वैदेही वनवास/१६ शुभ सम्वाद

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षोड़श सर्ग
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शुभ सम्वाद
तिलोकी.

दिनकर किरणे अब न आग थीं बरसती ।
अब न तप्त - तावा थी बनी वसुन्धरा ।।
धूप जलाती थी न ज्वाल - माला - सदृश ।
वातावरण न था लू - लपटों से भरा ॥१॥

प्रखर - कर - निकर को समेट कर शान्त बन ।
दग्ध - दिशाओं के दुख को था हर रहा ।
धीरे - धीरे अस्ताचल पर पहुंच रवि ।
था वसुधा - अनुराग - राग से भर रहा ॥२॥

वह छाया जो विटपावलि में थी छिपी।
बाहर आकर बहु - व्यापक थी बन रही।
उसको सब थे तन - बिन जाते देखते।
तपन तपिश जिस ताना को थी तन रही ॥३॥

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पोड़श सर्ग

जिसको छू कर तन होता संतप्त था।
वह समीर अब सुख - स्पर्श था हो रहा ॥
शीतल होकर सर - सरिताओं का सलिल ।
था उत्ताप तरलतम - तन का खो रहा ॥४॥

आतप के उत्कट पंजे से छूटकर।
सुख की सॉस सकल - तरुवर थे ले रहे।
कुम्हलाये - पल्लव अब पुलकित हो उन्हें ।
हरे - भरे पादप का पद थे दे रहे ॥५॥

जलती - भुनती - लतिका को जीवन मिला।
अविकच - वदना पुनः विकच - वदना बनी ॥
कॉप रही थी जो थोड़ी भी लू लगे।
अव देखी जाती थी वही बनी - ठनी ॥६॥

सघन - वनों में बहु - विटपावृत - कुंज में।
जितने प्राणी आतप - भय से थे पड़े।
तरणि - किरण का पावक - वर्षण देखकर ।
सहम रोंगटे जिनके होते थे खड़े ॥७॥

अब उनका क्रीड़ा - स्थल था शाद्वल बना।
उनमें से कुछ जहाँ तहाँ थे कूदते ॥
थे नितान्त - नीरव जो खोंते अब उन्हें ।
कलरव से. परिपूरित थे अवलोकते ॥८॥

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वैदेही-वनवास

नभ के लाल हुए बदली गति काल की।
दिन के छिपे निशा मुख दिखलाई पड़ा।
'उपर हुआ रविविम्ब तिरोहित तो इधर।
था सामने मनोहर - परिवर्तन खड़ा ॥९॥

आई सव्या साथ लिये विधु - विम्ब को।
धीरे - धीरे क्षिति पर छिटकी चॉदनी ॥
इसी समय देवालय मे पुत्रों सहित ।
विलसित थी पति - मूर्ति पास महिनन्दिनी ॥१०॥

कुलपति - निर्मित रामायण को प्रति - दिवस ।
लव कुश आकर गाते थे संध्या - समय ॥
बड़े - मधुर - स्वर से वीणा थी वज रही।
बना हुआ था देवालय पीयूष - मय ॥११॥

दोनो मुत थे बारह - वत्सर के हुए।
शस्त्र - शास्त्र दोनों में वे व्युत्पन्न थे।
थे सौदर्य - निकेतन छबि थी अलौकिक ।
धीर, वीर, गंभीर, शील - सम्पन्न थे॥१२॥

लव मोहित - कर घन के सरस - निनाद को।
मृदु - कर से थे मंजु - मृदंग बजा रहे ॥
कुश माता की आज्ञा से वीणा लिये।
इस पद को बन बहु - विमुग्ध थे गा रहे ।।१३।।

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षोडश सर्ग
- पद
जय जय जयति लोक ललाम ।
नवल - नीरद - श्याम।

शक्ति से शिर - मणि - मुकुट की शुक्ति - सम नृप - नीति ।
सृजन करती है मनोरम न्याय - मुक्ता - दाम ॥ १॥
दमक कर अति - दिव्य - द्युति से दिवसनाथ समान ।
है भुवन - तम - काल, उन्नत - भाल अति - अभिराम ॥२॥
गण्ड - मण्डल पर विलम्बित कान्त - केश - कलाप ।
है उरग • गति मति - कुटलिता शमन का दृढ़ दाम ॥३॥
वहु - कलंक - कदन धनुप - सम - बंक - 5 अवलोक ।
सतत होता शमित है मद - मोह - दल संग्राम ॥४॥
कमल से अनुराग - रंजित - नयन करुण - कटाक्ष ।
है प्रपंची - विश्व के विश्रान्त - जन विश्राम ॥५॥
किन्तुः वे ही देख होते प्रवल - अत्याचार ।
पापकारी के लिये हैं पाप का परिणाम ॥६॥
है उदार - प्रवृत्ति - रत, पर - दुख - श्रवण अनुरक्त ।
युगल - कुण्डल से लसित हो युगल - श्रुति छवि - धाम ॥७॥
है कपोल सरस - गुलाब - प्रसून से उत्फुल्ल ।
हग - विकासक दिव्य - वैभव कलित - ललित - निकाम ।।८।।
उच्चता है प्रकट करती चित्त की, रह उच्च ।
श्वास रक्षण मे निरत बन नासिका निष्काम ॥९॥
अधर है आरक्त उनमें है भरी अनुरक्ति।
मधुर - रस है वरसते रहते वचन अविराम ॥१०}},

