विश्व प्रपंच/भूमिका/२

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

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जाति के कुछ जंतुओ में औरों से कोई विलक्षणता देख उन्हें चुन लेते है और उन्ही के जोड़े लगाते है। फिर उन जोड़ी से जो जंतु उत्पन्न होते है उनमे से भी उनको चुनते हैं जिनमे वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पीढ़ियो पीछे एक नए रूपरग और ढॉचे का जन्तु उत्पन्न कर लेते है। जंगली। ( गोले ) नीले कबूतर से अनेक रंग ढंग के पालतू कबूतर इसी तरह पैदा किए गए हैं। यह तो हुआ मनुष्य का चुनाव या 'कृत्रिम ग्रहण' । इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे "प्राकृतिक ग्रहण" कहते है। दोनों में अतर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जतुओ को चुनता है, पर प्रकृति का चुनाव जंतुओ के लाभ के लिये होता है। 'प्राकृतिक ग्रहण' का अभिप्राय यह है कि जिस परिस्थिति में जो जीव पड़ जाते है उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते है तो रह जाते हैं, नही तो नष्ट हो जाते है। प्रकृति उन्ही जीवों को रक्षा के लिये चुनता है जिनमे स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते है।

हेव्ल को ही लीजिए। उसके गर्भ की अवस्थाओ का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलचारी जतुओ से क्रमश उत्पन्न हुआ है। उसके पूर्वज पानी के किनारे दलदली में रहते थे‌। क्रमशः ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थिति-परिवर्तन के अनुसार उनके अवयवो मे फेरफार होता गया यहाँ तक कि कुछ काल ( लाखो वर्ष [ २९ ]
समझिए ) पीछे उनकी संतति मे जल में रहने के उपयुक्त अवयवो का विधान होगया—--जैसे, उनके अगले पैर मछली के डैनो के रूप के होगए, यद्यपि उनमें हड्डियाँ वे ही बनी रही जो घोड़े, गदहे आदि के अग़ले पैरो मे होती है। कई प्रकार के हेव्लो में पिछली टॉगो का चिह्न अब तक मिलता है। जीवो के ढॉचो मे बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवो के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवों का व्यवहार अधिक केरना पड़ता है, कुछ का कम। मनुष्य को ही लीजिए जिसकी उत्पत्ति बनमानुसो से मिलते जुलते किसी जंतु से धीरे धीरे हुई है। ज्यो ज्यो दो पैरो के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति उसमे अधिक होती गई त्यो त्यो उसके दोनो पैर चिपटे, चोड़े और दृढ़ होते गए और एड़ी पीछे की ओर कुछ बढ़ गई। उसी पूर्वज जतु से बनमानुसो की भी उत्पत्ति हुई है। वनमानुस से मनुष्य के शरीर के ढांँचे में तो उतना अधिक भेद नही पड़ा, पर अंत करण या मस्तिष्क की वृद्धि बहुत अधिक हुई।

दार्शनिक अनुमान के रूप में तो विकाशसिद्धात बहुत प्राचीन काल से पूर्व और पश्चिम दोनों ओर चला आ रहा है। एक अव्यक्त मूल प्रकृति से किस प्रकार क्रमशः जगत् का विकाश हुआ है सांख्य में इसका प्रतिपादन किया गया है। यूनानी तत्त्ववेत्ता भीं जगत् का विकाश इसी प्रकार मानते थे। पर वैज्ञानिक निश्चय और दार्शनिक अनुमान मे बड़ा भद होता है। दार्शनिक संकेत मात्र देते है और वैज्ञानिक ब्योरों की छानबीन करते है। जिस समय डारविन ने प्राणियो [ ३० ]
की उत्पत्ति के संबंध में विकाशसिद्धांत बहुत से प्रत्यक्ष प्रमाणो से पुष्ट कर के प्रकाशित किया उस समय बहुत से लोग विशेंषतः पादरी लोग उसके विरोध में खड़े हुए। पर साथ ही बहुत से वैज्ञानिक नए नए प्रमाणो द्वारा उसे पुष्ट करने मे तत्पर हुए। जरसनी के जगत्प्रसिद्ध प्राणिविद्या विशारद अध्यापक हैकल इनमे मुख्य थे। उन्होने सन् १८६६ मे, अर्थात् डारविन की पुस्तक प्रकाशित होने के ६ वर्ष पीछे, 'प्राणियों की शरीररचना' नामक एक बहुत बड़ा ग्रंथ प्रकाशित किया जिसमे अनेक नए नए अनुसंधानो के आधार पर यह अच्छी तरह दिखाया गया है कि इस पृथ्वी पर क्रम क्रम से एक ढाँचे के जीव से दूसर ढॉचे के जीव लाखो वर्ष की मृदु परिवर्तन-परपरा के प्रभाव से बराबर उत्पन्न होते आए है। हैकल ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुजीवों से ले कर मनुष्य तक आनेवाली श्रृंखला ही उत्पत्तिक्रम से दिखा कर सतोष नहीं किया बल्कि विकाश को विश्वव्यापक नियम निश्चित करके निर्जीव, सजीव, जड़, चेतन सभी व्यापारो को उसके अंतर्गत बताया। अब आजकल तो प्रत्येक विभाग के वैज्ञानिक अपने अपने विषय का निरूपण विकाशक्रम के अनुसार ही करते है।

इस पृथ्वी पर जल की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह ऊपर कहा जा चुका है। जल ही में जीवनतत्त्व की उत्पत्ति हुई। जल ही में उस सजीव या सेद्रिय * द्रव्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसे


