विश्व प्रपंच/भूमिका/५

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

[ ९६ ]राक्षसविवाह, नियोग, इत्यादि उसी असभ्य कालके न्मारक हैं। तात्पर्य यह कि दूसरे जनपदो को लूटना, दूसरे कुल की स्त्रियो को छीनना, नरवध इत्यादि पहले अधर्म नहीं समझे जाते थे। असभ्य जंगली जातियो मे अब तक ये बातें प्रचलित है। पर सभ्य जातियो के बीच अब ये वहुत बुरी समझी जाती हैं। धर्म का विकाश धीरे धीरे समाज की उन्नति के साथ साथ हुआ है। अत: विकाशवादियो के अनुसार इह लोक या समाज से परे धर्म कोई नित्य और स्वतः प्रमाण पदार्थ नही है।

तत्त्वज्ञवर हर्बर्टस्पेसर ने विकाश सिद्धांत की जो दार्शनिक स्थापना की है उसमे धर्मतत्त्व की भी विस्तृत मीमांसा है। स्पेसर ने अणुजीवों से लेकर मनुष्य तक सब प्राणियो का सूक्ष्म निरीक्षण करके अंत में यही सिद्धांत स्थिर किया कि 'परस्पर साहाय्य की प्रवृत्ति' धर्म की मूल प्रवृत्ति है जो सजीव सृष्टि के साथ ही व्यक्त हुई और उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करती गई। यह प्रवृत्ति अदि में संतानोत्पादन और संतानपालन के रूप में प्रकट हुई। एकधटात्मक अणुजीवो मे स्त्रीपुरुष भेद नहीं होता। उनकी वंशवृद्धि विभाग द्वारा होती है। अतः हम कह सकते हैं कि संतान के लिये--दूसरे के लिये--अणुजीव अपने शरीर को त्याग देता है। इसी प्रकार आगे के उन्नत श्रेणी के जोड़ेवाले जीव अपनी संतान के लालन पालन के लिये स्वार्थ त्याग करने में प्रसन्न होते हैं। यही प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते इस अवस्था में पहुँचती है कि लोग अपनी संतति के सहायतार्थ ही नहीं अपने जाति भाइयों [ ९७ ]
भाइयो के सहायतार्थ भी सुख से स्वार्थ त्याग करते हैं। अस्तु, सब जीवो मे श्रेष्ट मनुष्य को इसी प्रवृत्ति के उत्कर्षसाधन मे-वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव की प्राप्ति के प्रयत्न मे---लगा रहना चाहिए।

यहाँ पर कह देना आवश्यक है कि विकाश सिद्धान्त रूप से विज्ञान की सब शाखाओ मे स्वीकृत हो गया है। पर ये शाखाएँ अपने अन्वेषणो मे निरंतर उन्नति करती जाती है, इससे जिन बातो को पूर्व पीढ़ी के विकाशवादी अपने प्रमाण मे लाए हैं उनके व्योरो मे इधर बहुत कुछ फेरफार हुआ है। बहुत से भौतिक विज्ञानियो ने परमाणु के भी अवयव या विद्युदणुओ तक पहुँच कर यह कहना आरंभ कर दिया है कि द्रव्य वास्तव में विद्युत् का ही सघात विशेष है, विद्युच्छक्ति का ही एक रूप है। इस बात को मानलें तो द्रव्य और शक्ति का द्वद् तो मिट गया। द्रव्य शक्ति की ही एक विशेष अभिव्यक्ति या रूप ठहरा। यदि सब कुछ शक्ति ही है तो बाकी क्या बचा? बाकी बचा ईथर ( आकाश द्रव्य ) जिसके विषय मे हम अभी तक बहुत कम बाते जान सके है। इस प्रकार 'ईथर और शक्ति' पर आकर अब विज्ञान अड़ा है।

