विश्व प्रपंच/भूमिका/१

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल
[ भूमिका ]

भूमिका ।

गत शताब्दी में योरप में ज्यो ज्यो भौतिक विज्ञान, रसायन, भूगर्भविद्या, प्राणिविज्ञान, शरीरविज्ञान इत्यादि के अतर्गत नई नई बात का पता लगने लगा और नए नए सिद्धात स्थिर होने लगे त्यो त्यो जगत् के संबंध में लोगों की जो भावनाएँ थी वे बदलने लगीं । जहाँ पहले लोग छोटी से छोटी बात के कारण को न पाकर उसे ईश्वर की कृति मान सतोष कर लेते थे वहाँ चारों ओर नाना विज्ञानो के द्वारा


  • विज्ञान ऐसे विषयों का ज्ञान है जो किसी न किसी प्रकार हमारा इंद्रियो को प्रत्यक्ष होते है । यह शब्द हमार शास्त्रों में कई अर्थों में आया है। बौद्ध लोग विज्ञान का अर्थ प्रत्यय या भाव लेते है जो क्षण क्षण पर उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। गीता में ज्ञान और विज्ञान शब्द कई जगह साथ साथ आए है । सातवें अध्याय में भगवान् कहते हैं---"ज्ञानं तेऽहं सर्विज्ञानमिद वक्ष्याम्यशेपत." अर्थात् 'विज्ञान' समेत इस पूरे ज्ञान की मैं तुझसे कहता हूँ । रामानुज ने अपने भाष्य में 'ज्ञानम्' का अर्थ किया है "मद्विषयमिदं ज्ञानम्" और विज्ञानम् का अर्थ किया है "विविक्ताकार विषयज्ञानम् ।" प्रकृति के नाना रूपों का जो ज्ञान है वही विज्ञान है । आगे चल कर भगवान् ने मन, बुद्धि और अहंकार के सहित पॉचों भूतों को गिना कर कहा है कि यह मेरी अपरा प्रकृति है इससे भिन्न जगत् को धारण करनेवाली जीवस्वरूपिणी मेरी परा प्रकृति है । इसी अपरा [  ]कार्य्य-कारण की ऐसी विस्तृत शृंखला उपस्थित कर दी गई कि किसी को बीच ही में ठिठकने की आवश्यकता न रह गई। ज्ञान-दृष्टि को बहुत दूर तक बढ़ाने के लिय मार्ग खुल गया। दूरदर्शक सदगदगर, मनविश्लेषक * आदि [  ]
    यंत्रो की सहायता से हमारी दृष्टि अत्यंत विस्तृत और सूक्ष्म हो गई। दूरदर्शक यंत्रों द्वारा अंतरिक्ष के बीच अनंत लोकपिंडो का पता लगा; उनकी स्थिति के क्रम का आभास मिला और रश्मिविश्लेषक यंत्र द्वारा यह प्रत्यक्ष हो गया कि जिन मूलभूतो या द्रव्यो से हमारी पृथ्वी बनी है उन्हीं द्रव्यों से सब लोकापिंड बने हैं, उनमें कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है । पहले पृथ्वी, जल, वायु आदि के आगे लोगो की दृष्टि नहीं जाती थी अब रसायन शास्त्र के विश्लेषणो द्वारा जल और वायु आदि की योजना करनवाले मूलभूतों या द्रव्यों तक हमारी पहुँच हो गई है । भौतिक विज्ञान ने समस्त जड़ जगत् को द्रव्य और गति शक्ति का काय्य सिद्ध कर दिया है।

द्रव्य * को नाना रूपो मे हम अपने चारो ओर देखते हैं । हवा, पानी, पत्थर, पृथ्वी, सूर्य्य, चद्र इत्यादि सब द्रव्य के ही भिन्न भिन्न रूप है। द्रव्य से हम गति भी देखते है । हवा का चलना, पानी का बहना, पत्थर का लुढ़कना, पत्ते का


के वायुमंडल में चाँदी, लोहा, सीसा, राँगा, जस्ता, अलुमीनम, सोडियम, पोटासियम, कारवन ( अगारक ), - हाइड्रोजन आदि ३६ मूल द्रव्यों का होना स्थिर किया गया है। इसी प्रकार ग्रहों के संबंध में समझिए जो सूर्य की अपेक्षा कहीं अधिक निकट है ।

* द्रव्य शब्द का अर्थ केवल भू-समष्टि के अर्थ में समझिए । वैशेपिक में द्रव्य के अतर्गत काल, दिक्, आत्मा और मन भी हैं, पर इसके अंतर्गत नहीं । [  ]
गिरना, लपेटी हुई कमानी का खुलना, कोयले का दहकना, बारूद का भड़कना सब गति के ही नाना रूप हैं । द्रव्य और गतिशाक्ति इन्ही दो को लेकर अपनी सूक्ष्म परीक्षाओं द्वारा वैज्ञानिक समस्त व्यापारो के कारण आदि की व्याख्या करते है । जिस प्रकार द्रव्य एक अवस्था से दूसरी अवस्था मे---ठोस से द्रव, द्रव से वायव्य, वायव्य से द्रव, द्रव से ठोस अवस्था मे----लाया जा सकता है उसी प्रकार गतिशक्ति भी एक रूप से दूसरे रूप में लाई जा सकती है । गति ताप के रूप मे परिवर्तित हो सकती है, ताप विद्युत् के रूप में, विद्युत ताप और प्रकाश के रूप में । राँगे और ताँबे को जोड़ कर अगर एक कोना गरम करे और दूसरे को ठंडा रखे तो बिजली पैदा हो जायगी। चकमक के क्षेत्र में किसी धातु को घुमाने से भी बिजली उत्पन्न होती है। यदि बडे वेग से आते हुए पत्थर के गोले को हम दूसरे पत्थर से बीच ही में रोक ले तो पहले पत्थर की गति-शक्ति रुकने से क्या हुई ? क्या नष्ट हो गई ? नहीं, वह ताप के रूप में परिवर्तित हो गई । दो वस्तुओं की रगड़ से जो गरमी पैदा होती है उसका अनुभव हसे नित्य होता है । इस गरमी के पैदा होने का मतलब यही है कि रगड़ की जो गति है उसने ताप की रूप धारण कर लिया । कोई शक्ति क्रियमाण हो कर एक द्रव्यखंड से दूसरे खंड में जाते जाते अत में ताप के रूप में हो कर आकाश द्रव्य में लय को प्राप्त हो जाती है।