* सेन्द्रिय चैतनं द्रब्य निरिन्द्रियमचैतनम्।---चरक। [ ३१ ]
कललरस कहते हैं। जिन्हें हम सजीव व्यापार कहते है---जैसे, आपसे आप चलना, खाना, पीना, बढ़ना, आहार की ओर दौड़ना, छूने से हटना-वें सब इसी अद्भुत द्रव्य की क्रियाएँ है। इसकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सजीव कणिका भी ये सच व्यापार करती है। यह अंडे की जरदी से मिलताजुलता मधु के समान चिपचिपा दानेदार द्रव्य है जो अणुजीव के रूप में जल के भीतर भी इधर उधर घूमता फिरता पाया जाता है और छोटे बड़े सब प्राणियो के शरीर में भी। इसकी गूढ़रचना अंगारक (कारबन), अम्लजन गैस (आक्सजन), नत्रजन गैस और हाइड्रोजन गैस द्वारा संघटित द्रव्यो के विलक्षण मेल से हुई। इन द्रव्यों में अंगारक ही मुख्य है।रासायनिको की परीक्षा से ये ही चार मूल द्रव्य इसमें मुख्यतः पाए गए। जल, गंधक, फासफर को अंश भी कुछ रहता है। यद्यपि अपने विश्लेषण द्वारा रासायनिक इस अद्भुत द्रव्य के मूल उपादानो को जान गए है पर वे उनके द्वारा संघटित अणुओ की विलक्षण योजना को कुछ भी नही समझ सके है।

विकाशसिद्धांत के अनुसार इस सजीव द्रव्य की उत्पत्ति निर्जीव द्रव्य से माननी पड़ती है। पर कोई रासायनिक आज तक अपनी योजना द्वारा इसे उत्पन्न करने में समर्थ नही हुआ। यह केवल सजीव प्राणियो---जंतुओ और पौधो-में ही पाया जाता है। यह जब पाया जाता है तब शरीर ( विदुरूपी शरीर ही सही) रूप में ही जीवन के व्यापार करता पाया जाता है, निर्जीव द्रव्यों से बनता हुअर कहीं नहीं पाया जाता। इससे बहुत से लोग इसकी उत्पत्ति निर्जीव द्रव्य से नही [ ३२ ]
मानते। विकाशवाद के प्रसिद्ध निरूपक हक्सले तक ने कह दिया कि इस प्रकार की उत्पत्ति के प्रमाण नहीं मिलते। पर अधिकांश वैज्ञानिक इस प्रकार की उत्पत्ति मानना अनिवार्य समझते है। वे यह तो मान नहीं सकते कि आदि से ही ऐसे जटिल द्रव्य की योजना चली आ रही है या सजीवता एक अभौतिक तत्व के रूप मे कही से टपक पड़ी है। अभी सन् १९१२ में ब्रिटिश असोसिएशन के सामने शरीरविज्ञान के प्रसिद्ध आचार्य (एडिनबरा के) अध्यापक शेफर ने कहा है----

"सजीव द्रव्य उत्पन्न कर देने की संभावना उतनी दूर नहीं है जितनी साधारणत समझी जाती है। इच्छानुसार सजीव द्रव्य उत्पन्न किया जाने लगे तो भी आकार और व्यापर में परस्पर भिन्न जो इतने असख्य प्रकार के जीव दिखाई पडते हैं विज्ञान के परीक्षालयों में उनके तैयार होने की कोई आशा नहीं की जा सकती। यदि सजीव द्रव्य तैयार किया जा सकेगा, जिसमे मुझको कोई संदेह नहीं है, तो वह सजीव द्रव्य के उबाले हुए अर्क से नहीं। चाहे आज तक काम मे लाई गई युक्तियो और प्रमाणो पर हमे विश्वास न हो पर यह हमे मानना पड़ेगा कि निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य तैयार करने की संभावना है।"

निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य उत्पन्न होता कही पाया नहीं जाता इसी बात की पुकार सुन कर हैकल को यह मानना पडा है कि निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य इस पृथ्वी पर केवल एक बार आरंभ में उत्पन्न हुआ, उसके उपरांत वह वंशवृद्धि [ ३३ ]
क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इस सिद्धांत के संबंध मे अध्यापक शेफर ने कहा---

"यदि हम यह मान लेते है कि पृथ्वी के इतिहास मे केवल एक ही बार निर्जीव से सजीव का विकाश हुआ है तो प्राणतत्त्व-संबंधिनी समस्याओ के अंतिम समाधान की कोई अशा नहीं रह जाती। पर क्या हमें ऐसा मान लेना उचित है कि पृथ्वी पर केवल एक ही बार, वह भी न जाने किस शुभ संयोग से, निर्जीव द्रव्य से सजीव द्रव्य का विकाश हुआ और प्राणतत्त्व की प्रतिष्ठा हुई? ऐसा मानने की कोई कारण न देख अंत में यही धारणा पक्की ठहरती है कि निर्जीव से सजीव का विकाश एक ही बार नही कई बार हुआ है और कौन जाने अब भी हो रहा हो" ।

