विश्व प्रपंच/भूमिका/७

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल
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कार्यकारणसंबंध बाह्य विषय नहीं,

चित् का ही स्वरूप है।

जैसे दिक् वस्तुओ के अवस्थान की चित्तप्रयुक्त च्यवस्था है और काल परंपरा की, उसी प्रकार कार्यकारणभाव वस्तुओ की क्रिया या व्यापार की व्यवस्था है जिसे चिन्त अपनी ओर से प्रदान करता है। प्रत्येक कार्य विशेष का निर्धारण प्रत्यक्षानुभव द्वारा होता है, पर कार्यकारणभाव, जिसके बिना क्रिया या व्यापार की भावना संभव नही, अतरात्मा से ही आता है। प्रमाण--

( १ ) चित् का स्वरूप ही ऐसा है कि यदि किसी व्यापार का चित्र उसमे उपस्थित होता है तो उसका संबंध बिना किसी कारण से लगाए वह रह ही नहीं सकता। प्रत्येक प्रत्यक्षानुभव में कार्यकारण-भाव समवेत रहता है। बाहर से जो कुछ हमें प्राप्त होता है वह अंत:करण का संवेदनसूत्रो द्वारा संहत संस्कार मात्र है। यदि हमारे मन में कार्यकारणभाव का साँचा न होता तो उस संस्कार के द्वारा बाह्य वस्तु के होने का कुछ भी ज्ञान न होता। इसी भाव के द्वारा हम सस्कार को कार्यरूप से ग्रहण करते हैं और अपने से बाहर दिक् में उसके कारण का अवस्थान ( स्थूल भूत के रूप मे ) करते हैं। कार्यकारण के भाव बिना बाह्य जगत् की प्रतीति का असंभव होना ही इस बात का प्रमाण है कि यह भाव हमे बाहर से प्राप्त नहीं होता, बुद्धि द्वारा ही प्राप्त होता है।

( २ ) शुद्ध कार्यकारण-भाव का चित्र हमारे मन मे [ १२५ ]
उपस्थित नही हो सकता, विषय रूप मे जब वह उपस्थित होगा तब देशकाल के योग मे अर्थात् भूत के रूप मे। भूत वास्तव मे देशकाल-व्यवस्थित कार्यकारणभाव का ही नाम है। इस भूत का भाव परिहार्य अपरिहार्य दोनो है। इस भूत का भाव हम चित्त से निकाल सकते हैं, पर जो भृत है उसका प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव मन मे नही धारण कर सकते। भूत के प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव ( उत्पाते और नाश ) की धारणा का असंभव होना इस बात को सूचित करता है कि हम उपस्थित भूत के अस्तित्व को अपने मन से किसी प्रकार निकाल नही सकते। अतः वह आत्मसत्ता से स्वतंत्र नही हैं, अर्थात् भूत भी चित् द्वारा ही प्रदत भाव है।

( ३ ) कार्यकारण-भाव अपरिहार्य है। किसी कार्य का कारण क्या है इसका अनिश्चय हमें हो सकता है पर कोई कारण है इसका निश्चय अवश्य रहता है। यदि कार्यकारणभाव हमे प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त होता तो जैसे और सब प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नियमो ( जैसे, नित्य सबेरे सूर्य्य का उदय होना ) की वैसे ही इसकी भी अन्यथा भावना हो सकती। बार बार के प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नियमो की भावना अपरिहार्य नहीं, कार्यकरण का भाव अपरिहार्य है। अतः वह प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नहीं है।

( ४ ) भौतिक विज्ञान के जो नियम प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त हुए हैं उन सबको यदि निकाल दे तो कोई क्रिया नहीं रह जायगी, क्रिया की संभावना (अर्थात् कार्य्यकारणभाव) मात्र रह जायगी दिक् काल द्वारा व्यवस्थित होने पर जिसकी प्रतीति [ १२६ ]
भूत के रूप मे होती है। भूत की यह अक्रिय और सक्रिय भावना अपरिहार्य है, अतः चित्तप्रदत्त है।

