वैदेही वनवास/११ रिपुसूदनागमन

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एकादश सर्ग
रिपुसूदनागमन
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सखी

बादल थे नभ में छाये ।
बदला था रंग समय का ।।
थी प्रकृति भरी करुणा में।
कर उपचय मेघ - निचय का ॥१॥

वे विविध - रूप धारण कर।
नभ - तल में घूम रहे थे।
गिरि के ऊँचे शिखरों को।
गौरव से चूम रहे थे॥२॥

वे कभी स्वयं नग - सम बन ।
थे अद्भुत - दृश्य दिखाते ।।
कर कभी दुंदुभी - वादन ।
चपला को रहे नचाते ॥३॥

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एकादश सर्ग

वे पहन कभी, नीलाम्बर ।
थे बड़े - मुग्धकर बनते ॥
मुक्तावलि बलित अधर मे।
अनुपम - वितान थे तनते ॥४॥

बहुश. - खण्डों मे बॅटकर ।
चलते फिरते दिखलाते ॥
वे कभी नभ - पयोनिधि के।
थे विपुल - पोत बन पाते ॥५॥

वे रंग बिरंगे रवि की।
किरणों से थे बन जाते ।
वे कभी प्रकृति को विलसित ।
नीली - साड़ियाँ पिन्हाते ॥६॥

वे पवन तुरंगम पर चढ़।
थे दूनी - दौड़ लगाते ॥
वे कभी धूप - छाया के।
थे छबिमय - दृश्य दिखाते ॥७॥

घन कभी घेर दिन - मणि को।
थे इतनी घनता पाते ॥
जो द्युति - विहीन कर, दिन को -
थे अमा - समान बनाते ॥८॥

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वैदेही-वनवास

वे धूम - पुंज से फैले।
थे दिगन्त में दिखलाते ॥
अंकस्थ - दामिनी दमके ।
थे प्रचुर - प्रभा फैलाते ॥९॥

सरिता सरोवरादिक में।
थे स्वर - लहरी उपजाते ॥
वे कभी गिरा बहु - बूंदें।
थे नाना - वाद्य बजाते ॥१०॥

पावस सा प्रिय - ऋतु पाकर ।
बन रही रसा थी सरसा ॥
जीवन प्रदान करता था।
वर - सुधा सुधाधर बरसा ॥११॥

थी दृष्टि जिधर फिर जाती।
हरियाली बहुत लुभाती ॥
नाचते मयूर दिखाते ।
अलि- अवली मिलती गाती ॥१२॥

थी घटा कभी घिर आती।
था कभी जल बरस जाता ॥
थे जलद कभी खुल जाते ।
रवि कभी था निकल आता ॥१३॥

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एकादश सर्ग

था मलिन कभी होता वह ।
कुछ कान्ति कभी पा जाता ॥
कजलित कभी बनता दिन ।
उज्ज्वल था कभी दिखाता ॥१४॥

कर उसे मलिन - बसना फिर ।
काली ओढ़नी ओढ़ाती ॥
थी प्रकृति कभी वसुधा को।
उज्ज्वल - साटिका पिन्हाती ॥१५॥

जल - विन्दु लसित दल - चय से।
बन बन बहु - कान्त - कलेवर ॥
उत्फुल्ल स्नात - जन से थे।
हो सिक्त सलिल से तरुवर ॥१६॥

आ मंद - पवन के झोंके ।
जब उनको गले लगाते ॥
तब वे नितान्त - पुलकित हो।
थे मुक्तावलि बरसाते ॥१७॥

जब पड़ती हुई फुहारे ।
फूलों को रही रिझाती ॥
जव मचल मचल मारुत से ।
लतिकाये थी लहराती ॥१८॥

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वैदेही-वनवास

छवि से उड़ते छीटे में।
जब खिल जाती थी कलियाँ॥
चमकीली बूंदों को जब ।
टपकाती सुन्दर - फलियाँ ॥१९॥

जब फल रस से भर भर कर।
था परम - सरस बन जाता ॥
तब हरे-भरे कानन में।
था अजब समा दिखलाता ॥२०॥

वे सुखित हुए जो बहुधा ।
प्यासे रह रह कर तरसे ॥
झूमते . हुए बादल के।
रिमझिम रिमझिम जल बरसे ॥२१॥

तप - ऋतु में जो थे आकुल ।
वे आज हैं फले - फूले ॥
वारिद का बदन विलोके ।
बासर विपत्ति के भूले ॥२२॥

तरु - खग - चय चहक चहक कर।
थे कलोल - रत दिखलाते ।।
वे उमग उमग कर मानो।
थे वारि - वाह गुण गाते ॥२३॥

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एकादश सर्ग

सारे - पशु बहु - पुलकित थे।
तृण - चय की देख प्रचुरता ॥
अवलोक सजल - नाना - थल।
बन - अवनी अमित - रुचिरता ॥२४॥

