विश्व प्रपंच/भूमिका/६

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विश्व प्रपंच  (1920) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

[ ११० ]स्पेंसर ने विकाश की जो व्याख्या की है वह आधिभौतिक ही है। सब प्रकार की चेतना को उसने मूल संवेदनो से संघटित बताया है जो सूत्रों की अणुस्पंदन रूप गति के सहगामी हैं। पर उसने यह भी कहा है कि इन संवेदनो को हम उसी भौतिक गतिका रूप नही कह सकते जिसे हम चारो ओर देखते है। विषय और विषयी को, ज्ञाता और ज्ञेय को किसी प्रकार एक नही समझते बनता * । इस प्रकार भूतक्रिया और मनोव्यापार का पृथक्त्व स्वीकार करते हुए भी उसने दोनो को एक ही अज्ञेय सत्ता के दो पक्ष या रूप कहा है। पर इस रीति से अद्वैतपक्ष पर आने पर भी द्रव्य और मन ( या आत्मा ) की पृथक् भावना द्वारा उसका द्वैतवाद लक्षित होता है। हैकल के समान उसने जड़ और चेतन व्यापारो को एक ही नहीं कहा है, दोनो को अलग रखा है। हैकल ने परमतत्व के जो दो पक्ष कहे हैं वे द्रव्य और गतिशक्ति (जिसके अंतर्गत संवेदन, संकल्प विकल्प, आत्मबोध आदि मनोव्यापार भी है) है। स्पेसर ने अज्ञेय सत्ता के जो दो पक्ष कहे है वे गतिशक्तियुक्त द्रव्य और मन हैं। "मन (चेतन अवस्थाएँ ) और सवेदनसूत्रो की भौतिक क्रिया एक ही वस्तु के विषयी और विषय अर्थात् ज्ञातृ और ज्ञेय दो पक्ष हैं। दोनों के एक ही वस्तु के रूप या विभाव होने का प्रमाण उनका नित्य संबंध है। वह वस्तु या सत्ता जिसके ये दोनो पक्ष हैं ज्ञेय पक्ष में नही आ सकती है।

इस प्रकार वस्तु या सत्ता के विवेचन मे उसने अपने को भूतवादी कहे जाने से यह कह कर बचाया है कि "एक


*जेय ज्ञेयमव ज्ञाता ज्ञातैव न ज्ञेय भवति-गीता, शकर भाष्य १३।३ [ १११ ]
अमेय सत्ता है जो भौतिक और मानसिक (या आध्यात्मिक) दोनो क्षेत्रों में अभिव्यक्त होती है" । इस अज्ञेय सत्ता को उसने प्रायः शक्ति के नाम से अभिहित किया है जो कहीं कहीं ( उसी के ग्रंथ मे ) भौतिक गतिशक्ति से भिन्न नही जान पड़ती। स्पेंसर की अज्ञेय मीमांसा के साथ उसकी विकाश की व्याख्या मेल नहीं खाती। सच पूछिए तो उसका विकाशवाद उसके अज्ञेयवाद पर प्रतिष्ठित ही नही है। सत्ता के विवेचन में उसने जो निरूपण किए हैं उनसे उसने विकाश की व्याख्या मे कुछ भी काम नहीं लिया है। न तो उसने यह बताया है कि अज्ञेय सत्ता क्या देश काल के भीतर अभिव्यक्त होती है और न यह कहा है कि वह क्यो पहले जड़ जगत् के रूप मे व्यक्त हुई, पीछे चैतन्य रूप मे।