ईथर,है किस प्रकार का, इसे समझने के लिये वैज्ञानिक बुद्धि लड़ा रहे हैं। पृथ्वी जो ईथर के बीच घूमती है तो क्या सचमुच उसे चीरती हुई घूमती है। यदि चीरती हुई घूमती है तो इस रगड़ का परिणाम बड़ा भारी होगा। चलती हुई वस्तु यदि बराबर रगड़ खाती हुई जायगी तो उसका वेग
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चराधर धीमा होता जायगा। इससे पृथ्वी अपने वेग के बल से सूर्य से दूर जो मंडल बाँधकर भन्नाटे के साथ घूम रही है कभी न कभी वह मंडल टूट जायगा और वह सूर्य पर जा पड़ेगी। पर आजकल के गणितज्ञ ज्योतिषी इसकी उलटी कल्पना करने लगे हैं। वे कहते हैं कि जो स्थूल द्रव्य हम देखते हैं उससे कही अधिक घनत्व और शक्तिसंचय ईथर मे है। वह ठोस सीसे से भी न जाने कितने लाख गुना ठोस होगा। पृथ्वी आदि जो स्थूल लोकपिड हैं उन्हें ईथर के बीच बीच मे खाली या खोखले स्थान समाझए!

अस्तु, अब ईथर और शक्ति मे क्या संबंध है, यह देखना है। यह बड़ी ही गूढ़ समस्या है। ईथर के संबंध मे जो मोटी धारणा बँधती है वैज्ञानिक कहते है वह ठीक नही है। हम यह समझते हैं कि ईथर एक निष्क्रिय अखंड सूक्ष्म भूत का विस्तार है जिस पर या जिसके आश्रय से द्रव्य क्रिया ( आकर्षण, प्रकाशप्रवाह ) करता है। सर आलिवर लाज कहते हैं यह खयाल गलत है। ईथर गतिशक्ति का अनत भाण्डार है। परमाणुगत शक्ति के समान यह शक्ति भी पकड़ मे नही आती। यदि पकड़ में आ जाये तो इससे बात की बात मे प्रलय उपस्थित किया जा सकता है।

हैकल ने अपने ग्रंथ मे जगह जगह "प्रकृति के नियम" या "परम तत्व के नियम" की झड़ी बाँध दी है। यह वाक्य बहुत ही भ्रामक हो गया है। लोग इसका बहुत ही अतिव्याप्त अर्थ लेते हैं। 'दो और दो चार होते हैं' यह भी प्रकृति का नियम, 'गतिशक्ति का क्षय नहीं होता' यह भी प्रकृति का [ ९९ ]
नियम। 'दो और दो चार होते हैं' इसे प्रकृति का नियम नहीं कहना चाहिए। प्रकृति के जितने परिणाम या व्यापार होते हैं वे इस गणित के नियम के आधार नहीं, उनपर यह अवलंबित नहीं, उनसे यह सर्वथा स्वतंत्र है। यह चिन्तन का नियम है, इसका संबंध चित् से है। जिसे हम प्रकृति का नियम कहते हैं वह सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। जितने दिक्कालखंड तक हमारी पहुँच है वह उतने ही के बीच के व्यापारो से संग्रह किया हुआ है। पर तर्क और गणित के जो नियम है वे अपरिहार्य सत्य है, उनके अन्यथा होने की भावना त्रिकाल मे नही हो सकती। बाह्य जगत् पर वे निर्भर नही, उससे सर्वथा स्वतंत्र हैं। वे स्वत:प्रमाण हैं। भौतिक विज्ञान में जो ‘प्रकृति के नियम' कहलाते हैं उनकी सत्यता भौतिक व्यापारो या परिणामों के संबंध में ठीक उतरने पर अवलंबित है।

जगद्विकाश का सिद्धांत यही प्रतिपादित करता है कि प्रकृति परिणामपरंपरा में एक अवस्था मात्र है। 'प्रकृति के नियमो' के संबंध मे हम लाख कहा करे कि वे सब काल और सब देश को देख कर निरूपित हुए हैं पर हमें अपनी बात का पूर्ण निश्चय नहीं करा सकते।