शक्ति या तो निहित वा अव्यक्त रूप से रहती है अथवा व्यक्त वा क्रियमाण रूप मे । दोनों छोर मिला कर पकड़े हुए [  ]
बेत, पहाड़ की ढाल पर अड़े हुए पत्थर, चाभी दी हुई पर न चलती हुई घड़ी, सूखने के लिये फैलाए हुए कोयले, बोरे में कसी हुई बारूद में जो छटकने, चलने, दहकने और भड़कने की शक्ति है वह अव्यक्त वा निहित हैं। बेत के छटकने, पत्थर के लुढ़कने, घड़ी के चलने, कोयले के दहकने और बारूद के भड़कने पर वहीं शक्ति व्यक्त वा क्रियमाण कहलावेगी। गति-शक्ति दो प्रकार की क्रियाएँ करती है। यह द्रव्य के पिंडो, अणुओं और परमाणुओं को एक दूसरे की और खींचती है अथवा उनको एक दूसरे से हटा कर अलग अलग करती है । पिडो की एक दूसरे को खीचने की शक्ति लोहे और चुंबक तथा सूर्य और ग्रहपिंडो आदि के आकर्षण में देखी जाती है । अणुओ के परस्पर मिलने से पिड, परमाणुओ के परस्पर मिलने से अणु, और विद्युदणुओ के परस्पर मिलने से परमाणु बनते है। इसी प्रकार जहाँ ठोस वस्तु द्रव के रूप में आ रही हो, या द्रव वस्तु वाष्प या वायव्य रूप में आ रही हो वहाँ यह समझना चाहिए कि विश्लेषण-शक्ति अर्थात् अलग करने वाली शक्ति कार्य कर रही है। शक्ति के सबंध में यह समझ रखना चाहिए कि यद्यपि द्रव्य के समान उसमे गुरुत्व नहीं होता पर उसके वेग की मात्रा का हिसाब होता है। सेर भर पत्थर उठाने में जितनी शक्ति लगती है दो सेर बोझ उठाने में उससे दूनी शक्ति लगेगी । चलती हुई वस्तुओ का धीमा और तेज होना, गरमी का घटना बढना हम नित्य ही देखते है ।

द्रव्य के अंतर्गत कोई ७८ मूलद्रव्य या मूलभूत माने गए [  ]
हैं जिनमें कुछ धातुएँ हैं ( सोना, चांदी, ताँवा, लोहा सीसा, राँगा, पारा, निकल, जस्ता, अलुमीनम), कुछ और निज है(जैसे, गंधक, संखिया, सुरमा, मगनीशिया ) और कुछ वायव्य द्रव्य हैं (जैसे, आक्सिजन, हाइट्रोजन, नाइट्रोजन इत्यादि )। ये ही ७८ मूले द्रव्य आधुनिक रसायन शास्त्र के अनुसार मूल उपादान हैं जिनके परमाणुओ के योग से जगत के नाना प्रकार के पदार्थ बने है । अतः जितने ये मूल द्रव्य है उतने ही प्रकार के परमाणु हुए । एक प्रकार के परमाणु के साथ दूसरे प्रकार के परमाणु के मिलने से एक तीसरे रूप के द्रव्य का प्रादुर्भाव होता है---जैसे आक्सिजन और हाइड्रोजन नामक मूल द्रव्यों के परमाणुओ के योग से जल की उत्पत्ति होती है । पर ध्यान रखना चाहिए कि यह परिणाम एक विशिष्ट मात्रा में परमाणुओ के मिलने से होता है । जैसे जल का यदि हम रासायनिक विश्लेषण करे तो उसमे हमे १६ भाग आक्सिजन गैस और २ भाग हाइड्रोजन गैस * मिलेगा। इसी प्रकार यदि हम नमक का विश्लेषण करे तो हमे ३५ भाग क्लोराइन और २३ भाग सोडियम मिलेगा । परमाणुओं का मिश्रण ही रासायनिक मिश्रण कलाता है । परमाणुओ


* जस्ते को तेजाब में गला कर यह गैस निकाला जा सकता है ।

साधारण मिश्रण से रासायनिक मिश्रण भिन्न होता है। साधारण मिश्रण में दो पदार्थों के अणु ही देखने में मिले मालूम होते है, पर दोनों पदार्थ अलग अलग पहचाने जा सकते हैं । पर रासायनिक मिश्रण में एक के अणुओं के परमाणु निकल निकल कर [  ]
के मिलने से ही रासायनिक क्रिया होती है। भिन्न भिन्न पर- माणुओ की भिन्न भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति होती है जिसके अनुसार कुछ परमाणु कुछ परमाणुओ के साथ मिलते हैं और कुछ के साथ नहीं। इसी को रासायनिक प्रवृत्ति या राग कहते हैं।

परमाणु हैं क्या ? नमक का एक टुकड़ा लीजिए और दखिए तो वह अत्यंत सूक्ष्म कणों से मिलकर बना हुआ पाया जायगा । इन कणो क तब तक और टुकड़े करते जाइए जब तक टुकड़ों में नमकपन बना रहे। इस प्रकार जब टुकड़े अतिम दशा को पहुँच जायँ अर्थात् ऐसे टुकड़े हो जायँ जिनके और टुकड़े करने से उनमें नमक का गुण न रह जायगा तब हम ऐसे टुकडो को अणु कहेगे। ये अणु नमक ही रहेगे । फिर इन अणुओं के भी यदि हम और टुकड़े करेंगे तो वे परमाणु होगे और नमक न रह जायँगे अर्थात् उनमे से कुछ क्लोराइन के परमाणु होगे और कुछ सोडियम के। इसी से कहा जाता है कि क्लोराइन और सोडियम के रासायनिक मिश्रण से--अर्थात् परमाणुओ के मिश्रण से--नमक बनता है। अतः नमक एक यौगिक पदार्थ है, मूल-


दूसर के अणुओ क निकले हुए परमाणुओं से मिल जात हैं जिस से एक तीसरे पदार्थ को उत्पत्ति होती है। जैसे, गधक के चूर्ण के साथ लाहचूर मिला कर यों ही रख दें तो यह साधारण मिश्रण हागा। इसी मिश्रण को यदि खूब तपाव जिससे अणु टूट जायँ और परमाणु अलग अलग होजायँ तो दोनों के परमाणुओं के मिलने से एक नए प्रकार के पदाथे की उत्पत्ति होगी। यह मिश्रण रासायनिक होगा। [  ]
द्रव्य नहीं। पर यदि हम मूल द्रव्यो में से कोई एक लेकर उसका परमाणुओ तक विश्लेषण करे तो हमें उसी द्रव्य के परमाणु मिलेगे और किसी द्रव्य के नही। एक मूल द्रव्य के साथ दूसरे मूल द्रव्य किस प्रकार और किस परिमाण मे मिलते है तथा मिलने से क्या परिणाम होते है इन सब बाता का विचार करनेवाला शास्त्र रसायनशास्त्र कहलाता है। भौतिक विज्ञान द्रव्य के सामान्य गुण तथा गतिशक्ति के नियमों और विधान का निरूपण करता है। इस प्रकार आजकल प्राकृतिक विज्ञान की दो प्रधान शाखाएँ है ।