जीवों का विकाश-क्रम दिखाने के पहले यह कह देना आवश्यक है कि जतु और पौधे दोनो सजीव सृष्टि के अंतर्गत हैं, दोनों में जीव है। पहले लोग समझते थे कि जंतु चर है। और पौधे अचर।मनुस्मृति में लिखा है कि "उद्भिज्जाः स्थावरास्सर्वे बीजकांडप्ररोहिण" । पर वास्तव में चर अचर का भी भेद नहीं है। बहुत से ऐसे जतु हैं जो अचर हैं (जैसे, स्पज, मूंँगा आदि) और बहुत से ऐसे सूक्ष्म समुद्री पौधे होते है जो बराबर चलते फिरते रहते हैं। बहुत से ऐसे पौधे होते हैं जो जंतुओ के समान मक्खियों आदि का शिकार करते है, उन्हें अपनी पत्तियो में बंद करके पच जाते हैं। जंतुओं और पौधो मे मूलभेद नहीं है इसका प्रयक्ष प्रमाण खुमी (कुकुरमुत्ते) की
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जाति के कुछ समुद्री पौधो मे मिलता है जिनके बीजकण जंतु के रूप मे अलग हो कर अपनी रोइयो से पानी मे तैरते फिरते हैं और कुछ दिन पीछे किसी चट्टान आदि पर जम जाते है और पौधे के रूप में हो कर बढ़ते हैं। यह बात तो बहुत से लोग जानते ही हैं कि पौधो में भी पाचनक्रिया होती है और वे भी साँस लेते हैं। पर पहले लोग जंतुओ मे यह विशेषता समझते थे कि उनमे पाचन के लिये अलग कोठा (पेट) होता है, वे अम्लजन वा प्राणदवायु साँस द्वारा खीचते हैं और अंगारक (कारबन) वायु निकालते हैं तथा उनमे संवेदन-सूत्रात्मक विज्ञानमय कोश होता है। पर अब ऐसे क्षुद्र कोटि के जतुओ का पता है जिनमें पेट, मुंँह आदि कुछ नहीं होता और कई ऐसे पौधे देखे गए हैं जिनमे ये अंग होते है। पहले लोगो को केवल उच्च कोटि के जंतुओ का ही ज्ञान था जिनका खाद्य ठोस होता है और जिनके लिये पक्काशय और मुहँ की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार पेड़ पौधो मे भी लोग उन्ही को जानते थे जिनका आहार वायव्य या द्रव होता था। अब मांसाशी पौधो की पत्तियों की परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि उनमे काँटो की तरह सूक्ष्म ग्रंथियाँ होती है जिनसे पित्तरस रहता है (जैसे जंतुओ के यकृत और आंतों की ग्रथियो मे)। यही तक नही अंकुरित बीजो मे जंतुओ के पाचनरस का सा विधान देखा जाता है और बीजदल में जो खाद्य द्रव्य रहता है वह उसी प्रकार पच कर बीज को पुष्ट करता है जिस प्रकार पेट में भोजन पचता है। हरे पौधे प्रकाश मे तो अंगारकवायु का विश्लेषण करके अम्लजन वायु छोड़ते हैं, पर अंधेरे मे [ ३५ ]
इसका उलटा करते हैं---अर्थान् जंतुओं के समान अम्लजन का ग्रहण और अंगारक का विसर्जन करते हैं।

अब रहा संवेदन। संवेदन का सब से आदिम रूप है प्रतिक्रिया अर्थात् किसी पदार्थ के साथ संपर्क होते ही शरीर मे भी एक विशेष प्रकार का क्षोभ या क्रिया (गति) उत्पन्न होना। यह प्रतिक्रिया अचेतन व्यापार मानी जाती है, अर्थात् यह ज्ञानपूर्वक नहीं होती---जैसे आँख के पास किसी वस्तु के जाते ही पलको का आप से आप बंद हो जाना, दूसरी ओर ध्यान रहने पर पैर में कुछ छू जाते ही पैर को आप से आप हट या सिमट जाना इत्यादि। अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवो मे संवेदन इसी प्रतिक्रिया के रूप में ही माना जाता है। लजालु आदि पौधों में तो यह प्रतिक्रिया स्पष्ट देखी जाती है। और सब पौधों के भीतर भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया होती है पर वह सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नही पड़ती। जिस प्रकार अणुजीव छू जाने पर संकुचित हो जाते हैं उसी प्रकार पौधो के घटक भी करते पाए जाते हैं। पौधो की जड़ो की नोके अत्यंत संवेदनग्राहिणी होती हैं। जहां उन पर संपर्क आदि द्वारा संवेदन हुआ कि वह एक घटक से दूसरे घटक में उसी प्रकार पहुँचता है जिस प्रकार क्षुद्र जंतुओं में। फूल पत्तों में सोने जागने की गति देखी ही जाती है जो प्रकाश के प्रभाव से होती है। प्रकाश का प्रभाव जिस प्रकार हमारे सवेदनविधान या विज्ञानमय कोश पर पड़ता है उसी प्रकार पौधो के संवेदन-विधान पर भी। कमल आदि बहुत से फूलों का दिन का प्रकाश पा कर खिलना और रात को बंद हो [ ३६ ]
जाना एक प्रसिद्ध बात है। मनु ने भी उद्भिजों की गिनती जीवों या प्राणियों में की है और उनमें अंतस्संज्ञा मानी है, यथा---तमसा बहुरूपेण वेष्ठितः कर्महेतुना। अंतस्संज्ञा भवन्त्येते सुख दु ख समन्विता‌।। अध्यापक जगदीशचंद्र बसु ने तो पौधो के सुख दुःख आदि के संवेदन को अर्थात् उनके संवदनसूत्रो में उत्पन्न क्षोभ को अपने सूक्ष्म और अद्भुत यंत्रो द्वारा प्रत्यक्ष दिखा दिया है। यहीं तक नहीं उन्होने अपनी खोज और आगे बढ़ाई है। उन्होंने धातुओं में भी संवेदन के क्षोभ का आभास दे कर निर्जीव और सजीव के बीच समझे जाने वाले भेदभाव को बहुत कुछ मिटा दिया है।अध्यापक शेफर ने भी अपने व्याख्यान में कहा था कि "आजकल के नए नए अनुसंधानो से यह सूचित हुआ है कि निर्जीव और सजीव में जितना भेद प्रतीत होता है वास्तव में उतना भेद नहीं है और इन दोनों का एक सामान्य लक्षण स्थापित होने की संभावना बढ़ गई है।"

