विश्व प्रपंच/भूमिका/४

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

[ ७४ ]विकाशनियम की चरितार्थता पहले सजीव सृष्टि ( जन्तु और वनस्पति ) में ही दिखाई गई । फिर वैज्ञानिकों ने उसे लेकर संपूर्ण जगद्विधान पर घटाया और नाना रूपो के पदार्थों को एक ही मूलरूप के द्रव्य से उत्तरोत्तर उत्पन्न सिद्ध किया। इस प्रकार विकाश एक विश्व व्यापक नियम माना जाता है। नाना मतों और सम्प्रदायो की पौराणिक सृष्टिकथाओ का इस सिद्धांत से सर्वथा विरोध है। वे इस विकाशवाद के अनुसार असंगत ठहरती है, क्योकि वे सपूर्ण चराचर सृष्टि का एक ही समय में ईश्वर द्वारा उसी प्रकार रचित बतलाती है जिस प्रकार कोई कारीगर नाना प्रकार की वस्तुएँ बना कर सजाता है।

इसी विकाशवाद को लेकर हैकल आदि ने अपने प्रकृतिवाद या अनात्मवाद की प्रतिष्ठा की है जिसका विरोध पौराणिक कथाओं तक ही नही रह जाता बल्कि सारे ईश्वरवादी या आत्मवादी दर्शनो तक पहुँचता है। विकाशसिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी अधिकांश दर्शन नित्य चेतन तत्व मानते हैं और उसकी भावना कई प्रकार से करते हैं। हैकल चैतन्य को द्रव्य का एक परिणाम कहते हैं जिसका विकाश जंतुओं के मस्तिष्क ही मे होता है। उनका कहना है कि आत्मा शरीरधर्म के अतिरिक्त और कुछ नही। अतः उसे शरीर से पृथक् एक अभौतिक नित्य तत्व मानना भूल है। शरीर के साथ ही उसकी भी इतिश्री हो जाती है। अंतः करण को अपने व्यापारो का जो बोध होता है वही चेतना है। जिस प्रकार विषयसम्पर्क द्वारा इंद्रियों और संवेदन [ ७५ ]
मूत्र में कई प्रकार के क्षोभ होते हैं उसी प्रकार मस्तिष्क मे जाकर उनके द्वारा उत्पन्न संस्कारों का बोध भी होता है। अत चेतना भा भौतिक अंतःकरण का ही व्यापार है जो उस करण के नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है। विकाशसिद्धांत को लेकर हैकल ने दिखाया है कि अत्यन्त क्षुद्र कोटि के जंतुओ मे जिनमे संवेदनसूत्रो और मस्तिष्क आदि का पूरा विधान नही होता, अंत करणव्यापार चेतन अवस्था को नहीं पहुँचे रहने। उनमे अत्यन्त सादी चाल के संवेदनव्यापार होते है जिनके अनुसार उनके शरीर का आकुंचन, प्रसारण और संचालन आदि होता है पर उनके अंत:करण मे उस अवयव का विधान न होने के कारण जिसमे संवेदनव्यापार का प्रतिबिंब पड़ता है उनमे चेतना का अभाव होता है। पर विकाश-परंपरा में ज्यो ज्यो हम उन्नत कोटि के प्राणियो की और आते हैं त्यो त्यो उसका उत्तरोत्तर अधिक विधान पाते हैं। अत चैतन्य कोई नित्य और अपरिच्छिन्न सत्ता नहीं, वह परिणामशील है और उसमे घटती बढ़ती होती है।

यहां पर स्थूल मनोविज्ञानमय कोश को अथात् उस शरीरविधान का जिसके द्वारा संवेदन और मनोव्यापार होत है थोडा वर्णन आवश्यक है। शरीर का कोई भाग यदि खोला जाता है तो हम देखते हैं कि बहुत से मोटे, महीन तन्तुओ और सूत्रो का घना जाल फैला है। ये तन्तु और सूत्र कई प्रकार के दिखाई देते है--कोई लाल, कोई नीले, कोई सफेद। उनमें से लाल और नीले डोरे तो रक्तवाहिनी नलियाँ हैं जो पोली होती हैं। जो ठोस सफेद डोरे दिखाई देते [ ७६ ]
है वेही संवेदनसूत्र है। ये बहुत दृढ़ होते हैं। इंद्रियों पर पड़ा हुआ संपर्क-प्रभाव इन्ही से होकर मस्तिष्क मे पहुँचता है और संस्कार उत्पन्न करता है तथा उस संस्कार द्वारा उत्पन्न क्षोभ फिर इन्हीं सूत्रों से प्रवाह के रूप मे चलकर मांसपेशियो में गति उत्पन्न करता है और अंगो को प्रेरित करता है। इन सूत्रो का मूलकेद्र मस्तिष्क और उससे मिला हुआ मेरुरज्जु है जो रीढ़ के बीचो-बीच होता हुआ बराबर नीचे की ओर को गया है। यह मेरुरज्जु भेजे और तंतुओ की बनी हुई मोटी बत्ती की तरह का होता है और कपाल मे पहुँच कर मस्तिष्क के लोथड़ो के रूप में फैला रहता है। यही बत्ती ( मेरुरज्जु ) और लोथड़े ( मस्तिष्क ) सवेदन के केद्र हैं जिनसे संवेदनसूत्र निकलकर अनंत शाखाओ प्रशाखाओ में विभक्त होते हुए मोटे महीन डोरो के रूप में शरीर के प्रत्येक भाग में फैले रहते है।

