नहीं है, तो यह संसार अपनी बुराई भलाई सुख दुःख के लिये हमे विचलित नहीं कर सकेगा। यदि वह है ही नहीं तो फिर हमें किसके लिये और किस बात की चिंता है? यही ज्ञानयोग का उपदेश है। अतः मुक्त होने का साहस करो। जहाँ तुम्हारी बुद्धि ले जा सके, जाओ और इसी जन्म में उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो। ज्ञान का प्राप्त होना बहुत कठिन है। यह बड़े वीर, बड़े साहसी का काम है कि सारे खिलौनों को चूर चूर करके फेंक दे और केवल मन से नहीं, अपितु कर्म से भी कर दिखावे। शरीर मैं नहीं हूँ, यह जाय। इसी से तो सारे तमाशे हैं। एक मनुष्य आकर पूछेगा कि अच्छा मैं शरीर न सही, पर मेरी शिरोवेदना अच्छी हो जाय। पर यह तो बताइए कि शिरोवेदना है कहाँ? शरीर ही में न है? सहस्त्रों शिरोवेदनाएँ, सहस्त्रों शरीर

१९ [ २९० ]आवें और जायँ। इससे मुझे क्या? मेरे तो जन्म है न मरण, न मेरे कभी पिता माता थे, न मेरा कोई शत्रु मित्र है; क्योंकि मैं ही तो सब कुछ हूँ, मैं ही अपना मित्र, मैं ही अपना शत्रु हूँ, मैं ही सच्चिदानंद हूँ, मैं वही हूँ। यदि मुझे हजार शरीर में ज्वर आदि से कष्ट है तो करोड़ों शरीर में भी मैं नीरोग हूँ। यदि हजार शरीर में भूखों मरता हूँ तो हजारों शरीर से खिलाता भी हूँ। यदि सहस्र देह में दुःखी हूँ, तो सहस्र देह में सुखी भी हूँ। कौन किसकी निंदा करेगा, कौन किसकी प्रशंसा? किसे ग्रहण करें, किसे त्यागें? मुझे न किसी से राग है न द्वेष। मैं स्वयं समस्त विश्व हूँ। मैं अपनी निंदा आप करता हूँ। अपनी प्रशंसा भी आप ही करता हूँ। मैं अपने आप दुःखी और अपने आप सुखी बनता हूँ। मैं मुक्त हूँ। ऐसा ही पुरुष ज्ञानी, वीर और साहसी है। सारे विश्व को नष्ट होने दो। वह हँसेगा और कहेगा कि यह तो कभी था ही नहीं। यह सब मृगतृष्णा का जाल था; हम तो विश्व को शून्य देखते हैं। वह था कहाँ? वह गया कहाँ?

आभ्यासिक अंश तक पहुँचने के पहले हम एक और विचार-योग्य प्रश्न उठाते हैं। यहाँ तक तो युक्ति बड़ी प्रबल है। यदि कोई तर्क करे तो बिना उसे यह माने ठहरने का स्थान नहीं है कि यहाँ केवल एक ही सत्ता है और सारे पदार्थ जो हैं, कुछ हैं ही नहीं। युक्ति प्रमाण माननेवाले मनुष्य के लिये इसको छोड़ कोई मार्ग नहीं है। पर इसका कारण क्या है कि वह [ २९१ ]नित्य पूर्ण, नित्य सच्चिदानंद ब्रह्म इस भ्रम वा माया में पड़ा? यह वही प्रश्न है जो संसार भर में पूछा जा चुका है। गँवारू बोली में यही प्रश्न इन शब्दों में होता है कि संसार में पाप कैसे आ घुसा? भेद इतना ही है कि यह गँवारू और स्वार्थ लिए हुए है और वह दार्शनिक है; पर दोनों का उत्तर एक ही है। यही प्रश्न भिन्न रूप में और ढंग से पूछा जा चुका है; पर निकृष्ट रूप में इसका कोई समाधान नहीं होता। कारण यह है कि सेब और साँप और स्त्री की कहानियों से इसका समाधान नहीं होता। उस दशा में जैसा यह बच्चों का सा प्रश्न है, वैसा ही उसका उत्तर भी है। पर अब उसी प्रश्न ने उत्तम रूप धारण कर लिया है। ‘यह माया वा भ्रम कहाँ से आया?’ इसका उत्तर भी वैसा ही सूक्ष्म है कि असंभव प्रश्न के उत्तर की आशा करना व्यर्थ है। यह प्रश्न ही पदशः असंभव है। आपको यह प्रश्न करने का अधिकार नहीं है। क्यों? पूर्णता है क्या? जो देश-काल और परिणाम से बाहर हो, वही पूर्ण है। फिर आप कहेंगे कि अच्छा तो पूर्ण वा अखंड अपूर्ण कैसे हो गया? न्याय के शब्दों में यही प्रश्न इस प्रकार होगा कि जो निर्विकार है, वह विकारी कैसे हुआ? यह बद- तोव्याघात दोष है। पहले तो आप उसे निर्विकार मानते हैं, फिर पूछते हैं कि विकारी कैसे हुआ? यह प्रश्न तो विकार को मानने पर ही हो सकता है। जहाँ तक देश-काल और परिणाम