यहाँ तक तो हर्बर्ट स्पेसर की बात हुई। अब यह देखना चाहिए कि विकाशवाद जगत् की व्याख्या में कहाँ तक पहुँचा है। विकाशवाद भौतिक और मानसिक दोनो व्यापारो की परिणामपरंपरा की व्याख्या करता है और इस प्रकार सपूर्ण जगत् की समस्या को अपने अंतर्भूत करता है। पर बहुत सी बाते ऐसी रह जाती है जिनके संबंध मे हमारा ठीक ठीक समाधान नहीं होता। कुछ उदाहरण लीजिए। विकाशवाद यह नही बता सका है कि क्यो एक पुरातन प्रधान भूत निर्विशेषता से सविशेषता की ओर, एकरूपता से अनेकरूपता की ओर प्रवृत्त होता है, प्रकृति की विकृति का कारण क्या है। इसी प्रकार जड़ से चेतन की उत्पत्ति का ब्योरा भी वह स्पष्ट रीति से नही समझा सका है। [ ११२ ]अब प्रश्न यह होता है कि क्या विकाशवाद जगत् के समस्त व्यापारों के मूल की सम्यक् व्याख्या कर देता है? सच पूछिए तो उसकी पहुँच की भी हद है। शरीरविकाश और आत्मविकाश को ही लीजिए। शरीरव्यापार और मनोव्यापार दोनो में एक ही प्रकार के नियमो की चरितार्थता, दोनो का साथ साथ उत्तरोत्तरक्रम से विकाश, दिखाया गया है सही, पर दोनो एक नही सिद्ध हो सके है। विकाशवाद के सारे निरूपण सन या आत्मा की प्रथमोत्पत्ति नही समझा सके हैं। और तो जाने दीजिए किस प्रकार संवेदनसुत्र का भौतिक ( स्थूल ) स्पंदन सवेदन के रूप में परिणत हो जाता है यही रहस्य नही खुलता। इस प्रकार का और कोई परिणाम भैतिक जगत् मे देखने मे नहीं आती। इस कठिनता को कुछ लोग यह कह कर दूर किया चाहते हैं कि द्रव्य के प्रत्येक परमाणु मे एक प्रकार की अतःसंज्ञा या अव्यक्त संवेदन होता है जो आकर्षण और अपसारण के रूप मे प्रकट होता है। पर हम तो चेतना ( मन की अपने ही संस्कारो के बोध की वृत्ति ) की उत्पति जानना चाहते हैं जिससे यह अंतःसंज्ञा भिन्न है। हैकल ने मस्तिष्क के भीतर प्रतिबिंब या संस्कार ग्रहण करनेवाला जो एक प्राप्यकारी अवयव बताया है उससे भी चेतना का व्यापार समझने में सुवीता नही होता। केवल यही कह देने से कि एक वस्तु पर प्रतिबिंब पड़ता है यह समझ में नहीं आ जाता कि वह वस्तु यह बोध भी करती है कि मुझ पर प्रतिबिंब पर रहा है या प्रतिबिंब इस प्रकार का है* ।


* यह दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार वैज्ञानिको ने "शक्ति [ ११३ ]
ऐसी बातो मे हमारा समाधान विकाशवाद द्वारा नही होता। विकाशवाद केवल गोचर व्यापारी की पूर्वापरपरंपरा या स्फुरणक्रम मात्र दिखाता है। ये सब व्यापार किसके हैं, वस्तु या सत्ता का शुद्ध (इंद्रियनिरपेक्ष) स्वरूप क्या है यह वह नहीं बताता। वह केवल तटस्थ लक्षण कहता है, स्वरूप लक्षण


के अक्षरता' के सिद्धात को ले कर यह प्रतिपादित किया है कि न भैतिक शक्ति किसी अभौतिक शक्ति के रूप में परिणत हो सकती है और न कोई अभौतिक शक्ति भौतिक शक्ति में कोई वृद्धि (अतिशय) या विकार कर सकती है। मनोविज्ञानियो ने इसी आधार पर यह सिद्धात स्थिर किया कि शरीर-व्यापार और मनोव्यापार एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते अर्थात् उनमे कार्यकारण सबंध नही, वे दोनो समानातर (साथ साथ पर अलग अलग) चलते हैं। जय आधिभौतिक अद्वैतवादी इस बात को अपनी ओर यह सिद्ध करने के लिये ले गए कि जगत् किसी आत्मसत्ता या चेतन का कार्य्य नहीं है और प्राणियो के प्रयक्ष किसी अभौतिक सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नहीं होते तब ईश्वरकर्तृत्ववादी इसके खडन के प्रयास में लगे (दे• भूमिका >> ८४) । पर इमारे यहाँ वेदात में क्रिया मात्र से शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) की भावना अलग होने से उपर्युक्त वैज्ञानिक सिद्धात स्वीकृत है। उपदेसाइबी की टीका (१०|११२) मे स्पष्ट लिखा है कि 'सन्निहिता यक्ष कृतातिशयः बुद्धयादेर्नास्त्येव। यह भी खोल कर लिखा गया है कि बुद्धयादि जड़ क्रिया और शान में केवल सिमकालाभिव्यक्ति धर्म के सिवा और कोई संबंध नहीं है। यह वेदांत का Psychophysical parallelism है। [ ११४ ]
नही। अतः सत्ता के विवेचन के लिये हमें विज्ञान-क्षेत्र से निकल कर परा विद्या या शुद्ध दर्शन की ओर आना पड़ता है।