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वैदेही-वनवास

दन्त - पंक्ति अमूल्य - मुक्तावलि - सदृश है दिव्य ।
जो चमकते हैं सदा कर चमत्कारक काम ॥११।।
बदन है अरविन्द - सुन्दर इन्दु सी है कान्ति ।
मृदु - हॅसी है बरसती रहती सुधा वसु - याम ।।१२।।
है कपोत समान कंठ परन्तु है वह कम्बु ।
वरद बनते हैं सुने जिसका सुरव विधि बाम ॥१३।।
है सुपुष्ट विशाल वक्षस्थल प्रशंशित पूत ।
दिव समान शरीर में जो है अमर आराम ||१४||
विपुल - बल अवलम्ब हैं आजानु - विलसित बाहु ।
बहु - विभव - आधार हैं जिनके विशद - गुण - ग्राम ॥१५||
है उदात्त - प्रवृत्ति - मय है न्यूनता की पूर्ति ।
भर सरसता से ग्रहण कर उदर अद्भुत नाम ॥१६।।
है सरोरुह सा रुचिर है भक्त - जन - सर्वस्व ।
है पुनीत - प्रगति - निलय पद - मूर्तिमन्त - प्रणाम ॥१७॥
लोक मोहन हैं तथा हैं मंजुता अवलम्ब ।
कोटिशः - कन्दर्प से कमनीयतम हैं राम ॥१८॥३१||

तिलोकी

जव कुश का बहु - गौरव - मय गाना रुका।
वर - मृदंग - वादन तब वे करने लगे।
तंत्री - स्वर में निज हृत्तंत्री को मिला।
यह पद गाकर प्रेम रंग में लव रॅगे॥३२॥

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षोड़श सर्ग

पद

जय जय रघुकुल - कमल - दिवाकर ।
मर्यादा - पुरुपोत्तम सद्गुण - रत्न - निचय - रत्नाकर ॥१॥
मिथिला में जव भृगुकुल - पुंगव ने कटु वात सुनाई।
तव कोमल वचनावलि गरिमा किसने थी दिखलाई ॥२॥
बहु - विवाह को कह अवैध बन बंधुवर्ग - हितकारक ।
कौन एक पत्नीव्रत का है वसुधा - मध्य - प्रचारक ।। ३॥
पिता के वचन - पण के प्रतिपालन का वन अनुरागी।
किसने हो उत्फुल्ल देव - दुर्लभ - विभूति थी त्यागी ॥४॥
कुपित - लखन ने जनक कथन को जब अनुचित बतलाया।
धीर - धुरंधर बन तब किसने उनको धैर्य बंधाया ॥५॥
कुल को अवलोकन कर बन के बंधुवर्ग विश्वासी।
गृह की अनबन से बचने को कौन बना वनवासी ॥६॥
वन की विविध असुविधाओं को भूल विचार भलाई।
भरत - भावनाओं की किसने की थी भूरि बड़ाई ॥७॥
वानर को नर वना दिखाई किसने नरता - न्यारी।
पशुता में मानवता स्थापन नीति किसे है प्यारी ।।८।।
निरवलंब अवलंव बने सुग्रीव की वला टाली।
बिला गया किसके बल से बालिशवाली - बलशाली ॥९॥
दंडनीय ही दडित हो क्यो दडित हो सुत - जाया ।
अंगद को युवराज वना किसने यह पाठ पढ़ाया ॥१०॥
किसकी कृति से शिला सलिल पर उतराती दिखलाई ।
सिधु वॉध सगठन - शक्ति - गरिमा किसने बतलाई ॥११॥