की व्याप्ति है, वहीं तक यह प्रश्न हो सकता है। पर उसके [ २९२ ]
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बाहर ऐसा प्रश्न करना मूर्खता की बात है। वहाँ वही प्रश्न असंगत ठहरेगा। देश-काल और परिणाम के भीतर इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। जो उत्तर इसके परे के विचार से दिया जा सकता है, वह तभी दिया जा सकता है जब हम उस दशा को प्राप्त हों। अतः समझदार तो इस प्रश्न को यहीं छोड़ देते हैं। जब कोई रोगग्रस्त होता है, तब वह अपने रोग के मिटाने की चिंता में लगता है। वह इस पर हठ नहीं करता कि पहले मुझे यह बतला दो कि मुझे रोग कैसे हुआ।

उसी प्रश्न का एक और रूप है। वह है तो कुछ नीचा, पर अधिक आभ्यासिक और स्पष्ट है। यह भ्रम उत्पन्न किससे हुआ? क्या किसी यथार्थता से भ्रम उत्पन्न हो सकता है? कभी नहीं। हम देखते हैं कि एक भ्रम से दूसरा भ्रम उत्पन्न होता रहता है। भ्रम ही भ्रम को उत्पन्न करता है। जब कार्य्य भ्रम है, तब उसका कारण भी भ्रम होगा। प्रश्न यह होता है कि यह भ्रम उत्पन्न किससे हुआ? उत्तर है, दूसरे भ्रम से। इसी प्रकार अनादि तक चला गया है। अब प्रश्न यह हो सकता है कि क्या इससे अद्वैत मत में दोष नहीं आता? आप दो सत्ताएँ स्वीकार करते हैं, एक अपनी और दूसरी भ्रम की। उत्तर यह है कि भ्रम को सत्ता नहीं कह सकते। आप अपने जीवन में सहस्रों स्वप्न देखते हैं, पर वे आपके जीवन के अंश नहीं बन सकते। स्वप्न आते और जाते हैं; उनकी कोई सत्ता नहीं। भ्रम को सत्ता कहना हेत्वाभास है। इसलिये इस विश्व में केवल [ २९३ ]एक सत्ता है जो नित्य मुक्त, नित्यानंद है और वह वही है जो आप हैं। यही अद्वैत का अंतिम सिद्धांत है।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि फिर नाना प्रकार की उपासनाओं से लोभ क्या है? उत्तर है कि वह सब अँधेरे में प्रकाश ढूँढ़ने के समान है; इसी ढूँढ़ने से प्रकाश मिलेगा। हम कह चुके हैं कि आत्मा अपने को नहीं देख सकता। हमारा ज्ञान माया के जाल के भीतर है और उसके बाहर मुक्ति है; जाल के भीतर दासत्व ही बंधन है। उसके बाहर बंधन नहीं। जहाँ तक विश्व से संबंध है, सत्ता बंधन के अधिकार में है, वा बद्ध है; उससे परे मुक्ति है। जब तक आप देश-काल और परिणाम के जाल में पड़े हैं, आपका यह कहना कि हम मुक्त हैं, नितांत अनर्गल है। जब वह अनंत सत्ता माया के जाल में आबद्ध सी हो जाती है, तब वह इच्छा का रूप धारण कर लेती है। इच्छा उसी सत्ता का एक अंश है जो माया के जाल में पड़ी है और ‘स्वतंत्र इच्छा‘ उसकी अचरितार्थ संज्ञा है। इसका कुछ अर्थ नहीं, यह नितांत निरर्थक है। ऐसे ही मुक्ति के संबंध की यह सब बातें हैं। माया में मुक्ति कहाँ।