अत्यंत क्षुद्र कोटि के जंतुओ और पौधो में तो प्राय सब बातो मे समानता पाई जाती है। पर ज्या ज्यों हम उन्नत पौधो की ओर आते हैं त्यों त्यो उनमे जंतुओ से विभिन्नता अधिक मिलती जाती है। इससे स्पष्ट है कि एक ही सजीव द्रव्य वा कललरस से जंतुओं और उद्भिदो दोनों की उत्पत्ति हुई पर आरंभ ही से उद्भिजों की शाखा अलग हो गई और उनकी विकाशपरंपरा अलग चली। यह भेद पौधो मे उस हरित धातु के कारण पड़ा जो उनके कललरस में मिली रहती है और जिसके कारण पेड़ पौधे का रंग हरा दिखाई पड़ता [ ३७ ]
है। यह हरितधातु वास्तव में कललरस का ही एक विकार है जो जंतुओं के कललरस में नहीं होता। अत्यंत क्षुद्र कोटि के कुछ कृमियो मे यह बहुत थोड़ी मात्रा में पाई जाती है, पर जतुओं में इसका अभाव ही समझना चाहिए। इस धातु मे से इसका हरा रंग निकाला भी जा सकता है। शिशिर ऋतु में पत्तियों के रंग का बदलना इसी रंग के फटने के कारण होता है।

पौधों और जंतुओ मे बड़ा भारी भेद आहार का है। ऊपर कहा जा चुका है कि पौधो का आहार वायु और मिट्टी आदि मिले हुए जल के रूप मे होता है। जिस प्रकार ये वायव्य द्रव्यों को विश्लिष्ट कर के अपना ठोस अंग बनाते हैं उसी प्रकार मिट्टी आदि को सजीव धातु के रूप में लाते हैं। इस प्रकार अदृश्य को दृश्य रूप में और निर्जीव को सजीव द्रव्य में परिणत करने की शक्ति पेड़ पौधों मे ही है जंतुओं में नहीं जिनका भोजन किसी न किसी जीवधारी का शरीर ही होता है, चाहे जंतु का हो चाहे वनस्पति का। पौधो में यह अद्भुत शक्ति उक्त हरित धातु के ही कारण होती है *। जड़ो


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से जो जल पौधे खीचते हैं और पत्तियो के सूक्ष्म छिद्रों से जो अंगारक वायु भीतर लेते हैं उन्हें यह धातु सूर्य की गरमी पा कर विश्लिष्ट कर देती है जिससे अम्लजन वायु तो निकल जाती है उदजन वायु ( हाइड्रोजन ) और अंगारक रह जाता है। इन दोनों से मिल कर यह उन अंगारक-मिश्रणो को घटित करती है जो शरीर-धातु कहलाते हैं और जिनसे पौधो के घटक, ततुजाल आदि बनते हैं। जंतु ऐसा नहीं करते। वे जल, क्षार, वायु, मिट्टी आदि निर्जीव द्रव्यों को खा कर सजीव द्रव्यों के रूप में नहीं ला सकते। वे पौधा से ही शरीर-धातु बनी बनाई प्राप्त करते है। पेड़ पौधे ही जड़ द्रव्य से इस धातु की निर्माण करते हैं।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कललरस की उत्पत्ति जल में ही हुई। इसी कललरस के अत्यंत सूक्ष्म कण जो स्वतंत्र रूप से जीवो के मूल व्यापार करते हैं घटक कहलाते हैं। नमें कुछ तो मधुबिदुवत् खुले ही रहते हैं, कुछ के ऊपर झिल्ली होती है, कुछ के बीच में एक बहुत सूक्ष्म गुठली सी होती है और कुछ सर्वत्र समान वा एकरस होते है।


चाहिए। इससे वे जब उगेंगे तब सड़ी लकड़ी के ऊपर या ऐसी जगह जहाँ की मिट्टी में मरे हुए जंतुओं या पौधों के शरीराश मिले होग। बरसात में फलों आदि के ऊपर जो सफद सफेद भुकड़ी जम जाती है वह इसी जाति के पौधों का समूह है। दाद के चकत्तो में इन्ही का समूह समझिए। सड़ाव और ख़मीर का कारण भी खुमी की जाति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुजीव हैं। [ ३९ ]
इन्हीं घटकों के योग से पौधों और जंतुओं के शरीर संघटित हुए हैं। इन घटकों को अणुशरीर समझिए क्योंकि ये जिस प्रकार जीवधारियों के शरीर में तंतुजाल के रूप में गुछे पाए जाते हैं उसी प्रकार जीव के रूप में समुद्र या गड्ढो आदि के जल में भी चलते फिरते पाए जाते हैं। इन्ही अणुशरीरों की योजना से छोटे बड़े सब शरीर बने है----क्या जंतुओ के, क्या पेड़ पौधो के *। शुक्रकीटाणु और रजःकीटाणु भी एक विशेष प्रकार के सूक्ष्म घटक मात्र हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि घटक अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। कुछ तो इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक इंच के लाखवे भाग के बराबर भी नहीं होते। जैस कुछ अणूद्भिद्। कुछ इतने बड़े होते हैं कि बिना खुर्दबीन की सहायता के भी देखे जा सकते हैं। पर अधिकांश घटक या घटकरूप जीव अच्छे सुक्ष्मदर्शक यत्र के विना नहीं दिखाई पड़ते। जो जीवे एक घटक मात्र है वे एकघटक जीव या अणुजीव कहलाते हैं और जिनका शरीर दो या अधिक घटकों का होता है, वे वहुघटक जीव कहलाते हैं।