रीढ़ की गुरियों की प्रत्येक संधि पर मेरुरज्जु के संवेदनसूत्रों के दो दो जोड़े दो और को जाते हैं। रीढ़ के पीछे से जो सूत्र निकलते हैं के अंतर्मुख या संवेदनात्मक सूत्र कहलाते है। उनसे होकर इंद्रिय-संपर्कघटित अणुक्षोभ भीतर केद्र वा मस्तिष्क की ओर जाता है और उसमें पहुँच कर संवेदन उत्पन्न करता है। रीढ़ के आगे से जो सूत्र निकले होते हैं वे बहिर्मुख यो गतिवाहक सूत्र कहलाते है क्योकि संवेदन-जनित प्रेरणा उन्ही से हो कर मासपेशियो की ओर आती है और अंगो मे गति उत्पन्न करती है। मेरुरज्जु से निकल कर ये दोनों प्रकार के सूत्र ज्यो ज्यो आगे [ ७७ ]
चलते है त्यो त्यो उत्तरोत्तर अनेक पतली शाखाओं में फैलते जाते है यहाँ तक कि त्वचा मे जा कर उनका ऐसा घना जाल फैला होता है कि शरीर के किसी स्थान पर महीन से महीन सुई की नोक चुभाईजाय तो भी वह किसी न किसी संवेदनसूत्र को अवश्य पीड़ित करेगी। इस प्रकार शरीर का सारा तल नारबर्की के घने जाल द्वारा मास्तिष्क से संबद्ध है।

अब मस्तिष्क की बनावट देखिए। मस्तिष्क कई भागो मे विभक्त है जिन सब के ठीक ठीक व्यापारो का पता नही लग सका है। मुख्य विभाग चार है----

( १ ) मज्जादल--–मेरुरज्जु जहाँ से कपाल के भीतर पहुँचता है वहां चौड़ा हो गया है। यही अंश मज्जादल है‌। यही से चेहरे की ओर जानेवाले तथा हृदय और फेफड़े की क्रिया संपादित करनेवाले सूत्र निकले होते है। इसी से इस पर आघात लगने से मनुष्य नही बचता।

( २ ) मज्जादल से थोड़ा ऊपर चल कर तंतुओं का एक छोटा लच्छा सा मिलता है जिसे सेतुबंध कहते है।

( ३ ) इसी से लगा हुआ बगल मे एक छोटा लोथड़ा सा निकला होता है जिसे छोदा मस्तिष्क कहते है। इसका ठीक ठीक क्या कार्य है इस पर मतभेद है। जहाँ तक जान पड़ता है शरीर की कुछ गतियो का विधान इसके द्वारा होता है। यह तो प्रत्यक्ष देखा गया है कि इसे हटाने से पीछे फिरने की शक्ति जाती रहती है, यद्यपि कुछ दिनों में वह फिर हो जाती है।

( ४ ) सब के ऊपर चल कर वह बड़ा लोथड़ा मिलता है जो सारे कपाल मे फैला है। यही प्रधान मस्तिष्क है‌। देखने [ ७८ ]
में यह सफेद और भूरा मिला हुआ मुलायम गूदा सा जान पड़ता है। भूरा अंश सूक्ष्म घटो या घटको के मेल से बना होता है और सफेद अंश सूक्ष्म तंतुओं के मेल से। छोटी बडी बहुत सी दरारो के कारण मस्तिष्क का तल अखरोट की गिरी की तरह बिल्कुल खुरदुरा होता है। सब से बड़ी दरार लोथड़े के बीचोबीच से जा कर उसे दहने और वाएँ दो भागो मे विभक्त करती है। इसके अतिरिक्त और बहुत सी दरारे होती हैं। इस बड़े मस्तिष्क के ऊपरी तल पर जो सवेदनमूत्रगत घटक होते हैं वे स्मृति और धारणा के करण प्रतीत होते हैं जो संवेदन सूत्रो द्वारा प्राप्त संस्कारो को धारण और पुनरुद्भूत करते है।

मनुष्य का मस्तिष्क और जंतुओ के मस्तिष्क की अपेक्षा बहुत अधिक खुरदुरा होता है, उसमे उभार अधिक होते है। निम्न कोटि के जंतुओ का मस्तिष्क प्रायः समतल होता है। सारा मस्तिष्क पिड रक्तवाहिनी नाड़ियो के घने जाल से गुछा रहता है इससे तोल मे शेष शरीर के चालीसवे भाग के बराबर होने पर भी वह प्रवाहित रक्त का पंचमांश ग्रहण करता है। प्रायः सब लोग जानते हैं कि मानसिक श्रम मे कितनी शिथिलता आती है और ताजा रक्त पहुँचने की कितनी आवश्यकता होती है। निद्रा की अवस्था में रक्त मस्तिष्क से नीचे उतरा रहता है। इससे सूचित होता है कि मस्तिष्क के व्यापार मे शरीरशक्ति का व्यय होता है।

मस्तिष्क के मूल से संवेदनसूत्रो के दो जोड़े निकल कर दो ओर गए होते हैं। पहला जोड़ा तो घ्राणेद्रिय की ओर जाता है और दूसरा जोड़ा थोड़ा और नीचे से निकल कर [ ७९ ]
चक्षुरिद्रिंय की ओर जाता है। चेहरे की ओर जानेवाले और बाकी संवेदनसूत्र मज्जादल से निकले हुए होते हैं। उनमे से पाँचवा जोड़ा चेहरे की त्वचा तथा जीभ और जबड़ो की गतिविधि का सपादन करता है। आठवाँ जोड़ा श्रवणोन्द्रिय से मिला रहता है और नवाँ रसनेंद्रिय से। इनके अतिरिक्त जा संवेदनसूत्र और नीचे से अर्थात् रीढ़ के भीतर गए हुए मेरुरज्जु से निकले होते है वे स्पर्शसंवेदनात्मक और गत्यात्मक सूत्र है जो शरीर के और सब भागो मे जा कर फैले होते है।

