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वैदेही वनवास/१५ सुतवती सीता

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वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २४८ से – २६३ तक

 
पंचदश सर्ग
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सुतवती सीता
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तिलोकी

परम - सरसता से प्रवाहिता सुरसरी।
कल कल रव से कलित - कीर्ति थीं गा रही।
किसी अलौकिक - कीर्तिमान - लोकेश की।
लहरे उठ थी ललित - नृत्य दिखला रही ॥१॥

अरुण - अरुणिमा उषा - रंगिणी - लालिमा ।
गगनांगण में खेल लोप हो चली थी॥
रवि - किरणे अब थी निज - कला दिखा रही।
जो प्राची के प्रिय - पलने में पली थी ॥२॥

सरल - बालिकाये सी कलिकायें - सकल ।
खोल खोल मुंह केलि दिखा खिल रही थी।
सरस - वायु - संचार हुए सब वेलियाँ।
विलस विलस बल खा खा कर हिल रही थी ॥३॥

समय कुसुम - कोमल प्रभात - शिशु को विहस ।
दिवस दिव्यतम - गोदी मे था दे रहा ॥
भोलेपन पर बन · विमुग्ध उत्फुल्ल हो।
वह उसको था ललक ललक कर ले रहा ॥४॥

कही कान्ति - संकलित कही कल - केलिमय।
और कहीं सरिता - प्रवाह उच्छृसित था ।
खग कलरव आकलित कान्त - तरु पुंज से।
उसका सज्जित - कूल उल्लसित लसित था ॥५॥

इसी कूल पर सीता सुअनों के सहित ।
धीरे धीरे पद - चालन कर रही थी।
उनके मन की बाते मृदुता साथ कह ।
अन्तस्तल मे वर - विनोद भर रही थी॥६॥

सात बरस के दोनों सुत थे हो गये।
इसीलिये जिज्ञासा थी प्रवला हुई।
माता से थे नाना - बाते पूछते ।
यथावसर वे प्रश्न किया करते कई ॥७॥

सरिता में थी तरल - तरंगे उठ रही ।
बार बार अवलोक उन्हें कुश ने कहा।
ए क्या हैं ? ए. किससे क्यों हैं खेलती।
मा इनमें है कैसे दीपक बल रहा ॥८॥

२५०
नदी-वनवान

सुने उनियां उनकी सत्यवती हंसी।
किन्तु प्यार से मा ने ये बातें कही।
ए है दुहितायें सरिता सुन्दरी की।
गोद में उसी की है. क्रीड़ा कर रही ॥९॥

जननी है सुरमरी, समीरण है जनक ।
हुआ है इन्ही दोनों से इनका मृजन ॥
प है. परम • चचला - सरसा - कोमला।
रवि - कर से है, विलसित इनका तरल - तन ॥१०||

जैसे सम्मुख के सारे - बालुका - कण ।
चमक रहे है. मिले दिवस - मणि की चमक ॥
वैसे ही दिनकर की कान्ति - विभूति से ।
दिव्य बने लहरें भी पाती हैं दमक ॥११॥

तात तुमारे पिता का मनोरम - मुकुट ।
रवि - कर से जैसा बनता है दिव्यतम ||
वह अमूल्य - मणि - मंजुलता - सर्वस्व है।
हग - निमित्त है लोकोत्तर - आलोक सम ॥१२॥

यह सुन लव ने माता का अञ्चल पकड़।
कहा ठुनुक कर अम्मा हम लेगे मुकुट ॥
सीता ने सुत चिवुक थामकर यह कहा।
तात ! तुमारे पिता तुम्हें देगे मुकुट ॥१३॥

२५१
पंचदश सर्ग

कुश बोले क्या हम न पा सकेंगे मुकुट ।
सीता बोली तुम तो लव से हो बड़े ॥
अतः मुकुट तुमको पहले ही मिलेगा।
दोनों में होंगे अनुपम - हीरे जड़े ॥१४॥