आदि में एकघटक अणुजीव ही जल में उत्पन्न हुए जिनका शरीर एक घटक मात्र था।

एक घटक अणूद्भिद् अब भी समुद्र, ताल आदि के जल


*चरक ने भी शरीर के परमाणुरूप सूक्ष्म अवयव मान है। शरीरावयवास्तु परमाणुभेदेनापरिसंख्येया भवन्त्यतिबहुत्वादतिसौम्यादतीन्द्रियत्वाच।

--चरक ७

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मे पाए जाते हैं। उनमे स्त्री पुं० भेद नहीं होता, उनकी वृद्धि बीज से नही होती विभाग द्वारा होती है। अणुरूप एकघटक पौधे छोटे बड़े कई प्रकार के होते हैं। इन अणूद्भिदो के पहले पहल परस्पर मिल कर एक शरीर बनाने से अत्यंत क्षुद्र कोटि के बिना फूलवाले पौधे हुए, जैसे, सेवार, काई, भुकड़ी, खुमी इत्यादि जिनमें खुले हुए अंकुरविंदु उत्पन्न होते हैं। इन खुले हुए अंकुरबिंदु वाले पौधों से फर्न आदि आवरणयुक्त अंकुरविदुवाले पौधे हुए। इन अकुराविदुवाले पौधो की वृद्धि गर्भकेसर और परागकेसर द्वारा नही होती, ये निष्पुष्प पौधे हैं। इनमे अंकुरविंदु निकलते है

जिनसे अंकुरित होकर नए पौधे उत्पन्न होते है। पर कुछ गूढलिग निष्पुष्प पौधे ऐसे भी होते हैं जिनमें यद्यपि स्त्री पु० अवयव ( गर्भकेसर परागकेसर ) अलग अलग नहीं होते पर जंतुओं के शुक्रकीटाणु और रजःकीटाणु के समान स्त्री पुं० घटक अलग अलग होते है। अंकुरविंदुवाले पौधों से क्रमशः फूलवाले अर्थात् स्त्री पुं० अवयववाले पौधे हुए जिनमे गर्भाधान गर्भकेसर के बीच परागकेसर के पराग के पड़ने से होता है। गर्भकेसर और परागकेसर ही वास्तव में पुष्प है, रंगीन दल या पखड़ी नही। अत्यंत निम्न श्रेणी के फूलवाले पौधा मे पॅखड़ियाँ नहीं होतीं। फूलवाले पौधो मे पहले देवदार आदि खुले बीज के पौधे हुए फिर उनसे आवरणयुक्त बीजवाले तृण, लता, गुल्म, वृक्ष इत्यादि हुए।

इसी प्रकार जंतुओ मे सब से मूल जंतु अणुरूप ही हुए। अणुजीव अब भी समुद्र या तालो में पाए जाते है और अत्यंत [ ४१ ]
सूक्ष्म कललविंदु मात्र होते हैं। ये बहुत अच्छे सूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा ही दिखाई पड़ सकते हैं। अत्यत सूक्ष्म अणुरूप ऐसे जीवों को छोड़ जिनके व्यापार आदि स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं हो सके हैं सब से सादा और सूक्ष्म जीव जिसके कार्यकलाप देखे जा सके हैं मोनरा है। यह जल मे पाया जाता है। इसका सारा शरीर मधुविंदुवत् सर्वत्र समान होता है, उसमें पेट, मुहूँ, आँख, कान, नाक, हाथ, पैर इत्यादि अलग अलग अंग नहीं होते। इन अंगों से जो व्यापार होते है वे आवश्यकतानुसार इस जंतु के प्रत्येक भाग से सम्पादित होते हैं। जीवों के व्यापार तीन हैं--पोषण, प्रजनन और वाह्यविषय-ग्रहण। मोनरा प्रत्येक भाग से अपना आहार भीतर ले सकता है, प्रत्येक भाग से पचा कर निकाल सकता है प्रत्येक भाग से वायु को खींच और छोड़ सकता है। यह अपने चारो ओर जिधर आवश्यक होता है उधर लंबे लंबे शंकु या पदाभास निकालता है। इसका शरीर मधुविद्वत् तो होता ही है जिधर शंकु या पदाभास निकलते है उसी ओर को ढल पड़ता है। इसी प्रकार यह चलता है और अपने शिकार या आहार ( जल मे मिले हुए अत्यंत सूक्ष्म अणूद्भिद् या जंतु ) को छोप लेता है। शरीर का प्रत्येक भाग आहार चूस सकता और मल बाहर निकाल सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवों में स्त्र पुं० विधान नहीं होता। उनकी अमैथुन सृष्टि होती है। अब मोनरा मे प्रजनन या वृद्धि किस प्रकार होती है यह देखिए। जो मोनरा आहार आदि पाकर खूब पुष्ट होता है वह कुछ [ ४२ ]
अधिक लंबा हो जाता है और उसका मध्य भाग पतला पड़ने लगता है यहाँ तक कि बहुत कम रह जाता है और जंतु बीच से दो भागों में विभक्त दिखाई पड़ता है। अंत मे मध्य से टूट कर दोनो भाग अलग अलग हो जाते हैं अर्थात् दो नए जंतु होकर अपना जीवन आरंभ करते और बढ़ते हैं। इस प्रकार पूर्व जंतु का व्यक्तित्व या जीवन समाप्त हो जाता है और उसके स्थान पर दो नए जंतु हो जाते है। ऐसे प्रजनन विधान को विभाग कहते हैं।