वाह्य विषयो को भिन्न भिन्न रूपो से ग्रहण करने के लिये यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न इंद्रियो तक आए हुए संवेदन सुत्रो के छोरो की रचना और व्यवस्था भिन्न भिन्न प्रकार की हो। नेत्रगत संवेदनसूत्रो के सिरे प्रकाश ग्रहण करने के उपयुक्त हैं, श्रवण के वायुतरंग ग्रहण करने के, त्वक् के स्पर्श ग्रहण करने के इसी प्रकार और भी समझिए। पर अभी तक शरीर विज्ञानियों का इस विषय मे एकमत नही हुआ है कि विशेष विशेष विषयों के ग्रहण के लिए संवेदनसूत्रो मे क्या क्या विशेषताएँ कहाँ तक होनी चाहिए।

ऊपर जिस अतःकरण या मनोव्यापारयंत्र का वर्णन हुआ है वह मनुष्य आदि उन्नत प्राणियो का है। विषय-संपर्क होने से अंगो मे गति इस प्रकार होती है। नेत्र, त्वक्, रसन आदि इंद्रियो अर्थात् अंतर्मुख संवेदनसूत्रों के, विशेष विशेष प्राप्यकारी छोरो पर विषयसंपर्क होते ही एक प्रकार का विकार या संस्कार उत्पन्न होता है जो गतिप्रवाह के रूप मे मस्तिष्क से पहुँचता है। उसके वहाँ पहुँचने ही संवेदना जाग्रत होती [ ८० ]
है। इस सवेदना के कारण प्रेरणा उत्पन्न होती है जो गतिवाहक सूत्रो द्वारा बाहर की ओर पलट कर किसी अंग को हिलाती है। यदि किसी का पैर अचानक मेरे पैर के ऊपर पड़ जाय तो मै अपना पैर बिना इच्छा या संकल्प के भी झट हटा लूँगा।

संपर्क पा कर अंगो में गति उत्पन्न होने के लिए चेतना की आवश्यकता नही। अणुजीवो तथा और क्षुद्र कोटि के जीवो मे मस्तिष्क और संवेदनसूत्रों का विधान नहीं होता। अणुजीब तो कललरस की सूक्ष्म कणिका मात्र होते हैं। पर वे भी छू जाने पर सुकड़ते या हटते हैं। उनकी यह क्रिया चेतन नही, प्रतिक्रिया मात्र है। क्षुद्र जीवो के शरीर पर बाहरी संपर्क या उत्तेजन से उत्पन्न क्षोभ गतिप्रवाह के रूप में कललरस के अणुओ द्वारा भीतर केन्द्र मे पहुँचता है और वहाँ से प्रेरणा के रूप में बाहर की ओर पलट कर शरीर मे गति उत्पन्न करता है। वस्तुसंपर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत या इच्छाकृत नहीं होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणो के अनुसार होती है, जैसे, छूने से लजालू की पत्तियो का सिमटना, क्षुद्र कीटो का अग मोडना या हटना इत्यादि। चेतनाविशिष्ट पूर्ण अतःकरण युक्त मनुष्य आदि बड़े जीवो मे भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमे विपयसंपर्कजनित इंद्रियसस्कार अतर्मुख सवेदनसूत्रों द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नही पँहुचता, बीच ही से मेरुरज्जु या और किसी स्थान से वहिर्मुख गत्यात्मक सूत्रो द्वारा पलट पड़ता है और अंग विशेष मे गति उत्पन्न करता है। जैसे, आँख के पास किसी वस्तु के [ ८१ ]
आते ही पलकें आप से आप बिना इच्छा या संकल्प के गिर पड़ती हैं। यह अकसर देखा गया है कि आदमी का मेरुरज्जु टूट गया है और शरीर के निचले भाग मे चेतन वेदना नहीं रह गई है पर तलवे को सहलाने से पैर सिमटता रहा है।

यही अचेतन प्रतिक्रिया सब से आदिम और सादा संवेदन है जो कललरस की वृत्ति है और सूक्ष्म से सूक्ष्म अणुजीवो से लेकर बड़े से बड़े जीवो तक मे पाई जाती है। यह संवेदन और गति ज्ञान वा चेतना पर अवलंबित नही। प्राणिमात्र में यह होती है। हैकल आदि प्राणिविज्ञानविदो का मत है कि प्रतिक्रिया चेतन व्यापार नहीं है---वह ज्ञान और संकल्प द्वारा नही होती। अतः क्षुद्र अणुजीवो आदि मे जो संवेदन अर्थात् बाह्य विषयों को ग्रहण होता है वह जड़ वा अचेतन है--अर्थात् उसी प्रकार होता है जिस प्रकार निर्जीव पदार्थों मे पदार्थ विशेष के संसर्ग से गति या स्फोट होता है( जैसे, बारूद का चिनगारी पाकर भड़कना, लोहे का चुंबक पाकर उसकी ओर चलना )। जिन जीवों मे संवेदनसूत्र तो होते हैं पर मस्तिष्क के रूप मे केद्रीभूत नही होते उनमें भी, इन जीवविज्ञानियो के अनुसार, संवेदन निःसंज्ञ या अचेतन दशा में ही होते है। चेतना उन जीवो से आरंभ होती है जिनमे मस्तिष्क या अंतःकरण की रचना होती है। सारांश यह कि क्षुद्र जीवो मे चेतना नही होती, आगे चल कर कुछ उन्नत कोटि के जीवो से ही चेतना मिलने लगती है।

