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वेनिस का बाँका/लेखक का संक्षिप्त परिचय

विकिस्रोत से
वेनिस का बाँका
अनुवादक
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस सिटी: पाठक एंड सन भाषा भंडार पुस्तकालय, पृष्ठ परिचय से – शुद्धि-पत्र तक

 
लेखक का संक्षिप्त परिचय

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र च दुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥

वास्तव में पूर्वोक्त श्लोक का एकएक अक्षर सत्य है। जीवधारियों में मनुष्यत्व-प्राप्ति ही श्रेय है। मनुष्य कहलाने पर भी, भारत की इस गिरती अवस्था में भारतवासियो में, कितने लिखे पढ़े हैं। विद्वानों की संख्या तो और भी परिमित है। इनमें से भी कुछ ही वास्तविक कवि कहे जाने योग्य होते हैं। ईश्वरदत्त प्रतिभा, निमल पठन पाठन तथा अनवरत अभ्यास ही कविम्व शक्ति के प्रधान साधन हैं। इतना जिनमें हो, वे ही प्रकृत कवि है । या तो हिंदी साहित्य में आज अपने को कवि कहनेवालो की संख्या का कुछ ठिकाना नहीं। परन्तु वैसे सुकवि, जिन्हें सभी कवि मानते हों, अल्पसंख्यक ही हैं और सदा ही रहेंगे।

पं० अयोध्यासिंह जी उपाध्याय ऐसे ही सुकवि हैं, सुकवि ही क्या वरन् उनमे महाकवि के सभी गुण मौजूद हैं। हिंदी साहित्य में आपका स्थान अत्यंत ऊँचा तथा अमर है और वर्तमान काल के कवि तथा लेखको में आपका पद बहुत ही प्रतिष्ठित है। इसी प्रतिष्ठा के फलस्वरूप अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्दश सम्मेलन के आप सभापति बनाए गए थे। आप अगस्त्य गोत्रीय, शुक्ल यजुर्वेदीय सनाढ्य ब्राह्मण हैं। आपके पूर्व पुरुष बदायूँ के रहनेवाले थे पर लगभग तीन शताब्दी के व्यतीत हुए कि जब वे सपरिवार वहाँसे आकर आजमगढ़ के अंतर्गत तमसा नदी के किनारे पर बसे हुए निज़ामाबाद नामक करबे में बस गये। जमींदारी और वंश
परम्परागत पांडित्य ही इस परिवार की प्रधान जीविका है। यहीं सं॰ १९२२ वि॰ के वंशाख कृष्ण तृतीया को आपका जन्म हुआ। आप के पिता तीन भाई थे जिनके नाम क्रम से ब्रह्मा- सिंहजी, भोलासिंहजी और बनारसीसिंहजी उपाध्याय थे। पं॰ भोलासिंहजो ही हमारे चरितनायक के पिता और श्रीमती रुक्मिणी देवी माता थीं। आरके पिता अत्यन्त कार्यकुशल और परोपकारी पुरुष थे तथा माता भी एक विदुषी और धर्म परायण महिला थीं। इन दोनों व्यक्तियों के पवित्र जीवन का प्रभाव चरित-नायक पर विशेष रूप से पड़ा है।

आपके पितृव्य पं॰ ब्रह्मासिंह जो एक अच्छे विद्वान और सच्चरित्र पुरुष थे। उन्होंने घर पर इन्हें पांच वर्षको अवस्था में विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया और सात वर्ष की अवस्था में आप निज़ामाबाद के तहसीला स्कूल में भरती किए गए। वहाँ से सं॰ १६३६ वि॰ में वर्नाक्यूलर मिडिल परीक्षा पास कर काशी के क्वीन्स कालोजिएट स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने लगे। आएको मिडिल परीक्षा उत्तमतापूर्वक पास करने के कारण मासिक छात्रवृत्ति भी मिलती रही, पर स्वास्थ्य के बिगड़ जाने पर उन्हें शाघ्र ही घर लौट जाना पड़ा और इस प्रकार अंग्रेजी शिक्षा की इतिश्री हो गई।

घर पर रहते हुए भी इनकी शिक्षा बराबर चलनी रही और उन्होंने चार पाँच वर्ष तक उर्दू, फारसी तथा संस्कृत का अभ्यास किया। सन् ८०२ ई॰ में आपका विवाह हुआ और इसके दो वर्ष बाद निजामाबाद के तहसाली स्कूल में आप अध्यापक नियुक्त हुए। इन्हीं दिनों आपने कचहरी के काम काज सीखने में मन लगाया और सन् १८८७ ई॰ में नार्मल परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गये। मातृभाषा प्रेमी वा धनपतिलालजी के अनुरोध से, जो उस समय आज़मगढ़के सदर कानूनगो थे, आपने कानूनगोई की परीक्षा पास करने का निश्चय किया और तदनुसार सन् १८८६ ई॰ में यह परीक्षा भी पास कर ली। दूसरे वर्ष आप कानूनगो के स्थायी पद पर नियुक्त कर दिए गए। तब से १ नवम्बर सन १९२३ ई॰ को पेंशन लेने तक आप समय समय पर रजिस्ट्रार कानूनगो, नायब सदर कानूनगो और गिर्दावर कानूनगो आदि कई पदों को सुशोभित करते रहे। अन्तमें पाँच साल तक सदर कानूनगो के पद पर भी आप रहे। पेंशन लेने के अनन्तर मार्च सन १९२४ ई॰ से आप हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर का कार्य कर रहे हैं। यहाँ आप वेतन नहीं लेते केवल 'औनोरेरियम पर ही अपना निर्वाह करते हैं।