जंतुओ का प्रधान लक्षण वह क्रिया है जो उनमे वाह्य वस्तुओ के संपर्क से उत्पन्न होती है जैसे ईथर या आकाश द्रव्य की लहरो का संपर्क जिसका ग्रहण नेत्रेद्रिय में प्रकाश रूप से होता है, वायु की तरंगो का संपर्क जिसका ग्रहण श्रोत्रेद्रिय मे शब्द रूप से होता है, स्थूल पदार्थों का सपर्क जिसका ग्रहण त्वचा को स्पर्श रूप से होता है। मोनरा को अलग अलग अवयव या इंद्रियाँ नही होतीं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि वह वाह्य विषयों का ग्रहण नहीं करता। भिन्न भिन्न विषयो का ग्रहण उसमे सर्वत्र समान रूप से होता है। यह ग्रहण चाहे अत्यंत सूक्ष्म वा अल्प हो, पर होता अवश्य है। किसी वस्तु से छू जाने पर उसका शरीर सुकड़ जाता है। इस प्रकार स्पर्श का संवेदन उसमे प्रत्यक्ष देखा जाता है।

मोनरा से कुछ उन्नत कोटि का जीव अमीबा ( अस्थिगकृति अणुजीव ) है जिसमें एकरूपता या निर्विशेषत्व ( एक भाग से दूसरे भाग मे कोई विशेषता न होना ) का भंग [ ४३ ]
और अनेकरूपता का कुछ कुछ आरंभ होता है । मोनरा का शरीर मधुविदुवत् सर्वत्र एकरूप होता है पर अमीबा के शरीर पर अत्यंत महीन झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच में एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जो यद्यपि कललरस की ही होती है पर अधिक तीव्र होती है। इस गुठली के अतिरिक्त कललरस के बीच झिल्ली से घिरा हुआ एक खाली स्थान भी होता है जो सुकड़ता और फैलता रहता है। मोनरा के समान इसकी गतिविधि और पाचन क्रिया भी कललरस की ही गति और क्रिया में होती है। अत्यंत सूक्ष्म अणुजीव या पौधे अथवा उनसे कुछ बड़े जीवो के शरीरखंड जो जल में रहते हैं और आहार के रूप में इसके भीतर जाते हैं उनके सार भाग को तो कललरस अपनी ही क्रिया से अपने में मिला लेता है और शेष भाग को बाहर निकाल देता है। इसका चलना भी कललरस ही की क्रिया से होता है अर्थात् जिस ओर शंकु या पदाभास निकलते है उस और सारा कललरस ( अर्थात् शरीर ) ढल पड़ता है। इसी प्रकार यह अपना मार्ग निकालता चला जाता है। जल में जहाँ रेत या मिट्टी के सूक्ष्म कण होते हैं वहाँ यह उन्हे बड़ी सफाई से बचा जाता है। पदभासो के निकालने का कोई निश्चित स्थान न होने से इसका आकार स्थिर नहीं होता।

ऊपर कहा जा चुका है कि कललरस का अत्यंत सूक्ष्म कण जो प्राणियों के सब आवश्यक व्यापार स्वतंत्र रूप से कर सकता है घटक कहलाता है और मोनरा या अमीबा इसी प्रकार की एक घटक मात्र है। अतः [ ४४ ]
ये दोनो एकघटक जीव या अणुजीव कहलाते हैं। इसी प्रकार के घटकों के योग से सब जंतुओं के शरीर बने है। मनुष्य के रक्त की श्वेत कणिकाएँ ( जो अच्छे सूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा ही देखी जा सकती हैं ) अमीबा से मिलती जुलती होती हैं और उसी के समान सब व्यापार करती हैं। मोनरा और अमीबा अत्यत सादे ढाँचे के जीव है। इनके अतिरिक्त छोटे बड़े और अनेक प्रकार के एकघटक अणुजीव होते हैं जिनमे से कुछ तो इतने बड़े ( एक इंच के १०० वे भाग के बराबर ) होते हैं कि आँख से अच्छी तरह दिखाई पड़ सकते है। बहुत से अणुजीव जल में से चूने आदि का सग्रह करके अपने ऊपर कड़ी खेलड़ी बनाते हैं। कुछ अणुजीवो की खोलड़ियाँ बहुत ही सुदर और चित्राविचित्र होती हैं। जब वे अणुजीव मर जाते हैं तब खोलड़ियाँ गिर कर पानी के तल में बैठ जाती हैं। खरिया मिट्टी ऐसे ही जीवो की खोलड़ियो के तह पर तह जमने से बनती है।

