सामग्री पर जाएँ

वैदेही वनवास/७ मंगल यात्रा

विकिस्रोत से
वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ९८ से – ११३ तक

 
सप्तम सर्ग
-*-
मंगल सावा
-*-
मत्तसमक

अवध पुरी आज सन्जिता है।
बनी हुई दिव्य - सुन्दरी है।
विहँस रही है विकास पाकर ।
अटा अटा में छटा भरी है ॥१॥

दमक रहा है नगर, नागरिक-
प्रवाह में मोद के बहे हैं।
गली गली है गई सँवारी ।
चमक रहे चारु चौरहे हैं ॥२॥

बना राज - पथ परम - रुचिर है।
विमुग्ध है स्वच्छता बनाती ।।
विभूति उसकी विचित्रता से ।
विचित्र है रंगते दिखाती ॥३॥

९९
सप्तम सर्ग

सजल - कलस कान्त - पल्लवों से ।
बने हुए द्वार थे फबीले ॥
सु-छबि मिले छबि-निकेतनों की।
हुए सभी - सम थे छबीले ॥४॥

खिले हुए फूल से लसे थल।
ललामता को लुभा रहे थे।
सुतोरणों के हरे - भरे - दल ।
हरा भरा चित बना रहे थे ॥५॥

गड़े हुए स्तंभ कदलियों के ।
दलावली छबि दिखा रहे थे।
सुश्य - सौदर्य - पट्टिका पर ।
सुकीर्ति अपनी लिखा रहे थे ॥६॥

प्रदीप जो थे लसे कलस पर ।
मिली उन्हें भूरि दिव्यता थी॥
पसार कर रवि उन्हें परसता ।
उन्हे चूमती दिवा - विभा थी॥७॥

नगर गृहों मंदिरों मठों पर ।
लगी हुई सजिता ध्वजाये ॥
समीर से केलि कर रही थीं।
उठा उठा भूयसी भुजाये ॥८॥

१००
वैदेही-वनवास

सजे हुए राज - मन्दिरों पर।
लगी पताका विलस रही थी।
जटित रत्नचय विकास के मिस ।
चुरा चुरा चित्त हँस रही थी॥९॥

न तोरणों पर न मञ्च पर ही।
अनेक - वादिन बज रहे थे।
जहाँ तहाँ उच्च - भूमि पर भी।
नवल - नगारे गरज रहे थे ॥१०॥

न गेह में ही कुलांगनाये।
अपूर्व कल - कंठता दिखाती ॥
कही कही अन्य - गायिका भी ।
बड़ा - मधुर गान थी सुनाती ॥११॥

अनेक - मैदान मंजु बन कर ।
अपूर्व थे मंजुता दिखाते ॥
सजावटों से अतीव सज कर ।
किसे नहीं मुग्ध थे बनाते ॥१२॥

तने रहे जो वितान उनमें ।
विचित्र उनकी विभूतियाँ थी।
सदैव उनमें सुगायकों की।
विराजती मंजु - मूर्तियॉ थी ॥१३॥

१०१
सप्तम सर्ग

बनी ठनी थी समस्त - नावे ।
विनोद - मन्ना सरयू - सरी थी।
प्रवाह में वीचि मध्य मोहक-
उमंग की मत्तता भरी थी॥१४॥

हरे - भरे तरु - समूह से हो।
समस्त उद्यान थे विलसते ।।
लसी लता से ललामता ले।
विकच-कुसुम-व्याज थे विहॅसते ॥१५॥

मनोज्ञ मोहक पवित्रतामय ।
बने विवुध के विधान से थे।
समस्त - देवायतन अधिकतर ।
स्वरित बने सामगान से थे ॥१६।।

प्रमोद से मत्त आज सब थे।
न पा सका कौन - कंठ पिकता ।।
सकल नगर मध्य व्यापिता थी।
सनोमयी मंजु मांगलिकता ॥१७॥

दिनेश अनुराग - राग में रंग।
नभाक से जगमगा रहे थे।
उमंग में भर बिहंग तरु पर।
बड़े - मधुर गीत गा रहे थे॥१८॥

१०२
वैदेही-वनवास

इसी समय दिव्य - राज - मन्दिर ।
ध्वनित हुआ वेद - मंत्र द्वारा ।।
हुई सकल - मांगलिक क्रियाये ।
वही रगों में पुनीत - धारा ॥१९॥

क्रियान्त में चल गयंद - गति से।
विदेहजा द्वार पर पधारी ॥
बजी बधाई मधुर स्वरों से।
सुकीर्ति ने आरती उतारी ॥२०॥