दोनों भ्राता शस्त्र - शास्त्र में निपुण हो।
अवध धाम में पहुंचोगे सानन्द जब ॥
पाकर रविकुल - रवि से दिव सी दिव्यता।
रत्न - मुकुट - मंडित होगे तुम लोग तब ॥१५॥

इसी समय कतिपय - चमकीली - मछलियाँ।
पुलिन - सलिल में तिरती दिखलाई पड़ी ।।
उन्हें देखने लगे लव किलक - किलक कर।
कुश की चञ्चल - ऑखे भी उन पर अड़ी॥१६॥

उभय उन्हें देखते रहे कुछ काल तक।
फिर लव ने ललकित हो मा से यह कहा ॥
मैं लूंगा मछलियाँ क्या उन्हें पकड़ लूं।
मा बोली सुत यह अनुचित होगा महा ॥१७॥

जैसे तुम दोनों 'हो मेरे लाडिले।
तुम्हें साथ ले जैसे मैं हूँ घूमती ॥
गले लगाती हूँ तुमसे खेलती हूँ।
जैसे मैं हूँ तुम्हें प्यार से चूमती ॥१८॥

२५२
वैंदही वनवास

वैसे ही हो कलि - निरत मछलियाँ भी।
है वग के सहित सलिल में विलमती ।।
देखो तो ला हिल मिल है लेलती।
मिला मिला कर मुंह कमी है मरमती ।।१९।।

गदि कोई तुमको मुझसे तुमसे मुझे।
छीने नो गतला दो क्या होगी दशा ॥
कोमल से कोमल बह - व्याकुल • हृदय को।
नगा न लगेगी विषम-वेदना की कगा॥२०॥

लब बोले आयेगा मुझको छीनने-
'जो, में मारूँगा उसको देगा डरा॥
कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे।
इसीलिये न कि अनुचित करना है बुरा ||२१||

फिर तुम क्यो अनुचित करना चाहते हो।
कभी किसी को नहीं सताना चाहिये।
उनके बच्चे हों अथवा हो मछलियाँ।
कभी नहीं उनको कलपाना चाहिये ।।२२।।

देखो वे है कितनी मुथरी सुन्दरी।
कैसा पुलकित हो हो वे हैं फिर रही ।।
वहाँ गये उनका सुख होगा किरकिरा ।
किन्तु पकड़ पाओगे उनको तुम नहीं ॥२३॥

२५३
पचदश सर्ग

जीव जन्तु जितने जगती मे हैं बने।
सवका भला किया करना ही है भला ।
निरपराध को सता करे अपराध क्यों।
वृथा किसी पर क्यों कोई लाये बला ॥२४॥

जल को विमल बनाती हैं ये मछलियाँ।
पूत - प्रेम का पाठ पढ़ाती है सदा ॥
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नही।
किसी प्रेमिका पर क्यों आये आपदा ॥२५॥

इतना कहते जनक - नन्दिनी नयन मे।
जल भर आया और कलेजा हिल गया ।।
मानों व्याकुल बनी युगल - मछलियों को।
यथावसर अनुकूल - सलिल था मिल गया ॥२६॥

जल मे जल से गुरु पदार्थ हैं डूबते ।
मा तुमने मुझसे हैं ए बाते. कही।
काठ कहा जाता है गुरुतर वारि से।
क्यों नौका जल में निमग्न होती नहीं ॥२७॥

सुने प्रश्न कुश का माता ने यह कहा।
बड़े बड़ाई को हैं कभी न भूलते ॥
जल तरुओ को सीच'सीच है पालता।
उसके वल से वे हैं फलते - फूलते ॥२८॥

२५४
वैदेही-वनवासष

जब वे होते तप्त बनाता तर उन्हें ।
जब होते निर्बल तब कर देता सबल ॥
उसी की सरसता का अवलम्बन मिले।
अनुपम - रस पाते थे उनके सकल - फल ॥२९॥

वह जल देता क्यों उस नौका को डुबा ।
जो तरु के तन द्वारा है निर्मित हुई।
सदा एक रस रहती है उत्तम - प्रकृति ।
तन - हित करती है तनबिन कर भी रुई ॥३०॥

