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वैदेही वनवास/१० तपस्विनी आश्रम

विकिस्रोत से
वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १४४ से – १५९ तक

 
दशम सर्ग
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तपस्विनी आश्रम
चौपदे

प्रकृति का नीलाम्बर उतरे ।
श्वेत - साड़ी उसने पाई ।।
हटा घन - घूघट शरदाभा।
विहँसती महि में थी आई ॥१॥

मलिनता दूर हुए तन की।
दिशा थी बनी विकच - वदना ।।
अधर में मंजु - नीलिमामय ।
था गगन - नवल - वितान तना ॥२॥

१४५
दशम सर्ग

चॉदनी छिटिक छिटिक छबि से ।
छबीली बनती रहती थी।
सुधाकर - कर से वसुधा पर।
सुधा की धारा बहती थी ॥३॥

कही थे वहे दुग्ध - सोते।
कहीं पर मोती थे ढलके ।।
कही था अनुपम - रस वरसा।
भव - सुधा - प्याला के छलके ॥४॥

मंजुतम गति से हीरक - चय ।
निछावर करती जाती थी।
जगमगाते ताराओं मे।
थिरकती ज्योति दिखाती थी ॥५॥

क्षिति - छटा फूली फिरती थी।
विपुल - कुसुमावलि विकसी थी।
आज वैकुण्ठ छोड़ कमला।
विकच - कमलों में विलसी थी॥६॥

पादपों के श्यामल - दल ने।
प्रभा पारद सी पाई थी।
दिव्य हो हो नवला - लतिका ।
विभा सुरपुर से लाई थी॥७॥

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वैदेही-वनवास

मंद - गति से बहती नदियाँ।
मंजु - रस मिले सरसती थीं।
पा गये राका सी रजनी ।
वीचियाँ बहुत विलसती थीं ॥८॥

किसी कमनीय - मुकुर जैसा।
सरोवर विमल - सलिल वाला ॥
मोहता था स्वअंक में ले।
विधु - सहित मंजुल - उडु-साला ॥९॥

शरद - गौरव नभ - जल - थल में ।
आज मिलते थे ऑके से ।।
कीर्ति फैलाते थे हिल हिल ।
कास के फूल पताके से ॥१०॥

चतुष्पद


तपस्विनी - आश्रम समीप थी।
एक बड़ी रमणीय - बाटिका ।।
वह इस समय विपुल-विलसित थी।
मिले सिता की दिव्य साटिका ॥११॥

उसमें अनुपम फूल खिले थे।
मंद मंद जो मुसकाते थे।
बड़े भले - मावों से भर भर ।
भली रंगते दिखलाते थे॥१२।।

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दशम सर्ग

छोटे छोटे पौधे उसके।
थे चुप चाप खड़े छबि पाते ॥
हो कोमल - श्यामल - दल शोभित ।
रहे श्यामसुंदर कहलाते ।।१३।।

रंग विरंगी विविध लताये ।
ललित से ललित बन विलसित थीं।।
किसी कलित कर से लालित हो।
विकच - बालिका सी विकसित थी ॥१४॥

इसी वाटिका में निर्मित था।
एक मनोरम - शान्ति - निकेतन ।।
जो था सहज - विभूति - विभूपित ।
सात्विकता - शुचिता - अवलम्वन ।।१५।।

था इसके सामने सुशोभित ।
एक विशाल - दिव्य - देवालय ॥
जिसका ऊँचा - कलस इस समय ।
बना हुआ था कान्त - कान्तिमय ॥१६॥

शान्ति - निकेतन के आगे था।
एक सित-शिला विरचित - चत्वर ।।
उस पर बैठी जनक - नन्दिनी ।
देख रही थी दश्य • मनोहर ।।१७।।

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वैदेही-वनवास

प्रकृति हंस रही थी नभतल में ।
हिम - दीधित को हँसा हँसा कर ॥
ओस - विन्दु - मुक्तावलि द्वारा।
गोद सिता की वार बार भर ॥१८॥

चारु - हॉसिनी चन्द्र - प्रिया की।
अवलोकन कर बड़ी रुचिर - रुचि ।।
देखे उसकी लोक - रंजिनी -
कृति, नितान्त-कमनीय परम-शुचि ॥१९॥

जनक - सुता उर द्रवीभूत था।
उनके हग से था जल जाता ।।
कितने ही अतीत - वृत्तों का।
ध्यान उन्हें था अधिक सताता ॥२०॥

कहने लगी सिते । सीता भी।
क्या तुम जैसी ही शुचि होगी।
क्या तुम जैसी ही उसमें भी।
भव-हित-रता दिव्य - रुचि होगी ॥२१॥

तमा तमा है तमोमयी है।
भाव सपत्नी का है रखती ।।.
कभी तुमारी पूत - प्रीति की।
स्वाभाविकता नहीं परखती ॥२२॥

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दशम सर्ग

फिर भी 'राका - रजनी' कर तुम ।
उसको दिव्य बना देती हो।
कान्ति-हीन को कान्ति - मती कर ।
कमनीयता दिखा देती हो ॥२३।।