परमाणु नाम पड़ा क्यो ? पहले लोगो की धारणा थी कि परमाणु द्रव्य के सूक्ष्मत्व की चरम सीमा है। परमाणु के और टुकड़े हो ही नही सकते। परमाणु अखड तथा नित्य है। दार्शनिको ने तो परमाणु की कल्पना अनव था से बचने के लिए ही की थी। पहले लोगो को परमाणुओं के बनने बिगड़ने या खड खड होने के प्रमाण नहीं मिले थे। पर इधर युरेनियम, रोडियम आदि कई नए मूल द्रव्यो के मिलने से ऐसे प्रमाण भी मिल गए। उनके परमाणुओं की परीक्षा से पता चला कि भारी परमाणु के कण अत्यत वेग से उड़ते जाते हैं और फिर मिलकर हलके परमाणु बनाते जाते हैं। ये कण विद्युदणु कहलाते है। इन्हीं के मिलने से परमाणुओ की योजना होती है।

मूलभूत और परमाणु की कल्पना इसी रीति पर हमारे यहाँ के वैशेपिक दर्शन में भी हुई है। द्रव्यखड के टुकड़े करते करते हम ऐसे टुकड़ो तक पहुँचेगे जिनके और टुकडे [  ]
यदि हम करे तो वे अगोचर हो जायँगे। ये ही अगोचर दुकड़े परमाणु होगे और इनके और टुकड़े न हो सकेगे। वैशेपिक के अनुसार परमाणु नित्य और अक्षर है। इन्ही की योजना से सब पदार्थ बनते है और सृष्टि होती है। आकाश को छोड़ जितने प्रकार के भूत होते है उतने ही प्रकार के परमाणु होत है---यथा, पृथ्वीपरमाणु, जलपरमाणु, तेजपरमाणु और वायुपरमाणु। परमाणु रूप मे, आकाश के समान, शेष चारो भूत भी नित्य हैं। आधुनिक विज्ञान ने पृथ्वी, जल और वायु को द्रव्य का अवस्थाभेद सिद्ध किया और तेज को गतिशक्ति का एक रूप मात्र। अतः परमाणु भी चार प्रकार के नहीं, ७८ प्रकार के ठहराए गए। कुछ लोग नई बातो के साथ पुरानी बातो का अविरोध सिद्ध करने के लिये भूतो को ठोस, द्रव, वायव्य और अतिवायव्य अवस्थाओं के सूचक मात्र कहने लगे हैं। पर परमाणुओं के वर्गीकरण की ओर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो सकता है कि वैशेपिक का अभिप्राय अवस्थाभेद नहीं है गुणभेद के अनुसार द्रव्यभेद ही हैं- जैसे, जल मे सासिद्धिक या स्वाभाविक द्रवत्त्व का गुण है अत वह एक मूल द्रव्य है। पर आधुनिक रसायन शास्त्र में जल को किस प्रकार यौगिक सिद्ध किया है यह ऊपर कहा जा चुका है। मूलभूतो और परमाणुओ का संबध वैशेषिक ने उसी रीति से निर्धारित किया है जिस रीति से आधुनिक रसायनशास्त्र ने किया है। यह हमारे लिये कम गौरव की बात नहीं है। ब्योरा ठीक न मिलने के कारण इस पर परदा डालने की जरूरत नही। [ १० ]वैशषिक में दो परमाणुओ के योग को द्वथणुक कहत हैं। आगे चल कर ये ही द्वथणुक अधिक संख्या मे मिलते जाते है जिससे नाना प्रकार के पदार्थ बनते है---जैसे, तीन द्वथणुको से त्रसरेणु, चार द्वषणुको से चतुरणुक इत्यादि। कारण-गुणपूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं अत जिस गुण के परमाणु हागे उसी गुण के उनस बने पदार्थ होंगे। पदार्थों में जो नानी भेद दिखाई पड़ते हैं वे सन्निवेश भेद से होत हैं। तेज के सबध से वस्तुओं के गुण में बहुत कुछ फेरफार हो जाता है-जैसे, कच्चा घड़ा पकने पर लाल हो जाता है।

परमाणु का प्रत्यक्ष नहीं होता। परमाणु की बात छोड़ दीजिए, अणुओ की सूक्ष्मता भी कल्पनातीत है। तीव्र से तीव्र सूक्ष्मदर्शक यत्र उनका दर्शन नहीं करा सकते। उनका निरूपण उनके कार्यों द्वारा गणित आदि के सहारे से ही किया जाता है। जल का ही अणु लीजिए जो इच के १०,००,०० वें भाग के वरावर होता है। अब इस अणु की योजना करने वाले परमाणुओ की सूक्ष्मता का इसी से अंदाजा कर लीजिए। विद्युदणु तो उनसे भी सूक्ष्म है। हिसाब लगाया गया है कि हाइड्रोजन के एक परमाणु मे १६०००, और रेडियम के एक परमाणु में १६०००० विद्युदणु होते हैं। इन विद्युदणुओ के बीच का अतर उनकी सूक्ष्मता के हिसाब से बहुत अधिक होता है--उतना ही होता है जितना सौरजगत् के ग्रहों के बीच होता है। * अपने परमाणु-जगत् के अतरिक्ष में ये परस्पर शक्ति


*परमाणुओ के बीच अंतर को पारणा ने रान के कारण [ ११ ]
सम्बद्ध हो कर निरतर उसी प्रकार वेग से भ्रमण करते रहते है जिस प्रकार सौरजगत् मे ग्रह उपग्रह भ्रमण करते हैं। इसी का नाम है भवचक्र। परमाणु के भीतर भी वही व्यापार हो रहा है जो ब्रह्मांड के भीतर। 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' वाली बात समझिए। जो गतिशक्ति आकर्षण और अपसारण के रूप मे छोटे से द्रव्यखड के परमाणुओ को परस्पर सम्बद्ध रख कर भ्रमण कराती है वहीं समस्त जगत् मे नक्षत्रो, ग्रहों और उपग्रहो को अपने पथ पर रख कर चक्कर खिलाती है। शक्ति की इसी दोमुही चाल से जगत् की स्थिति है। यदि शक्ति अपने एक ही रूप में कार्य करती तो जगत् की यह अनेकरूपता न रहती, या यों कहिये कि जगत् ही न रहता। यदि आकर्षणक्रिया ही स्वतंत्र रूप से चलती, उसे बाधा देनेवालो अपसारिणी क्रिया न होती तो अखिल विश्व के समस्त परमाणु खिच कर एक केद्र पर मिल जाते और विश्व एक ऐसा अचल, जड़ और ठोस गोला होता जिस पर न नाना प्रकार के पदार्थ होते, न जीवजतु और पेड़ पौधे होते और न कोई व्यापार होता। इसी प्रकार यदि केवल अपसारणी


वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नाम का विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा। इस मत के अनुसार घड़ा आग में पड़ कर लाल इस प्रकार होता है कि अग्नि के तेज से घडे के परमाणु अलग अलग हो जाते हैं, फिर लाल होकर मिल जाते है । घड़े का यह बिगड़ना और बनना इतन सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। न्याय वाले परमाणुओ के बीच अन्तर मान कर ऐसी कल्पना नहीं करते। [ १२ ]
क्रिया ही होती तो विश्व के समस्त परमाणु अलग अलग विखरे होते, मिल कर जगत् की योजना न करते।

द्रव्य और शक्ति ( गति ) का नित्य संबंध है। एक की भावना दूसरे के बिना हो नही सकती। न शक्ति के बिना द्रव्य रह सकता है और न द्रव्य के आश्रय के बिना शक्ति कार्य कर सकती है। अपने चारों ओर जो कुछ हम देखते है वह सब द्रव्य और शक्ति का ही कार्य है। कोई द्रव्य-खड लीजिए, शति ही से उसकी स्थिति ठहरेगी। जमीन पर पडा हुआ एक ढेला ही लीजिए। आप के देखने में तो वह महा जड और निष्क्रिय है। पर विचार कर देखिए तो गतिशक्ति की क्रिया बराबर उसमें हो रहा है, बल्कि यो कहिए कि उसी क्रिया से ही उसकी स्थिति है। वह जमीन पर पड़ा क्यों है? पृथ्वी की आर्कषण-शक्ति से। वह ढेले के रूप में क्यों है ? उसके अणु आकर्षण-शक्ति द्वारा परस्पर सबद्ध है।

द्रव्य और शक्ति दोनो अक्षर और अविनाशी है। वे अपने एक रूप से दूसरे रूप में जा सकते है, पर नष्ट नही हो सकते। उनका अभाव नहीं हो सकता। सिद्धांत यह कि विश्व में जितना द्रव्य है उतना ही सदा से है, और सदा रहेगा-उतने से ने घट सकता है, न बढ़ सकता है। इसी प्रकार शक्ति को भी ममझिए जो द्रव्य मे समवेत है। यह दार्शनिक अनुमान नहीं है, परीक्षा सिद्ध सत्य है। मोमबत्ती जल कर नष्ट नहीं हो जाती, धुएँ के रूप में अर्थात् वायव्य रूप में हो जाती है। यदि इसे वायव्य पदार्थ को [ १३ ]
लेकर हम तौले तो उसको तौल मोमबत्ती की तौल के बराबर होगी। शक्ति की अक्षरता की परीक्षा इस प्रकार हो सकती है कि किसी बोझ के उठाने में हम कुछ शक्ति व्यय करे और उस शक्ति को ताप के रूप में लाकर ताप की मात्रा नाप ले। फिर कभी उसी बोझ को उठाने में उतनी ही शक्ति लगा कर और उसे ताप के रूप में परिवर्तित कर के ताप की मात्रा नापे। ताप की दोनो मात्राऐ समान होगी।

सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु भी एक दूसरे को आकर्षित कर रहे है और ग्रह, उपग्रह , नक्षत्र आदि विशाल लोकपिड भी। उनके बीच आकर्षण शक्ति बरावर कार्य कर रही है। ग्रहो, नक्षत्रो आदि के बीच जो भारी अंतर है वह प्रत्यक्ष ही है। अणुओ, परमाणुओ आदि के बीच कितना असर रहता है, वह ऊपर बतलाया ही जा चुका है। यह अंतर क्या शुन्य है ? यदि शून्य है तो आकर्षण-शक्ति की क्रिया होती किस प्रकार है ? क्योकि ऊपर कहा जा चुका है कि द्रव्य के आश्रय के बिना शक्ति कार्य ही नहीं कर सकती। न्यूटन भी, जिसने योरप मे पहले पहल आकर्षण शक्ति का पता पाया था, इस असमंजस में पड़ा था। अतरिक्ष के बीच केवल आकर्षणशक्तिं कार्य करती हो सो भी नही। सूर्य की गरमी और सूर्य का प्रकाश वराबर हम तक पहुँचता है। ताप और प्रकाश भी गति-शक्ति के ही रूप हैं। अतः क्या ये भी शून्य से ही हो कर गमन करते है। यह हो नही सकता। शक्ति के कार्य करने के लिए कोई मध्यस्थ द्रव्य अवश्य चाहिए। इस लिए वैज्ञानिकों को द्रव्य के ऐसे रूप [ १४ ]
का आरोप करना पड़ा जो अखंड, अनंत, विभु और विश्व-व्यापक हो, जो अण्वात्मक न हो । इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म अखंड और व्यापक द्रव्य का नाम उन्होंने ईथर रखा । आप आकाश द्रव्य कह लीजिए * क्योकि प्रकाश के साथ इसका घनिष्ट संबंध है भी। यह सीसे के गोले के परमाणुओ के बीच भी फैला है और ग्रहो नक्षत्रो के बीच के अंतरिक्ष मे भी। इससे खाली कोई जगह नहीं। यह सर्वत्र अखड और एकरस है।

ईथर को दिक् के समान एक शून्य-कल्पना न समझना चाहिए। इसमे घनत्व है, यह भूतद्रव्य को ही एक सूक्ष्म रूप है। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि इसका घनत्व