उपर्युक्त निरूपणो के आधार पर आधिभौतिक पक्ष के अनात्मवादी तत्त्ववेत्ता आत्मा की ऐकांतिक स्वतंत्र सत्ता
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अस्वीकार करते हैं। वे चेतना को एक शरीरधर्म मात्र कहते हैं जिसका विकाश उसी प्रकार होता है जिस प्रकार और और भौतिक गुणो का। शरीर के साथ वह भी बढ़ती, विकृत होती और अंत मे नष्ट होती है। आत्मा भूतो से परे कोई नित्य और अपरिच्छन्न सत्ता नही, वह मस्तिष्क की ही वृत्ति है। मस्तिष्क के विना चेतन व्यापार असंभव हैं। अनात्मवादी भूतो से परे आत्मा की सत्ता का अस्तित्व 'गतिशक्ति की अक्षरता' और 'द्रव्य की अविचलता' के सिद्धात द्वारा असिद्ध कहते है। गतिशक्ति की अक्षरता का सिद्धांत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह है कि गतिशक्ति जितनी है उतनी ही रहती है, परिणाम द्वारा वह घट बढ़ नहीं सकती। यदि भौतिक शरीर जो व्यापार करता है उससे चेतना को भिन्न माने तो इसका मतलब यह है कि संवेदनसूत्रो के क्षोभ के रूप मे जो भौतिक क्रिया होती है वह अभौतिक चेतन क्रिया के रूप में परिवर्तित हो जाती है * अर्थात् उतनी गतिशक्ति नही रह जाती, उसका क्षय हो जाता है। यह बात भौतिक विज्ञान से असिद्ध है। द्रव्य की अविचलता का सिद्धांत यह


  • यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि विज्ञान में केवल समवायि कारण ही माना जाता है, निमित्त नहीं । जैसे, यदि किसी स्थिर गोले को हमने हाथ के धक्के से चला दिया तो इस गति के कारण की मीमासा इसी प्रकार होगी कि हाथ की गतिशक्ति जाकर गोले की गतिशक्ति के रूप में परिणत हो गई। जितने व्यापार सृष्टि में होते है सब का कारणनिरूपण विज्ञान इसी प्रकार करेगा। [ ८३ ]
    है कि कोई द्रव्यखंड जब तक भौतिक गतिशक्ति द्वारा अवरुद्ध या विचलित न होगा तब तक या तो एक सीध में वराबर चला चलेगा या अचल रहेगा। जितने भौतिक व्यापार होते हैं सच दिग्वद्ध होते हैं, दिक् ही में उनकी अभिव्यक्ति होती है। इन व्यापारो को दिक से अनवच्छिन्न किसी सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नही मान सकते। अतः न तो शरीर को ही चलानेवाली कोई अभौतिक सत्ता है, न जगत् को। व्यापारी के प्रेरक या उत्पादक भौतिक व्यापार ही हो सकते है, यह विज्ञान का एक अखंड सिद्धांत है। इन सब प्रमाणो से सिद्ध है कि चेतनाशक्ति भी एक भौतिक शक्ति है। संवेदनसूत्रो और मस्तिष्क के व्यापारो के हिसाब से ही चेतना के व्यापारो का होना इस बात को प्रत्यक्ष प्रकट करता है।

आत्मसत्तावादी इन बातो का इस प्रकार उत्तर देते हैं। पहली बात तो यह कि शक्ति की अक्षरता का जो सिद्धांत है उसकी पहुँच वहीं तक समझनी चाहिए जहाँ तक मनुष्य परीक्षा कर सका है। दूसरी बात यह कि आत्मसत्ता संकल्प द्वारा भौतिक शरीर मे संचित गतिशक्ति की मात्रा मे वृद्धि या न्यूनता नही करती, केवल निमित्तरूप से यह भर निश्चय कर देती है कि वह कौन सा रूप धारण करे, किस ओर प्रवृत्त हो। शक्ति का वेग या मात्रा और बात है और किसी विशेष ओर को उसकी प्रवृत्ति और बात। गति और विधि मे जो भेद है उसे समझ लेना चाहिए। आत्मा केवल विधि का निर्णय करती है, गति की न वृद्धि करती है, न क्षय। अपने अंगों को जिस ओर जितनी बार चाहे हम बिना किसी भौतिक [ ८४ ]
कारण के केवल आत्मसंकल्प द्वारा हिला सकते हैं। इससे सिद्ध है कि आत्मसत्ता भूतो से परे और स्वतंत्र है। कोई अभौतिक सत्ता भौतिक गतिविधि पर कोई प्रभाव नही डाल सकती इसके प्रमाण मे जो 'द्रव्य की अविचलता' का सिद्धांत उपस्थित किया जाता है आत्मवादी उसके प्रतिवाद मे गणितज्ञो का गतिशास्त्र संबंधी यह निरूपण पेश करते हैं--'कोई द्रव्यखंड जिस दिशा को जा रहा है उस पर जिस शक्ति का पथ समकोण बनाता हुआ होगा वह शक्ति उस द्रव्यखंड का पथ बिना गतिशक्ति के व्यय या वृद्धि के बदल सकती है। इसी रूप से आत्मसन्ता भी चलते द्रव्य की दिशा मे, बिना उसकी शक्ति की वृद्धि या हास किए, फेरफार कर सकती है। इस प्रकार आत्मस्वातंत्र्य के संबंध मे आधिभौतिक पक्ष की जो शकाए हैं उनका समाधान हो सकता है।