( ५ )जब कि अलग अलग संस्कारो द्वारा दिक् काल का सूत्र नहीं प्राप्त होता तब कार्य और कारण के बीच का संबंधसुत्र अलग अलग प्रत्यक्षानुभव से कैसे प्राप्त हो सकता है? अतः व्यापार के रूप मे शक्ति की जो अभिव्यक्ति होती है उन्हे मन ही कार्यकारणभाव की व्यवस्था प्रदान करता है।

( ६ )कार्यकारण परपरा अनादि और अनंत है क्योकि जिस अवस्था को हम आदि मानेंगे उसका परिणाम होने के लिये कोई पूर्व परिणाम मानना पड़ेगा और अनवस्था आ जायगी। अनादि और अनत का भाव कभी किसी प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। वह चित् का ही स्वरूप है।

अत:करण अपनी इन्हीं तीन व्यवस्थाओ ( दिक्, काल और कार्य्यकारणभाव ) द्वारा बाह्य जगत् का चित्र खींचता है। पहले तो वह संवेदनो को कालबद्ध कर पूर्वापर क्रम की भावना करता है। फिर कार्यकारणभाव द्वारा बाहर उसके कारण का आरोप करता है। अंत मे इस कारण को दिग्बद्ध कर भौतिक स्थूल पदार्थ के रूप मे उसकी भावना करता है। सारांश यह कि यह जगत् जो हम देखते हैं वह हमारे चित्त का ही खड़ा किया हुआ स्वरूप है, अर्थात् तत्व दृष्टि से मिथ्या है। यही तर्क विलायती वेदांत का आधार हुआ। कान्ट के इस निरूपण मे चित् से भिन्न उस पर संस्काररूप प्रभाव डालनेवाली अज्ञेय बाह्य सत्ता का स्वीकार [ १२७ ]
है। अतः वाह्यार्थवाद को कुछ लेश उसमें बना हुआ है। इस अज्ञेय वाह्य सत्ता की भावना उसने शक्तिरूप मे की है। एक स्थान पर उसने कहा है कि भौतिक पदार्थ और कुछ नहीं "शक्तिपूरित दिक्खंड" मात्र है।

कांट मे जो कुछ वाह्यार्थवाद को लेश था उसे फिक्ट ने दूर कर दिया। उसने सूचित किया कि चित् से भिन्न उस पर प्रभाव डालनेवाली कोई वस्तु नही है, अत्मा पूर्ण और निरपेक्ष है। वह आप से आप उन स्वरूपो का उदय करती है जिसकी समष्टि को जगत् कहते है, किसी बाहरी वस्तु (भूत, शक्ति, अज्ञेय सत्ता या ईश्वर आदि) के प्रभाव या प्रेरणा से नही। जगत् पूर्णतया उसी की रचना है। आत्मा पहले अपना अवस्थान करती है, फिर अपने से भिन्न अनात्मा का और पीछे इस अनात्मा को अपने मे अवस्थान करती है। इसी पद्धति से वह जगत् की प्रतीति करती है । अत जो कुछ सत्ता है वह चैतन्य में ही, चैतन्य के बाहर नहीं *। मोहवश आत्मा को इस स्वावस्थान क्रिया का विस्मरण हो जाता है और उसे इस विवर्त्त द्वारा अनात्मा की भी स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार आत्मा के अवस्थानभेद मान कर फिक्ट ने विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय मे परमार्थभेद नहीं रखा। जिसे कांट ने अज्ञेय वस्तुसत्ता कहा था उसको भी फिक्ट ने विषय रूप में आत्मा का स्वावस्थान ही कह कर ज्ञेय बताया; क्यों कि जब वह आत्मा की ही स्वप्र--


*नहि आत्मनोन्यतू अनात्मभूत तत्। ---तेत्तिरीय भाष्य। [ १२८ ]
मिति ठहरी तब उसके लिये अज्ञेय कैसे हो सकती है। इस प्रकार फिक्ट के दर्शन मे आत्मसत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया।

