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वैदेही वनवास/३ मंत्रणा गृह

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वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
मंत्रणा गृह

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ३२ से – ५४ तक

 
तृतीय सर्ग
-*-
मन्त्रणा गृह
चतुष्पद

मंत्रणा गृह में प्रातःकाल ।
भरत लक्ष्मण रिपुसूदन संग ।।
राम बैठे थे चिन्ता - मग्न ।
छिड़ा था जनकात्मजा प्रसंग ॥१॥

कथन दुर्मुख का आद्योपान्त ।
राम ने सुना, कही यह बात ।।
अमूलक जन - रव होवे किन्तु ।
कीर्ति पर करता है पविपात ॥२॥

हुआ है जो उपकृत वह व्यक्ति ।
दोप को भी न कहेगा दोप ।।
बना करता है जन - रव हेतु ।
प्रायग. लोक का असन्ताप ॥३॥

३३
तृतीय सर्ग

प्रजा - रंजन हित - साधन भाव ।
राज्य - शागन का है वर - अंग ।।
है प्रकृति प्रकृत नीति प्रतिकृल ।
लोक आराधन व्रत का भंग ॥४॥

क्यों टले बढा लोक - अपवाद ।
इस विपय मे है क्या कर्तव्य ।।
अधिक हित होगा जो हो ज्ञात ।
बन्धुओं का क्या है वक्तव्य ॥५॥

भरत सविनय बोले ससार ।
विभामय होते, है तम - धाम ।।
वही है अधम जनों का वास ।
जहाँ है मिलते लोक - ललाम ॥६॥

तो नहीं नीच - मना है अल्प।
यदि मही मे है महिमावान ।।
बुरों को है प्रिय पर - अपवाद ।
भले है करते गौरव गान ।।७।।

किसी को है विवेक से प्रेम ।
किसी को प्यारा है अविवेक ।।
जहाँ है हंस - वंश - अवतंस ।
वारी पर है बक - वृत्ति अनेक ॥८॥

वैदेही-वनवास

द्वेप परवश होकर ही लोग।
नहीं करते हैं निन्दावाद ।।
वृथा दंभी जन भी कर दंभ ।
सुनाते हैं अप्रिय सम्बाद ।।९॥

दूसरों की रुचि को अवलोक ।
कही जाती है कितनी बात ।।
कही पर गतानुगतिक प्रवृत्ति ।
निरर्थक करती है उत्पात ॥१०॥

लोक - आराधन है नृप - धर्म ।
किन्तु इसका यह आगय है न ।
सुनी जाये उनकी भी बात ।
जो बला ला पाते हैं चैन ॥११॥

प्रजा के सकल-वास्तविक-स्वत्त्व ।
व्यक्तिगत उसके सब-अधिकार ॥
उसे है प्राप्त सुखी है सर्व।
सुकृति से कर वैभव - विस्तार ॥१२॥

कहीं है कलह न वैर विरोध ।
कहाँ पर है धन धरा विवाद ।।
तिरस्कृत है कलुपित चितवृत्ति ।
त्यक्त है प्रबल - प्रपंच • प्रमाद ।।१३।।

३५
तृतीय सर्ग

सुधा है वहाँ वरसती आज ।
जहाँ था वरस रहा अंगार ||
वहाँ है श्रुत स्वर्गीय निनाद ।
जहाँ था रोदन हाहाकार ।।१४।।

गौरवित है मानव समुदाय ।
गिरा का उर में हुए विकास ।।
शिवा से है शिवता की प्राप्ति ।
रमा का है घर घर में वास ॥१५॥

वन गये है पारस सब मेरु ।
उदधि करते है रत्न प्रदान ।।
प्रसव करती है वसुधा स्वर्ण ।
वन बने है नन्दन उद्यान ॥१६॥

सुखद - सुविधा से हो सम्पन्न ।
सरसता है सरिता का गात ।।
बना रहता है पावन वारि ।
ज करता है सावन उत्पात ॥१७॥

सदा रह हरे भरे तरु - वृन्द ।
सफल वन करते है सत्कार ॥
दिखाते हैं उत्कुल्ल प्रसून ।
वहन कर वहु सौरभ संभार ॥१८॥