* वैशेषिक ने आकाश को दिक् (Space) से अलग माना है और उसे भूत के अंतर्गत किया है । दिक् किसी वस्तु का समवायिकारण नहीं हो सकता, पर आकाश शब्द का समवायि कारण है। न्याय मे उपादान को ही समवायि कारण कहा है, जैसे कपडे के लिये सूत और कुडल के लिये सोना। वैशषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद ने भी कहा है कि द्रव्यों में जो समवाय रहता है वह तादात्म्य रूप से ही। अतः "आकाश शब्द का समवायि कारण है" इस बात को यदि आधुनिक भौतिक विज्ञान के शब्दों में कहें तो कह सकते है कि 'आकाश द्रव्य की तरंगों से ही शब्द बनते हैं'। आधुनिक भौतिक विज्ञान में शब्द वायुतरंग रूप- सिद्ध हुए है, क्योंकि आकाश के रहते भी वायु के बिना शब्द नहीं होता। आकाशद्रव्य के तरगों से प्रकाश की उत्पत्ति होती है । आजकल की इस बात को यदि हम अपने दर्शन के शब्दो में कहे तो कह सकते है कि 'आकाश प्रकाश का समवायिकारण है' [ १५ ]
जल के घनत्व का---------है। १०५ कोस की ऊँचाई पर वायुमंडल भी इतना ही पतली है। उसके आगे वह और भी पतला है *। ईथर उसकी अपेक्षा कम पतला है। यह सारा हिसाब किताब ऊपर ही ऊपर से-प्रकाश और ताप के व्यापार से--लगाया गया है। ईथर पकड़ में आनेवाली द्रव्य नहीं, यह एक अग्राह्य पदार्थ है। वैज्ञानिकों ने इसकी परीक्षा केवल प्रकाश के वाहक के रूप में की है। प्रकाश और ताप का प्रवाह तरंगो के रूप में चलता है। यदि कोई मध्यस्थ नही तो ये तरगे कैसी? विदाकर्षण और अपसारण की व्याख्या भी इस प्रकार के मध्यवर्ती द्रव्य के बीच किसी स्थान पर दबाव मानने से ही अच्छी तरह होनी है। विद्युतप्रवाह की समस्या का समाधान भी मध्यस्थ द्रव्य का स्पंदन माने बिना ठीक ठीक नहीं हो सकता। चुंबक की क्रिया भी किसी मध्यस्थ द्रव्य मे भंँवर या मरोड़ पड़ने के कारण मालूम होती है। सारांश यह कि यह मानना पड़ता है कि प्रकाश, और ताप आदि का वहन करनेवाला कोई एकरस प्रवाहरूप पदार्थ अवश्य है जिसमे तरंगे उठती है, भँवर पड़ते हैं। जिस प्रकार जल में किसी ठोस पदार्थ के पड़ने पर किनारे हटने और फिर आ जाने का गुण है उसी प्रकार ईथर मे भी है । पर यह साधम्र्य होते हुए भी जल मे और इसमे


* पृथ्वी से १२ योजन के आगे जो वायु है उसका हमारे यहाँ के प्राचीन ग्रंथो मे 'प्रवह' नाम है । १२ योजन तक 'आवह' वायु है। [ १६ ]बहुत अन्तर है। जल अणुमय है, यह अखंड और सर्वगत है। जल ही क्या ग्राह्य द्रव्य मात्र से इसके गुण भिन्न हैं। यद्यपि घनत्व, लचक, अखंडत्व आदि इसके गुण प्रकाश और ताप आदि के व्यापारों द्वारा निरूपित हुए हैं पर यह है किस प्रकार का अभी तो ठीक ठीक समझ में नहीं आया है, आगे की नहीं कह सकते।

लार्ड केलविन ने इसी ईथर को जगत् का उपादान ठहराया है। उन्होंने कहा कि समस्त ग्राह्य द्रव्यखंड इसी ईथर के भँवर मात्र हैं।[१] सर विलियम कुक्स ने भी सब प्रकार के द्रव्यों या परमाणुओं का आधारभूत एक ही महाभूत माना है जिसके और सब परिणाम हैं। इस प्रकार जगत् के मूल प्राकृतिक उपादान की एकता विज्ञान में स्वीकृत हुई। हैकल ने जिस रूप में इस सिद्धांत को लिया है उसके अनुसार ईथर महाभूत की साम्यावस्था के प्रथम भंग का परिणाम है अर्थात साम्यावस्था भंग होने पर कुछ द्रव्य तो अण्वात्मक ग्राह्य रूप में आ जाता है और शेष कुछ और सूक्ष्म होकर अपने अग्राह्य और अखंड रूप में ही रहता है जिसे ईथर कहते हैं। पर किस प्रकार ईथर में भँवर पड़ते हैं और पहले पहल अणुओं का विधान होता है, किस प्रकार एक निर्विशेष महा[ १७ ]भूत विशेषत्व की ओर प्रवृत्त होता है, किस प्रकार प्रकृति की साम्यावस्था भग होती है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। यह एक समस्या रह सी जाती है। रहने दीजिए, यह औरों के काम की है।

विज्ञान की दृष्टि से जगत् की उत्पत्ति इस प्रकार निरूपित हुई है। अपनी साम्यावस्था भंग होने के पीछे द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म नीहारिका के रूप में बहुत दूर तक फैला रहा। संयोजक शक्ति द्वारा द्रव्य-विस्तार के अणु खिंच कर परस्पर मिलने लगे जिससे संचित वियोजक या अपसारिणी शक्ति छूट पड़ी और दो रूपो में व्यक्त हो कर कार्य्य करने लगी——अणुचालक और पिण्डचालक। अणुचालक गति द्वारा अणुओ मे एक प्रकार का स्पंदन या दोलन सा होने लगा। यह गति ताप और प्रकाश के रूप में व्यक्त हो कर फैली। पिण्डचालक गति द्वारा अणुओं से बने हुए पिंड लट्टू की तरह घूमते हुए गोल परिधि या मंडल बाँध कर चक्कर लगाने लगे। इसी प्रकार नक्षत्रों, ग्रहों, उपग्रहों आदि की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। सौरजगत् की उत्पत्ति का विधान इसी रूप मे निश्चित किया गया है। इस विधान को अब अपने सौर जगत् पर घटा कर देखिए कि नीहारिकामंडल से सूर्य और नाना ग्रहों उपग्रहों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई।