जैसा ऊपर लिखा जा चुका है। आपके पितृव्य श्रीमान् पं॰ ब्रह्मासिंह जी उपाध्याय एक सदाचार निष्ठ विद्वान् थे। आप की साहित्य में भी पूर्ण गति थी। उन्होने इन्हें साहित्य में भी अच्छी शिक्षा दी थी। उस समय निजामाबाद में सिख संप्रदाय के अनुगामी एक साधु श्रीयुत बाबा सुमेर सिंह जी साहिबजादे रहते थे जो मातृभाषा के प्रसिद्ध कवि और विद्वान् हो गए हैं। इनके यहां भारतेंदु बा० हरिश्चन्द्रजी की चन्द्रिका तथा 'कविवचन सुधा' नामक पत्र बराबर आते थे। हिन्दी भाषा का इनका पुस्तकालय भी अच्छा था। यहीं उपाध्याय जी को, जिनपर बाबाजी बड़ा कृपा रखते थे, भाषा ग्रंथ देखने तथा पत्र के पढ़ने का विशेष अवसर मिलता था जिनके परिशीलन से उनके हृदय में मातृभाषा के प्रति प्रगाढ़ अनुराग उत्पन्न हो गया और वे स्वयं ग्रन्थ रचना के लिए कटिबद्ध हो गए।

उपाध्यायजीने मदरसों के डिप्टी इंस्पेक्टर बा॰ श्याममनोहरदाल के आदेशानुसार पहिले पहल 'वेनिस का बाँका' और 'रिपवान विंकल' का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया। ये दोनों उपन्यास काशीपत्रिका में उर्दू में निकल चुके थे। उक्त पत्रिका के कुछ अन्य निबंधों का भी आपने हिंदी अनुवाद कर उनके संग्रह का नाम 'नीतिनिबंध रखा। 'विनोद बाटिका' के नाम से गुलज़ारे दबिस्ताँ का और 'उपदेश कुसुम' नाम से शेखसादी शीराजी के गुलिस्ताँ के आठवें परिच्छेद का अनुवाद किया। बंगला भाषा भी आप अच्छी तरह जानते हैं और उक्त भाषा से कई पुस्तकों का आपने अनुवाद भी किया है। बिल्कुल सीधी बोलचाल की भाषा में आपने दो उपन्यास लिखे हैं जिनके नाम 'ठेठ हिंदी का ठाठ' और 'अधखिला फूल' हैं जिनमें से प्रथम ग्रंथ सिविल सर्विस परीक्षा में बहुत दिनों तक कोर्स में था। 'रूक्मणीपरिणय' तथा 'प्रद्युम्न विजय व्यायोग' नामक दो रूपक भी आपने लिखे हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा जो 'कबीर वचनावली' प्रकाशित हुई है, उसका आपने ही संपादन किया है जिसकी भूमिका आपने बड़ी ही योग्यता से लिखी है।

अभी तक जिन पुस्तकों का उल्लेख किया गया है, वे सभी गद्य ग्रन्थ हैं। आपके महाकाव्य 'प्रियप्रवास' का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। यह खड़ी बोली का अत्यंत विशद काव्य ग्रन्थ है जिसमें श्रीकृष्णजी के मथुरागमन लीला का विस्तृत वर्णन है। इसमें करुण-रस का प्राधान्य है तथा वर्णन ऐसा उत्तम हुआ है कि स्थान विशेष पर चित्रसे खींच दिए गए हैं। चोखे चौपदे। तथा 'चुभते चौपदे' नामक दो ग्रन्थ अभी हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। प्रेम प्रपंच, प्रेमाम्बु प्रवाह, प्रेमाम्बु वारिधि, प्रेम प्रस्रवण, पद्य प्रमोद, पद्यप्रसून और ऋतु मुकुर नामक अनेक काव्य पुस्तके भिन्न भिन्न प्रकाशकों के यहाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें
उपाध्याय जी की फुटकर छोटी बड़ी कविताओं का समावेश है। बाँकीपुर के खड्ग विलास प्रेस ने इनकी बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनमें कुछ का उल्लेख हो चुका है और अन्य के नाम रसिक रहस्य, उद्बोधन, प्रेम पुष्पोपहार, चरितावली, कृष्णकांत का दानपत्र, काव्योपवन, अंकगणित, नीति निबंध और बोलचाल हैं।

स्थानाभाव के कारण इन सब ग्रन्थों पर विशेष प्रकाश नहीं डाला जा सकता, नहीं तो इनके गुण आदि की विवेचना करने में एक छोटा सा ग्रन्थ ही तैयार किया जा सकता है।

आपने दो पुस्तकें रसकलस तथा प्रद्युम्न-पराक्रम और भी लिखी हैं जो अभी तक अप्रकाशित हैं।

ब्रजरत्न दास।


 

वेनिस का बाँका का शुद्धाशुद्ध पत्र।

पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
२० बैठे बैठे तो क्या जाल कि
{{{1}}} २१ हो न हो
{{{1}}} {{{1}}} खिले न खिले
{{{1}}} {{{1}}} मिले न मिले
था थी
{{{1}}} लसी लूसी
१६ २३ हद होगयी थी होगयी थी
१७ १४ के की
३० १६ परित्याग, न परित्यागन
८७ ११ एद्वितकीय एक द्वितीय
११० च्छेद च्छद
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१११ २२ योग्यवा योग्यता
११४ १७ इस
११५ १८५ अतएव इस कारण से अतएव
११६ २५ आप आपके
११९ युवती स्त्री
 
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
१२७ हसी हँसी
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१३९ काम कोम
१४२ १२ पूवक पूर्वक
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