झूम आदि कुछ दार्शनिको ने बौद्धो के समान क्षणिक ज्ञान को ही आत्मा या मन कहा। क्षण क्षण पर बदलने वाले ज्ञानो ( या विज्ञान ) से भिन्न उनका अधिष्ठान रूप कोई स्थिर या एक ज्ञाता नही है। भिन्न भिन्न ज्ञानो के बीच एक स्थिर 'अहम्' का जो भान होता है वह एक आरोप मात्र है क्योकि उसकी उत्पत्ति किसी इंद्रियज ज्ञान या संस्कार से नहीं है। मन या आत्मा क्षणिक चेतन अवस्थाओ की परंपरा का ही नाम है। इस मत मे मिल आदि तत्त्वज्ञो को यह अनिवार्य बाधा दिखाई दी कि सस्कारो की परंपरा को अपने परंपरा होने का बोध क्यों कर होता है। प्रो० जेम्स ने भी अपने मनोविज्ञान मे कहा है कि प्रत्येक क्षण में आया हुआ भाव या ज्ञान ही भावुक [ ८५ ]
या ज्ञाता है। एक क्षण का अहंभाव विगत क्षण के अहंभाव से भिन्न होता है, पर भिन्न होने पर भी उसका उत्तराधिकारी या संग्राहक होता है। वह पिछले क्षण का भाव भी अपने से पूर्ववर्ती भाव का संग्राहक था, अतः उसके संग्रह के साथ उससे पिछले भाव का भी संग्रह समझ लेना चाहिए। कहने की आवश्यकता नही किं यह सब चक्कर संबंधसूत्र के अभाव की पूर्ति के लिए काटना पड़ा है। विकाशवाद की पद्धति के अनुसार आजकल मनोविज्ञान के अधिकतर ग्रंथ मनोव्यापारो के क्रमविधान की ही मीमांसा करते है, सत्ता के विचार में प्रवृत्त नही होते। ये व्यापार किसके हैं, शरीर से अलग कोई आत्मसत्ता है या नहीं इन बातो को वे अपने विषय ( जिसे वे शुद्ध विज्ञान की एक शाखा मानते है ) से अलग सत्तादर्शन या परा विद्या का विषय बतलाते है। यहाँ तक कि मनोविज्ञान के बहुत से ग्रंथो मे अब आत्मा शब्द भूल कर भी नही आने पाता, जहाँ तक हो सकता है बचाया जाता है।

सब ज्ञानो का ज्ञाता कोई एक है जो क्षण क्षण पर उदय होने वाले नाना ज्ञानों के बीच भी सदा वही रहता है इस बात के विरुद्ध प्रमाण मे वह विलक्षण मानसिक रोग भी उपस्थित किया जाता है जिसे 'दोहरी चेतना' या 'छाया' कहते है। इसमें एक व्यक्ति कभी कभी बिल्कुल दूसरे व्यक्ति का सा आचरण करने लगता है, उसका व्यक्तित्व एक दम बदल जाता है। किसी देवता या भूत प्रेत का सिर पर आना इसी प्रकार का रोग है। इस रोग के कई विलक्षण दृष्टांत योरप मे भी देखे गए हैं। फेलिडा नाम की एक लड़की सन् १८४८ मे पैदा हुई। १४ वर्ष तक तो [ ८६ ]
उसकी दशा ठीक रही। सन् १८६५ मे वह एक दिन एकबारगी बेहोश हो गई। कुछ देर में जब उसे होश हुआ तब उसकी प्रकृति एक दम बदली हुई पाई गई। पहले वह चुप्पी, हठी, शांत तथा मंद बुद्धि और चष्टा की थी, पर बेहोशी के पीछे वह हँसमुख, चंचल और तीव्र बुद्धि की हो गई। इस दूसरी अवस्था मे उसे अपनी पहली, अवस्था की सब बातो का स्मरण था और देखने मे वह सब प्रकार भली चंगी थी। कुछ महीनो पीछे बेहोशी का दूसरा दौरा हुआ और वह फिर अपनी पहली अवस्था को प्राप्त हो गई। इस अवस्था मे उसे अपनी दूसरी अवस्था की बातो का कुछ भी स्मरण नहीं था। जब तक वह रही बारी बारी से ये दोनो अवस्थाएँ उसकी होती रहीं। अतः यह कहा जा सकता है कि उसकी दो अलग अलग चेतनाएँ या आत्माएँ थी। इसी संबंध मे वे व्यापार भी ध्यान देने योग्य है जिन्हे 'प्रतिक्रिया' और 'गौण चेतना' कहते है। सोने में यह प्राय: देखा जाता है कि छूने से पैर हट जाता है, यद्यपि इस व्यापार का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। जब ध्यान किसी दूसरी ओर लगा रहता है तब सब इंद्रियाँ खुली रहने पर भी हमे कभी कभी शब्द, स्पर्श, दृश्य का ज्ञान नही रहता। कोई बैठा लिख रहा है। बाहर जो शब्द होरहा है, उँगलियो से जो वह कलम पकड़े हुए है, उसका उसे कुछ भी ज्ञान नही है। जब मै जान बूझकर ध्यान ले जाऊँगा तभी उन बातो का ज्ञान होगा। एक ओर तो जोर जोर से पढ़ते जाना और दूसरी और अर्थ भी ग्रहण करते जाना, बाजे पर उँगली रख रख कर बजाते [ ८७ ]
भी जाना और गाते भी जाना विभक्त चेतना के व्यापार हैं। इस प्रकार के युगपद् मनोव्यापार यह सूचित करते हैं कि चेतना की प्रधान धारा से अलग होकर गौण धारा भी चलती है। अतः चेतना के एक अखंड, निर्विकार, सदा एकरस आत्मा होने का प्रमाण नहीं मिलता।*