इसमे संदेह नही कि विकाशसिद्धांत के नियमो की चरितार्थता के लिये वैज्ञानिक निरंतर प्रयत्न करते जा रहे है जिससे मार्ग की कठिनाइयाँ बहुत कुछ दूर होती जा रही हैं। निर्जीव से सजीव द्रव्य की उत्पत्ति को ही लीजिए। अब लोग यह देखने लगे हैं कि रासायनिकों को सजीव द्रव्य की [ १०० ]
योजना मे अब तक जो असफलता होती आई है वह इस कारण कि सजीव द्रव्य के मूल आदिम रूप की उन्हे ठीक धारणा ही नहीं रही है। वे अमीबा ( अणुजीव) या अणूद्भिद् को आदिम रुप मान कर चले है। पर अमीबा या अणूद्भिद् का जिस जटिल रूप में हम देखते हैं वह लाखो वर्ष की विकाशपरपरा का परिणाम है। अतः सजीव द्रव्य का आदिम रूप इन दोनो से कही सूक्ष्म और सादा रहा होगा। अणुजीव और अणूद्गिद् दोनों का आहार सजीव द्रव्य है। अतः ये आदिम नमूने कभी नही हो सकते। सजीव द्रव्य का आदिम रूप उद्भिदो का सो रहा होगा जो निर्जीव द्रव्य को सजीव द्रव्य ( शरीरधातु ) में परिणत कर सकते हैं। प्रथम जीवोत्पत्ति जल मे ही हुई इसका एक नया प्रमाण एक फरासीसी शरीरविज्ञानी ने उपस्थित किया है। उसने कहा है कि रक्त मे लवण आदि का योग उसी हिसाब से है जिस हिसाब से पूर्वकाल के समुद्रजल में रहा होगा।

पहले के वैज्ञानिको को परमाणुओ के भीतर की गतिशक्ति की ओर ध्यान नही था, इससे द्रव्य की मूल व्यष्टियो के व्यापार को समझने के लिये उन्हे शक्ति का बाहर से आरोप करना पड़ता था। पर अब, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, रोडियम के मिलने से परमाणु के भीतर विद्युच्छक्ति के केद्रो का पता मिल गया है जिससे सजीव और निर्जीव द्रव्य का अंतर बहुत कुछ कम हो गया है। कुछ विशेष प्रकार के परमाणु किण्व या खमीर ( जो वास्तव में सूक्ष्मातिसूक्ष्म किण्वाणुओ या अणूद्भिदो द्वारा संघटित होता है) का काम करते हैं। आजकल [ १०१ ]
कई रासायनिकों ने विशेष विशेष परमाणुओ के योग से ही ( महुए, आटे, राई आदि सजीव द्रव्य के अवशेषों से तो लोग बहुत दिनों से बनाते आते हैं ) मदसार ( अलकोहल ) और कुछ सादे प्रकार के प्रोटीन ( शरीरधातु ) तक संघटित कर लिए हैं। ये द्रव्य पहले पौधों या जंतुओं के शरीरद्रव्य में ही पाए जाते थे इससे लोग समझते थे कि ये शरीर के भीतर ही बन सकते हैं। पहले इन शरीरद्रव्यों से संबंध रखनेवाले रसायनशास्त्र का अलग विभाग था। पर अब यह भेद नहीं रहा। रसायनशास्त्र से शरीरद्रव्य और साधारण द्रव्य का भेद अब उठ गया।

किण्वसम्बन्धी रसायन बरावर उन्नति करता जा रहा है। कई प्रकार के किण्व या खमीर, पौधो या जंतुओं से प्राप्त शरीरद्रव्य के आश्रय के विना, कुछ मूल द्रव्यों के परमाणुओं के योग में बना लिए गए हैं। सजीव द्रव्य क्री उत्पत्ति के पास तक यही विधान पहुँच सका है, और इसीसे बहुत कुछ आशा है। सजीवता वा जीवन वास्तव में किण्वपरपरा ही हैं *। जितने सजीव पदार्थ हैं सबके शरीर मे किण्व वर्तमान है। किण्वक्रिया के बंद होते ही जीव मर जाते हैं। गर्भपिंड से लेकर जीवो की जो अंगवृद्धि होती है वह अकुरघटक के भीतर किण्वविधान के ही अनुसार।


