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वेनिस का बाँका/दूसरे संस्करण की भूमिका

विकिस्रोत से
वेनिस का बाँका
अनुवादक
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस सिटी: पाठक एंड सन भाषा भंडार पुस्तकालय, पृष्ठ भूमिका से – ५ तक

 

दूसरे संस्करण की भूमिका।

आज हिन्दी भाषा की विजय वैजयन्ती सब ओर फहरा रही है, आज वह सर्व जन आद्वत है। भारतवर्ष के प्रधान विश्वविद्यालयों में उसको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया है, और अनेक राजदर्बारों में भी वह समर्चित और सम्मानित है। यदि उसकी विजयदुन्दुभी के निनाद से सुदूर दक्षिण प्रान्त निनांदित है,तो भारत के सीमांत प्रदेश सिंध और पंजाब में भी उसके प्रसार का आनन्द कोलाहल श्रवणगत हो रहा है। अंग्रेजी भाषा के बड़े बड़े विद्वानों की दृष्टि हिन्दी भाषा पर पड़ रही है। उन्होंने उसको सादर ग्रहण ही नहीं किया, उसकी सेवा का व्रत भी लिया है। संस्कृत के विद्वानों की वह उपेक्षा दृष्टि अब नहीं रही, जो हिन्दी भाषा के विषय में पहले थी। अब वे लोग भी उसकी व्यापकता से प्रभावित हैं, और धीरे धीरे उसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। आज उसका भाण्डार अनेक ग्रन्थरत्नों से पूर्ण है, और दिन दिन वह समुन्नत और सर्वगुण सम्पन्न हो रही है। उसका उज्ज्वल भविष्य इस समय उसके प्रतिस्पर्धियों को चकित कर रहा है।

किन्तु अब से चालीस पैंतालीस वर्ष पहले उसकी यह अवस्था नहीं थी। भारत गगन का एक इन्दु अपने विकास द्वारा उस समय उसको सुविकसित बना रहा था, अपनी सुधामयी लेखनी द्वारा उसमें जीवन संचार कर रहा था, कुछ तारे भी उसके साथ जगभगा कर अपने क्षीण आलोक से उसको आलोकित कर रहे थे। किन्तु फिर भी उसके चारों ओर घनीभूत अंधकार था। पठित समाज उन दिनों उसको बड़ी तुच्छ दृष्टि से देखता था। संस्कृत के विद्वान् तो उसको फूटी आँखों न देख पाते। हिन्दुओं को कई विशेष जातियाँ उस के लिये खड़हस्त थीं, और उसका
तिरस्कार करना ही उनके जीवन का प्रधान कर्तव्य था। अंग्रेजी भाषा के सुशिक्षितों को उसे अपनी मातृभाषा स्वीकार करने में भी संकोच था, और वे लोग प्रायः यह कहते देखे जाते कि “हिन्दो भाषा में है ही क्या! यदि उसमें विशेषता होती तो वह स्वयं लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती। हिन्दी लेखक भी उन दिनों इने गिने थे और सर्व साधारण में आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते थे। हिन्दी प्रेमियों की बातही क्या कहें, वे उँगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर भी हिन्दी संसार का तमसाच्छन्न आकाश धीरे धारे उज्ज्वल हो रहा था।

मैं उसी समय की बात कहता हूँ। उन दिनों मैं निजामाबाद (जिला आजमगढ़) के मिडिल स्कूल में अध्यापक था। काशीनिवासी स्वर्गीय श्रीमान् पण्डित लक्ष्मीशंकर मिश्र की 'काशी पत्रिका' का उस समय बड़ा प्रचार था। वह प्रत्येक मिडिल स्कूल में आती थी, और आदर की दृष्टि से देखो जाती थी। आप उन दिनों स्कूलों के इन्स्पेक्टर थे। आप हिन्दुस्तानी भाषा के पक्षपाती थे, और इसी भाषा में 'काशी पत्रिका' को निकालते थे। हिन्दुस्तानी भाषा नाम होने पर भी एक प्रकार से इस पत्रिका की भाषा उर्दू ही थी। उसमें अधिकतर फारसी और अरबी शब्दों का ही प्रयोग होता था। हाँ, इन भाषाओं के क्लिष्ट शब्द नहीं आने पाते थे। उन्हीं दिनों इस पत्रिका में 'वेनिस का बाँका' नामक एक रोचक उपन्यास अंग्रेजी से अनुवादित होकर निकला। स्वर्गीय बाबू श्याम मनोहरदास उन दिनों आजमगढ़ के डिप्टी इन्स्पेक्टर थे। उनको यह उपन्यास बहुत पसन्द आया। जब दोग करते हुए प्रशंसित बाबू साहब निजामाबाद आए, तब छात्रों की परीक्षा लेने के बाद उन्होंने उक्त

उपन्यास की चर्चा मुझ से की। साथ ही यह भी कहा कि अच्छा होता, यदि इसका अनुवाद शुद्ध हिन्दी में हो जाता। मैंने निवेदन किया कि उर्दू तो स्वयं हिन्दी भाषा का रूपान्तर है, उसका अनुवाद क्या! उन्होंने कहा कि मैं यह चाहता हूँ कि उर्दू अनुवाद में जितने फारसी और अरबी के शब्द हैं वे सब बदल दिये जायँ, और जो वाक्य उर्दू के ढंग में ढले हैं, उन्हें हिन्दी भाषा का रंग दे दिया जाय। मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया, और उसी का फल यह शुद्ध हिन्दी में लिखा गया, 'वेनिस का बाँका' नामक उपन्यास है। प्रत्येक फारसी और अरबी शब्दों के स्थान पर संस्कृत शब्दों का प्रयोग होने के कारण, ग्रन्थ की भाषा क्लिष्ट हो गई है, और उसमें जैसा चाहिए वैसा प्रवाह भी नहीं है, किन्तु उस समय ऐसा करने के लिये मैं विवश था।