आत्मवादी कहते हैं कि यदि मन केवल चेतन अवस्थाओ की परंपरा मात्र होती, यदि क्षणिक ज्ञानो का ही नाम मन होता तो विचार, तर्क, आत्मनिरीक्षण आदि असंभव होते। तर्क के लिए यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न अवयवो को


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व्यवस्थित करनेवाली कोई एक सत्ता हो। ज्ञान-कृत पुनरुद्भावना और स्मृति के लिए पूर्व प्रत्ययो के साथ वर्तमान प्रत्ययो का मिलान करनेवाला कोई एक स्थिर द्रष्टा चाहिए। इस समय मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं कल घूमने गया था, पारसल प्रयाग मे था, इत्यादि। इसका मतलब यही हैं कि कल घूमने और पारसाल प्रयाग मे रहने का अनुभव करनेवाली वही था जो इस समय सोच रहा है। यदि मन और आत्मा क्षणिक ज्ञानो का ही नाम होता तो यह असंभव होता। यदि आधिभौतिक पक्ष के लोग यह कहे कि

  • पाश्चात्य आत्मवादी मनोविज्ञानियो के आत्मसत्ता सम्बधी ये प्रमाण वे ही है जो न्याय मे दिए गए है।

दर्शनस्पर्शनाभ्याभेकार्थग्रहणात् ३ । १ । १

तद्व्यवस्थानादेवात्मउद्मावादप्रतिषेध ३ । १ । ३

सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात् ३।१।७

इसी प्रकार स्मृति का व्यापार भी प्रमाण में लाया गया है---

तदात्मगुण सद्भावादप्रतिषेधः ३।१।१४

बात यह है कि जिस प्रकार पाश्चात्य ग्रथो मे मन और आत्मा के व्यापारो मे कोई भेद नहीं किया गया है उसी प्रकार न्याय मे भी अतःकरणविशिष्ट आत्मा का ही विचार हुआ है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि आत्मा के ही व्यापार कहे गए हैं।

पर साख्य और वेदांत मे शुद्ध आत्मा अकर्ता कहा गया है। उसमें कोई व्यापार नहीं, वह द्रष्टा मात्र है। व्यापार करता है मन, आत्मा तो केवल उसके व्यापारो का साक्षी या देखनेवाला है। जैसे, मैं [ ८९ ]
कि स्थूल भौतिक मस्तिष्क ही अधिष्ठान रूप में इन भिन्न भिन्न ज्ञानो का समाहार करनेवाला है तो यह भी ठीक नही, क्योकि शरीरविज्ञानी कहते हैं कि और और घटको के समान मस्तिष्क के घटक भी अपनी उत्पत्तिपरंपरा के अनुसार अल्पकाल मे ही बदल जाते हैं। इससे सिद्ध है कि कोई एक परिणामरहित सत्ता है जो सव अवस्थाओं मे एकरूप बनी रहती है। चेतना की यह एकता ही चेतन सत्ता की एकता का प्रमाण है। आत्मा एक वस्तु या सत्ता है द्रव्यगुण या वृत्ति मात्र नही है यह बात तो सिद्ध हुई। अब यह सत्ता अभौतिक है----भूतो से परे है--इसके प्रमाण में आत्मवादी जो कहते हैं वह भी थोडे में सुन लीजिए।

विकाशासिद्धांत पर लक्ष्य रखनेवाले मनोविज्ञानी कहते हैं कि इंद्रियज ज्ञान या संवेदन ही मूल उपादान है जिनके पुनरुद्भावन, समाहार और मिश्रण द्वारा जाति या सामान्य ( जैसे, गोत्व, पशु आदि ) की भावना, विचार, तर्क संकल्प विकल्प अदि की योजना होती है। आत्मवादियो का कहना है कि ये उन्नत वृत्तियाँ सवेदनो से सर्वथा भिन्न कोटि की है। पहली बात तो यह कि संवेदन न तो अपने अस्तित्व का आप अनुभव कर सकता है, न पदार्थों के गुणों से जाति


कुछ सोच रहा हूँ या स्मरण कर रहा हूँ। यह सोचना या स्मरण करना आत्मा को व्यापार नहीं, आत्मा का तो केवल यह ज्ञान है कि 'मैं यह सोच रहा हूँ' या मैं यह स्मरण कर रहा हूँ' । शुद्ध चैतन्य का लक्षण यही है। [ ९० ]
की भावना कर सकता है और न दुसरे संवेदना के साथ अपने संबध का बोध कर सकता है। हमारे सामने एक नारंगी रखी है। यो ही हमारी दृष्टि उस पर पड़ रही है और हमे उसके वहाँ रहने भर का ज्ञान है। यहाँ तक तो संवेदन या इद्रियज ज्ञान हुआ। अब हम उसकी ओर ध्यान देते हैं---अर्थात् मन या आत्मा को उसकी ओर प्रवृत्त करते हैं। अब हमे उसकी गोलाई की, रंग की ओर स्वाद की भावना होती और हम इन गुणों को दूसरे फलो के गुणो से मिलाते हैं।* शुद्ध गुणो की यह भावना और उनका मिलान करनेवाला संवेदन से भिन्न कोई दूसरा ही है। दो वस्तुओ अर्थात् उनसे प्राप्त इंद्रियज संवेदनो को आगे रखकर देखनेवाला उन दोनो संवेदनो से भिन्न होना चाहिए। इसी प्रकार सामान्य और जाति की भावना भी इंद्रियज ज्ञान से परे है और एक अभौतिक सत्ता का आभास देती है। इंद्रियों द्वारा जो कुछ हमे ज्ञान होता है वह विशेष का ही। हमे राम, गोपाल आदि विशेष मनुष्यो, हरे पीले आदि विशेष रंगो, भूखे को अन्नदान आदि विशेष व्यापारो का ही प्रत्यक्ष होता है, मनुष्य, रग दया आदि सामान्यो का नहीं जो देशकाल से परे हैं। समस्त भौतिक व्यापार देश काल के भीतर होते है, अतः ये अभौतिक व्यापार है। ये व्यापार किसी वस्तु या सत्ता के हैं, अतः वह वस्तु