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वैदेही-वनवास

अहितू को भी दूत भेज हित - नीति गई समझाई।
होते क्षमता, क्षमा - शीलता किसने इतनी पाई ॥१२॥
किसने रंक - विभीषण को दिखला शुचि - नीति प्रणाली ।
राज्य - सहित सुर- पुर - विभूति - भूषित - लंका दे डाली ।।१३॥
किसने उसे बिठा पावक में जो थी शुचिता ढाली ।
तत्कालिक पावन - प्रतीति की मर्यादा प्रतिपाली ॥१४॥
अवध पहुँच पहले जा कैकेयी को शीश नवाया।
ऐसा उज्वल कलुष - रहित - उर किसका कहाँ दिखाया ॥१५॥
मिले राज जो प्रजारंजिनी - नीति नव - लता, फूली ।
उस पर प्रजा - प्रतीति - प्रीति प्रिय -रुचि - भ्रमरी है भूली ।।१६।।
घर घर कामधेनु है सब पर सुर - तरु की है छाया।
सरस्वती वरदा है, किस पर है न रमा की माया ॥१७॥
सकल - जनपदों में जन पद है निज पद का अधिकारी।
विलसित है संयम सुमनों से स्वतंत्रता - फुलवारी ॥१८॥
हुए सत्य-व्यवहार - रुचिरतर - तरुवर - चय के सफलित ।
नगर नगर नागरिक - स्वत्व पाकर है परम प्रफुल्लित ॥१९||
ग्राम ग्राम ने सीख लिया है उन बीजों का बोना।
जिससे महि बन शस्य - श्यामला उगल रही है सोना ॥२०॥
चाहे पुरवासी होवे या होवे ग्राम - निवासी।
सबकी रुचि - चातकी है सुकृति - स्वाति - बूंद की प्यासी ।।२१।।
जिससे भू थी कम्पित रहती दिग्गज थे थर्राते ।
सकल - लोक का जो कंटक था जिससे यम घबराते ॥२२॥

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षोडश सर्ग

उसकी कुत्सितु - नीति कालिमामयी - यामिनी बीते ।
लोक - चकोर सुनीति - रजनि पा शान्ति - सुधा हैं पीते ।।२३।।
है सुर - वृन्द सुखित मुनिजन हैं मुदित मिटे दानवता।
प्रजा - पुंज है पुलकित देखे मानवेन्द्र - मानवता ॥२४॥
होती है न अकाल - मृत्यु अनुकूल - काल है रहता।
सकल - सुखों का स्रोत सर्वदा है घर घर मे बहता ॥२५॥
किसने जन जन के उर-भू मे कीर्ति बेलि, यों, बोई ।
सकल - लोक - अभिराम राम है है न राम सा कोई ॥२६॥५८।।

तिलोकी


लव जब अपने अनुपम - पद को गा चुके ।
उसी समय मुकुटालंकृत कमनीय तन ।।
एक पुरुष ने मन्दिर में आ प्रेम से ।
किया जनकजा के पावन - पद का यजन ॥५९॥

उनका अभिनन्दन कर परमादर सहित ।
जनक - नन्दिनी ने यह पुत्रों से कहा।
करो वन्दना इनकी ये पितृव्य हैं।
यह सुन लव - कुश दोनो सुखित हुए महा ॥६०॥

उद दोनों ने की उनकी पद - वन्दना।
यथास्थान • फिर जा बैठे दोनों सुअन ॥
उनकी आकृति, प्रकृति, कान्ति, कमनीयता।
अवलोकन कर हुए बहु - मुदित रिपु - दमन ।।६१।।

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वैदेही-वनवास

और कहा अब आर्म्य पूरी शान्ति है।
प्रजा - पुंज है मुखित न हलचल है. कही ।।
सारे जनपद मुखरित है कल - कीर्ति से।
चिन्तित - चित की चिन्ताये जाती रही ॥६२॥

अवधपुरी मे आयोजन है, हो रहा -
अश्व - मेध का, कायों की है अधिकता।
इसीलिये में आज जा रहा हूँ वहाँ।
पूरा द्वादश - बत्सर मधुपुर में विता ॥६३।।

साम - नीति सत्र सुनीतियों की भित्ति है।
पर मुख - साध्य नहीं है उसकी साधना ।।
लोक - रंजिनी - नीति भी सुगम है नहीं।
है. गहना गतिमती लोक - आरावना ॥६४॥

भिन्न - भाव - रुचि - प्रकृति-भावना से भरित ।
विविध विचाराचार आदि से संकलित ॥
होती है जनता - ममता त्रिगुणात्मिका ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, से आकुलित ॥६५॥

उसका संचालन नियमन या सयमन ।
विविध - परिस्थिति देश, काल अवलोक कर ॥
करते रहना सदा सफलता के सहित ।
सुलभ है न प्राय. दुस्तर है अधिकतर ॥६६||

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षोडश सर्ग

यह दुस्तरता तब बनती है बहु - जटिल।
जव होता है दानवता का सामना ।
विफला बनती है जब दमन - प्रवृत्ति से।
लोकाराधन की कमनीया कामना ॥६७||

द्वादश - बत्सर बीत गये तो क्या हुआ।
रघुकुल - पुंगव - कीर्ति अधिक - उज्वल बनी।
राम - राज्य - गगनांगण में है आज दिन ।
चरम - शान्ति की तनी चारुतम - चॉदनी ॥६८।।