• पृथिव्याहीनि भूतानि चत्वारितत्वानि तेभ्य एव देहातारपरिण सेभ्यः किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् चैतन्यमुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति।---चार्वाक। ( सर्वदर्शनसंग्रह )। [ १०२ ]जात्यंतर-परिणाम के अंतर्गत प्राणियो के ढाँचे के भेदविधान के संबंध मे डारविन ने जो निरूपण किया था उस पर भी इधर बहुत कुछ छानबीन हुई है। प्रो० बॅटसन (Bateson) ने इस विषय की उत्पतिविज्ञान के नाम से अलग ही विचार किया है। उन्होंने कहा है कि भेदविधान दो प्रकार के होते हैं—(१) अखंड वा व्यापक और (२) विशिष्ट। डारविन ने अपने प्राकृतिकग्रहण-सिद्धांत में केवल प्रथम का विचार किया है, दूसरे का नही। पर कुछ भेद जो जात्यंतर के लक्षण माने जाते हैं एकही पुश्त मे साधारण भेदविधान द्वारा उपस्थित हो सकते हैं। सच पूछिए तो उत्पन्न प्राणी के लक्षणो मे से बहुत थोड़े ऐसे होते है जो मातापिता के धातुगत लक्षणो से सघटित होते हैं। इन लक्षणो की प्राप्ति भी कुछ बँधे नियमो के अनुसार होती है। जैसे, यदि मातापिता मे से किसी मे कोई लक्षण विशेष नहीं है तो किसी संतति में वह लक्षण न होगी। यदि दोनो मे कोई एक लक्षण वर्तमान है तो सब बच्चो मे वह पाया जायगा। यदि कोई लक्षण मातापिता मे से एक ही मे है, दूसरे में नही तो आधे लड़को मे वह होगा आधे मे नही। इसमे एक बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि लक्षण की एक स्थिर मात्रा रहती है जैसे यदि मातापिता मे से एक ही में कोई लक्षण है तो आधे संतानों मे ही वह लक्षण जायगा।

विकाशवाद जगत् की समस्याओं के संबंध मे हमारा कहाँ तक समाधान करता है चलती नजर से यह भी देख लेना चाहिए।

जगत् के संबंध मे दो प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है--[ १०३ ]
( १ ) यह जगत् क्या है, अर्थात् इसकी मूल सत्ता किस प्रकार की है? ( २ ) जगत् के नाना व्यापार किस प्रकार होते हैं? उस गति का विधान कैसा है जिसके अनुसार नाना पदार्थ अपने वर्तमान रूप को प्राप्त हुए हैं। कहने की आवश्यकता नही कि विकाशसिद्धांत का संबंध असल मे दूसरे प्रश्न से है। उसी का उत्तर उसके निरूपण देते हैं। सत्ता की मीमांसा विकाश का विषय नही। पर दार्शनिक प्रवृत्ति रखनेवाले हैकल ऐसे विकाशवादी नाना व्यापारो को सत्ता के लक्षण मान उसके अनुमान मे भी प्रवृत्त होते हैं।

इस जगत् के अंतर्गत दो प्रकार के व्यापार देखने मे आते हैं---भौतिक और मानसिक। इन दोनो के उत्तरोत्तर क्रमविधान का वैज्ञानिक निरूपण विकाशवाद करता है। इन निरूपणो को दो दृष्टियो से हम देख सकते है--द्वैत दृष्टि से और अद्वैत दृष्टि से।