यह जगत् क्या है? इसकी सत्ता का वास्तव स्वरूप क्या है? इस संबंध मे दर्शन मे दृष्टिभेद से तीन पक्ष है (१) भूतवाद या लोकायत मत जिसके अनुसार शरीर या भूत ही एक मात्र सत्ता है; (२) अद्वैत आत्मवाद या भाववाद। अद्वैत आत्मवादियो मे कुछ लोग तो आत्मा को एक वस्तु या सत्ता मानते हैं और कुल लोग बौद्धो के समान क्षणिक विज्ञानो या चेतन अवस्था को ही मानते हैं। पर दोनो दल के लोग भौतिक शरीर या वाह्य जगत् की स्वंतत्र सत्ता अस्वीकार करते है। (३) बाह्यार्थवाद, * जो भूत और आत्मा दोनो को भिन्न सत्ताएँ मान कर बाह्य जगत् को वास्तविक कहता है।

( १ ) भूतवाद के अनुसार जो कुछ है वह भूते ही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं वह उसकी व्यापारसमष्टि या गुण विशेष मात्र है। यद्यपि हैकल ने अपने मत का नाम भूतवाद नही रखा है पर है वह भूतवाद ही। जगत् के मूल उपादान या प्रधान भूत तक पहुँच कर उसने उसका नाम परमतत्व रखा जो नित्य है और अपने नित्य नियमो से बद्ध है। उस परमतत्त्व की अभिव्यक्ति द्रव्य और गतिशक्ति दो रूपो मे होती है। मूल वृत्त या प्रवृत्ति ही उसका संवेदन ( जड़ संवेदन )


* एवं बाह्यार्थवादमाश्रित्य समुदायाप्राप्त्यादिषु दूषणेषूद्भावितेषु विज्ञानवादी बौद्ध इदानी प्रत्यवतिष्ठते।-----सूत्र २८ पर, शकर भाष्य।

उपनिषदों में इसे प्राणशक्ति कहा है जिससे चैतन्य भिन्न है । [ ११५ ]
है जिसके कारण वह स्थान स्थान पर घनीभूत हो कर अनेकत्व की ओर प्रवृत्त हुआ। परमाणुओं की प्रवृत्ति में वह कुछ और अधिक व्यक्त हुआ। शुक्र कीटाणुओ और रजः कीटाणुओ मे हैंकल ने घटकात्मा कहा, गर्भाड में अंकुरात्मा, पौधो मे तंत्वात्मा और जंतुओं में सूत्रात्मा। इस प्रकार संवेदन को भूत का व्यापक गुण मान कर उसने अपने सिद्धांत का नाम भूतवाद न रख कर तत्त्वाद्वैतवाद रखा। पर उसका यह संवेदन जड़ ही है अतः उसका जड़ाद्वैतवाद वास्तव मे भूतवाद ही है। चैतन्य की असंहत नित्य सत्ता का स्वीकार उसमे नही है। उसके संवेदन को यदि हम एक प्रकार की आत्मव्यापार मान भी ले तो भी वह क्रिया या गुण मात्र ही है, वस्तु या सत्ता नही।

भारतवर्ष का चार्वाक या लोकायत मत भी इसी प्रकार का था जो चैतन्यविशिष्ट देह के अतिरिक्त आत्मा की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं स्वीकार करता था * । चार्वाको का कहना था कि जिस प्रकार किण्व या ख़मीर से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार देहाकारपरिणत भूतचतुष्टय से चैतन्य उत्पन्न होता है। भूतों के इस संयोग विशेष के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है।