हममें से प्रत्येक मनुष्य मन, वाणी, कर्म तथा विचार में इस प्रकार बद्ध है जैसे पत्थर का कोई खंड वा यह मेज। मेरा आपसे बातें करना वैसे ही परिणाम के नियम में है जैसे आपका मेरी बातें सुनना। जब तक आप माया के बाहर न जायँ, मुक्ति नहीं है। यही आत्मा की सच्ची मुक्ति है। मनुष्य [ २९४ ]चाहे जितना तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि क्यों न हो, चाहे जितना इस युक्ति के बल को क्यों न समझता हो कि कोई मुक्त नहीं हो सकता, पर वह यह विचारने को विवश होता है कि मैं मुक्त हूँ। वह रुक नहीं सकता। कोई काम नहीं हो सकता जब तक हम यह कहना नहीं आरंभ करते कि हम मुक्त हैं। इसका आशय यह है कि मुक्ति जिसका हम वर्णन करते हैं, आकाश की वह झलक है जो बादलों से छनकर आती है; और वही स्वच्छ नील आकाश है जो इसके परे है। इस भाव में विशुद्ध मुक्ति कहाँ। इस मृग-जल, इस मिथ्या जगत् में, इस इंद्रियों के संसार में, शरीर और मन में मुक्ति रह ही नहीं सकती। यह सब स्वप्न है जिसका न आदि है, न अंत; अनिरुद्ध और आनिरोध्य जो हमारे इस विश्व के विचार से बुरा, छिन्न भिन्न और विषम है। स्वप्न में जब आप बीस सिरवाले राक्षस को देखते हैं कि आपके पीछे दौड़ रहा है और आप भाग रहे हैं, तब आप उसे संसार-दृष्ट्या अयुक्त नहीं समझते, ठीक ही समझते हैं। नियम ऐसा ही है। जिसे आप नियम कहते हैं, वह यदृच्छा है; उसका कुछ अर्थ नहीं है। उस स्वप्न-दशा में आप से नियम कहते हैं। माया में जब तक यह देश-काल और परि- णाम का नियम है, तब तक मुक्ति नहीं। यह सब भाँति भाँति की पूजा-प्रतिष्ठा इसी माया के अंतर्गत है। ईश्वर की भाव हो वा मनुष्य का भाव वा पशु का भाव, सब इसी माया में है। इस प्रकार सब व्यामोह मात्रा है, सब स्वप्न है। पर [ २९५ ]स्मरण रखिए, आप उन अद्भुत मनुष्यों की भाँति कभी तर्क न कीजिएगा जो आजकल तर्क किया करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर का विचार ही भ्रम है और संसार का विचार सत्य है। दोनों विचारों का एक ही तर्क वा युक्ति से समर्थन और खंडन हो सकता है। वही सच्चा नास्तिक हो सकता है जो इस लोक और परलोक दोनों को न माने। वही युक्ति दोनों के लिये हो सकती है। वही भ्रम ईश्वर से लेकर छोटे जंतु तक में हो सकता है और घास के गुच्छे से लेकर जगत्कर्ता तक में व्याप्त है। एक ही तर्क से उनका समर्थन और खंडन होता है। उसी मनुष्य को जिसे ईश्वर के विचार का मिथ्यात्व देख पड़ता है, अपने शरीर और अपने मन का मिथ्यात्व भी देख पड़ना चाहिए। जब ईश्वर विलीन होता है, तब शरीर और मन भी विलीन हो जाते हैं; और जब दोनों का विनाश हो गया तब वही रह जायगा जो वास्तविक सत्ता है। वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न मन। हम उसे न देख सकते हैं, न जान सकते हैं। हम तो यह समझते हैं कि जहाँ तक वाणी, मन, ज्ञान और बुद्धि को पहुँच है, सब माया ही के अंतर्गत हैं, माया के बंधन में हैं। सत्य इससे परे है। वहाँ न बुद्धि पहुँच सकती है, न मन, न वाणी पहुँचती है।