आवेश का आदिम रूप कट्टर असंयत और आग्रहमय होता है, इसलिये उसके कार्यकलाप में विचारशीलता और गंभीरता नहीं पाई जाती। काल पाकर जब उसमें स्थिरता आती है, तब विवेक बुद्धि का उदय होता है, और उस समय जो मीमांसा की जाती है, वह मर्यादित होती है, उसमें औचित्य का अंश भी सविशेष पाया जाता है। हिन्दी भाषा के उत्थान काल में लोगों के आवेश की भी यही दशा थी, इसी कारण उस समय के हिन्दी उन्नायकों में यह दुराग्रह पाया जाता था कि शुद्ध हिन्दी भाषा में एक भी अरबी फारसो का शब्द न आने पावे। उस काल के हिन्दी लेखकों के अनेक लेख ऐसे मिलेंगे, जिनमें इस भाव की रक्षा की गई है। श्रीमान् भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के भी कई लेख ऐसे हैं, जो इस भाव के मूर्तिमन्त उदाहरण हैं। अब भी इस विचार के कुछ लोग पाये जाते हैं, किन्तु उनकी संख्या

बहुत थोड़ी है। इसके अतिरिक्त उस समय एक विचार यह भी फैला हुआ था, कि इस प्रणाली के ग्रहण करने से ही, हिन्दी भाषा की समुन्नति होगी, क्योंकि लोग समझते थे कि ऐसा करने से ही, हिन्दी के शब्दभाण्डार पर सर्व साधारण का अधिकार होगा। उक्त बाबू साहब भी इसी विचार के थे। वे पाठशाला के छात्रों को भी इस विषय में उत्साहित करते रहते, और उन छात्रों को विशेष आदर की दृष्टि से देखते, जो बातचीत में भी किसी अरबी फारसी शब्द का प्रयोग न कर संस्कृत गर्भित हिन्दी बोलते। वे ऐसे छात्रो को प्रायः पुरस्कृत भी करते। उनकी इच्छा के अनुसार जब 'वेनिस का बाँका' शुद्ध हिन्दी में तैयार हो गया, तब उसे देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्हीं के उद्योग से वह कलकत्ते के 'आर्यावर्त प्रेस में छपा भी।

एक तो ग्रन्थ की भाषा यों ही क्लिष्ट थी, दूसरे वह पड़ा आर्य समाजी सज्जनों के हाथ में उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार भी उसमें कुछ परिवर्तन किये कुछ मनमाने संशोधन भी हुए जिसका फल यह हुआ कि ग्रन्थ जैसा चाहिए वसा शुद्ध-न छप सका, और उसकी भाषा यत्र-तत्र और लिष्ट हो गई। इतना होने पर भी ग्रन्थ का आदर हुआ, और वह हाथों हाथ बिका। स्वर्गीय पण्डित प्रतापनारायण मिश्र अपने 'ब्राह्मण' पत्र में उसकी लम्बी चोड़ी प्रशंसा की, अन्य सामाजिक पत्रों ने भी उसे सराहा, इसलिये उसके सम्मान की मात्रा बढ़ गई। हिन्दी शब्द सागर की रचना के लिये शब्द संग्रह करने के उद्देश्य से जो ग्रन्थ चुने गये। उनमें "वेनिस का बाँका" भी लिया गया। इसी कारण कि उसमें संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है, और उस समय लोगों की दृष्टि में उसकी प्रतिष्ठा थी। 'वेनिस का बाँका' का कथा भाग अत्यन्त हृदयग्राही और रोचक है, वही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। हमारे मित्र पंडित केदारनाथ पाठक भी उसकी रोचकता पर मुग्ध हैं। प्रथम संस्करण के शीघ्र निःशेष होने पर भी दूसरा संस्करण अबतक नहीं हुआ था, कारण यह कि इधर किसी की दृष्टि नहीं गई। जिस प्रेस में पहले ग्रन्थ छपा था, वह बन्द हो चुका है, प्रकाशक का पता नहीं। मैं भी इस विषय में एक प्रकार से उदासीन था। किन्तु उक्त पण्डितजी की सहृदयता रंग लाई, और वे ग्रंथ का दूसरा संस्करण निकलवाने के लिये कटिवद्ध हो गये। यह दूसरा संस्करण उन्हीं के उद्योग और उत्साह का फल है। उनके चि० पुत्र श्री रामचन्द्र पाठक (पाठक एन्डसन) द्वाराही यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ है। मैंने अब की बार ग्रन्थ की भाषा का संशोधन बहुत कुछ कर दिया है। फिर भी भाषा संस्कृत गर्भित है। बिल्कुल काया पलट करना उचित नहीं समझा गया, क्योंकि ग्रन्थ की भाषा का हिन्दी के उत्थान काल से बहुत कुछ सम्बन्ध है।

अन्त में यह दूसरा संस्करण प्रकाशित करने के लिये मैं उक्त पंडितजी को हृदय से धन्यवाद देता हूँ, और उनके इस उत्साह एवं अध्य साय की प्रशंसा करता हूँ। आशा है, हिन्दी संसार ग्रंथ का समुचित आदर कर उनके उत्साह की वृद्धि करेगा। यदि इस उपन्यास को पढ़कर पाठक गण थोड़ा आनन्द भी लाभ करेंगे तो मैं अपने परिश्रम को सफल समझूगा।

कानपुर
८-१-२८
विनयावनत
हरिऔध