* न्याय की परिभाषा मे 'कोई वस्तु सामने है' इस इतने ज्ञान को निर्विकल्पक और ‘वस्तु यह है, ऐसी है, वैसी है' इस ज्ञान को सविकल्पक ज्ञान कहते हैं। [ ९१ ]
या सत्ता भी भूतो से परे ठहरी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है मनोविज्ञान की ओर से आत्मा के खंडन मंडन की वात अब नही उठती, अब सत्ता का विषय ही उससे अलग कर दिया गया है।

ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे इस बात का पता लग सकता है कि विकाशसिद्धांत का प्रभाव कितनी विद्याओ पर पड़ा है और उन्होने किस प्रकार अपनी व्यवस्था इस सिद्धांत के अनुकूल की है। जगत् की उत्पत्ति, जीवो की उत्पत्ति, मनोविज्ञान, कर्तव्यशास्त्र, इतिहास, धर्माधर्म, समाजशास्त्र सब की व्याख्या विकाशपद्धति का अवलंबन करके की गई है। भाषा की उत्पत्ति का क्रम अनेक जर्मन भाषातत्वविदो ने अपनी पुस्तको मे दिखाया है। जेगर ने लिखा है कि वनमानुसो से मिलते जुलते पूर्वजो से उत्पन्न मनुष्य मे दो पैरो पर खड़े होने की विशेषता सब से अधिक हुई जिससे उसे श्वास की क्रिया या प्राणवायु पर पूरा अधिकार हो गया। इसी विशेषता से उसमे वर्णात्मक वाणी की सामर्थ्य आई। आजकल ऐसा ही कोई होगा जो इतिहास लिखने में इस बात का ध्यान न रखता हो कि किसी जाति के बीच ज्ञान, विज्ञान, अचार, सभ्यता इत्यादि का विकाश क्रमशः हुआ है। इन सब को पूर्ण रूप मे लेकर किसी जाति के जीवन का आरंभ नही हुआ है। इसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान के ग्रंथ शुद्ध बुद्ध पूर्ण चेतन आत्मा को लेकर नहीं चलते। जो पशुओ की चेतनप्रवृत्ति से आरंभ नही भी करते वे भी इद्रियसंवेदन की क्रमशः योजना से आरंभ करके भावो और
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विचारो तक पहुँचते है। विकाश के आधिभौतिक अनुयायिओं का कहना है कि जैसे और सब वस्तुओ का वैसे ही मन या मानसिक वृत्तियो का भी संघटन वाह्य जगत् के नियमों के अनुकूल होता है। अंतर्जगत् या आध्यात्मिक जगत् की भूतो से परे कोई सत्ता नही है। विचार और वस्तुव्यापार का जो समन्वय दिखाई पड़ता है वह वस्तुव्यापार के ही प्रतिबिंब के कारण (अद्वैत आत्मवादी जर्मन दार्शनिक इसका उलटा मानते है )।

इसी प्रकार धर्माधर्म या कर्त्तव्यशास्त्र की नीवँ भी लोकरक्षा और फलतः आत्मरक्षा पर डाली गई है। एक मूल रूप से क्रमश अनेक रूपो की उत्पात्ति, एक सादे ढाँचे से अनेक जटिल ढाँचो का उत्तरोत्तर विधान, यही विकाश का साराश है। इस सिद्धात के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि मे ही एकबारगी उत्पन्न होगया उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल मे भी उतनी ही या उससे बढ़ कर थी जितनी आजकल है। आधुनिक मत यही है कि मनुष्य जाति असभ्य दशा से उन्नति करते करते सभ्य दशा को प्राप्त हुई है। अत्यंत प्राचीन लोगो को बहुत अल्प विषयो का ज्ञान था। धीरे धीरे उस ज्ञान की वृद्धि होती गई है। इसी प्रकार धर्मभाव भी पहले बहुत स्वल्प और सादे रूप में था, पीछे सामाजिक व्यवहारो की वृद्धि के साथ साथ उसका भी अनेक रूपो मे विकाश होता गया।