अद्वैत आत्मवाद या भाववाद मे बड़ी भारी अड़चन यह थी कि यदि ससार मे जो नाना नाना पदार्थ दिखाई पड़ते हैं वे चित्तू के भाव ही है तो किसी एक वस्तु की समान प्रतीति सब आत्माओ मे कैसे होती है, सब लोग एक सूर्य की भावना कैसे करते है। कांट की तरह बाह्यसत्ता का कुछ लेश रखने पर तो इसका समाधान यह मान कर हो सकता है कि एक वस्तुसत्ता भिन्न भिन्न आत्माओ मे एक ही प्रकार की अलग अलग प्रतीति उत्पन्न करती है। पर उस वाह्य वस्तु को भी चित् का स्वरूप मान लेने पर केवल दो रास्ते रह जाते हैं। या तो यह कहे कि जितनी आत्माएँ है उतने ही सूर्य (या सूर्य की प्रतीति) है अथवा यह कहे कि आत्मा एक ही है, अनेक नही। इग्लैड के भाववादी दार्शनिक बर्कले ने पहला रास्ता पकड़ा था। पर फिक्ट ने भिन्न भिन्न आत्माओं का प्रत्याख्यान कर के भारतीय वेदांतियो के समान एक ही आत्मा माना। यूरोपीय दर्शन मे इस प्रकार एक ही पूर्ण और व्यापक चैतन्य की प्रतिष्ठा हुई।

फिक्ट के पीछे शेलिंग ने प्रतिपादित किया कि एकांत चैतन्य सत्ता ही ब्रह्म है। जगत् चैतन्य वा ब्रह्म का ही भाव विधान है। ब्रह्मसत्ता शाश्वत सर्वव्यापिनी बुद्धिस्वरूपा है। यह संपूर्ण जगत् उसी बुद्धि का निरूपण है जिसकी पहले जड़जगत् के रूप मे और फिर-होते होते चेतन मनुष्य के रूप में अभि-[ १२९ ]
व्यक्ति होती है। विषयी निरंतर विषय रूप होता रहता है और ऐसी सृष्टि करता है जिसमें विषय और विषयी का एक मे पर्यवसान होता है। द्वैत मे अद्वैत, भेद मे अभेद का यह क्रम ही आकर्षण और अपसारण का मूल है और इसकी उद्धरणी जगत् मे चरावर होती रहती है। शेलिंग का कहना है कि विषयी जो विषय हो जाता है वह 'भेद मे अभेद' भाव हो कर फिर पलट कर अपने मे मिलने के लिये ही। जगत् और ज्ञान दोनो का क्रम बुद्धिक्रम है। विषय और विषयी, ज्ञाता और ज्ञेय के भेद का परम चैतन्य या पूर्णबुद्धि मे जा कर अभेद हो जाता है। अभेदरुप इस ऐकांतिक पूर्ण चैतन्य सत्ता का बोध क्यो कर हो सकता है? शेलिंग का कथन हैं कि प्रज्ञा से।

शेलिग के इसी 'भेद में अभेद' के ऊपर हेगल ने अपना अद्भुत चमत्कारपूर्ण भवन खड़ा किया जिससे वाह्यार्थवादी इतना घबराते हैं। उसने शेलिंग के इस कथन को अयुक्त बताया कि पूर्ण चैतन्य सत्ता का बोध प्रज्ञा द्वारा हो सकता है। उसने कहा कि संवेदन या इंद्रियज ज्ञान से ऊपर जो बोध होगा वह अनुमान या तर्कपद्धति द्वारा ही होगा। इसके लिये उसने एक नया आंतर तर्क खड़ा किया जिसका आधार यह है कि दो जुदी वस्तुएँ यदि समान हो तो गुण की एकता से एक ही हो सकती हैं। इसी तर्कपद्धति द्वारा उसने दिखाया कि किस प्रकार अपरिच्छिम सत्ता परिच्छिन्न हो कर भी अपरिच्छिन्न बनी रहती है, किस प्रकार चित् की भाव जगत् हो जाता है और फिर आत्मा हो कर अपने में लौट आता है, सत् किस प्रकार असत् हो जाता है और फिर अपने में लौट
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आता है अर्थात् किस प्रकार एक परम चैतन्य विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय के भेद की ओर प्रवृत्त होता है और फिर भी अभेद रूप रहता है। इस प्रकार हेगल ने सत् और असत् दोनो का अंतर्भाव एक परमभाव में किया। हेगल के हाथ मे पड़ कर जर्मनी का भाववाद चरम सीमा को पहुँच गया।