सावन - शीला थी हो हो।
आवर्त - जाल आवरिता ॥
थी बड़े वेग से बहती।
रस से भरिता वन - सरिता ॥२५॥

बहुशः सोते वह बह कर ।
कल कल रख रहे सुनाते ॥
सर भर कर विपुल सलिल से।
थे सागर बने दिखाते ॥२६॥

उस पर वन - हरियाली ने। '
था अपना झूला डाला ।।
तृण - राजि विराज रही थी।
अहने मुक्तावलि - माला ॥२७॥

पावस से . प्रतिपालित हो।
वसुधानुराग प्रिय - पय पी॥
रख हरियाली मुख - लाली ।
बहु - तपी दूव थी पनपी ॥२८॥

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वैदेही-वनवास

मनमाना पानी पाकर ।
था पुलकित विपुल दिखाता ॥
पी पी रट लगा पपीहा।
था अपनी प्यास बुझाता ॥२९॥

पाकर पयोद से जीवन ।
तप के तापों से छूटी।
अनुराग - मूर्ति 'बन, महि में।
विलसित थी बीर बहूटी ॥३०॥

निज - शान्ततम निकेतन में।
बैठी मिथिलेश - कुमारी ।।
हो, मुग्ध विलोक रही थीं।
नव - नील - जलद छबि न्यारी ॥३१॥

यह सोच रही थीं प्रियतम ।
तन सा ही है यह सुन्दर ।
वैसा ही है हग - रंजन ।
वैसा ही महा - मनोहर ॥३२॥

पर क्षण क्षण पर जो उसमें।
नवता है देखी जाती ।।
वह नवल - नील - नीरद में।
है मुझे नहीं मिल पाती ॥३३॥

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एकादश सर्ग

श्यामलघन में बक - माला।
उड़ उड़ है छटा दिखाती ।।
पर प्रिय • उर - विलसित -
मुक्ता - माला है अधिक लुभाती ॥३४॥

श्यामावदात को चपला।
चमका कर है चौकाती ॥
पर प्रिय - तन - ज्योति दृगों में।
- है विपुल - रस बरस जाती ॥३५॥

सर्वस्व है करुण - रस का।
है द्रवण - शीलता - सम्वल ।।
है मूल भव - सरसता का।
है जलद आई - अन्तस्तल ॥३६॥

पर निरपराध - जन पर भी।
वह . वज्रपात करता है।
ओले बरसा कर जीवन ।
बहु - जीवों का हरता है॥३७॥

है जनक प्रबल - प्लावन का।
है प्रलयंकर बन जाता।
वह नगर, ग्राम, पुर को है।
पल में निमग्न कर पाता ॥३८॥

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वैदेही-वनवास

मैं सारे - गुण जलधर के।
जीवन - धन में पाती हूँ॥
उसकी जैसी ही मृदुता।
अवलोके बलि जाती हूँ॥३९॥

पर निरपराध को प्रियतम -
ने कभी नही कलपाया ।
उनके हाथों से किसने ।
कब कहाँ, व्यर्थ दुख पाया ||४०॥

पुर नगर ग्राम कव उजड़े।
कब , कहाँ आपदा आई ।।
अपवाद । लगाकर यों ही।
कव . जनता गई सताई ॥४१॥

प्रियतम समान जन - रंजन ।
भव - हित - रत कौन दिखाया ।।
पर सुख निमित्त कब किसने ।
दुख को यों गले लगाया ॥४२॥

घन गरज गरज कर बहुधा।
भव का है हृदय कपाता ।।
पर कान्त का मधुर प्रवचन ।
उर में है सुधा बहाता ।।४।।

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एकादश सर्ग १६९

जिस समय जनकजा घन की।
अवलोक दिव्य - श्यामलता ।।
थीं प्रियतम - ध्यान - निमग्ना।
कर दूर चित्त - आकुलता ॥४४॥

आ उसी समय आलय मे। -
सौमित्र - अनुज ने सादर ।।
पग - वन्दन किया सती का।
बन करुण - भाव से कातर ॥४५।।

सीतादेवी ने उनको।
परमादर से बैठाला ॥
लोचन मे आये जल पर -
नियमन का परदा डाला ॥४६॥

फिर कहा तात बतला दो।
रघुकुल - पुंगव है कैसे ? ॥
जैसे दिन कटते थे क्या।
अब भी कटते है वैसे ? ॥४७॥

क्या कभी याद करते हैं।
मुझ वन - निवासिनी को भी।
उसको जिसका आकुल - मन ।
है पद - पंकज - रज - लोभी ॥४८॥