लोग तने है सुख - सर्वग्न ।
विकच टनना है नित जलजात ।।
बार है. बने पर्व के बार।
गत है दीप - मालिका गत ॥१९।।

हुआ अज्ञान का तिमिर दर।
ज्ञान का फैला है आलोक॥
सुखद है सकल लोक को काल।
बना अवलोकनीय है ओक॥२०॥

शान्ति-मय-वातावरण विलोक।
रुचिर चर्चा है चारों ओर॥
कीर्त्ति-राका-रजनी को देख।
विपुल-पुलकित है लोक चकोर॥२१॥

किन्तु देखे राकेन्दु विकास।
सुखित कब हो पाता है कोक॥
फूटती है
दिव्यता दिनमणि की अवलोक

जगत जीवनप्रद पावस काल।
देख उठते हैं अर्क

३७
तृतीय सर्ग

जगत ही है विचित्रता धाम ।
विविधता विधि की है विख्यात ॥
नही तो सुन पाता क्यों कान ।
अरुचिकर परम असंगत बात ॥२४॥

निद्य है रघुकुल तिलक चरित्र ।
लांछिता है पवित्रता मूर्ति ।।
पूत शासन में कहता कौन ।
जो न होती पामरता पूर्ति ॥२५॥

आप हैं प्रजा - वृन्द - सर्वस्व ।
लोक आराधन के अवतार ॥
लोकहित - पथ - कण्टक के काल ।
लोक मर्यादा पारावार ॥२६॥

बन गई देश काल अनुकूल ।
प्रगति जितनी थी हित विपरीत ॥
प्रजारजन की जो है नीति ।
वही है आदर सहित गृहीत ॥२७।।

जानते नही इसे हैं लोग ।
कहा जाता है किसे अभाव ॥
विलसती है घर घर में भूति ।
भरा जन - जन मे है सद्भाव ॥२८॥

वैदेही-वनवास

रही जो कण्टक - पूरित राह ।
वहाँ अब बिछे हुए हैं फूल ॥
लग गये हैं अब वहाँ रसाल।
जहाँ पहले थे खड़े ववूल ॥२९।।

प्रजा में व्यापी है प्रतिपत्ति ।
भर गया है रग रग में ओज ॥
शस्य - श्यामला बनी मरु - भूमि ।
ऊसरों में हैं खिले सरोज ॥३०॥

नही पूजित है कोई व्यक्ति।
आज हैं पूजनीय गुण कर्म ॥
वही है मान्य जिसे है ज्ञात ।
मानसिक पीड़ाओं का मर्म ॥३१॥

इसलिये है यह निश्चित वात ।
प्रजाजन का यह है न प्रमाद ॥
कुछ अधम लोगों ने ही व्यर्थ ।
उठाया है यह निन्दावाद ॥३२॥

सर्व साधारण मे अधिकांश ।
हुआ है जन - रव का विस्तार ॥
मुख्यत. उन लोगों में जो कि ।
नहीं रखते मति पर अधिकार ॥३३॥

३९
तृतीय सर्ग

अन्य जन अथवा जो हैं विज्ञ ।
विवेकी हैं या हैं मतिमान ॥
जानते हैं जो मन का मर्म ।
जिन्हें है धर्म कर्म का ज्ञान ॥३४॥

सुने ऐसा असत्य अपवाद ।
गूंद लेते हैं अपने कान ॥
कथन कर नाना - पूत - प्रसग ।
दूर करते है जन - अज्ञान ॥३५॥

ज्ञात है मुझे न इसका भेद ।
कहाँ से, क्यों फैली यह बात ॥
किन्तु मेरा है यह अनुमान ।
पतित - मतिका है यह उत्पात ॥३६॥

महानद - सबल - सिधु के पार ।
रहा जो गन्धर्वो का राज ॥
वहाँ था होता महा - अधर्म ।
प्रायशः सद्धर्मो के व्याज ॥३७॥