ज्योतिष्क नीहारिका-मंडल पहले अत्यंत वेग से घूमता हुआ गोला था। अणुओं के केंद्र की ओर आकर्षित होने से वह क्रमशः भीतर की और सिमट कर जमने लगा जिससे उसके किनारे घूमते हुए नीहारिका के वलय या छल्ले रह गए। [ १८ ]केद्र की ओर सिमटा हुआ द्रव्य हमारा सूर्य हुआ। नीहारिका-वलय भी क्रमशः जम कर गोलों के रूप में हुए और केद्रस्थ-द्रव्य (सूर्य) से अलग हो कर उसके चारो ओर वेग से घूमने लगे। ये ही पृथ्वी, मंगल, बुध आदि ग्रह हुए। इनके जमने पर भी किनारे छल्ले रह गए जो क्रमशः जम कर इन ग्रहों के उपग्रह हुए––जैसा कि चंद्रमा हमारी पृथ्वी का है। जो छल्ला केद्रस्थ द्रव्य से जितनी दूरी पर था उससे जम कर बना हुआ पिंड उतनी ही दूरी पर से उसकी परिक्रमा करने लगा। जिस ग्रह के किनारे जितने छल्ले थे उसके उतने ही चंद्रमा हुए। जैसे, वृहस्पति की परिक्रमा करनेवाले आठ चंद्रमा हैं। जितने ग्रह हैं सब एक अवस्था में नही है। ग्रहपिड केद्रस्थ द्रव्य-समूह या सूर्य से छूट कर अलग होने पर ज्वलंत वायव्य अवस्था से जम कर अपरिमित ताप से युक्त ज्वलंत द्रव द्रव्य (जैसे, गरमी से पिघल कर पानी से भी पतला हो कर बहता हुआ लाल लोहा) के रूप में हुए। क्रमशः उनका ऊपरी तल ठंडा हो कर जमता गया और ठोस पपड़ी के रूप में होता गया। जो ग्रह जमते जमते सारा ठोस हो गया अर्थात् जिसकी सब गरमी निकल गई वह मुर्दा हो गया, उसमे, जल, वायु आदि कुछ नही रह गया। हमारा चद्रमा इसी अवस्था में है। पृथ्वी का ऊपरी तल तो ठोस पपड़ी के रूप में होगया है, पर बहुत गहराई तक नही। इसके भीतर वही ज्वलंत द्रव द्रव्य मौजूद है जो अपना अस्तित्व ज्वालामुखी के स्फोट और भूकंप आदि द्वारा प्रकट करता रहता है। वृहस्पति अभी ज्वलंत द्रव अवस्था से क्रमशः जमना आरंभ [ १९ ]
कर रहा है। मंगल पृथ्वी से भी अधिक जम कर ठोस हो चुका है। शनि और वृहस्पति दोनों अब तक वलयवेष्ठित है। ये सब बाते तो अच्छे अच्छे दूरवीक्षण-यंत्रो की सहायता से ही देखी जा सकती हैं। पर रगो के हिसाब से भी तारो और ग्रहो की अवस्था को मोटा अंदाज हो सकता है। जो ग्रह काला और कांतिहीन दिखाई दे उसे समझना चाहिए कि मर चुका है। फिर जब किसी और तारे से वह टक्कर खायगा तब उसमे नए तेज और नई शक्ति का संचार होगा और दूसरे लोकपिंड की सृष्टि होगी। ज्वलत नीलाभ ग्रहों को पूर्ण यौवनावस्था में समझना चाहिए। कुछ विशेषताओ से युक्त लाल तारों को समझना चाहिए कि वे क्रमशः नाश को प्राप्त हो रहे है। जो ज्वालाखंड जितना ही बड़ा या उसके ऊपरी तल के ठंढे होकर द्रवरूप मे आने और फिर और जमकर ठोस होने में उतना ही अधिक काल लगा है। अभी हमारा सूर्य वायव्य और द्रव अवस्था में ही है। भीतर तो वह जलती हुई वायु अर्थात् ज्वाला या लपट के रूप में है जिसके प्रचड ताप का अनुमान तक हम लोग नहीं कर सकते, पर उसके ऊपर का तल कुछ गरमी निकल जाने से जम कर वायव्य से ज्वलंत द्रव द्रव्य के रूप मे आगया है।

पृथ्वी का यह ठोस तल जिस पर हमलोग बसते हैं धीरे धीरे परत पर परत जमने से कई करोड़ वर्षों में बना है। इन परतो का जमना उस कल्प से आरंभ हुआ है जिस कल्प में पृथ्वी की पपड़ी इतनी ठंढी पड़ गई कि उसके ऊपर [ २० ]
भाप की जो गहरी तह चढ़ी थी ( जैसी कि वृहस्पति मे अब तक दिखाई देती है ) वह जमी और जल का आविर्भाव हुआ, समुद्रों की सृष्टि हुई। नदियो का जल किस प्रकार पहाड़ों और ऊँचे स्थानों की मिट्टी या चट्टानो को काट काट कर अपने मार्ग में इधर उधर रेत और मिट्टी की तह पर तह जमाता जाता है इसे प्रायः सब लोग जानते है। समुद्र भी सदा इसी व्यापार में लगा रहता है और अपने तटों की मिट्टी या चट्टानो को काट काट कर अपने गर्भ में बिछाता जाता है। सारांश यह कि जल का यह कार्य ही है। आदि काल से ही वह ऊँचे स्थानो की चट्टानो को रेत, मिट्टी आदि के रूप में अपने नीचे बिछाता चला आ रहा है। यदि पृथ्वी पर केवल जल ही कार्य करता होता तो पृथ्वी का सारा तल कब को जल के भीतर होगया होता और इस पृथ्वी के गोले के ऊपर जल ही जल होता, सूखी ज़मीन कही न होती। पर पृथ्वी के ठोस आवरण के भीतर तो अभी द्रव अग्नि का गोला ही है जो ऊपर पपड़ी छोड़ता हुआ क्रमश ठढा होता चला जाता है। अतः गर्भस्थ प्रचंड ताप की शक्ति दबाव पाकर समय समय पर पपड़ी के रूप में जमे हुए आग्नेय द्रव्य तथा पिघली हुई चट्टानों को बड़े वेग से ऊपर की ओर फेका करती है जिससे बड़े बड़े पहाड़ निकलते है और कम गहरे समुद्रो का तले भी-सूखे स्थल के रूप में उठा करता है। भूकंप, ज्वालामुख पर्वतों के स्फोट इसी आभ्यतंर ताप के प्रभाव से होते हैं। भूकंप के धक्को से कहीं एकबारगी समूचा पहाड़ निकल पड़ा है, कहीं पहाड़ी की पहाड़ी नीचे [ २१ ]
घँस कर ग़ायब हो गई है। ये सच भूगर्भस्थ ताप के उग्र व्यापार है जिन पर हमारा ध्यान जाता है। पर ये व्यापार बराबर इतने धीरे धीरे भी होते रहते हैं कि हमे जान नही पड़ते। पृथ्वी के नाना भागो की परीक्षा करने से देखा जाता है कि कोई खड क्रमश ऊपर की ओर उठ रहा है और कोई नीचे की ओर धँस रहा है। इस प्रकार जल को नई नई परते जमाने के लिये वरावर सामग्री मिलती जाती है।