(२) योरप, में अध्यात्मवाद या भाववाद का आरंभ डेकोर्ट के इस सूत्र से समझना चाहिए कि "मैं वोध करता हूँ इस लिये मैं हूँ"। उसने कहा जो कुछ बोध आत्मा को


चैतन्यविशिष्ट देह एवात्मा, देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभायवात्।---चार्वाक ( सर्षदर्शनसंग्रह )। [ ११६ ]
होता है वह अपने भावो या प्रत्ययों का ही। अतः यदि किसी सत्ता कख पूर्ण निश्चय है तो आत्मसन्ता का। पर ईश्वर की कृपा से आत्मा के प्रत्ययों या भावो द्वारा हम दो प्रकार की सत्ताओ---दिग्बद्ध वस्तु ( भूत ) और ज्ञातृवस्तु या आत्मा--का अनुमान कर सकते है। सच पूछिए तो अद्वैत आत्मवाद का आधार कांट ने खड़ा किया। उसी ने ज्ञान के मूल की विस्तृत परीक्षा की। बाह्य जगत् का ज्ञान हमे किस प्रकार होता है? सवेदन द्वारा, अर्थात् हमारे अतःकरण वा मन मे वस्तुसत्ता के प्रभाव से एक सस्कार उत्पन्न होता है और मन उसी का बोध करता है। जैसे, स्पर्श का जो ज्ञान है वह वस्तुतः दबाव का ज्ञान नही है, उस दबाव की भावना करानेवाले संस्कार या संवेदन का ज्ञान है। वर्ण का जो ज्ञान होता है वह वास्तव मे वर्ण का ज्ञान नही है, वर्ण के उस संवेदन का ज्ञान है जो अंतःकरण या मन मे ही होता है। अर्थात्, मन को जिन रूपो का बोध होता है वे उसी के रूप है, किसी बाहरी वस्तु के नही। प्राप्त संवेदनो को देश काल के साँचे मे ढाल कर ही मन उनका ग्रहण करता है।