कहे जाते थे वे गन्धर्व ।
किन्तु थे दानव सहश दुरंत ॥
न था उनके अवगुण का ओर।
न था अत्याचारों का अन्त ॥३८॥

वैदेही-वनवास

न रक्षित था उनसे धन धाम ।
न लोगों का आचार विचार ॥
न ललनाकुल का सहज सतीत्त्व ।
न मानवता का वर व्यवहार ॥३९॥

एक कर में थी ज्वलित मशाल ।
दूसरे कर में थी करवाल ॥
एक करता नगरों का दाह ।
दूसरा करता भू को लाल ॥४०॥

किये पग-लेहन, हो, कर-बद्ध ।
कुजन का होता था प्रतिपाल ॥
सुजन पर बिना किये अपराध ।
वलाये दी जाती थी डाल ॥४१॥

अधमता का उड़ता था केतु ।
सदाशयता पाती थी शूल ॥
सदाचारी की खिंचती खाल ।
कदाचारी पर चढ़ते फूल ॥४२॥

राज्य में पूरित था आतंक ।
गला कर्त्तन था प्रातः - कृत्य ।।
काल वन होता था सर्वत्र ।
प्रजा प्रीड़न का ताण्डव नृत्य ॥४३॥

४१
तृतीय सर्ग

केकयाधिप ने यह अवलोक ।
शान्ति के नाना किये प्रयत्न ।
किन्तु वे असफल रहे सदैव ।
लुटे उनके भी अनुपम - रत्न ॥४४॥

इसलिये हुए वे वहुत क्रुद्ध ।
और पकड़ी कठोर तलवार ।।
हुआ उसका भीपण परिणाम ।
बहुत ही अधिक लोक सहार ॥४५।।

छिन गये राज्य हुए भयभीत ।
वचे गधों का सस्थान ।।
बन गया है पाञ्चाल प्रदेश ।
और यह अन्तर्वेद महान ।।४६।।

इस समर का संचालन सूत्र ।
हाथ में मेरे था अतएव ।।
आप से उसका बहु सम्पर्क ।
मानता है उनका अहमेव ।।४७।।

अतः यह मेरा है सन्देह ।
इस अमूलक जन - रव में गुप्त ।।
हाथ उन सव का भी है क्योंकि ।
कव हुई हिसा-वृत्ति विलुप्त ॥४८॥

४२
वैदेही-वनवास

उचित है, है अत्यन्त पुनीत ।
लोक आराधन की नृप - नीति ।।
किन्तु है सदा उपेक्षा योग्य ।
मलिन-मानस की मलिन प्रतीति ।।४९।।

भरा जिसमें है कुत्सित भाव ।
द्वेप हिंसामय जो है उक्ति ।।
मलिन करने को महती-कीर्ति ।
गढ़ी जाती है जो बहु युक्ति ॥५०॥

वह अवांछित है, है दलनीय।
दण्ड्य है दुर्जन का दुर्वाद ॥
सदा है उन्मूलन के योग्य ।
अमौलिक सकल लोक अपवाद ।।५१।।

जो भली है, है भव हित पूर्ति ।
लोक आराधन सात्विक नीति ॥
तो बुरी है, है स्वयं विपत्ति ।
लोक - अपवाद - प्रसूत - प्रतीति ॥५२॥

फैल कर जन - रव रूपी धूम ।
करेगा कैसे उसको म्लान ।।
गगन में भूतल में है व्याप्त ।
कीर्ति जो राका-सिता समान ॥५३।।

४३
तृतीय सर्ग

चौपदे

बड़े भ्राता की बाते सुन ।
विलोका रघुकुल - तिलकानन ॥
सुमित्रा सुत फिर यो बोले।
हो गया व्याकुल मेरा मन ।।५४।।

आपकी भी निन्दा होगी।
समझ मैं इसे नही पाता।
खौलता है मेरा लोहू ।
क्रोध से मैं हूँ भर जाता ।।५५।।

आह । वह सती पुनीता है।
देवियों सी जिसकी छाया ।।
तेज जिसकी पावनता का।
नही पावक भी सह पाया ॥५६।।