नीचे के आग्नेय द्रव्य के ऊपर आने और पिघले हुए द्रव्य के ठढे होकर जमने से जो चट्टाने वनी है उन्हें अग्न्युपल या बिना परत की चट्टान कहते हैं। जल के भीतर थिरा कर परत पर परत जमने से जो चट्टाने (चट्टान शब्द से अभिप्राय उन सब ढेरों या तहों से है जिनसे पृथ्वी का ठोस ऊपरी तल बना है---क्या पत्थर, क्या मिट्टी, क्या रेत, क्या कोयला, क्या खरिया सब। भूगर्भविद्या मे चट्टान शब्द की अर्थ बहुत व्यापक है ) बनी है उन्हें वरुणस्तर या परतवाली चट्टाने कहते है। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि परतवाली चट्टाने आग्नेय चट्टानों के ही ध्वस या चूर्ण से बनी हैं। जल के भीतर बनी हुई इन्ही परतवाली चट्टान की परीक्षा द्वारा मूगर्भवेत्ता पृथ्वी के नाना कल्पो और युग का विभाग करते और जंतुओ की उत्पत्ति का क्रम सूचित करते है। बात यह है कि इन्हीं की तहो के बीच पूर्व कल्प के जीवो के अवशेष (जैसै, अस्थिपंजर, पेड़ों के धड़ और डालियाँ आदि ) या उनके अस्तित्व के चिह्न (जैसे, पक्षियो के पैरो के चिह, [ २२ ]
कीड़ों के खोदे हुए बिल, पूर्वयुग के मनुष्यो के बनाए हुए पत्थर के हथियार इत्यादि ) मिलते हैं। सब से प्राचीन कल्प के अर्थात् सब से पहले बननेवाले स्तरों में शुक्तिवर्ग के क्षुद्र कीटो से ले कर सब से निम्न कोटि की मछली ( अर्थात् अत्यंत क्षुद्र कोटि के रीढ़वाले जतु ) तक के अवशेष मिलते है। इनसे पीछे के स्तरो मे मछलियो, सरीसृपो, पक्षियो तथा दूध पिलानेवाले जंतुओं के पंजर मिलते हैं। जंतुओं के अवशेष से भी विशिष्ट पदार्थों की चट्टाने बनती है-—जैसे, खरिया मिट्टी की चट्टाने जो ससुद्र मे रहनेवाले अत्यत सूक्ष्म कृमियों की ठोस खोलड़ी के तह पर तह जमन से बनती है। पत्थर का कोयला क्या है? पूर्वयुग के पेड़ पौधो के अवशेष जो तह पर तह जमते गए वे ही आभ्यतंर ताप की तरगो के योग से कोयले के थक्के के रूप में हो गए। चट्टानो के जमने का हिसाब लगा कर भूगर्भवेत्ता पृथ्वी की प्राचीनता का अनुमान करते हैं। जैसे, पेड़ो की पचास पुश्त की लकड़ी के जमने से एक फुट मोटा कोयले का थक्का बनता है । कोयले की तह की मोटाई बारह हजार फुट तक मानी गई है। यदि पेड़ो की हर एक पीढ़ी के लिये दस दस वर्ष भी रख ले तो इस हिसाब से बारह हजार फुट कोयला जमने मे कम से कम छ करोड़ वर्ष लगे होगे।

पृथ्वी की उत्पत्ति हुए कितना काल हुआ इस विषय मे भूगर्भवेत्ताओ और भौतिक विज्ञानियों में थोड़ा मतभेद है। भूगर्भवेत्ता पृथ्वी का कालनिर्णय उस हिसाब से करते हैं जिस हिसाब से चट्टानो की तहे पानी के नीचे जम रहीं हैं [ २३ ]
या बरसाती पानी और नदियों के बहाव से ज़मीन के ऊपर की मिट्टी कट रही है। वे यह मान कर चलते हैं कि जिस गति से पृथ्वी पर परिवर्तन आज हो रहे हैं उसी गति से पहले भी बराबर होते आए हैं। पर यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता। संभव है बहुत से पारिवर्तन जिनके लिये उन्होने लाखो वर्ष रखे हैं विपल्व के रूप में बात की बात में हुए हों। भूगर्भवेत्ताओ के हिसाब से उस काल को बीते दस करोड़ वर्ष के लगभग हुए होगे जिसमें पहले पहल पानी के भीतर जमने वाली चट्टानों की तह पड़ी और मूल आदिम अणुजीवो का प्रादुर्भाव हुआ। भौतिक विज्ञानवाले सूर्य के ताप की उत्पत्ति के और गति के विचार से, तथा जिस हिसाब से पृवी का ऊपरी तल ठंढा होता गया है उसके विचार से और कम काल बताते हैं। एक दूसरी आधुनिक युक्ति सृष्टिकाल-निर्णय की यह है कि प्रतिवर्ष नदियो का जो जल समुद्र में जाता है उसके द्वारा समुद्रजल में नमक की वृद्धि किस हिसाब से होती है इसका परता बैठा कर आरंभकाल निकाले। इस हिसाब से भी नौ दस करोड़ वर्ष आते है।

भूगर्भवेत्ता पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति से लेकर आज तक के काल को चार मुख्य कल्पो में बाँटते हैं---

प्रथम कल्प---पौधो में सिवार, क्राई, और पुष्पहीन पौधे। जतुओं मे स्पंज, मूँगे, शुक्तिवर्ग के कीड़े, कीटपतंग, ढालदार मछली जो रीढ़वाले जंतुओं मे सब से निम्न कोटि की है।

द्वितीय कल्प---पेड़ो मे खजूर, ताड़ इत्यादि जिनकी [ २४ ]
बाढ़ भीतर की ओर से सीधे ऊपर को ओर को होती है और जिनके धड़ में लकड़ी, हीर और छाल का स्पष्ट भेद नहीं होता। जंतुओ मे समुद्र में रहनेवाली विशाल आकार की छिपकलियां, पक्षी, पक्षियों और स्तन्य जीवो के बीच के अंडज स्तन्य ( दूध पिलाने वाले ), अजरायुज और जरायुजो के बीच के अजरायुज पिडज (आज कल के कंगारू से मिलते जुलते) जीव।

तृतीय कल्प---बड़े भारी जरायुज जंतु। मनुष्य के आकार के वनमानुस।

चतुर्थ कल्प---हाथी की तरह के पर उससे बहुत बड़े और रोएँदार मैमथ आदि जंतु। मनुष्य तथा वे सब जीव जो आज कल पाए जाते है।