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वैदेही-वनवास

चातक से जिसके हग हैं।
छबि स्वाति - सुधा के प्यासे॥
प्रतिकूल पड़ रहे हैं अब ।
जिसके सुख - बासर पासे ॥४९॥

जो विरह वेदनाओं से।
व्याकुल होकर है ऊबी॥
हग - वारि - वारिनिधि में जो।
बहु - विवशा बन है डूबी ॥५०॥

हैं कीर्ति करों से गुम्फित ।
जिनकी गौरव - गाथायें ॥
हैं सकुशल सुखिता मेरी।
अनुराग - मूर्ति - माताये ? ॥५१॥

होगये महीनों उनके ।
ममतामय - मुख, न दिखाये ॥
पावनतम - युगल पगों को।
मेरे कर परस न पाये ॥५२॥

श्रीमान् भरत - भव - भूषण ।
स्नेहा सुमित्रा - नन्दन ।
सब दिनों रही करती मैं ।
जिनका सादर अभिनन्दन ॥५३॥

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एकादश सर्ग

हैं स्वस्थ, सुखित या चिन्तित ।
या हैं विपन्न - हित - व्रत - रत ।।
या हैं लोकाराधन में ।
संलग्न बन परम - संयत ।।५४।।

कह कह वियोग की बाते ।
माण्डवी बहुत थी रोई।।
उर्मिला गई फिर आई।
पर रात भर नहीं सोई ॥५५॥

श्रुतिकीर्ति का कलपना तो।
अब तक है मुझे न भूला ॥
हो गये याद मेरा उर ।
वनता है ममता - झूला ॥५६॥

यह वतला दो अब मेरी।
बहनो की गति है कैसी ?
वे उतनी दुखित न हों पर,
क्या सुखित नही हैं वैसी ? ॥५७॥

क्या दशा दासियों की है।
वे दुखित तो नही रहती ।।
या स्नेह - प्रवाहों मे पड़।
यातना तो नही सहती ।।५८।।

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क्या वैसी ही सुखिता है।
महि की सर्वोत्तम थाती॥
क्या अवधपुरी वैसी ही।
है दिव्य बनी दिखलाती॥५९॥

मिट गई राज्य की हलचल।
या है वह अब भी फैली॥
कल-कीर्त्ति सिता सी अब तक।
क्या की जाती है मैली ॥६०॥

बोले रिपुसूदन आर्य्ये।
हैं धीर धुरंधर प्रभुवर॥
नीतिज्ञ, न्यायरत, संयत।
लोकाराधन में तत्पर॥६१॥

गुरु-भार उन्ही पर सारे-
साम्राज्य-संयमन का है।
तन मन से भव-हित-साधन।
व्रत उनके जीवन का है॥६२॥

इस दुर्गम-तम कृति-पथ में।
थी आप संगिनी ऐसी॥
वैसी तुरन्त थीं बनती।
प्रियतम-प्रवृत्ति हो जैसी॥६३॥

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एकादश सर्ग

आश्रम - निवास ही इसका।
सर्वोत्तम - उदाहरण है।
यह है अनुरक्ति - अलौकिक ।
भव - वन्दित सदाचरण है॥६४॥

यदि रघुकुल - तिलक पुरुप हैं।
श्रीमती शक्ति हैं उनकी॥
जो प्रभुवर त्रिभुवन - पति है।
तो आप भक्ति हैं उनकी ॥६५॥
.
विश्रान्ति सामने आती।
तो बिरामदा थी बनती॥
अनहित - आतप - अवलोके ।
हित - वर - वितान थी तनती ॥६६॥

थी पूर्ति न्यूनताओं की।
मति - अवगति थी कहलाती ।।
आपही विपत्ति विलोके ।
थी परम - शान्ति बन पाती ॥६७॥

अतएव आप ही सोचे ।
वे कितने होंगे विह्वल ॥
पर धीर - धुरंधरता का।
नृपवर को है सच्चा - बल ॥६८

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वैदेही-वनवास

वे इतनी तन्मयता से।
कर्तव्यों को हैं करते ॥
इस भावुकता से वे हैं।
बहु - सद्भावों से भरते ॥६९॥

इतने हढ़ हैं कि बदन पर ।
दुख - छाया नही दिखाती ॥
कातरता सम्मुख आये।
कॅप कर है कतरा जाती ॥७०॥

फिर भी तो हृदय हृदय है।
वेदना - रहित क्यों होगा।
तज हृदय - वल्लभा को क्यों।
भव - सुख जायेगा भोगा ॥७१॥

जो सज्या - भवन सदा ही।
सबको हँसता दिखलाता ॥
जिसको विलोक आनन्दित ।
आनन्द स्वयं हो जाता ||७२।।

जिसमें वहती रहती थी।
उल्लासमयी - रस - धारा॥
जो स्वरित वना करता था।
लोकोत्तर - स्वर के द्वारा ।।७३॥