जिसे नही हंसना आता है।
चारु - हासिनी वह बनती है।।
तुमको आलिगन कर असिता।
स्वर्गिक - सितता में सनती है ॥२४॥

ताटंक


नभतल में यदि लसती हो तो,
भूतल में भी खिलती हो ।
दिव्य - दिशा को करती हो तो ,
विदिशा में भी मिलती हो ॥२५।।

बहु विकास विलसित हो वारिधि ,
यदि पयोधि बन जाता है।
तो लघु से लघुतम सरवर भी ,
तुमसे शोभा पाता है ॥२६॥

गिरि-समूह - शिखरों को यदि तुम ,
मणि - मण्डित कर पाती हो।
छोटे छोटे टीलों पर भी ,
तो निज छटा दिखाती हो ॥२७॥

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वैदेही-वनवास

सुजला - सुफला - शस्य श्यामला ,
भू जो भूपित होती है।
तुमसे सुधा लाभ कर तो सरु -
महि भी मरुता खोती है ॥२८॥

रम्य - नगर लघु - ग्राम वरविमा ,
दोनों तुमसे पाते हैं।
राज - भवन हों या कुटीर, सब
कान्ति-मान बन जाते हैं ॥२९॥

तरु - दल हों प्रसून हों तृण हों ,
सबको द्युति तुम देती हो।
औरों की क्या बात रजत - कण ,
रज - कण को कर लेती हो ॥३०।।

घूम घूम करके धनमाला ,
रस बरसाती रहती है।
मृदुता सहित दिखाती उसमें ,
द्रवण - शीलता महती है॥३१॥

है जीवन - दायिनी कहाती ,
ताप जगत का हरती है।
तरु से तृण तक का प्रतिपालन ,
जल प्रदान कर करती है ॥३२।।

दशम सर्ग

किन्तु महा - गर्जन जना कर
कॅपा कलेजा देती है।
गिरा गिरा कर बिजली जीवन
कितनों का हर लेती है॥३३॥

हिम - उपलों से हरी भरी ,
खेती का नाश कराती है।
जल - सावन से नगर ग्राम ,
पुर को बहु विकल बनाती है ॥३४॥

अतः सदाशयता तुम जैसी ,
उसमें नही दिखाती है।
केवल सत्प्रवृत्ति ही उसमे ,
मुझे नही मिल पाती है ॥३५॥

तुममे जैसी लोकोत्तरता ,
सहज - स्निग्धता मिलती है।
सदा तुमारी कृति - कलिका जिस -
अनुपमता से खिलती है॥३६।।

वैसी अनुरंजनता शुचिता ,
किसमे कहाँ दिखाती है।
केवल प्रियतम दिव्य - कीर्ति ही -
मे वह पाई जाती है ॥३७॥

१५२
वैदेही-वनवास

हाँ प्रायः वियोगिनी तुमसे ,
व्यथिता बनती रहती है।
देख तुमारे जीवनधन को ,
मम - वेदना सहती है॥३८॥

यह उसका अन्तर - विकार है,
तुम तो सुख ही देती हो।
आलिगन कर उसके कितने -
तापों को हर लेती हो ॥३९।।

यह निस्वार्थ सदाशयता यह
वर - प्रवृत्ति पर - उपकारी ।
दोष - रहित यह लोकाराधन ,
यह उदारता अति - न्यारी ॥४०॥

बना सकी है भाग्य - शालिनी ,
ऐ सुभगे तुमको जैसी।
त्रिभुवन में अवलोक न पाई ,
मैं अब तक कोई वैसी ॥४१॥

इस धरती से कई लाख कोसों -
पर कान्त तुमारा है।
किन्तु बीच में कभी नहीं
बहती वियोग की धारा है ॥४२॥

१५३
दशम सर्ग

लाखों कोसों पर रहकर भी
पति - समीप तुम रहती हो।
यह फल उन पुण्यो का है,
तुम जिसके वल से महती हो ॥४३।।

क्यों संयोग वाधिका बनती ,
लाखों कोसों की दूरी ॥
क्या होती हैं नही सती की
सकल कामनाये पूरी ? ॥४४॥

ऐसी प्रगति मिली है तुमको ,
अपनी पूत - प्रकृति द्वारा।
है हो गया विदूरित जिससे ,
प्रिय - वियोग - संकट सारा ।।४५।।

सुकृतिवती हो सत्य -सुकृति-फल
सारे - पातक खोता है।
उसके पावन - तम - प्रभाव मे,
बहता रस का सोता है॥४६॥

तुम तो लाखों कोस दूर की ,
अवनी पर आ जाती हो।
फिर भी पति से पृथक न होकर ,
पुलकित वनी दिखाती हो ॥४७॥

१५४
वैदेही-वनवास

मुझे सौ सवा सौ कोसों की ,
दूरी भी कलपाती है।
मेरी आकुल ऑखों को
पति - मूर्ति नहीं दिखलाती है॥४८॥

