वेनिस का बाँका
श्री:
अनुवादक
पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध
प्रकाशक
पाठक एण्ड सन
भाषा भण्डार पुस्तकालय,
राजा दरवाजा, बनारस सिटी।
प्रकाशक
श्री रामचन्द्र पाठक
व्यवस्थापक-पाठक एण्ड सन
राजा दरवाजा, बनारस सिटी।
प्रायः सभी बड़े बड़े विद्वानों की यही सम्मति है कि
"प्रत्येक साहित्य-प्रेमी को
साहित्यालोचन
अवश्य पढ़ना चाहिए"।
अतः इस ग्रंथ-रत्न का संग्रह अवश्य कीजिए।
मुद्रक
बी. एल. पावगी,
हितचिन्तक प्रेस, रामघाट, बनारस सिटी।
पूज्यवर श्रीयुक्त पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय साहित्यरत्न का इस समय राष्ट्रभाषा हिन्दी के कवियों और लेखकों में जो उच्च स्थान है वह हिन्दी पाठकों से छिपा नहीं है। "ठेठ हिन्दी का ठाठ" "अधखिला फूल" आदि अनेक ग्रन्थों से यह सिद्ध होता है कि हिन्दी गद्य पर आपका कैसा अधिकार है। "प्रिय प्रवास" आदि काव्य ग्रन्थ आपकी उच्च कोटिकी प्रतिभा और कवित्व शक्ति के जाज्वल्य प्रमाण हैं। ये तथा आप के लिखे और अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जो बहुत दिनों तक हिन्दी साहित्य निधि के अमूल्य रत्न समझे जायेंगे और जिनकी गणना अब तक स्थायी साहित्य में होती आई है और बहुत दिनों तक होती रहेगी। मेरी तो यह धारणा है कि मुझ जैसे अल्पशका पंडित जी की योग्यता के सम्बन्ध में कुछ कहना या उनका कृतियोकी प्रशंसा करना मानो सूर्य को दीपक से दिखलानेका प्रयत्न करना है। तो भी कर्तव्यवश मुझे इस अवसर पर इतनी धृष्टता करनी पड़ी है। इसके लिए मैं पूज्य पंडित जी से तो विशेषतः और हिन्दी पाठकों से साधारणतः क्षमा प्रार्थना करता हुआ इस प्रसंग को यहीं समाप्त करता हूँ।
पंडित जी की अनेक कृतियों में एक प्रधान कृति यह 'वेनिसका बांका' नामक उपन्यास भी है जो काशी पत्रिका में प्रकाशित अंगरेजी के कए प्रसिद्ध पुस्तक के उर्दू अनुवाद के आधार पर सन् १८८८ में लिखा गया था। उस समय हिन्दी की जो आरम्भिक और हीन दशा थी, उसका कुछ ठीक ठीक वर्णन वही लोग कर सकते हैं जो उस समय अथवा उसके कुछ ही
दिनों बाद वर्तमान रहे हों। मैं तो केवल सुनी सुनाई बातों के आधार पर केवल यही कह सकता हूँ कि उस समय हिन्दी में बहुत इनी गिनी पुस्तकें थीं और हिन्दी लेखकों की संख्या तो उँगलियो पर गिनने योग्य थी। और पाठक भी इतने थोड़े होते थे कि दस बीस बरस तक भी पुस्तकों का दूसरा संस्करण होने की नौबत नहीं आती थी। परन्तु इस बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से हिन्दी भाषा तथा साहित्य की जो दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति हो रही है, उसके कारण लोगों का ध्यान अनेक पुराने रत्नों की ओर जा रहा है और वे फिर नए सिरे से सर्व साधारण के सामने उपस्थित किए जा रहे हैं। यही प्रवृत्ति इस पुस्तक के दूसरे संस्करण के प्रकाशन का मुख्य कारण हुई है।
वेनिस का बाँका प्राजसे प्रायः उनतालीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था और उस समय के हिन्दी संसार ने इसका समुचित और यथेष्ट आदर किया था। परन्तु इधर बहुत दिनोंसे यह ग्रन्थ अप्राप्य हो रहा था और जिन लोगोंके हृदयमें इस प्राचीन रक्षके दर्शनोंकी उत्कठा उत्पन्न होती थी, उन्हें निराश ही होना पड़ता था। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी, उसके थोड़े ही दिनों बाद मेरे पूज्य पिता पण्डित केदारनाथ जी पाठकने इसे देखा था और उन्हें यह बहुत अधिक पसन्द आई थी। उसके थोड़े ही दिनों बाद पूज्य हरिऔध जी से उनका परिचय भी हुआ था और तब से वे मेरे पिता जो पर बहुन अधिक स्नेह रखते आए थे। जब यह ग्रंथ बिलकुल अप्राप्य हो गया और इसकी यथेष्ट माँग बनी रही, तब उसी पुराने स्नेह के नाते मेरे पिताजीने आपसे कई वार कहा कि आपके और सब ग्रंथ तो कई कई बार छप चुके हैं। और प्राप्य हैं, पर एक