हो सकेगी उसकी कुत्सा।
मैं इसे सोच नही सकता ।।
खड़े हो गये रोंगटे हैं।
गात भी मेरी है कॅपता ॥५७।।

यह जगत सदा रहा अंधा।
सत्य को कब इसने देखा ।
खीचता ही वह रहता है।
लांछना की कुत्सित रेखा ।।५८।।

४४
वैदेही-वनवास

आपकी कुत्सा किसी तरह ।
सहज ममता है सह पाती।
पर सुने पूज्या की निन्दा।
आग तन में है लग जाती ॥५९।।

सँभल कर वे मुँह को खोलें।
राज्य में है जिनको बसना ॥
चाहता है यह मेरा जी।
रजक की खिचवाले रसना ॥६०॥

प्रमादी होंगे ही कितने ।
मसल मैं उनको सकता हूँ।
क्यों न बकनेवाले समझे ।
बहक कर क्या मैं बकता हूँ ॥६१॥

अंध अंधापन से दिव की।
न दिवता कम होगी जो भर ॥
धूल जिसने रवि पर फेकी ।
गिरी वह उसके ही मुंह पर ॥६२।।

जलधि का क्या बिगड़ेगा जो।
गरल कुछ अहि उसमें उगले ॥
न होगी सरिता में हलचल।
यदि बहॅक कुछ मेंढक उछले ॥६३॥

४५
तृतीय सर्ग

विपिन कैसे होगा विचलित ।
हुए कुछ कुजन्तुओं का डर ॥
किये कुछ पशुओ के पशुता।
विकपित होगा क्यों गिरिवर ॥६४॥

धरातल क्यों धृति त्यागेगा।
कुछ कुटिल काकों के रव से ।।
गगन तल क्यों विपन्न होगा।
केतु के किसी उपद्रव से ॥६५॥

मुझे यदि आज्ञा हो तो मैं।
पचा दूँ कुजनो की वाई ।।
छुडा दूं छील छाल करके ।
कुरुचि उरकी कुत्सित काई ॥६६।।

कहा रिपुसूदन ने सादर ।
जटिलता है वढ़ती जाती ।।
बात कुछ ऐसी है जिसको ।
नहीं रसना है कह पाती ।।६७।।

पर कहूँगा, न कहूँ कैसे।
आपकी आज्ञा है ऐसी ॥
वात मथुरा मण्डल की मैं।
सुनाता हूँ वह है जैसी ॥६८।।

४७
तृतीय सर्ग

लवण अपने उद्योगों में।
सफल हो कभी नही सकता ।।
गये गंधर्व रसातल को।
रहा वह जिनका मुंह तकता ॥७४।।

बहाता है अब भी ऑसू ।
याद कर रावण की बाते ।।
पर उसे मिल न सकेगी अब ।
पाप से भरी हुई राते ॥७५॥

राज्य की नीति यथा संभव ।
उसे सुचरित्र बनायेगी ।
अन्यथा दुष्प्रवृत्ति उसकी।
कुकर्मों का फल पायेगी ॥७६।।

कठिनता यह है दुर्जनता।
मृदुलता से बढ़ जाती है ।
शिष्टता से नीचाशयता।
बनी दुर्दान्त दिखाती है॥७७।।

बिना कुछ दण्ड हुए जड़ की।
कब भला जड़ता जाती है।
मूढ़ता किसी मूढ़ मन की।
दमन से ही दब पाती है।॥७८॥

४९
तृतीय सर्ग

दमन या दण्ड नीति मुझको ।
कभी भी रही नही प्यारी ।।
न यद्यपि छोड सका उनको ।
रहे जो इनके अधिकारी ॥८४॥

चतुष्पद
रहेगी भव मे कैसे शान्ति ।
क्रूरता किया करे जो क्रूर ।।
तो हुआ लोकाराधन कहाँ।
लोक - कण्टक जो हुये न दूर ।।८५।।

लोक-हित संमृति-शान्ति निमित्त ।
हुआ यद्यपि दुरन्त -- संग्राम ।।
किन्तु दशमुख, गन्धर्व - विनाश ।
पातको का ही था परिणाम ॥८६॥