है मुँह देखी प्रीति, प्रीति सच्ची नही ।
वह होती है असम, स्वार्थ - साधन - रता ॥
जीते जगती रह, है मरे न भूलती।
पूत सलिल सी पूत - चित्त की पूतता ॥३१॥

जितने तरु प्रतिविम्वित थे सरि - सलिल में।
उन्हें कुछ समय तक लव रहे विलोकते ॥
फिर माता से पूछा क्या ए कूल द्रुम ।
जल में अपना आनन हैं अवलोकते ॥३२॥

मा बोली वे क्यों जल में मुंह देखते ।।
जो हैं ज्ञान - रहित जो जड़ता - धाम हैं॥
है छाया ग्राहिणी - शक्ति विमलाम्बु मे।
तरु प्रतिविम्बितकरण उसी का काम है ॥३३॥

२५५
पंचदश सर्ग

सत्य वात सुत ! मैंने बतला दी तुम्हें ।
किन्तु क्रियाये तरु की हैं शिक्षा भरी ।।
तुम लोगों को यही चाहिये सीख लो।
मिले जहाँ पर कोई शिक्षा हितकरी ॥३४॥

सरिता सेचन कर तरुओं को सलिल से।
हरा - भरा रखकर उनको है पालती ॥
अवसर पर तर रख, कर शीतल तपन में।
जीवन से उनमें है जीवन डालती ॥३५॥

यथासमय तो उसको छाया - दान कर।
तरुवर भी उस पर बरसाते फूल हैं ।।
उसके सुअनों को देते हैं सरस - फल ।
सज्जित उनसे रहते उसके कूल है ॥३६।।

उपकारक के उपकारों को याद रख ।
करते रहना अवसर पर प्रतिकार भी॥
है अति - उत्तम - कर्म, धर्म है लोक का।
हो कृतज्ञ, न वने अकृतज्ञ मनुज कभी ॥३७॥

या भी तरु हैं लोक - हित निरत दीखते ।
आतप मे रह करते छाया - दान है।
उनके जैसा फलद दूसरा कौन है।
सुर - शिर पर किनके फूलों का स्थान है ॥३८॥

२५६
वैदेही-वनवास

हैं उनके पंचांग काम देते बहुत ।
छबि दिखला वे किसे मुग्ध करते नहीं॥
लेते सिर पर भार नही जो वे उभर ।
तो भूतल के विपुल उदर भरते नहीं ॥३९॥

है रसालता किसको मिली रसाल सी।
कौन गुलाब - प्रसूनों जैसा कब खिला ॥
सबके हित के लिये झकोरे सहन कर।
कौन सब दिनों खड़ा एक पद से मिला ॥४०॥

तरु वर्षा - शीतातप को सहकर स्वयं ।
शरणागत को करते आश्रय दान है।
प्रातः कलरव से होता यह ज्ञात है।
खगकुल करते उनका गौरव - गान हैं ॥४१॥

पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का -
किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥
द्रुम समान अवलम्बन विहग - समूह का।
कर्तनकारी का हित - कर्ता कौन है॥४२॥

तरु जड़ हैं इन सारे कामों को कभी।
जान बूझ कर वे कर सकते हैं नही ।।
पर क्या इनमे छिपे निगूढ - रहस्य है।
कैसे जा सकती हैं ए. वाते कही ।४३।।

२५७
पंचदश सर्ग

कला - कान्त कितनी लीलाये प्रकृति की।
हैं ललामतम किन्तु हैं जटिलतामयी ।।
कब उससे मति चकिता होती है नही।
कभी नही अनुभूति हुई उनपर जयी ॥४४||

कहाँ किस समय क्या होता है किसलिये।
कौन इन रहस्यों का मर्म बता सका।
भव - गुत्थी को खोल सका कब युक्ति - नख ।
चल इस पथ पर कब न विचार - पथिक थका ॥४५॥

प्रकृति - भेद वह ताला है जिसकी कहीं।
अब तक कुंजी नही किसी को भी मिली।
वह वह कीली है विभुता - भू में गड़ी।
जो न हिलाये ज्ञान - शक्ति के भी हिली ॥४६॥