'वेनिस का बाँका' ही ऐसा ग्रन्थ है जो बिलकुल अप्राप्य है और जिसे देखने की अभिलाषा लोग प्रायः प्रकट किया करते हैं। पर बात यहीं तक रह जाती थी। आज से प्रायः तीन वर्ष पूर्व फिर एक बार पिताजी ने पूज्य पण्डितजी से वही बात कही। इस पर पण्डितजी ने बहुत ही उदारतापूर्वक सहर्ष और निःस्वार्थ भाव से कहा कि यदि आप उसका द्वितीय संस्करण देखने के लिये इतने ही उत्सुक हैं तो आप स्वयं ही उसे प्रकाशित कर सकते हैं। पिताजी ने भी यह भार अपने ऊपर लेना सहर्ष स्वीकृत कर लिया। यद्यपि पूज्य पण्डितजी ने थोड़े ही दिनों में मूल पुस्तक भली भाँति दोहराकर और उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके दे दी थी, पर खेद है
अनेक कारणों से इसके प्रकाशन में बराबर तरह तरह के विघ्न पड़ते गए और इसी से पुस्तक के तैयार होने में विलम्ब होता गया। कुछ तो शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक तथा आर्थिक कठिनाइयाँ थीं और कुछ छपाई और कागज आदि के सम्बन्ध की भी अड़चनें थीं। तो भी मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि इन सब कठिनाइयों तशा अड़चनों को पार करके अन्त में यह पुस्तक सर्व साधारण के सामने आ ही गई। इसके अतिरिक्त पूज्य हरिऔधजी का भी मैं बहुत
अधिक कृतज्ञ तथा अनुगृहीत हूँ जिनकी कृपा तथा आज्ञा से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। अपने माननीय आश्रयदाता तथा पुराने स्कूल सहपाठी श्रीमान् राय गोविन्दचन्द्र जी महोदय का भी मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँ जिन्होंने मुझे इस पुस्तक के प्रकाशनमें आर्थिक सहायता प्रदान की है। यदि
मुझ सुदामा पर उक्त माननीय राय साहब की कृष्णवत्कृ पादृष्टि न होती तो कदाचित् इस पुस्तक का प्रकाशन मेरे
लिए असम्भव ही होता। श्रीयुत बा० ब्रजरत्न दासजी बी. ए.,बा. रामचन्द्रजी वर्मा बा० मकुन्ददासजी गुप्त को भी धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, क्योंकि इन महानुभावों से भी मुझे इसके और प्रकाशन में कई प्रकार की सहायता मिली है।
अन्त में मैं इस पुस्तक की भाषा के सम्बन्ध में दो एक बातें निवेदन कर देना चाहता हूँ पहले संस्करण में इस पुस्तक की भाषा बहुत अधिक क्लिष्ट था जो इस संस्करण में कुछ सरल कर दी गई है। दोनों संस्करणों को सामने रखने से इस बात का पता लगता है कि किसी समय लेखकों की प्रवृत्ति कितनी अधिक क्लिष्ट और कठिन भाषा लिखने को ओर थी। परन्तु ज्यों ज्यों समय का प्रभाव पड़ता गया, त्यों त्यों लोग अपेक्षाकृत सरल भाषा लिखने लगे। यदि एक ओर इस पुस्तक का पहला संस्करण रखा जाय और दूसरी ओर 'अधखिला फूल' या 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' रखा जाय तो अनजान आदमी कभी सहसा इस बात का विश्वास हो न कर सकेगा कि ये सब कृतियाँ एक ही सिद्धहस्त सुलेखक की हैं। यही है समय और प्रवृत्ति का प्रभाव।
अन्त में मैं हिन्दी के अन्यान्य बड़े बड़े लेखकों से भी यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूज्य हरिऔध जी ने मुझपर यह कृपा की है, उसी प्रकार वे भी मेरे पू० पिताजी के नाते मुझ पर अनुग्रह को दृष्टि रखा करें और मुझे अपना वात्सल्य-भाजन बनाए रहे।
काशी रामनवमी सं०१९८५ |
विनीत-- रामचन्द्र पाठक |
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