किस प्रकार एक जाति के जंतु या पौधे से क्रमश दूसरी जाति के जंतुओं और पौधो की उत्पत्ति होती गई है इसका निरूपण विकाश सिद्धांत द्वारा किया गया है। इस पृथ्वी के पूर्वकल्पो में न जाने कितने ऐसे जंतु हो गए हैं जिनका वश लुप्त हो गया है, जो अब कही नहीं मिलते, पर जिनकी ठटरियाँ जमीन के नीचे दबी मिलती है। मैमथ इसी प्रकार का जतु हो गया है जो हाथी के रूप का था पर उससे बहुत बड़ा और रोएँदार होता था। बीस बीस हाथ लंबी ऐसी काँटेदार छिपकलियो की ठटरियाँ मिली है जो हवा में उड़ती थी। अब वे भीमकाय और भयंकर जंतु पृथ्वी पर नहीं रह गए। एक प्रकार के जंतु से दूसरे प्रकार के जंतु एकबारगी तो उत्पन्न नहीं हो गए। दोनों के बीच की वंशपरंपरा में ऐसे जंतु रहे होगे [ २५ ]
जिन मे थोड़े बहुत दोनो के लक्षण रहे होगे। इस प्रकार के मध्यवर्ती जंतु कुछ तो अब भी मिलते है और कुछ की ठटरियाँ भूगर्भ में मिलती हैं। इन ठटरियों से प्राणिविज्ञानविदो को एक प्रकार के जंतु से दूसरे प्रकार के जंतु की उत्पत्ति की श्रृंखला जोड़ने में बड़ा सहारा मिलता है। जैसे, विकाश सिद्धांत द्वारा स्थिर हुआ है कि पंजेवाले जंतुओ से ही क्रमश घोड़े आदि टापवाले जंतुओ का विकाश हुआ है, पर आज कल घोड़े की तरह का कोई ऐसा जंतु नहीं मिलता जिसमे उँगलियो के चिह्न हो। पर घोड़े की तरह के ऐसे जतुओ की ठटरियाँ मिली हैं जिनके पैरों में उँगलियाँ उँगलियो के चिह्न है। वे घोड़ो के पूर्वज थे।

जीवधारियों के संबंध मे पहले लोगो की धारणा थी कि जितने प्रकार के जीव आजकल है सब एक साथ सृष्टि के आरंभ में ही उत्पन्न हो गए थे अर्थात् जितने प्रकार के जीवों के ढाँचे आदि में थे वे सब बिना किसी परिवर्तन के अब तक ज्यों के त्यो चले आ रहे है। डारविन ने इस विश्वास का खंडन किया और 'विकाश सिद्धांत' की स्थापना करके यह सिद्ध कर दिया कि ये अनेक प्रकार के ढॉचो के जो इतने जीव दिखाई पड़ते हैं सब एक ही प्रकार के अत्यंत सादे ढॉचे के क्षुद्र आदिम जीवों से क्रमशः करोड़ो वर्ष की वंशपरंपरा के बीच स्थिति के अनुसार अपने अवयवो मे भिन्न भिन्न परिवर्तन प्राप्त करते हुए और उत्तरोत्तर भेदानुसार अनेक शाखाओं में विभक्त होते हुए उत्पन्न हुए है। इसी विकाश क्रम के अनुसार मनुष्य जाति भी पूर्व युग के उन जीवो से [ २६ ]
उत्पन्न हुई जिनसे बंदर वनमानुस आदि उत्पन्न हुए---अर्थात् बनमानुसों और मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे। इस विकावाद से बड़ी खलबली मची। इसकी बात जनसाधारण के विश्वास और धर्मपुस्तकों की पौराणिक सृष्टिकथा के विरुद्ध थी। हमारे यहाँ भी पुराणो मे योनियाँ स्थिर कही गई है और उनकी सख्या भी चौरासी लाख बता दी गई है। गरुड़पुराण में तो प्रत्येक वर्ग की योनियो की गिनती तक है *। डारविन ने यह अच्छी तरह सिद्ध करके दिखा दिया कि एक जाति के जीवो से ही कमश: दूसरी जाति के जीवो की उत्पत्ति हुई है। योनियाँ स्थिर नहीं है, स्थितिभेद के अनुसार असंख्य पीढियो के बीच उनके अवयवो आदि में परिवर्तन होते आए है जिससे एक योनि के जीवों से दूसरी योनि के जीवो की शाखा चली है। जिस 'जात्यंतर-परिणाम' को एक व्यक्ति से तीव्र परिणाम के रूप में पतंजलि ने अपने योगदर्शन में प्रकृति की पूर्णता से संभव बतलाया था + उसी को डारविन ने मृदु परिणाम के रूप में वंशपरंपरा के बीच प्रकृति का एक नियम सिद्ध किया।


*एकविंशति लक्षाणि ह्यडजाः परिकीर्तिता।

सेवदजाश्च तथैवोक्ता उद्भिज्जास्तत्प्रमाणतः ।।

गरुडपुराण अ० २

+ जात्यंतर परिणामः प्रकृत्यापूरात्। ४।२

नदीश्वर नाम का कोई व्यक्ति इसी शरीर से मनुष्य से देवता हो गया था। किस प्रकार एक योनि का जीव दूसरी योनि का [ २७ ]यह 'जात्यंतरपरिणाम' होता किस प्रकार है? 'वंशपरंपरा' और प्राकृतिक ग्रहण के नियमानुसार। वंशपरंपरा का नियम यह है कि जो विशेषता किसी जीव मे उपन्न हो जाती है वह पीढ़ी दर पीढ़ी चली चलती है और क्रमश: अधिक स्पष्ट होती जाती है। किसी जीव मे कोई नई विशेषता उत्पन्न कैसे होती है? परिस्थिति के अनुसार। जिस स्थिति में जा जीव पड़ जाते है उसके अनुकूल उनके अग और उनका स्वभाव क्रमशः होता जाता है। नई स्थिति में जिन अंगों के व्यवहार की आवश्यकता नहीं रह जाती वे निष्क्रिय होते होते कई पीढ़ियों के पीछे लुप्त हो जाते है। जिन अवयवों को जिस रूप में व्यवहार आवश्यक हो जाता है उस रूप के व्यवहार के उपयुक्त उनके ढाँचे में भी फेरफार हो जाता है। ऐसा एक दो दिन मे नहीं होता, असंख्य पीढ़ियों के बीच मृदु परिणाम के रूप में क्रमशः होता जाता है। परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होना बराबर देखा भी जाता है। एक प्रकार का साँप होता है जो चाळू में अंड देता है। उसे यदि पिंजड़े में बंद कर के रखते हैं तो वह बच्चे देने लगता है, अर्थात् अंडज से पिडज हो जाता है। जो विशेषता एक बार उत्पन्न हो जाती है वह बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी चली चलती है और बढ़ती जाती है। जंतुओं के व्यापारी इस बात को जानते हैं। वे प्राय: ऐसा करते हैं कि किसी


जीव हो सकता है यही इस सूत्र में बताया गया है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि पतंजलि का अभिप्राय एक व्यक्ति को योन्यंतर- प्राप्ति है। डारविन ने असंख्य पीढियों में जा कर ऐसा परिणाम होना बताया है ।

  1. तैत्तिरीयोपनिषद् में भी परमात्मा से पहले पहल आकाश की उत्पत्ति कही गई है, फिर आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। "आकाशाद्वायु, वायोरग्नि: अग्नेराप:, अद्भ्य: पृथिवी"।