जिसकी मुख - छबि को अवलोके ,
छबिमय जगत दिखाता है।
जिसका सुन्दर विकच - वदन ,
वसुधा को मुग्ध बनाता है॥४९॥

जिसकी लोक - ललाम - मूर्ति ,
भव - ललामता की जननी है।
जिसके आनन की अनुपमता ,
परम - प्रमोद प्रसविनी है ॥५०॥

जिसकी अति - कमनीय - कान्ति से ,
कान्तिमानता लसती है।
जिसकी महा - रुचिर - रचना में ,
लोक - रुचिरता बसती है ॥५१॥

जिसकी दिव्य - मनोरमता में ,
रम मन तम को खोता है।
जिसकी मंजु माधुरी पर ,
माधुर्य निछावर होता है ।।५२।।

१५५
दशम सर्ग

जिसकी आकृति सहज - सुकृति
का वीज हृदय मे वोती है।
जिसकी सरस - वचन की रचना ,
मानस का मल धोती है।॥५३॥

जिसकी मृदु - मुसकान भुवन -
मोहकता की प्रिय - थाती है।
परमानन्द जनकता जननी ,
जिसकी हंसी कहाती है ॥५४॥

भले भले भावों से भर भर ,
जो भूतल को भाते है।
बड़े बड़े लोचन जिसके ,
अनुराग - रँगे दिखलाते है ।।५५।।

जिनकी लोकोत्तर लीलाये,
लोक - ललक की थाती है।
ललित - लालसाओ को विलसे ,
जो उल्लसित बनाती हैं ॥५६॥

आजीवन जिनके चन्द्रानन की -
चकोरिका बनी रही।
जिसकी भव - मोहिनी सुधा प्रति -
दिन पी पी कर मैं निबही ।।५७||

१५६
वैदेही-वनवास

जिन रविकुल - रवि को अवलोके ,
रही कमलिनी सी फूली ।
जिनके परम - पूत भावों की ,
भावुकता पर थी भूली ॥५८॥

सिते! महीनों हुए नही उनका ,
दर्शन मैंने पाया।
विधि - विधान ने कभी नही ,
था मुझको इतना कलपाया ॥५९।।

जैसी तुम हो सुकृतिमयी जैसी -
तुममें सहृदयता
जैसी हो भवहित विधायिनी ,
जैसी तुममें ममता है॥६०॥

मैं हूँ अति - साधारण नारी ,
कैसे वैसी मैं हूँगी।
तुम जैसी महती व्यापकता ,
उदारता क्यों पाऊँगी ॥६१॥

फिर भी आजीवन मैं जनता -
का हित करती आई हूँ।
अनहित औरों का अवलोके ,
कब न बहुत घबराई हूँ ॥६२।।

१५७
दशम सर्ग

जान बूझ कर कभी किसी का -
अहित नही मैं करती हूँ।
पॉव सर्वदा फूंक फूंक कर ,
धरती पर मैं धरती हूँ॥६३॥

फिर क्यों लाखों कोसों पर रह ,
तुम पति पास विलसती हो।
बिना विलोके दुख का आनन ,
सर्वदैव तुम हँसती हो ॥६४।।

और किसलिये थोड़े अन्तर
पर रह मैं उकताती हूँ।
बिना नवल - नीरद-तन देखे ,
दृग से नीर बहाती हूँ॥६५॥

ऐसी कौन न्यूनता मुझमें है ,
जो विरह सताता है।
सिते । बता दो मुझे क्यों नही ,
चन्द्र - वदन दिखलाता है॥६६॥

किसी प्रिय सखी सदृश प्रिये तुम
लिपटी हो मेरे तन से।
हो जीवन - संगिनी सुखित -
करती आती हो शिशुपन से ॥६७॥

१५८
वैदेही-वनवास

हो प्रभाव - शालिनी कहाती ,
प्रभा भरित दिखलाती हो।
तमस्विनी का भी तम हरकर,
उसको दिव्य वनाती . हो ॥६८॥

मेरी तिमिरावृता न्यूनता का
निरसन त्योंही कर दो।
अपनी पावन ज्योति कृपा -
दिखला, मम जीवन में भर दो ॥६९॥

कोमलता की मूर्ति सिते हो,
हितेरता कहलाओगी।
आशा है आई हो तो तुम ,
उर में सुधा बहाओगी ||७०॥

अधिक क्या कहूँ अति-दुर्लभ है ,
तुम जैसी ही हो जाना।
किन्तु चाहती हूँ जी से तव -
सद्भावों को अपनाना ॥७१॥

जो सहायता कर सकती हो
करो, प्रार्थना है इतनी ।
जिससे उतनी सुखी बन सकूँ ,
पहले सुखित रही जितनी ॥७२॥

१५९
दशम सर्ग

सेवा उसकी करूं साथ रह ,
जी से जिसकी दासी हूँ।
हूँ न स्वार्थरत, मैं पति के -
संयोग - सुधा की प्यासी हूँ॥७३।।

दोहा


इतने में घंटा बजा उठा आरती - थाल ।
द्रुत - गति से महिजा गई मंदिर मे तत्काल ॥७४।।