मनुष्य के ज्ञान की परीक्षा करके कांट ने यह निर्धारित किया कि उसका कितना अंश बाहर से प्राप्त होता है और कितना मन मे पहले ही से आधार या मूल के रूप मे वर्तमान रहता है। ये आधार या मूल चित् के स्वरूप ही हैं, ये स्वतः प्रमाण है, इनके बोध या निश्चय के लिये किसी प्रकार का अनुमान या तर्क नही करना पड़ता। इस प्रकार ज्ञान के कुछ स्वरूपसिद्ध मूलाधार मान [ ११७ ]
कर कांट ने इंद्रियसंवेदन, मनन और प्रज्ञा या बुद्धि में उनको क्रमशः दिखलाया है। प्रत्यक्ष या इंद्रियज ज्ञान मे मूलाधार हैं दिक् और काल। दिक् और काल, इन्ही दो मूल स्वरूपो के भीतर सब प्रकार का प्रत्यक्ष ( इंद्रियज ) ज्ञान संभव है। मनन या अनुमान मे मूलाधार कुछ वर्ग या खंड होते है जिनमें प्राप्त संवेदनो या विषयों को बाँट कर मन अपने अनुमान को फैलाता है। तीन तीन भेदो से युक्त ये वर्ग चार है---परिमाण, गुण, सबंध और प्रकार। इन चार रूपो मे से किसी एक में आ जाने पर ही मन किसी वस्तु या विषय को ग्रहण कर सकता है। जो बाते इनमे नही आ सकती वे तर्क या अनुमान द्वारा सिद्ध नही हो सकती। अतः परमाणु, शून्य, ईश्वर, दैव अदि असिद्ध है। प्रज्ञा या बुद्धि के सांसिद्धिक स्वरूप है तीन भाव-—ईश्वर, आत्मा और जगत्। बुद्धि इन्हे केवल विचार की व्यवस्था के लिये अपनी ओर से प्रदान करती है, इनका बोध नही करती। इनके द्वारा अनुमान के वर्गविधान परिमिति के कारण, खंडित नही रह जाने पाते। ये प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा प्राप्त परिमित और बद्ध ज्ञान को अपरिमित और स्वतंत्र ( वाह्यनिरपेक्ष ) ज्ञान का स्वरूप देकर ज्ञान को पूर्णता और एकता तक पहुँचाते है। जैसे, इद्रियज्ञान द्वारा जो देशकाल का आरोप होता है उसे लेकर देशकालगत सब विषयो को एक कर बुद्धि उसका नाम जगत् रखती है। अनुमान के जो खंड है उन सब को मिलाने से आत्मा का भाव बनता है। कारणता को लेकर सब से आदि कारण को हम ईश्वर कहते है। पर अनुमान के [ ११८ ]
वर्गों से जिस प्रकार हमे अपने से वाह्य वस्तु का जैसा, विविक्त ज्ञान होता है प्रज्ञा या बुद्धि के इन आरोपित भावो से वैसे ज्ञान की उत्पत्ति नही होती। बुद्धि अपनी ओर से इनका आरोप भर करती है, विषय रूप मे ग्रहण नहीं करती। इन भावो से केवल इतना ही होता है कि अनुमान के जो वर्गात्मक खंड हैं वे चरमावस्था को पहुँच जाते है, बस। ईश्वर आत्मा और जगत् क्या है बुद्धि नही स्थिर कर सकती। इस प्रकार कान्ट ने दिखाया है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रज्ञा के जो सांसिद्धिक स्वरूप ( देश, काल, वर्ग तथा ईश्वर आत्मा और जगत् ) हैं वे वाह्य वस्तु के स्वरूप नही हैं, मन के स्वरूप है जिनमे लाकर वह वाह्य जगत् को देखता है। बुद्धि आदि द्वारा बाह्य जगत् का जो वोध होता है वह नामरूपात्मक है, वास्तव नही है। इंद्रिय और मन अपने रंगो में रँग कर जिन रूपो मे जगत् को देखता है उनसे स्वतंत्र उसकी वास्तव सत्ता किस प्रकार की है यह ज्ञान शुद्ध बुद्धि द्वारा नहीं हो सकता। अपनी 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' में कान्ट ने ईश्वर, जगत् और आत्मा के पक्ष विपक्ष के प्रमाणों का खंडन किया है।

शुद्ध बुद्धि की परीक्षा के उपरांत कान्ट ने कर्मसंकल्प रूपिणी "व्यवसायात्मिका बुद्धि" को लिया है जिसके द्वारा कर्म होते हैं।कर्मक्षेत्र में आकर हम नामरूपात्मक जगत् से परे वस्तुतत्व तक पहुँच जाते हैं। संकल्पित कार्यावली हमारे मन मे उत्पन्न होकर बाह्य जगत् मे अभिव्यक्त होती है। कर्म सकल्पवृत्ति ही चित् के वास्तव स्वरूप को सूचित करती है। यह न तो, बुद्धि से बद्ध या नियंत्रित है और न बाह्य जगत् के [ ११९ ]
नियमो से। इस पर आदेश रखनेवाले केवल नित्य और सर्वगत धर्मनियम (Categorical Imperatives) हैं। ये धर्म नियम व्यवसायात्मिका बुद्धि के स्वप्रवर्तित नियम हैं। कर्मसंकल्पवृत्ति का यह आत्मशासन (Autonomy of the will) हमे नामरूपात्मक दृश्य जगत से अगोचर चिन्मय जगत् मे ले जाता है जहाँ हमे धर्मनियम, स्वतंत्र अमर आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। इसी धर्मशासन द्वारा कान्ट ने ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। जीवन का चरम मंगल क्या है? न अकेला धर्म, न अकेला सुख। धर्म का सुख से कोई स्वतःसिद्ध संबंध नहीं। जीवन क चरम मंगल मे धर्म और सुत्न दोनों की पराकाष्ठा है। अब इन दोनो का संयोग होता कैसे है? इसके लिये ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ता है। ईश्वर दोनो के बीच सयोग का स्थापक है। इसी प्रकार आत्मा का अमरत्व भी मानना पड़ता है। धर्म की पराकाष्ठा और सुख की पराकाष्ठा के माधन के लिये यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अतः अनन्त जीवन मानकर चलना पडता है।