द्वैत पक्ष यह है कि भूत और आत्मा ( अंतकरण विशिष्ट आत्मा ) दो सर्वथा पृथक् सत्ताएँ हैं। भैतिक व्यापार और मानसिक व्यापार दोनो एक ही नहीं हैं। अद्वैत पक्ष दो प्रकार का है--( क ) आधिभौतिक और आध्यात्मिक। अधिभौतिक अद्वैतवाद केवल एक महाभूत की सत्ता मानता है। और आत्मा या मन को उसी का एक गुण या अभिव्यक्ति विशेष कहता है। इसके अनुसार आत्मा कोई अलग तत्त्व या सत्ता नहीं। हैकल ने स्पिनोज़ा के जिस तत्त्वाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है वह इससे विशेष भिन्न नहीं। हैकल के अनुसार भौतिक और मानसिक एक ही परमतत्त्व के दो [ १०४ ]
पक्ष या रूप हैं। एक ही तत्त्व या सत्ता की अभिव्यक्ति दो रूपो मे होती है---द्रव्य या भूत के रूप में तथा गति शक्ति या आत्मा के रूप मे। अर्थात्, आत्मा एक प्रकार की गति या शक्ति का ही नाम है। जिस प्रकार पानी का बहना, हवा का चलना, बारूद को भड़कना आदि गतिशक्ति के रूप हैं उसी प्रकार बोध करना और सोचना विचारना भी। हैकल की अद्वैत सत्ता चेतन नही, उसके सिद्धांत में चेतना एक गुणपरिणाम है जो अनेक परिणामो के उपरांत उत्पन्न होता है और फिर नष्ट हो जाता है। यह वैज्ञानिक या आधिभैतिक अद्वैतवाद है।

(ख) आध्यात्मिक अद्वैतवाद केवल आत्मसत्ता ही मानता है। उसके अनुसार चैतन्य ही एक मात्र सत्ता है। भौतिक जगत् या उसके नाना रूपों को वह आत्मा के विविध भाव मात्र कहता है। आधुनिक दर्शन मे इसी मत की प्रधानता है। इसे योरप का वेदांत कह सकते हैं। इसके प्रतिष्ठाता जर्मनी मे हुए हैं।

प्रकृति मे जितने व्यापार या परिणाम हम देखते हैं द्वैत या अद्वैत दृष्टि के अनुसार उनके दो प्रकार के कारण हम सोच सकते हैं--निमित्त कारण और समवायिकारण। द्वैत पक्ष के अनुसार जितने व्यापार होते हैं सब किसी निमित्त या उद्देश्य से होते हैं और उद्देश्य को धारण करनेवाला कारण भूतों से परे है। भूतातीत नियंता या विश्वविधायक आत्मा माननेवाले समस्त भौतिक क्रियाओ को उद्देश्य द्वारा प्रेरित मानते है। ये समवावि कारणो को निमित्त कारण के अधीन मानते हैं। [ १०५ ]
जो विधायक आत्मा को भूतसमष्टि विश्व में समवेत या ओतप्रोत मानते हैं वे भी इन्हीं के अंतर्गत लिए जा सकते हैं क्योकि अद्वैतवादियो के अंतर्गत वे नही आ सकते। आधिभौतिक अद्वैतवादी कहते हैं कि समवायिकारण ही मानने से प्रकृति के सब व्यापारो की सम्यक् व्याख्या हो जाती है, उद्देश्य रखनेवाले किसी निमित्त कारण को मानने की आवश्यकता नही। भूतद्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा ही जगत् का विकाश होता है। वे किसी भूतातीत नियंता का अस्तित्व नही स्वीकार करते और न आत्मा को कोई नित्य चेतन पदार्थ मानते है। संपूर्ण व्यापार द्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा आप से आप होते हैं। *

आधिभौतिक पक्षवालो को चेतना की व्याख्या मे अड़चन पड़ती है सर्वथा जड़ से चतन की उत्पति वे समाधानपूर्वक नही समझा सकते है। इस बाधा से बचने के लिये वे दो निकास निकालते हैं। कुछ लोगों को तो ईथर के समान एक अत्यंत सूक्ष्म मूल मनोभूत ( जो प्रकृति या प्रधान भूत का ही एक विकार है ) या आत्मभूत की कल्पना करनी पड़ी है जिससे प्राणियो के मन या आत्मा की योजना हुई है। कुछ


*साख्यं मे भी प्रधानभूत या प्रकृति का स्वभाव ही परिणाम कहा गया है, उसमे प्रवृशि आपसे आप होती है, किसी की प्रेरणा से नहीं। प्रकृात जड़ है, अतः यह प्रवृत्ति भी अचेतन है---

वत्सदिवृद्धिनिमितं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।

पुरुषविमोक्षनिमिर्त तथा प्रवृत्ति प्रधानस्य।।---कारिक ५७

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लोग प्रत्येक भूतखंड मे किसी न किसी रूप का संवेदन मानते है और कहते हैं कि अणुओं और परमाणुओ के परस्पर आकषर्ण और अपसारण को संवेदन का मूलरूप समझना चाहिए। हैकल के सिद्धांत में इन दोनों का मेल है।