हेगले के पीछे जर्मनी मे शोपेनहावर, हार्टमान, लोज, फेक्नर, पोलसन आदि कई भाववादी दार्शनिक हुए है। इनमे से शोपेनहावर ने बौद्ध आदि पूरबी दर्शनो और उपनिषदो का भी परिशीलन किया था। शोपेनहावर भी कांट का यह निरूपण स्वीकार कर के चला है कि बाह्य (नामरूपात्मक, दृश्य) जगत् चित् का भाव या प्रत्यय मात्र है, पर जगत की जो वस्तुसत्ता है वह कर्मसंकल्पवृत्ति या इच्छा स्वरूप है। यह कर्मप्रवृत्ति या कृतिशक्ति उद्देश्यज्ञानपूर्वक चेतन नही है, जड़ है। बुद्धि और चेतना क्या इसमे संवेदन तक नही, यह सर्वथा जड़ प्रवृत्ति है। इस प्रकार उसने फिक्ट, शेलिंग और हेगल के अनंत पूर्ण चैतन्य अर्थात् सर्वव्यापिनी चेतनसत्ता का प्रतिषेध किया और कहा कि अंध जड़ प्रवृत्ति या इच्छर ही परिणाम रूप से हम लोगो मे चैतन्य की उत्पत्ति करती है। यह दुःखमय संसार इसी रजोगुणमयी प्रवृत्ति या शक्ति का कार्य है। शोपेनहावर के दर्शन मे दुःखवाद भरा हुआ है। कामना की निवृत्ति से ही दु.ख की निवृत्ति हो सकती है। शोपेनहावर के अनुयायियों में ही ड्युसन हुए हैं जिन्हो ने वेदांत आदि भारतीय दर्शनों की भी आलोचना की है। [ १३१ ]शोपेनहावर ने सब से जड़ और दुःखमयी प्रवृत्ति को ही जगत् के मूल मे रखा है। उसका यह दुःखवाद जर्मनी में निट्शे ने ग्रहण किया और अपनी चमत्कारपूर्ण अनोखी उक्तियो द्वारा अपने देश मे एक इंद्रजाल सा फैला दिया। वह शोपेनहावर के दर्शन से जड़ प्रवृत्ति या संकल्पशक्ति को ले कर विकाशवाद की ओर ले गया और कहने लगा कि जीवन की यही कामना विकाश के इस नियम मे देखी जाती है कि 'जो जीव समर्थ होते है वे ही रह जाते हैं और सब नष्ट हो जाते हैं' । प्रकृति द्वारा जीवित रहने का अधिकार बलवानो को ही प्राप्त है। वे दुर्बलो को संसार से हटा कर अपने लिये--अपने ज्ञान, बल, वैभव आदि के पूर्ण विस्तार के लिये---जगह करे और इस प्रकार 'ग्रहण पद्धति' द्वारा एक मनुष्योपरि योनि का विकाश करे। इस मनुष्योपरि योनि के विकाश के उन्माद मे जर्मनी ने हाल मे जो करतब किए उन्हे संसार देख चुका है।

यद्यपि भारतीय वेदांत की पद्धति योरप की ज्ञानपरीक्षावाली पद्धति से भिन्न है पर अंत मे दोनो दर्शन किस प्रकार एक ही सिद्धांत पर पहुँचे है यह बात ध्यान देने योग्य है। वेदांत यह मान कर चला है कि क्रिया परिणाभिनी है, पर चैतन्य अपरिणामी है। एक क्रिया दूसरी क्रिया के रूप मे परिणत होती है पर उन क्रियाओ का ज्ञान सदा वही रहता है। बुद्धयादि अंतःकरण की सब वृत्तियाँ जड़ क्रिया के अंतर्गत की गई है, केवल उनका ज्ञान अविकृत रूप से स्थित कहा गया है। खंडज्ञान या विज्ञान का कारण बुढ्यादि क्रिया की विच्युति [ १३२ ]
वा विकार है। क्रियानुगत ज्ञाता ज्ञेय रूप मे केवल क्रियाओ का ज्ञान करता है, अपने स्वरूप का नही जो अखंड, निर्विशेष और अपरिणामी है। इससे सिद्ध हुआ कि परिणामबद्ध क्रिया या क्रियावीज शक्ति स्वतत्र सत्ता नहीं हो सकती, उसकी अक्षर सत्ता चैतन्य की सत्ता मे ही है। शक्ति का जो स्फुरण है उसका अधिष्ठान चैतन्य है। अतः चैतन्य ही एकमात्र शुद्ध सत्ता है। इस स्फुरण व्यापार मे ब्रह्म या चैतन्य का ही आभास मिलता है। "सर्व विशेषप्रत्यस्तमित स्वरूपत्वात् ब्रह्मणो बाह्यसत्तासामान्यविषयेण 'सत्य' शब्देन लक्ष्यते"--- (तैत्तिरीय भाष्य)। शुद्ध चैतन्यस्वरूप का केवल आभास मिल सकता है। उसका बोध केवल लक्षणा द्वारा हो सकता है साक्षात् संबंध द्वारा नही। जब कि सब प्राकृतिक व्यापार चैतन्य के ही लक्षणाभास है और हमे केवल इन्हीं लक्षणाभासी का ही ज्ञान हो सकता है तब इनके अनुसंधान को वेदांती अनावश्यक नही कह सकते।