जो हो, पर पुत्रो भव - दृश्यों को सदा।
अवलोकन तुम लोग करो वर - दृष्टि से ॥
और करो सेचन वसुधा - हित - विटप का।
अपनी - सत्कृति की अति - सरसा - वृष्टि से ॥४७॥

जो सुर - सरिता हैं नेत्रों के सामने ।
जिनकी तुंग - तरंगें हैं ज्योतिर्मयी ।।
कीर्ति - पताका वे हैं रविकुल - कलस की।
हुई लोकहित - ललकों पर वे हैं जयी ॥४८॥

१७
२५८
वैदेही-वनवास

तुल लोगों के पूर्व - पुरुष थे, बहु - विदित -
भूप भगीरथ सत्य - पराक्रम धर्म - रत ।।
उन्हीं के तपोबल से वह शुचि - जल मिला।
जिसके सम्मुखहुई चित्त - शुचिता - विनत ॥४९॥

उच्च - हिमाचल के अञ्चल की कठिनता।
अल्प भी नहीं उन्हें बना चंचल सकी ।।
दुर्गमता गिरि से निधि तक के पंथ की।
सोचे उनकी अथक - प्रवृत्ति नही थकी ॥५०॥

उनका शिव - संकल्प सिद्धि - साधन बना।
उनके प्रबल - प्रयत्नों से बाधा टली ।।
पथ के प्रस्तर सुविधा के विस्तर बने ।
सलिल - प्रगति के ढंगों में पटुता ढली ॥५१॥

कुलहित की कामना लोक - हित लगन से।
जब उर सर में भक्तिभाव - सरसिज खिला ॥
शिव - सिर - लसिता - सरिता हस्तगता हुई।
ब्रह्म - कमण्डल - जल महि - मण्डल को मिला ॥५२॥

सुर - सरिता को पाकर भारत की धरा ।
धन्य हो गई और स्वर्ण - प्रसवा वनी ॥
हुई शस्य - श्यामला सुधा से सिञ्चिता।
उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धनी ॥५३॥

२५९
पंचदश सर्ग

वह काशी जो है, प्रकाश से पूरिता ।
जहाँ भारती की होती है आरती ॥
जो सुर - सरिता पूत - सलिल पाती नही ।
पतित - प्राणियों को तो कैसे तारती ॥५४॥

सुन्दर - सुन्दर - भूति भरे नाना - नगर ।
किसके अति - कमनीय - कूल पर हैं लसे ।।
तीर्थराज को तीर्थराजता मिल गई।
किस तटिनी के पावनतम - तट पर बसे ।।५५।।

हृदय - शुद्धता की है परम - सहायिका ।
सुर - सरिता स्वच्छता - सरसता. मूल है।
उसका जीवन, जीवन है वहु जीव का।
उसका कूल तपादिक के अनुकूल है।॥५६॥

साधक की साधना सिद्धि - उन्मुख हुई।
खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके ।।
किसके जल - सेवन से संयम सहित रह ।
योग योग्यता बहु - योगी - जन पा सके ॥५७॥

जनक - प्रकृति - प्रतिकूल तरलता - ग्रहण कर।
भीति - रहित हो तप - ऋतु के आतंक से ।
हरती है तपती धरती के ताप को।
किसकी धारा निकल धराधर - अङ्क से ॥५८।।

२६०
वैदेही-वनवास

किससे सिँचते लाखों बीघे खेत हैं।
कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है।
कौन हरित रखती है अगणित - द्रुमों को।
सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है ।।५९।।

कौन दूर करती प्यासों की प्यास है।
कौन खिलाती बहु - भूखों को अन्न है।
कौन वसन - हीनों को देती वसन है।
निर्धन - जन को करती धन - सम्पन्न है॥६०||

है उपकार - परायणा सुकृति - पूरिता।
इसीलिये है ब्रह्म - कमण्डल - वासिनी ।।
है कल्याण - स्वरूपा भव - हित - कारिणी।
इसीलिये वह है शिव - शीश - विलासिनी ॥६१॥