ज्ञान-दृष्ट्या यहाँ तक तो ठीक है, पर अभ्यास की बात और है। सच्चा काम अभ्यास का है। क्या इस अद्वैत के साक्षात्कार के लिये किसी प्रकार के कर्म की आवश्यकता है? अवश्य है। [ २९६ ]यह नहीं है कि आप ब्रह्म बन जाते हैं। आप सचमुच वही हैं। यह नहीं कि आप पूर्ण ब्रह्म बन रहे हैं; आप पूर्ण ब्रह्म ही हैं। और जब आप यह समझते हैं कि आप नहीं है, तभी भ्रम हैं। यह भ्रम कि आप अमुक वा अमुकी हैं, किसी और भ्रम से चला जायगा। यही अभ्यास है। आग भाग को खायगी; (तब तो) आप एक भ्रम को दूसरे भ्रम से मिटा सकते हैं। एक बादल आवेगा, दूसरे को ठेल देगा; फिर दोनों चले जायँगे। फिर यह अभ्यास ही क्या है? हमें सदा मन में यह समझे रहना चाहिए कि हम मुक्त होने नहीं जा रहे हैं, पर यह कि हम मुक्त हैं ही। यहाँ तक कि सब प्रकार के विचार कि हम बद्ध हैं, भ्रम ही हैं। प्रत्येक विचार कि हम सुखी हैं, हम दुःखी हैं, बड़ा भ्रम है। फिर दूसरा भ्रम आता है कि हमें परिश्रम करना है, कर्म करना है, पूजा करना है और मुक्ति के लिये प्रयत्न करना है; और यह पहले भ्रम का पीछा करेगा और फिर दोनों रुक जायँगे।

मुसलामन लोमड़ी को बहुत ही अपवित्र समझते हैं और हिंदू भी ऐसा ही समझते हैं। यदि कुत्ता खाने को छू ले तो लोग उसे फेंक देते हैं और खाते नहीं। किसी मुसलमान के घर एक लोमड़ी घुस गई और थाली में का खाना जूठा करके भाग गई। बेचारा निर्धन था। उसने अपने लिये पैसा लगाकर खाना पकाया था। खाना जूठा हो गया। वह खाय तो कैसे खाय। वह दौड़ा हुआ मुल्ला के पास गया और बोला― [ २९७ ]मौलवी साहब, आज मेरे घर एक लोमड़ी घुस आई और थाली में से रोटी लेकर भाग गई। कहिए, मैं अब क्या करूँ। मैंने बहुत पैसा लगाकर खाना पकाया और खाने ही जाता था कि लोमड़ी आई और उसे जूठा कर गई। मुल्ला ने बहुत देर तक सोचा और फिर कहने लगा कि इसका सहज उपाय यही है कि एक कुत्ता बुला लाओ और उसी थाली से एक टुकड़ा कुत्ते को खिला दो; क्योंकि कुत्ता लोमड़ी का सहज बैरी है। वह खाना जो लोमड़ी से बचा है और जो कुत्ते को खिलाने से बचे, तुम खा लो; फिर वह पवित्र है। हम वैसी ही व्यवस्था में पड़े हैं। यह एक भ्रम की बात है कि हम अपूर्ण हैं; और हम दूसरे भ्रम में पड़ रहे हैं कि पूर्ण होने का प्रयत्न करने जाते हैं। फिर तो एक को दूसरे के पीछे दौड़ाया जाता है; जैसे काँटा निकालने के लिये काँटा काम में लाया जाता है और फिर दोनों फेंक दिए जाते हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनके लिये तत्त्व- मसि वाक्य का श्रवण मात्र पर्याप्त ज्ञान है। चुटकी बजाने में यह विश्व विलीन हो जाता है और सञ्चा स्वरूप प्रकट हो जाता है। पर औरों को इस बंधन के भ्रम को मिटाने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ता है।

पहली बात यह है कि कर्मयोगी होने का पात्र कौन है? जिसमें यह सब गुण हों। पहला गुण तो यह है कि उसमें कर्म के फल और ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग हो। यदि आप विश्व के कर्ता हैं, तो आप जिस वस्तु की इच्छा करें, आपको [ २९८ ]प्राप्त होगी क्योंकि आप उसे बना सकते हैं। केवल काल का भेद है। किसी को वह तत्क्षण प्राप्त होती है, किसी के लिये पूर्व जन्म के संस्कार बाधक होते हैं। वे शीघ्र नहीं प्राप्त कर सकते। हम सबसे पहले सुख की इच्छा को स्थान देते हैं, चाहे वह इस जन्म के सुख के लिये हो वा अन्य जन्म के। जीवन का मानना ही छोड़िए क्योंकि जीवन मरण का नामांतर है। अपने को जीवित प्राणी समझिए ही मत। जीवन की चिंता किसे है? जीवन भी तो वैसे ही एक भ्रामक व्यामोह है और मृत्यु उसका प्रति रूप है। सुख भी इसी व्यामोह का एक अंश वा भाग है और दुःख दूसरा भाग है। इसी प्रकार और भी है। आपको जीवन-मरण से क्या काम? ये तो कल्पना की बातें हैं। इसी का नाम ऐहिक और आयुष्मिक सुखों का त्याग है।