इस संक्षिप्त निरूपण से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म अनंत ज्ञानस्वरुप और अनंत शक्तिस्वरूप दोनो है। इस शक्ति को ब्रह्म का संकल्प ही समझना चाहिये जो, अव्यक्तरूप में चैतन्य में अधिष्ठित रहता है। यह एक प्रकार से ज्ञान का ही एक अंग या पक्ष है जिसकी अभिव्यक्ति सर्गोन्मुख गति या क्रिया के रूप मे होती है। इसी अर्थ में ब्रह्म या चैतन्य को "भूतयोनि" (कारण ब्रह्म) कहते है। ज्ञाता ज्ञेय रूप से अपना अवस्थान कर क्रियारूप मे अपनी संकल्पशक्ति को व्यक्त करता है। [ १३३ ]

वाह्यार्थवाद।

वाह्यार्थवादी सर्वसाधारण की धारणा का समर्थन करते हुए भूत और आत्मा दो अलग सत्ताएँ मानते हैं। उन्हे दोनो ओर के अद्वैतवादियों के खंडन में प्रवृत्त होना पड़ता है। अद्वैतं आत्मवाद की प्रचंड युक्तियो के निराकरण मे भी वे प्रवृत्त होते हैं और भूताद्वतियों की त्रुटियों का भी दिग्दर्शन कराते हैं। जर्मनी में ही ड्यूरिंग (Duhring) आदि कई वाह्यार्थवादियो ने कांट के निरूपण के विरुद्ध प्रयास किया है। वाह्यार्थवादी भी दो प्रकार के हैं। कुछ तो भौतिक जगत् को प्रत्यक्ष नही मानते, अनुमान मानते हैं। वे इस युक्ति को मानते हैं कि मन का जो ज्ञान होता है वह अपने ही स्वरूपो या संस्कारों का, पर इन संस्कारों द्वारा इस बात का पूरा अनुमान होता है कि भौतिक जगत् है। शुद्ध बाह्यार्थवादी कहते हैं कि हमे भौतिक जगत् का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, मानसिक संस्कार मध्यस्थ नही। इंग्लैंड में रीड, स्टिवर्ट, और हेमिल्टन शुद्ध बाह्यार्थवाद के अनुयायी हो गए है। मार्टिना, माइवर्ट और मेकाश आधुनिक अनुयायिओं में हैं। इंग्लैंड की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसी मत की ओर अधिक है जिसमे न्याय और वैशेषिक के समान ईश्वर, आत्मा और भूत के लिये उसी प्रकार अलग अलग जगह है जिस प्रकार सर्व साधारण के मन में।