जैसा कि पहले कह आए है अणुजीवी मे जोड़े नहीं होते, उनकी वृद्धि अमैथुन विधान से होती है---अर्थात् कुछ अणुजीवों मे तो यह होता है कि एक जीव के बीच से दो खड होकर दो अलग अलग जीव हो जाते हैं और कुछ के शरीर पर अकुरबिंदु निकलते हैं जो अलग होकर और बढ़कर स्वतत्र जीव हो जाते हैं। पर कुछ उन्नत कोटि के अणुजीव ऐसे भी होते हैं जिनमें मैथुन-विधान अपने मूलरूप में देखा जाता है। ये पुछल्लेवाले अणुजीवों में से है और बहुत से [ ४५ ]
मिल कर चक्र या छत्ता बना कर रहते हैं। एक छत्ते के अंतर्गत अनेक जीव रहते हैं। तरुणावस्था प्राप्त होने पर कुछ जीव छत्ते से अलग हो जाते हैं और मिलकर एक अलग कीटाणुचक्र बनाते हैं और कुछ अलग अलग बढ़कर गर्भाड के रूप मे हो जाते है। कीटाणुचक्र का प्रत्येक कीटाणु पुछल्लेदार सूक्ष्म कीट होता है ( मनुष्य आदि जरायुज जंतुओ के शुक्रकीटाणु भी इसी प्रकार के होते है ) जो गर्भाड रूप कीट से बहुत छोटा होता है। पुछल्लेदार पु० कीटाणु चक्र से छूटने पर अपने पुछल्लों को लहराते हुए जल से इधर उधर तैरने लगते हैं पर गर्भाड रूप स्त्री कीटाणु अचल भाव से स्थिर रहते है। एक एक गर्भाड रूप स्त्री कीटाणु को अनेक पुं० कीटाणु जा घेरते हैं और अत में एक उसके भीतर घुस कर सयुक्त हो जाता है। इस प्रकार सयोग होजाने पर दोनों मिल कर एक अंडे का आकार धारण करत हैं। अंडे के भीतर का कललरस विभागक्रम द्वारा अनेक कणो मे विभक्त होजाता है। अंडे के फूटने पर ये कण बाहर निक़ल कर तैरने लगते है। थोड़े ही दिनों मे इन्हें पुछल्ले निकल आते है और ये पूरे जंतु होकर इधर उधर तैरते फिरते है। इन पुछल्लेवाले जीवों का शरीर सर्वत्र समान नहीं होता, सूक्ष्म त्वक् और पुछल्ले के अतिरिक्त आहार-मिश्रित जल के प्रवेश के लिये एक विवर भी होता है। जिसे मुँह कह सकते है।

जोवोत्पत्ति का आरंभ मोनरा और अमीबा के समान अत्यंत सादे ढाँचे के कललविंदु रूप अणुजीवों से हुआ जिनके [ ४६ ]शरीर का सारा भाग बाह्य भूतों के भिन्न भिन्न प्रकार के संपर्कों को समान रूप से ग्रहण करता था, प्रत्येक भाग प्रत्येक व्यापार कर सकता था। फिर असंख्य पीढ़ियों के पीछे होते होते यह हुआ कि जिस भाग पर स्थिति के अनुसार संपर्क अधिक हुआ उसमें अभ्यास के कारण संपर्क अधिक ग्रहण करने की विशेषता उत्पन्न हुई। इस गुणविकाश के साथ ही उन भाग की आकृति में भी परिवर्तन हुआ। जैसे, मोनरा का शरीर जल मे पड़े हुए मधुबिन्दु के समान सर्वत्र एकरूप था और उसके चारों ओर बाह्यभूतों के अण्वात्मक प्रवाहो का आघात पड़ता था। यह आघात पहले ऊपरी सतह पर पड़ कर तब भीतरी कललरस की कणिकाओं पर प्रभाव डालता था। अतः स्थिति के अनुसार जिनमें उक्त आघात का ग्रहण अधिक हुआ उनके ऊपरी तल में और कललरस के भीतरी कणो की स्थिति में भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार विशेषताएं उत्पन्न होने लगीं। ये विशेषताएं बराबर वृद्धि को प्राप्त होती गईं यहाँ तक कि अमीबा का प्रादुर्भाव हुआ जिसके ऊपर झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच एक गुठली तथा फैलने और सुकड़नेवाला एक खाली स्थान होता है।

बहुत से अणुजीव मिल कर एक समूहपिंड या छत्ता सा बना लेते हैं। समूहचक्र में बद्ध रहने पर भी प्रत्येक जीव अलग अलग कीटाणु होता है, सब मिल कर एक जीव या एक शरीर नहीं हो जाते। ये समूहपिंड या चक्र इस प्रकार बनते हैं। चक्रबद्ध अणुजीवों में जो वृद्धि-विधान होता है उसमें [ ४७ ]
में मोनरा और अमीबा के समान पूरा विभाग नही होता है। एक अणुजीव का शरीर जब दो भागों में विभक्त होने लगता है तब मोनरा या अमीबा के समान दोनो भाग अलग अलग नही हो जाते, कललरस के एक सूत्र द्वारा एक दूसरे से लगे रहते हैं। फिर वे दोनो भाग अपनी पूरी बाढ़ पर पहुँचने पर उसी प्रकार दो दो भागो मे विभक्त हो जाते हैं। इसी क्रम से एक जीव से अनेक जीव हो जाते हैं जो एक दूसरे से लगे रहते हैं। इस प्रकार के समूहचक्र के कीटाणु सब एक ढाँचे के होते हैं और प्राय: अलग अलग कोशो में रहते हैं।