फिर मन का दमन करना है। इसको इस प्रकार शांत करना चाहिए कि इसमें फिर वृत्तियाँ वा लहरें न उठें और न नाना प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न हों। मन को इस प्रकार वशीभूत करना चाहिए कि बाह्य वा आभ्यंतर कारणों से वह क्षुब्ध न हो। उसे अपनी इच्छा शक्ति से पूर्ण वश में रखना चाहिए। ज्ञानयोगी इसमें शारीरिक वा मानसिक क्रियाओं से सहायता नहीं लेता; उसे केवल दार्शनिक युक्ति, ज्ञान और अपनी इच्छा पर ही विश्वास रहता है। यही एक मात्र साधन है। अब तितिक्षा आती है। तितिक्षा कहते हैं क्षमा को, सहिष्णुता को अर्थात् सब दुःखों को बिना विलाप, बिना परिवेदना और [ २९९ ]बिना उपालंभ के सहना। कोई क्षति हो तो उसकी चिंता मत करो। सिंह सामने आ जाय तो डटे रहो। भागता कौन है? ऐसे लोग भी हैं जो तितिक्षा करते हैं और सफल होते हैं। संसार में ऐसे लोग भी हैं जो भारत के ग्रीष्म काल में मध्याह्न समय गंगा के तट पर सोते हैं और जाड़े में दिन दिन भर गंगाजी में पड़े रहते हैं। उन्हें चिंता ही नहीं है। लोग हिमालय के हिम में बैठे रहते हैं और उन्हें वस्त्र की चिंता नहीं। गर्मी क्या है? शीत किसे कहते हैं? आवे और जाय, मुझे इससे क्या काम; मैं शरीर नहीं हूँ। पश्चिम के देशों में इस पर विश्वास करना भी कठिन है, पर यह प्रख्यात है कि वे ऐसा करते हैं। जैसे यहाँ के लोल संग्राम में तोप के मुँह पर कूदने में शूर हैं, वैसे ही हमारे देश के लोग अपने दर्शनों को समझने और उनके अनुसार, अभ्यास करने में शूर है। वे इस पर अपने प्राण देते हैं कि ‘चिदानंद रूपो शिवोऽहम् शिवोऽहम्’। जैसे पश्चिम का आदर्श यह है कि भोग-विलास को नित्य के व्यावहारिक कामों में न छोड़ना, वैसे ही हमारा आदर्श है कि उस प्रकार की आध्या- त्मिकता को बनाए रह कर यह सिद्ध कर देना है कि धर्म केवल शब्दाडंबर नहीं है; अर्थात् उसके एक एक अंश का इस जीवन में पालन किया जा सकता है। यही तितिक्षा है कि सब सहना। उपालंभ किस लिये देना? मैंने ऐसा कहते हुए मनुष्यों को देखा है कि मैं आत्मा हूँ, संसार से मुझसे क्या काम? धर्म क्या है? यह प्रार्थना करना कि मुझे यह दीजिए, वह [ ३०० ]दीजिए? यह सब धर्म की मूर्खता है! जिनका उन पर विश्वास है, उन्हें ईश्वर और आत्मा का सच्चा बोध ही नहीं है। मेरे गुरु- देव कहा करते थे कि गिद्ध ऊपर उड़ता चला जाता है, यहाँ तक कि वह बिंदु क समान हो जाता है; पर उसकी आँखें पृथ्वी पर पड़े हुए सड़े मुर्दे पर ही रहती हैं। अंततोगत्वा आपके विचारों का फल क्या है? सड़क पर झाडू देना और अधिक रोटी और कपड़े का होना? रोटी और कपड़े की चिंता किसे है? करोड़ों प्रतिक्षण आते जाते रहते हैं। चिंता कौन करता है? इस लोक के सुख और परिवर्तनों के लिये प्राण क्यों देते हो? साहस हो तो उसके बाहर पैर बढ़ाओ। सच्चिदानन्दोऽहं। सोऽहम् सोऽहम्।