है सित - वसना सरसा परमा - सुन्दरी ।
देवी बनती है उससे मिल मानवी ॥
__उसे बनाती है रवि - कान्ति सुहासिनी ।
है जीवन - दायिनी लोक की जाह्नवी ॥६२॥

अवगाहन कर उसके निर्मल - सलिल में ।
मल - विहीन बन जाते हैं यदि मलिन - मति ।
तो विचित्र क्या है जो निपतन पथ रुके ।
सुर - सरिता से पा जाते हैं पतित गति ।।६३।।

२६१
पंचदश सर्ग

महज्जनों के पद् - जल में है पूतता।
होती है उसमें जन - हित गरिमा भरी ॥
अतिशयता है उसमे ऐसी भूति की।
इसीलिये है हरिपादोदक सुरसरी ॥६४॥

गौरी गंगा दोनों हैं गिरि - नन्दिनी ।
रमा समा गंगा भी हैं वैभव - भरी ॥
गिरा समाना वे भी गौरव - मूर्ति हैं।
विवुध न कहते कैसे उनको सुरसरी ॥६५

पुत्रो रवि का वंश समुज्वल - वंश है।
तुम लोगों के पूर्व - पुरुष महनीय हैं।
सुर - सरिता - प्रवाह उद्भावन के सदृश ।
उनके कितने कृत्य ही अतुलनीय हैं ॥६६।।

तुम लोगों के पितृदेव भी वंश के।
दिव्य पुरुप है, है महत्व उनमे भरा ॥
मानवता की मर्यादा की मूर्ति हैं।
उन्हें लाभ कर धन्य हो गई है धरा ॥६७॥

सुन वनवास चतुर्दश - वत्सर का हुए -
अल्प भी न उद्विग्न न म्लान बदन बना ॥
तृण समान साम्राज्य को तजा सुखित हो।
हुए कहाँ ऐसे महनीय - महा - मना ।।६८॥

२६२
वैदेही-वनवास

वर्म धुरधरता है ध्रुव जैसी अटल ।
मदाचार मत्यव्रत के वे सेतु है॥ ।
लोकोत्तर है उनकी लोकाराधना ।
उड़ते उनके कलिन - कीर्ति के केतु हैं ।।६९॥

राजभवन था मजित सुरपुर - मदन सा।
कनक - रचित बहु - मणि - मण्डित - पयंक था ।।
रही सेविका सुरबाला सी सुन्दरी।
गृह - नभ का सुख राका - निशा - मयंक था ।।७०।।

इनको तजकर रहना पड़ा कुटीर मे।
निर्जन - वन मे सोना पड़ा तृणादि पर ।
फिर भी विकच वना रहता मुख - कंज था।
किसका चित्त दिखाया इतना उच्चतर ।।७१।।

होता है उत्ताल - तरंगाकुल - जलधि ।
है अवाव्यता भी उसकी अविदित नहीं ।।
किन्तु बनाया सेतु उन्होंने उसी पर।
किसी काल में हुआ नही ऐसा कही ॥७२।।

तुम लोगों के पिता लोक - सर्वस्व हैं।
दिव्य - भूतियों के अद्भुत - आगार है॥
हैं रविकुल के रवि - सम वे हैं दिव्यतम |
वे वसुधातल के अनुपम - शृंगार है ॥७३॥

२६३
पंचदश सर्ग

उनके पद का करो अनुसरण पूत हो।
सच्चे - आत्मज बनो भुवन का भय हरो॥
रत्नाकर के बनो रत्न तुम लोग भी।
भले - भले भावों को अनुभव में भरो।।७४|

प्रकृति - पाठ को पठन करो शुचि - चित्त से।
पत्ते - पत्ते में है प्रिय - शिक्षा भरी ॥
सोचो समझो मनन करो खोलो नयन ।
जीवन - जल मे ठीक चलेगी कृति - तरी ॥७५।।

दोहा


देख धूप होते समझ मृदुल - बाल को फूल।
चली गई सीता ससुत तज सुर - सरिता कूल ॥७६।।