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एकादश सर्ग

इन दिनों करुण - रस से वह ।
परिप्लावित है दिखलाता॥
अवलोक म्लानता उसकी ।
आँखों में है जल आता ||७४॥

अनुरंजन जो करते थे।
उनकी रंगत है 'बदली।
है कान्ति - विहीन दिखाती।
अनुपम - रत्नों की अवली ।।७५॥

मन मारे बैठी उसमें ।
है सुकृतिवती दिखलाती ॥
जो गीत करुण - रस - पूरित ।
प्रायः रो रो है गाती ॥७६।।

हो गये महीनों उसमे।
जाते न तात को देखा ।।
हैं, खिंची न जाने उनके ।
उर में कैसी दुख - रेखा ॥७७॥

वाते माताओं की मैं।
कहकर कैसे बतलाऊँ।
उनकी सी ममता कैसे।
मैं शब्दों मे भर पाऊँ ॥७८॥

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१७६
वैदेही-वनवास

मेरी आकुल - आँखों को।।
कबतक वह कलपायेगी।
उनको रट यही लगी है।
कब जनक - लली आयेगी ॥७९।।

आज्ञानुसार प्रभुवर के।
श्रीमती माण्डवी प्रतिदिन ॥
भगिनियों, दासियों को ले।
उन सब कामों को गिन गिन ॥८०॥

करती रहती हैं सादर।
थीं आप जिन्हें नित करती ॥
सच्चे जी से वे सारे।
दुखियों का दुख हैं हरती ॥८१॥

माताओं की सेवाये। .
है बड़े लगन से होती ।।
फिर भी उनकी ममता नित ।
है आपके लिये रोती ॥८२॥

सब हो पर कोई कैसे ।
भवदीय - हृदय पायेगा।
दिव - सुधा सुधाकर का ही।
वरतर - कर बरसायेगा ॥८३॥

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एकादश सर्ग

बहने जनहित व्रतरत रह ।
हैं बहुत कुछ स्वदुख भूली ॥
पर सत्संगति दृग - गति की।
है बनी असंगति फूली ॥८४॥

दासियाँ क्या, नगर भर का।
यह है मार्मिक - कण्ठ - स्वर ॥
जब देवी आयेगी, कव -
आयेगा वह वर - बासर ॥८५।।

है अवध शान्त अति - उन्नत ।
बहु - सुख - समृद्धि - परिपूरित ॥
सौभाग्य - धाम सुरपुर - सम ।
रघुकुल - मणि - महिमा मुखरित ॥८६॥

है साम्य - नीति के द्वारा ।
सारा - साम्राज्य - सुशासित ।।
लोकाराधन - मंत्रों से।
हैं जन - पद् परम - प्रभावित ॥८७||

पर कही कही अब भी है।
कुछ हलचल पाई जाती ॥
उत्पात मचा देते हैं।
अब भी कतिपय उत्पाती ।।८८॥

१२

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वैदेही-वनवास

सिरधरा उन सबों का है।
पाषाण - हृदय - लवणासुर ॥
जिसने विध्वंस किये हैं।
बहु ग्राम बड़े - सुन्दर - पुर ।।८९॥

उसके वध की ही आज्ञा ।
प्रभुवर ने मुझको दी है।
साथ ही उन्होंने मुझसे ।
यह निश्चित बात कही है॥९०॥

केवल उसका हो वध हो।
कुछ ऐसा कौशल करना।
लोहा दानव से लेना।
भू को न लहू से भरना ।।९१॥

आज्ञानुसार कौशल से।
मैं सारे कार्य करूँगा।
भव के कंटक का वध कर।
भूतल का भार हरूँगा ॥९२।।

हो गया आपका दर्शन ।
आशिष महर्षि से पाई ॥
होगी सफला यह यात्रा।
भू में भर भूरि - भलाई ॥१३॥

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एकादश सर्ग

रिपुसूदन की वातें सुन ।
जी कभी बहुत घबराया॥
या कभी जनक - तनया के ।
आँखों में आंसू आया ॥९४।।

'पर वारम्बार उन्होंने ।
अपने को बहुत सँभाला ॥
धीरज - धर थाम कलेजा।
सब बातों को सुन डाला ॥९५॥

फिर कहा कुँवर - वर जाओ।
यात्रा हो सफल तुम्हारी ॥
पुरहूत का प्रवल - पवि ही।
है पर्वत - गर्व - प्रहारी ॥९६।।

है विनय यही विभुवर से।
हो प्रियतम सुयश सवाया ॥
वसुधा निमित्त बन जाये।
तव विजय कल्पतरुकाया ।।९७॥

दोहा


पग वन्दन कर ले विदा गये दनुजकुल काल ।
इसी दिवस सिय ने जने युगल - अलौकिक-लाल ॥९८।।