कुछ लोगों को व्यवसायात्मिकाबुद्धि-संबंधी इस निरूपण का कान्ट के दर्शन की मूलभित्ति के साथ विरोध दिखाई पडता है। पहले तो उसने यह कहा कि प्रत्यक्षानुभव के रूप में जिन मानस संस्कारो की उपलब्धि होती है उन्हें लेकर बुद्धि जो कुछ निरूपित करेगी वह भी मानस वस्तु होगी, चित् का ही स्वरूप होगा; पीछे उसने कहा कि धर्म की गाथा के लिये वह वास्तव ( चित्तनिरपेक्ष ) पदार्थों का [ १२० ]
आरोप करती है। पर यदि देखा जाय तो कान्ट ने वास्तव सत्ता के अस्तित्व की जगह यह कह कर पहले से ही रख ली थी कि मानस संस्कार अज्ञेय वस्तुसत्ता के प्रभाव से होते है और बहुत संभव है कि चित् के इन स्वरूपो की तह में जो वस्तुसत्ता है वह इन्हीं के कुछ कुछ मैल मे हो। जो हो, इतना तो निर्विवाद है कि कान्द ने चित् या प्रमाता से बाह्य किसी अज्ञेय वस्तुसत्ता का अस्तित्व माना है। उसके दर्शन में वाह्यार्थवाद की कुछ गंध बनी हुई है।

सच पूछिए तो कान्ट का सब से बड़ा काम 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' ही है जिसके द्वारा उसने वाह्यार्थज्ञान के सामान्य अवयवो देश, काल और कार्यकारणसंबंध के वाह्य अस्तित्व का प्रतिषेध किया। योरप में अद्वैत आत्मवाद का मूलाधार यही हुआ। नीचे संक्षेप मे कुछ प्रमाण उद्धृत किए जाते हैं।

दिक् कोई बाह्य वस्तु नहीं, चित् का ही स्वरूप है।

( १ ) दिक् का ज्ञान बाहर से नही आता क्योकि जो कुछ प्रत्यक्षानुभव हमे होता है दिक् की भावना पहले करके तब होता है। प्रत्यक्षानुभव है क्या? मन अपने कुछ संवेदनो को अपने से बाह्य वस्तु से प्राप्त मानता है। इस अन्तर और बाह्य के ज्ञान मे देश का ज्ञान पहले से मिला हुआ है। इसी प्रकार वस्तुभेद के ज्ञान मे परत्व अपरत्व का देशसंबंधी ज्ञान मिला हुआ है।

( २ ) बाह्य जगत् की जो चित्र अपने मन मे हम धारण [ १२१ ]
करते हैं उसमे से हमें सब कुछ निकाल सकते हैं, पर देश को नही अलग कर सकते। जगत् के जितने पदार्थ है सब के बिना हम जगत् की भावना कर सकते हैं पर देशशून्य जगत् की भावना हमारे चित्त मे हो ही नही सकती।

( ३ ) शुद्ध देश के सबंध मे जो निरूपण होते है वे अनिवार्य होते है, उनका अन्यथा संभव नही। जैसे किसी वस्तु तक पहुँचने के लिये यह आवश्यक है कि उसके और हमारे बीच जो देशखंड है वह तै किया जाय। इसी प्रकार किसी जगह न होना या एक साथ दो जगहो पर होना असंभव है। थोड़े विचार से यह स्पष्ट हो सकता है कि इस प्रकार के निश्चय उन निश्चयों से सर्वथा भिन्न है जो बराबर देखते देखते निरंतर अभ्यास द्वारा हमे प्राप्त होते हैं। अनुभव केवल हमे यही बता सकता है कि अबतक ऐसा नहीं हुआ है, यह निश्चय नहीं करा सकता कि त्रिकाल में ऐसा नहीं हो सकता।

( ४ ) रेखागणित के सब निरूपण नित्य और अपरिहार्य सत्य के रूप मे होते है, अतः वे बारबार के अनुभव से प्राप्त नही है। कहने की आवश्यकता नही कि ये निरूपण शुद्ध देशसंबंधी होते है।