इस मत क समर्थक भाववादियो की इस मूल प्रतिज्ञा को असिद्ध कहते हैं कि मन कि जो संवेदन या ज्ञान होता है वह अपने ही संवेदन का न कि वस्तु का। वे कहते हैं कि जिसका ज्ञान होता है वह भौतिक पदार्थ से उत्पन्न भौतिक प्रभाव है, [ १३४ ]
चित् का ही स्वरूप नहीं । यदि जगत के व्यापारो को हम चित्त के भाव या कल्पना मान लें तो फिर नाना विज्ञानों के जो अन्वेषण हैं वे व्यर्थ हैं। भौतिक व्यापार अपने नियमो के अनुसार तब से बराबर होते आ रहे हैं जब उनकी प्रतीति करनेवाले मनुष्य के चित्त का कहीं पता भी नहीं था। यदि भूत की सत्ता स्वतंत्र न होती तो एक ही बात का पता दो अलग अलरी अन्वेषकों को कैसे लगता। नेपचून नामक ग्रह का पता आडम्स और लंवरियर नामक ज्योतिषियो ने अपनी अपनी स्वतंत्र गणना के अनुसार एक ही समय मे पाया। इस प्रकार वाह्यार्थवादी अनेक युक्तियो से योरोपीय भाववादियो (अद्वैत आत्मवादियों) के निरूपण के प्रत्याख्यान में प्रवृत्त होते हैं। पर सच पूछिए तो वैज्ञानिको के अनुसंधान का द्वार भाववादी बंद नहीं करते है। सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप का जो कुछ उन्होने प्रतिपादन किया है उसके साथ बाह्यार्थ क्रमविधान का समन्वय भी उन्होने किया है। कांट ने वस्तुसत्ता को शक्तिस्वरूपा कहा था, शोपेनहावर ने उसी शक्ति को संकल्प कहा। फिक्ट ने उस शक्ति को 'विषयी का विषयरूप से स्वावस्थान' कह कर उसका अधिष्ठान चैतन्य मे ही कर दिया था। पहले कही जा चुका है कि किस प्रकार भौतिक विज्ञान भूत या द्रव्य के मूलरूप का पता लगाते लगाते अत में शक्ति तक पहुँच रहा है। कुछ वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि द्रव्य या भूत का सव से सूक्ष्म रूप* शक्ति ही है।


* अक्षरमव्याकृत नामरूपवीजशाक्तिरूप भूतसूक्ष्मम् शकरभाष्य। [ १३५ ]
अतः विज्ञान के नाना अनुसंधानो का भाववादी यही समझेगे कि संकल्प या कृतिशक्ति के स्वरूप का निरूपण हो रहा है। जब कि इस संकल्प या क्रियाबीज की सत्ता भी चैतन्य सत्ता से स्वतंत्र नहीं, जब कि यह ज्ञान का ही एक विशेष (ज्ञेय) रूप मे अवस्थान है, जब किं इसके नाना विशेषो या क्रियाओं की तह में अधिष्ठान रूप से निर्विशेष चैतन्य व्याप्त है तब इस ज्ञेय के द्वारा ज्ञान, चैतन्य या ब्रह्म का ही आभास अध्यात्मवादी क्या न मानेगे?

प्रकृति के नाना व्यापारो के अनुसंधान द्वारा ही वैज्ञानिको को "भेद मे अभेद" इस गूढ़ तत्त्व की उपलब्धि हुई है जो सत्ता संबंधी ज्ञान का मूल है। भूतों की विशेष विशेष क्रियाओ के अभ्यास द्वारा ही क्रिया के एक निर्विशेष रूप अक्षर शक्ति तक विज्ञान पहुँचा है, नाना क्रियाएँ जिसकी अभिव्यक्ति मात्र है। विज्ञान के किसी क्षेत्र मे जाइए वहाँ एक सामान्य अनेक की तह में ओतप्रोत मिलेगा। यही सामान्य सत्ता के स्वरूप का आभास है।

नाना भेद के बीच जो अभेद मिलता जाय उसे सत्ता के स्वरूप के पास तक पहुँचता हुआ समझना चाहिए। शुद्ध विज्ञान अपने सूक्ष्म अन्वीक्षणो द्वारा सर्वभूत की सामान्य सत्ता, शक्ति, तक पहुँच रहा है। ईथर को एक अड़गा रह गया है। ईथर भी शायद एक दिन शक्तिरूप ही प्रमाणित हो जाय (अव्यक्तसव्याकृताकाशादिशब्द वाच्यम्--कठ भाष्य) । पहले कहा जा चुका है कि विज्ञान अपनी पद्धति से चैतन्य को इस भृतशक्ति के अंतर्गत करने में समर्थ नहीं हुआ है। अतः [ १३६ ]
चैतन्य और शक्ति का ही द्वेत अब रह गया है। सांख्म ने जहाँ छोड़ा था वहीं पर विज्ञान ने भी ला कर छोड़ दिया है। सांख्य भी पुरष-प्रकृति का सदा सलामत रहनेवाला जोड़ा देख कर लौटा था।