समूहचक्र या छत्ते की योजना के अतिरिक्त एक और भी घनिष्ट और गूढ़तर योजना होती है जिससे एक शरीर या समवायपिंड की उत्पत्ति होती है। इसमे बहुत से अणुजीव-रूप घटक मिल कर एक शरीर या जीव हो जाते हैं। अणु जीवो को छोड़ और नव प्राणियों के शरीर बहुत से घटको की ऐसी ही गूढ़ योजना से बने हैं। बड़े से बड़े जीवो का शरीर वास्तव में घटको या अणुजीवों की एक ऐसी सुव्यवस्थित बस्ती है जिसमें एक प्रकार की एकता आ गई है। शरीर संघटित करने में घटकों की जो योजना होती है उसमे सब घटक मिल कर एक तंतुपटल के रूप मे हो जाते है और भिन्न भिन्न भागों में कार्य्यानुसार भिन्न भिन्न आकृतियाँ धारण करते है। जंतुओं की पेशियाँ, हड्डियाँ, नसे, शिराएँ, संवेदन-सूत्र इत्यादि सब अणुजीवरूप घटको की योजना से संघटित हैं।

आरंभ में अणुजीवरुप घटक मिल कर झिल्ली के रूप में [ ४८ ]
हुए अतः सब से सादे और आदिम कोटि के बहुघटक जीव दुहरी या तिहरी झिल्ली के कोश के अतिरिक्त और कुछ नही थे। स्पंज या मुर्दा बादल इसी प्रकार के जीव हैं। ये समुद्र की चट्टानों आदि पर जमे रहते हैं, चल फिर नहीं सकते और कई प्रकार के होते है। स्लेट पोछने के लिये लड़के जो स्पज रखते हैं उसे बहुतो ने देखा होगा। स्पंज का शरीर छिद्रमय कोश मात्र होता है जिसके भीतर बहुत सी नालियाँ होती है। सूक्ष्म जीवों से पूर्ण जल मुखविवर से हो कर भीतर जाता है और नालियो के द्वारा चारो ओर घूम कर सारे घटकों का पोषण करता है। इन नलियो के अतिरिक्त और अलग अलग अवयव नही होते और ये नलियाँ भी भिन्न भिन्न कार्यों के लिये भिन्न भिन्न नहीं होतीं, सब समान रूप से जलवहन का कार्य करती हैं। ऐसा नही होता कि पाचन के लिये अलग नलियाँ हा और जलप्रवाह के लिये अलग। स्पंजो की वंशवृद्धि-अमैथुन विधान से भी होती है और मैथुन-विधान से भी। जिन निम्न कोटि के स्पंजो की वृद्धि अमैथुनविधान से होती है उनके शरीर पर कुड्मल या अंकुरविंदु उत्पन्न होते है जो अलग होकर बढ़ते और पूरे जीव हो जाते हैं। बतलाने की आवश्यकता नही कि ये कुड्मल स्वतंत्र घटक होते है जो विभागपरंपरा द्वारा एक से अनेक होकर शरीर की योजना करते है। मैथुनविधान वाले स्पंजो में पुं० घटक और स्त्री घटक एक ही जीव के भीतर होते हैं (उसी प्रकार जैसे अधिकांश पौधो में गर्भक्रेसर और परागकेसर एक ही फूल में होते है) । पुं० घटक फूट कर अनेक कणों मे विभक्त हो जाता है। [ ४९ ]एक एक कण बढ़ कर पुछल्लेदार कीटाणु ( जैसा कि शुक्रकीटाणु होता है ) हो जाता है। स्त्रीघटक बढ़ कर गर्भाड के रूप में हो जाता है। स्पंज के शरीर के भीतर ही पु० कीटाणु गर्भांडरूप कीटाणु मे प्रवेश करता है। संयोग के उपरांत एकीभूत पिड भीतर ही भीतर कुछ काल तक बढ़ता है, फिर बाहर निकल कर डिभकीट के रूप मे रोइयो के सहारे जल में तैरता फिरता है और अंत में किसी चट्टान पर जम कर बढ़ते बढ़ते स्पंज के रूप में हो जाता है।

स्पज से उन्नत कोटि के जीव छत्रक, मूँगे आदि होते है जिनके शरीर में अवयवविधान कुछ अधिक होता है। उनके मुखविवर के नीचे एकबारगी खाली जगह नही पड़ती वल्कि नली के आकार का एक स्रोत थोड़ी दूर तक होता है, पक्वाशय अलग होता है, शिकार पकड़ने के लिये बहुत सी भुजाएँ होती है।

छत्रक कृमि की उत्पत्ति विलक्षण रीति से होती है। समुद्र या झील आदि में लकड़ी के तख्तो या चट्टानो पर रुई की तरह कोमल एक प्रकार के कृमियो का समूहपिड जमा मिलता है जो देखने में बिल्कुल पौधे के आकार का होता है। इसे खडवीज कहते हैं क्योकि यदि इसके कई खंड कर डाले तो प्रत्येक खंड बढ़ कर पूरा कृमिपिड हो जाता है। इसके प्रधान कांड मे से जगह जगह शाखाएँ निकली होती है जो सिरे पर चौड़ी हो कर गिलास के आकार की होती है। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बंद रहता है, केवल उसकी सूत की सी भुजाएँ इधर उधर बाहर निकली होती हैं। अचरपिड मे बद्ध रहने वाले ये कृमि केवल नली के आकार के होते हैं।