विकाशवाद को दार्शनिक रूप हर्बर्ट स्पेंसर द्वारा ही प्राप्त हुआ है। उसी ने उसके नियमो को विश्वव्यापक रूप दिया है। उसने विकाश की परिभाषा इस प्रकार की है—"एकरूपता या निर्विशेषता से अनेकरूपता या सविशेषता की ओर, अव्यक्त से व्यक्त की ओर गति का नाम विकाश है" । इस गति का कारण द्रव्य मे समवेत है। भौतिक शक्ति के व्यापक नियमो द्वारा ही इसका विधान होता है। उससे परे किसी और शक्ति की प्रेरणा अपेक्षित नही। निर्विशेषता या साम्यावस्था क्षणिक होती है और एक कारण से अनेक कार्य होते है, अत: विकाश अनिवार्यं है। गतिशक्ति के संयोजक और वियोजक जो दो रूप हैं उन्ही के द्वंद्व का परिणाम चला चलता है। इस परिणामपरंपरा की प्रवृत्ति दोनो शक्तियो के साम्य की ओर रहती है अतः विकाश या विकृति के नाना रूप कभी न कभी प्रकृतिस्थ हो कर नष्ट होगे। प्रकृति से फिर विकृति होगी। यह क्रम बराबर चला चलता है।

इन नियमो का निरूपण करके स्पेसर ने इन्हें जड़ जगत् की उत्पत्ति और सजीव सृष्टि के विकाश पर घटाया है। मन या अंत करण के विकाश को भी इन्हीं नियमों के अंतर्गत करके उसने समाज के विकाश की मीमांसा की है। वाह्य विषयों के साथ अंतव्यपारों के सामंजस्य का ही नाम जीवन [ १०७ ]
है। जीवो की उत्पति-परंपरा मे जब यह सामंजस्य एक विशेष जटिल अवस्था को पहुँच जाता है तब मन ( चेतना जिसकी वृत्ति है ) का प्रादुर्भाव होता है। शक्तिसंयुत द्रव्य के साथ साथ कोई नित्य चेतन सर्वसत्ता भी ओतप्रोत भाव से रहती है इस विषय मे उसने कुछ नहीं कहा है। चेतना को उसने उन्ही प्राणियो मे माना है जिनमें संवनसूत्रो और मस्तिष्क का पूर्ण विधान होता है। चेतना को उसने कोई एकांतिक अखंड सत्ता न कह कर एक यौगिक व्यापार ही कहा है जिसकी गूढ़ योजना अत्यंत सादे और सूक्ष्म अव्यक्त संवेदनो के योग से होती है। स्मृति, संकल्प, विवेचना, मनोवेग इत्यादि सब वृत्तियाँ इन्ही आदिम मूल संवेदनो के संबंधभेद से संघटित है। अंतःकरण-वृत्तियो के नाना रूपो की संप्राप्ति वाह्य विषयो के साथ सामंजस्य-प्रयत्न द्वारा होती है। दिक्संबंधी, * धर्म--