अब इस द्वैत को लेकर दोनों प्रकार के अद्वैतवादो का क्या रूप होगा यह देखना चाहिए। अब या तो आधिभौतिक अद्वैत के अनुसार चैतन्य को शक्ति के अंतर्भूत करे या अद्वैत आत्मवाद के अनुसार शक्ति को चैतन्य के अतर्भूत करें----या तो शक्ति को चैतन्य का अधिष्ठान कहें, अथवा चैतन्य को शक्ति का। हैकल ने परमतत्व के भूत और शक्ति जो दो पक्ष कहे थे उनमें से भूत तो प्रायः शक्ति के ही अंतर्भूत हो गया। अतः उसका परमतत्व भी शक्तिरूप ही रह गया। उसने चैतन्य को इस शक्ति का ही एक रूप या क्षणिक परिणाम कहा है। योरप के भाववादी और भारत के वेदाती चैतन्य को ही शक्ति का अधिष्ठान कहेंगे जैसा कि वे बराबय कहते आए हैं। आधिभौतिकों या लोकायतिकों की इस युक्ति का उन पर कोई प्रभाव नही कि शरीर या मस्तिष्क के विकृत या नष्ट होने से चेतना भी विकृत या नष्ट होती है क्योंकि उनका पक्ष तो यह है कि मस्तिष्क (अंतःकरण चा बुद्धयादि जड़ क्रिया) के विकृत या नष्ट होने से केवल वह क्रियाविशेष नष्ट हो जाती है जिसके द्वारा चैतन्य के लक्षण का आभास मिलता है।

जब हैकल आदि कुछ वैज्ञानिक अपने क्षेत्रों से निकल कर ईश्वर, परलोक आदि के खंडन द्वारा ईसाई धर्म पर टूटे [ १३७ ]
तब बहुतो ने अपने मज़हब की पौराणिक और स्थूल बातो को किनारे कर हेगल आदि के पूर्णचिद्वाद (Philosophy of the Absolute) या ब्रह्मवाद की ही शरण ली जिसकी आधिभोतिको ने हँसी उड़ाई क्योकि भाववाद मे उनके स्थूल ईश्वर, फरिश्तो, दोज़ख़ की आग, पितापुत्र आदि के लिये कहीं ठिकाना नहीं था। कैथलिक संप्रदाय के ईसाइयो ने शुद्ध वाह्यार्थवाद की अवलंबन किया। अधिकांश वैज्ञानिक अपने विषय के बाहर न जा कर संशयवादी रहे, और अब भी हैं। वे चैतन्य और उसकी सत्ता असत्ता के विषय मे कुछ कहना नही चाहते। डारविन, हक्सले, आदि विकाशवाद के प्रतिष्ठाता संशयवादी थे, अनीश्वरवादी नही।हर्बर्ट स्पेसर को भी एक प्रकार का संशयवादी ही कहना चाहिए। पर लार्ड केलविन, सर आलिवर लाज ऐसे कुछ परमप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने लड़ाई में धर्माचार्यों का पूरा साथ दिया है। सर आलिवर लाज इंग्लैंड के प्रधान वैज्ञानिको मे से हैं। वे ईश्वर, परलोक, अमरत्व आदि के मंडन मे बराबर दत्तचित रहते हैं। सन् १९१३ मे बृटिश असोसिएशन के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर सर आलिवर लाज ने 'अखंडत्व' पर जो व्याख्यान दिया था उसका कुछ अश नीचे दिया जाता है--