है क्षमा- योग्य न अत्याचार ।
उचित है दण्डनीय का दण्ड ।।
निवारण करना है कर्तव्य ।
किसी पाषण्डी का पाषण्ड ॥८७॥

आर्त लोगों का मार्मिक - कष्ट ।
बहु - निरपराधो का संहार ।।
बाल - वृद्धो का करुण - विलाप ।
विवश - जनता का हाहाकार ।।८८।।

५१
तृतीय सर्ग

किसी सम्भावित की अपकीर्ति ।
है रजनि - रंजन - अंक - कलक ।।
किन्तु है बुध - सम्मत यह उक्ति ।
कब भला धुला पंक से पंक ।।९४।।

जनकजा मे है दानव - द्रोह ।
और मैं उनकी बात मान ।
कराया करता हूँ अद्यापि ।
लोक - संहार कृतान्त समान ॥९५।।

यह कथन है सर्वथा असत्य । .
और है परम श्रवण - कटु-बात ॥
किन्तु उसको करता है पुष्ट ।
विपुल गंधर्वो पर पविपात ।।९६।।

पठन कर लोकाराधन - मत्र ।
करूँगा मैं इसका प्रतिकार !!
साधकर जनहित - साधन सूत्र ।
करूँगा घर घर शान्ति - प्रसार ।।९७।।

वन्धु - गण के विचार विज्ञात-
हो गये, सुनी उक्तियाँ सर्व ॥
प्राप्त कर साम - नीति से सिद्धि ।
बनेगा पावन जीवन - पर्व ॥९८॥

५२
वैदेही-वनवास

करूँगा बड़े से बड़ा त्याग।
आत्म - निग्रह का कर उपयोग।
हुए आवश्यक जन - मुख देख ।
सहूँगा प्रिया असह्य - वियोग ।।९९।।

मुझे यह है पूरा विश्वास ।
लोक-हित-साधन में सब काल ।।
रहेंगे आप लोग अनुकूल ।
धर्म - तत्वों पर ऑखे डाल ॥१००॥

दोहा


इतना कह अनुजों सहित, त्याग मंत्रणा-धाम ।
विश्रामालय में गये, राम - लोक - विश्राम ॥१०१॥

चतुर्थ सर्ग
--*-
वशिष्ठाश्रम
तिलोकी

अवधपुरी के निकट मनोरम - भूमि मे।
एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन ॥
बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती ।
दिखलाता था विपुल-विकच भवका बदन ॥१॥

प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर्वदा ।
शीतल - मंद - समीर सतत हो सोरभित ।।
वहता था बहु-ललित दिशाओं को बना।
यावन - सात्विक - सुखद-भाव से हो भरित ॥२॥

५४
वैदेही-वनवास

हरी भरी तरु - राजि कान्त - कुसुमालि से।
विलसित रह फल - पुंज - भार से हो नमित ।।
शोभित हो मन - नयन - विमोहन दलो से ।
दर्शक जन को मुदित वनाती थी अमित ॥३॥

रंग विरंगी अनुपम - कोमलतामयी।
कुसुमावलि थी लसी पूत - सौरभ वसी ।।
किसी लोक - सुन्दर की सुन्दरता दिखा।
जी की कली खिलाती थी उसकी हँसी ॥४॥

कर उसका रसपान मधुप थे घूमते ।
गूंज गूंज कानों को शुचि गाना सुना ।।
आ आ कर तितलियाँ उन्हें थी चूमती ।
अनुरंजन का चाव दिखा कर चौगुना ।।५।।

कमल - कोप में कभी बद्ध होते न थे।
अंधे बनते थे न पुष्प - रज से भ्रमर ।।
कॉटे थे छेदते न उनके गात को।
नही तितिलियो के पर देते थे कतर ।।६।।

लता लहलही लाल लाल दल से लसी ।
भरती थी हग मे अनुराग - ललामता ।।
श्यामल - दल की बेलि बनाती मुग्ध थी।
दिखा किमी धन-नचि-तन की शुचि झ्यामता ॥७॥