वाल्मीकाश्रम में, जो विद्या - केन्द्र है।
बारह - बत्सर तक रह जाना आपका ।।
सिद्ध हुआ उपकारक है भव के लिये।
शमन हुआ उससे पापीजन - पाप का ॥६९।।

जितने छात्र वहाँ की शिक्षा प्राप्त कर ।
जिस विभाग में भारत - भूतल के गये।
वहीं उन्होंने गाये वे गुण आपके ।
पूत - भाव जिनमे हैं भूरि भरे हुये ॥७०॥

तपस्विनी - आश्रम मे मधुपुर से कई -
कन्याये मैंने भेजी सद्वंशजा॥
कुछ दनुकुल की दुहिताये भी साथ थी।
जिनमें से थी एक लवण की अंगजा ॥७११

१८

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वैदेही-वनवास

वर - विद्याये पढ़ कुछ वर्ष व्यतीत कर।
जव वे सब विदुपी बन आई मधुपुरी।।
सत्कुल की कन्याओं की तो बात क्या ।
दनुज - सुतायें भी थी सद्भावों भरी ॥७२॥

आपकी सदाशयता की बाते कहे।
किसी काल में तृप्ति उन्हें होती न थी॥
विरह - व्यथा की कथा करुण - स्वर से सुना।
लवणासुर की कन्या कब रोती न थी॥७३॥

सच यह है इस समय की चरम - शान्ति का।
श्रेय इस पुनीताश्रम को है कम नहीं।
ज्योति यहाँ जो विदुपी - विदुषों को मिली।
तम उसके सम्मुख सकता था थम नही ।।७४।।

सत्कुल । के छात्रों अथवा छात्रियों ने।
जैसे गौरव - गरिमा गाई आपकी ॥
वैसा ही स्वर दनुज - छात्रियों का रहा।
कैसे इति होती न अखिल - परिताप की १७५॥

देवि ! आपका त्याग, तपोबल, आत्मबल, ।
पातिव्रत का परिपालन, संयम, नियम ॥
सहज - सरलता, दयालुता, हितकारिता ।
लोक - रंजिनी नीति - प्रीति है दिव्यतम ॥७६॥

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षोड़श सर्ग

अतः पुण्य - बल से अशान्ति विदलित हुई।
हुआ प्रपंच - जनित अपवादों का कदन ॥
बल, विद्या - सम्पन्न सर्व - गुण अलंकृत ।
मिले आपको दिव्य - देवतों से सुअन |७७॥

जैसे आश्रम - वास आपका हो सका।
शान्ति - स्थापन का वर - साधन दिव्य बन ॥
वैसे ही उसने दैविक - वल से किया।
कुश - लव - सदृश अलौकिक सुअनों का सृजन ।।७८॥

कुलपति के दर्शन कर मैं आया यहाँ।
उनसे मुझको ज्ञात हुई यह बात है।
शीघ्र जायँगे अवध आपके सहित वे।
अव वियोग - रजनी का निकट प्रभात है ॥७९॥

कुछ पुलकित, कुछ व्यथित बन सती ने कहा।
शान्ति - स्थापन का भवदीय प्रयत्न भी।
है महान, है रघुकुल - गौरव - गौरवित ।
भरा हुआ है उसमे अद्भुत - त्याग भी ।।८०।।

मेरा आश्रम - वास वैध था, उचित था।
किया आपने जो वह भी कर्त्तव्य था।
किन्तु एक दो नही द्विदश - वत्सर विरह ।
आपकी प्रिया का विचित्र भवितव्य था ।।८१॥

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वैदेही-वनवास

विधि - विधान में होती निष्ठुरता न जो।
तो श्रुति - कीर्ति परिस्थिति होती दूसरी ॥
नियति - नीति में रहती निर्दयता न जो।
तो अबला बनती न तरंगित - निधि - तरी ॥८२॥

प्रकृति रहस्यों का पाया किसने पता।
व्याह का समय आह रहा कैसा समय ।
जो मुझको उर्मिला तथा श्रुति - कीर्ति को।
मिला देखने को ऐसा विरहाभिनय ।।८३॥
M
किन्तु दुःखमय ए घटनायें लोकहित ।
भव - हित वसुधा - हित के यदि साधन बनीं।
तो वे कैसे शिरोधार्य होंगी नहीं।
मंगलमयी न कैसे जायेंगी गिनी ॥८४||

जैसे शुभ सम्वाद सुनाकर आपने।
आज कृपा कर मुझे बनाया है मुदित ॥
दर्शन देकर तुरत अवधपुर में पहुंच ।
वैसे ही श्रुति - कीर्ति को बनाये सुखित ॥८५।।

दोहा


सीय - वचन सुन पग - परस पाकर मोद - अपार ।
रिपुसूदन ने ली विदा पुत्रों को कर प्यार ॥८६॥