लोक-व्यवहार और समाज विकाश की दृष्टि से ही धर्म
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और आचार की व्याख्या की गई है, परलोक और अध्यात्म की दृष्टि से नही। दूसरो के प्रति जो आचरण हम करते है उसी मे अच्छे और बुरे का आरोप हो सकता है। ब्यवहारसंबंध से ही क्रमश. सद्सद्विवेक बुद्धि उत्पन्न हुई है। व्यवहारसंबंध जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक था। परस्पर मिल कर कार्य करने मे उन बातो की प्राप्ति अधिक सुगम प्रतीत हुई जिनसे सब को समान लाभ था। एक ही पूर्वज से उत्पन्न अनेक परिवार इसी समान हित की भावना से प्रेरित हो कर कुलबद्ध हो कर रहने लगे। एक व्यक्ति के जिस कर्म से सब का जितना हित या अहित होता---अर्थात् सब को जितना सुख या दु.ख प्राप्त होता---उसी हिसाब से उस कर्म की स्तुति या निदा होती। इस प्रकार 'कुल धर्म' की स्थापना हुई। पहले प्रत्येक कुल को दूसरे कुलों से बहुत लड़ाई भिड़ाई करनी पड़ती थी अतः आदिम काल से यह धर्म स्वरक्षार्थ ही था। इस धर्म के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वार्थवृत्ति और इच्छा पर कुछ अंकुश रखना पड़ता था। यदि प्रत्येक मनुष्य मनमाना कार्य करने लगे, दूसरो का कुछ भी ध्यान न रखे, तो धर्मव्यवस्था और उसके आधार पर स्थित समाज व्यवस्था नही रह सकती। अतः किसी समाज को बद्ध रखते के लिये यह धर्मव्यवस्था आवश्यक है। चौरो और डाकुओ तक के दल मे यह धर्मव्यवस्था पाई जाती है। चोर चाहे दुनिया भर का माल चुराया करें पर अपने दल के भीतर उन्हे धर्मव्यवस्था रखनी पड़ती है। वे यदि आपस में अन्याय और बेईमानी करने लगे तो उनका दल टूट जाय। अतः सिद्ध
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हुआ कि लोक या समाज को धारण करनेवाला धर्म है। इसी से कहा गया है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः" ।

डारविन ने अपने 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में विस्तार के साथ दिखाया है कि साथ रहने से उत्पन्न परस्पर सहानुभूति की स्वाभाविक प्रवृक्ति द्वारा मनुष्य किस प्रकार दुसरो की प्रसन्नता और साधुवाद की कामना और उस कामना के अनुसार बहुत से कार्य करने लगा। क्षुधा, इंद्रियसुख, प्रतिकार इत्यादि की निम्न कोटि की वासनाएँ यद्यपि प्रबल होती थी, पर तुष्टि के उपरांत उनका जोर नही रह जाता था। * कितु संग की वासना सदा बनी रहती थी, मनुष्य अकेला रहनेवाला प्राणी नही। सग को अर्थ है सहानुभूति अतः सहानुभूति का भाव अधिक स्थायी रहता था। यदि कोई मनुष्य निम्न कोटि की वासनाओ के वशीभूत हो कर कोई ऐसा कार्य कर बैठता जिससे दूसरो को अप्रसन्नता होती तो वह शांत होने पर उसके लिये पश्चात्ताप करता। विकाशवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतंत्र पदार्थ नही है। समाज के आश्रय से ही उसका क्रमशः विकाश हुआ है। धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्र और सब काल मे--मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई तब से अब तक--बराबर मान्य रहा हो। समाज की ज्यो ज्यो वृद्धि होती गई यो त्यो धर्म की भावना मे भी देशकालानुसार फेरफार होता गया। कोई समय था जब एक कुल दूसरे कुल की स्त्रियो को चुराता था लड़ कर छीनना अच्छा समझता था। देवताओ की वेद्वियो
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पर नरबलि देने मे किसी के रोंगटे खड़े नही होते थे। बाइबिल मे इसके कई उल्लेख हैं, शुनःशेफ की वैदिक गाथा भी एक उदाहरण है। उद्दालक और श्वेतकेतु का आख्यान इस संबंध में ध्यान देने योग्य है। ये दोनों वैदिक काल के ऋषि थे। एक दिन उद्दालक, उनकी स्त्री और उनके पुत्र श्वेतकेतु बैठे थे। एक आदमी आया और श्वेतकेतु की माता को ले कर चलता हुआ। श्वेतकेतु को बहुत बुरा लगा। पिता ने पुत्र को यह कह कर शान्त किया कि यह सनातन धर्म है--एप धर्मः सनातनः---ऐसा सदा से होता आया है। श्वेतकेतु ने नियस किया कि जो स्त्री एक पति को छोड़ कर जायगी उसे भ्रूणहत्या का पाप होगा और जो पुरुष पतिव्रता को छीन कर ले जायगा उसे भी पातक लगेगा।

इसी प्रकार दीर्घतमस् ऋपि ने भी अपनी स्त्री के आचरण पर क्रुद्ध हो कर शाप दिया था कि अब से कोई स्त्री, चाहे उसका पति जीता हो या मर गया हो, दूसरे पुरुष से संसर्ग न कर सकेगी'। स्त्रियों के लिये जो पातिव्रत्य पहले 'दीर्घतमस का शाप' था वही आगे चल कर एक मात्र धर्म हुआ। इस बात की पुष्टि महाभारत के अन्य स्थलो से भी होती है। आदि पर्व में कुंती के प्रति जो उपदेश है उसमे लिखा है कि प्राचीन समय में केवल ऋतुकाल में पातिव्रत्य आवश्यक था---

ऋतावृतौ, राजपुत्रि, स्त्रिया भर्ता पतिव्रते।

नातिवर्तव्यमित्येवं धर्म धर्मविदो विदुः।।

शपेष्वन्येषु कालेषु स्वातंत्र्यं स्त्री किलाईति।

धर्ममेवं जनाः सन्तः पुराणां परिचक्षते।।