( ५ ) प्रत्येक बाह्य अनुभव भिन्न भिन्न संवेदनो ( आत्मा या मन की अलग अलग अवस्थाओ या संस्कारो ) के योग से होता है जिनका मेरे साथ तो संबंध होता है पर परस्पर कोई संबंध नही होता। अतः उनको जोड़नेवाला, सवधसूत्र चित् से बाहर नही है, उसके भीतर है। यह संबंधसूत्र देश है जो हमारे चित्त का ही भाव या स्वरूप है। [ १२२ ]( ६ ) दिक् अनन्त है। हमें इस बात का पूरा निश्चय है कि सौर जगत क्या अनेक सौर जगतो से परे, जहाँ तक न दूरबीन की पहुँच है और न हमारे अनुभव की, दिक् बराबर चला गया है। यह अनुभव की बात नही, अनंतता का अनुभव हमे बाहर से प्राप्त हो नहीं सकता।

काल कोई वाह्य वस्तु नहीं, चित् का ही स्वरूप है।

( १ )काल की भावना जगत से नही प्राप्त होती क्योकि प्रत्येक प्रत्यक्षानुभव मे काल की भावना पहले से मिली रहती है। प्रत्यक्षानुभव मे यह आवश्यक है कि संवेदन एक साथ हो या आगे पीछे। एक साथ या आगे पीछे होने का यह भाव कालसंबधी है।

( २ ) मान लीजिए कि जगत् की सारी गति, सारे व्यापार ( घड़ियो के चलने से लेकर पृथ्वी आदि ग्रहो के घूमने तक ) जिन से हम काल नापते है बंद हो जायँ, फिर भी काल बराबर चला चलेगा, एक क्षण के उपरांत दुसरा क्षण आता रहेगा। सब प्रकार के प्रत्यक्षानुभव के लुप्त होजाने पर भी काल की भावना बराबर बनी रहेगी।

( ३ ) कालसंबंधी निरूपण अपरिहार्य होते है, उनका अन्यथा संभव नहीं। जैसे किसी भविष्य काल तक रहने के लिये यह आवश्यक है कि वर्तमान काल और उस काल के बीच जितना काल है उतने मे रहा जाय, न कम में न अधिक मे। विगत क्षण का लौटना असंभव है। इस प्रकार के [ १२३ ]
निश्चय किसी प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नही। कालिदास को कुछ लोग ई० पू० का मानते है और कुछ लोग ४ थी शताब्दी | का। यदि कोई कहे कि दोनों संभव है तो वह विक्षिप्त समझा जायगा।

( ४ ) अंकगणित के निरूपण भी इसी प्रकार अपरिहार्य होते है। यह शास्त्र कालसंबंधी है क्योकि यह गिनने की संक्षिप्त विधि मात्र है। गिनना एकाई का कई बार निर्धारण है जिसके लिये हम भिन्न भिन्न संकेत रख लेते हैं। 'कई बार' यह कालपरंपरा का भाव है अतः अंकगणित कालसंबधी शास्त्र है। उसके अपरिहार्य निरूपण काल का बाह्यनिरपेक्षत्व सिद्ध करते है।

( ५ ) प्रत्येक प्रत्यक्षानुभव कुछ काल तक मन के प्रभावित होने पर होता है। यह काल (चाहे कितना ही अल्प हो ) कई सूक्ष्म खंडो के योग से बना होता है जिनके बीच कई सूक्ष्म अनुभव होते है। आत्मा के ये सूक्ष्म अनुभव मुझसे संबंध रखते है पर एक दूसरे से नही। वह सुत्र जिसमे वे पिरोए जाकर एक समवाय ज्ञान उत्पन्न करते है काल है जो अनुभवो द्वारा प्राप्त नही होता, चित्त द्वारा प्रयुक्त किया जाता है।

( ६ ) काल अनादि और अनत है । हमे यह पूर्ण निश्चय है कि काल बराबर था और बराबर रहेगा। हमारा यह निश्चय किसी अनुभव द्वारा प्राप्त नही, यह चित् से ही आता है।