* रेखागणित के निरूपण दिक् संबंधी होते हैं, जैसे, 'केवल दो रेखाएँ कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, 'दो समानांतर रेखाएँ कभी नहीं मिल सकती' । ऐसे निरूपणो को भी ह्यूम आदि सवेदनवादी दार्शनिको ने स्वतःसिध्द न कह कर अनुभवसिद्ध बतलाया है। यह देखते देखते कि दो रेखाए कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, दो समानातर रेखाएं कभी नहीं मिलतीं' मनुष्य जाति के भीतर लाखों पीढियो से जो सस्कार बँधा चला आया है उसी के कारण ये बाते स्वतः सिद्ध सी जान पड़ती हैं। आत्मसत्तावादी, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन्हे इद्रियज सवेदनों से प्राप्त नहीं मानते। वे कहते है कि हमारा जो यह निश्चय है कि ऐसा होना त्रिकाल में और किसी [ १०८ ]
मवधी आदि जो सासिद्धिक भाव कहे जाते हैं वे पूर्वजो के अनुभव की अखंड परंपरा द्वारा प्राप्त हुए हैं। जिन, कार्यो से सुख का अनुभव हुआ वे प्राणी के लिये लाभदायक और जिनसे दुःख का अनुभव हुआ वे हानिकारक पाए गए। अतः कुछ कार्यों के अभास से प्रसन्नता और कुछ के आभास से भय वा विरक्ति मस्तिष्क या अंतकरण मे संस्कार रूप में मूलबद्ध होती गई और पीढ़ी दर पीढी चली आई। आरभ मे यह हानिलाभ का विचार या कार्यकारण का भाव स्पष्ट था पर क्रमशः वह दब गया अर्थात् कुछ कार्यो के साक्षात्कार से आनंद और कुछ के साक्षात्कार से भय वा विरक्ति विना हानिलाभ या परिणाम आदि की भावना के यो ही बद्ध संस्कार के रूप में होने लगी। बहुत छोटे गोद के बच्चे को जब हम क्रूर आकृति बना कर डाँटते हैं तब वह रोने लगता है और जब हँस हँस कर बुलाते हैं तब प्रसन्न होता है। उस बच्चे को कार्यकारण के अनुमान की शक्ति नहीं रहती, वह यह नही जानता कि क्रूर आकृति का परिणाम चपत या प्रसन्न आकृति का परिणाम मीठा दूध है। वह जो भय या आनन्द प्रकट करता है उस का कारण उस अंतःकरण-द्रव्य मे बद्ध संस्कार है जिसकी परंपरा लाखो पीढ़ियो से बच्चे तक चली आई है।

इस प्रकार आदिम काल मे ही मनुष्य जाति के बीच यह


लोक में संभव नहीं वह वाह्य पदार्थों या व्यापारों द्वारा उत्पन्न परिमित ज्ञान से प्राप्त नहीं हो सकता है। वह दिक् काल आदि से अपरिच्छिन्न सा का लक्षण है। [ १०९ ]
सस्कार जम गया कि जिन कार्यों से औरो की आकृति क्रूर हो जाय उनसे बचना और जिनसे प्रसन्न हो उन्हे करना चाहिए। अर्थात् आरंभ मे भय और आनंद द्वारा ही उपादेय और अनुपादेय का भाव उत्पन्न हुआ। यही मूलभय क्रमशः देवभय आदि के रूप मे और मूल आनंद देवतुष्टि या स्वर्ग आदि के आनद के रूप मे विकसित हुआ। दयाधर्म के संबंध मे अधिभौतिक विकाशवादियो का कहना है कि उसकी उत्पत्ति सहानुभूति से है जिसका विकाश समाज बाँध कर रहनेवाले प्राणियो में स्वाभाविक है। एक ही प्रकार का आहार विहार रखनेवाले प्राणी जब एक दूसरे के समक्ष एकही प्रकार के मनोद्गार प्रकट करते है तब उन मनोद्गारो के संबंध मे भी एक प्रकार का मानसिक सहयोग स्थापित हो जाता है। यही सहानुभूति है जिसके कारण मनुष्य दूसर की पीड़ा पहुँचाने से बचता है और दूसरे की पीड़ा देख कर दुखी होता है। सौन्दर्य की ओर जो प्रवृत्ति पाई जाती है वह एक प्रकार की फालतू वृत्ति या क्रीड़ावृत्ति है जो प्रयोजन से अधिक मानसिक वृत्तियो के विकाश के कारण उत्पन्न होती है।

स्पेसर ने शरीरविकाश और समाजविकाश का तारतम्य दिखा कर कहा है कि जिस प्रकार प्राणी की जीवनयात्रा उपस्थित वाह्य विषयो के साथ आभ्यंतर वृत्तियो का सामंजस्यप्रयत्न है उसी प्रकार प्राणियो की समष्टि या समाज की जीवनयात्रा भी। अतः वह युग आवेगा जब यह सामंजस्य पूर्ण रूप से स्थापित हो जायगा और मनुष्य-जीवन आनन्दमय हो जायेगा।