"परलोक आदि का पुराना झगड़ा इधर मुल्तवी है। जिस गढ़ मे परलोकवादी ने शरण ली है वह आक्रमण के लिये लोगो को आकर्षित नहीं करता। जिस कोने को दबा कर वह बैठा है उस पर उसका पूरा हक है। अब जो झगडा चल रहा है वह वैज्ञानिक दलो के बीच है जिसमे दार्शनिको को [ १३८ ]
भी योग है। परलोकवादी तो अब एक कोने मे बैठा दूर से आसरा लगाए देख रहा है कि इस झगड़े से कभी न कभी उसके काम की बात निकल आवेगी। वह बैठा बैठा सोचता है कि बहुत सी बाते जिन्हे लोगो ने उतावली करके अधूरे प्रमाण पर ही झूठ ठहराया थी वे किसी न किसी रूप मे आगे चल कर ठीक प्रमाणित होगी। इस प्रकार धर्मोपदेशको (पादरियो) का पुराना द्वेष तो इधर शांत है।

भौतिक विद्या मे शक्ति पर विवाद चल रहा है। रसायन में अणुओ की बनावट का झगड़ा है। प्राणिविज्ञान मे वशपरंपरा के नियमो की छानबीन है। शिक्षापद्धति मे बच्चों को अधिक स्वतंत्रता देने के लाभ बताए जा रहे है। राजनीति, अर्थनीति, और समाजनीति मे तो दुनियाँ की कौन ऐसी बात है जिस पर वाद न हो----केवल 'धन धरती' पर ही नही, अदन के पुराने बाग से ले कर स्त्रीपुरुष के परस्पर संबंध तक पर विवाद छिड़ा हुआ है। इसी प्रकार गणित और विज्ञान की शाखाओं मे आज कल का संशयवाद अखंडत्व के संबंध मे है।

"इन सब खडवादो से बढ़ कर गूढ़ और तत्वमूलक सब प्रकार के विज्ञान के आधारो की गहरी परीक्षा है जो आजकल हो रही है। एक प्रकार का दार्शनिक संशयवाद भी बढ़ती पर है जिससे बुद्धि के शुद्ध निरूपण क्रम पर भी अविश्वास किया जा रहा है और विज्ञान की पहुँच भी परिमित बताई जा रही है।

"वैज्ञानिक भी पुराने सिद्धांतो के खंडन में लगे हैं। एक [ १३९ ]
पूरा अन्यूटनिक सिद्धांत ही निकाला गया है जिसके आधार हाल मे जाने हुए वे परिवर्तन हैं जो प्रकाश के तुल्य वेग से गमन करते हुए पदार्थों मे पाए गए हैं। वास्तव में यह पाया गया है कि परिमाण और आकृति वेग की क्रियाएँ या गुण हैं। जैसे जैसे वेग बढ़ता है वैसे ही वैसे परिमाण बढ़ता है और आकृति मे फेरफार होता है, पर साधारण अवस्था में हद से ज्यादा सूक्ष्म रूप मे। भौतिक विज्ञान के अधिकांश विभागों मे सुगमता के स्थान में जटिलता बढ़ती जाती है। आज कल भौतिक विज्ञान मे जो मुख्य विवाद चल रहा है उसका झुकाव खंडत्व और अखंडत्व के विषय मे है।

"ऊपर से देखने में सृष्टि के बीच पहले हम खंडत्व पाते हैं अर्थात् हुम ऐसे पदार्थ देखते हैं जिन्हें अलग अलग गिन सकते हैं। फिर हम वायु तथा और और अतरवर्तियों का अनुभव करते हैं और अखंडत्व या प्रवाहित द्रव्य का समर्थन करते हैं। इसके अनंतर हम अणुओ को पता लगाते हैं और फिर खंडत्व हमारे सामने आता है। तब हम ईथर का पता लगाते है और फिर अखंडत्व पर विश्वास करते हैं। पर इसका अंत यही नहीं होने का। अंतिम परिणाम क्या निकलेगा, या कुछ निकलेगा भी, यह बताना कठिन है। आजकल की प्रवृत्ति तो प्रत्येक पदार्थ को सखंड या अणुमय बताने की है। विद्युत् या विद्युत्प्रवाह भी–---सुनकर आश्चर्य होगा---अणुमय प्रमाणित हुआ है और उसके अणु का नाम विद्युदणु रखा गया है। चुंबकशक्ति तक के अणुमय होने का सदेह किया गया है और उसकी व्यष्टि या अणु का नाम चुंबकाणु रख दिया गया है।