खड़ा हुआ सामने सुरथ था।
सजा हुआ देवयान जैसा ।
उसे सती ने विलोक सोचा।
प्रयाण में अब विलम्ब कैसा ॥२१॥

वशिष्ठ देवादि को विनय से।
प्रणाम कर कान्त पास आई।
इसी समय नन्दिनी जनक की।
अतीव - विह्वल हुई दिखाई ॥२२॥

परन्तु तत्काल ही संभल कर।
निदेश मॉगा विनम्र वन के ।
परन्तु करते पदाब्ज - वन्दन ।
विविध वने भाव वर - वदन के ॥२३॥

१०३
सप्तम सर्ग

कमल - नयन राम ने कमल से-
मृदुल करों से पकड़ प्रिया-कर ॥
दिखा हृदय - प्रेम की प्रवणता।
उन्हें बिठाला मनोज्ञ रथ पर ॥२४॥

उचित जगह पर विदेहजा को।
विराजती जब विलोक पाया ।
सवार सौमित्र भी हुए तब ।
सुमित्र ने यान को चलाया ॥२५॥

बजे मधुर - वाद्य तोरणों पर ।
सुगान होता हुआ सुनाया ।।
हुए विविध मंगलाचरण भी।
सजल - कलस सामने दिखाया ।।२६।।

निकल सकल राज - तोरणों से ।
पहुँच गया यान जब वहाँ पर ।।
जहाँ खड़ी थी अपार - जनता ।
सजी सड़क पर प्रफुल्ल होकर ॥२७॥

बड़ी हुई तव प्रसून - वर्पा।
पतिव्रता जय गई बुलाई ।।
सविधि गई आरती उतारी।
बड़ी धूम से वजी बधाई ॥२८॥

१०४
वैदेही-वनवास

खड़ी द्वार पर कुलांगनाये ।
रही मांगलिक - गान सुनाती ॥
विनम्र हो हो पसार अञ्चल ।
रहीं राजकुल कुशल मनाती ॥२९॥

शनैः शनैः मंजुराज - पथ पर ।
चला जा रहा था मनोज्ञ रथ ।।
अजस्र जयनाद हो रहा था।
वरस रहा फूल था यथातथ ॥३०॥

निमग्न आनन्द में नगर था।
बनीं सुमनमय अनेक - सड़के ।।
थके न कर आरती उतारे ।
दिखे दिव्यता थकी न ललके ।।३१।।

नगर हुआ जब समाप्त सिय ने ।
तुरन्त सौमित्र को विलोका ।।
सुमित्र ने भाव को समझकर ।
सँभाल ली रास यान रोका ॥३२॥

उतर सुमित्रा - कुमार रथ से।
अपार - जनता समीप आये ।।
कहा कृपा है महान जो यों।
कृपाधिकारी गये वनाये ॥३३॥

१०५
सप्तम सर्ग

अनुष्ठिता मांगलिक सुयात्रा।
भला न क्यों सिद्धि को बरेगी।
समस्त - जनता प्रफुल्ल हो जो।
अपूर्व - शुभ - कामना करेगी ॥३४॥

कृपा दिखा आप लोग आये।
कुशल मनाया, हितैपिता की।
विविध मांगलिक - विधान द्वारा।
समर्चना की दिवांगना की ॥३५॥

हुई कृतज्ञा - अतीव आर्या ।
विशेष हैं धन्यवाद देती ।।
विनय यही है वढ़ें न आगे।
विराम क्यों है ललक न लेती ॥३६।।

बहुत दूर आ गये ठहरिये ।
न कीजिये आप लोग अब श्रम ॥
सुखित न होंगी कदापि आर्या ।
न जायेंगे आप लोग जो थम ॥३७॥

कृपा करे आप लोग जाये ।
विनम्र हो ईश से सनावे ॥
प्रसव करे पुत्र - रत्न आर्या ।
मयंक नभ - अंक में उगावे ॥३८॥

१०६
वैदेही-वनवास

सुने सुमित्रा - कुमार बाते ।।
दिशा हुई जय - निनाद भरिता ॥
बही उरों में सकल - जनों के।
तरंगिता बन विनोद - सरिता ॥३९।।

पुनः सुनाई पड़ा राजकुल ।
सदा कमल सा खिला दिखावे ॥
यथा - शीघ्र फिर अवध धाम में ।
वन्दनीयतम - पद पड़ पावे ॥४०॥

चला वेग से अपूर्व स्यंदन ।
चली गई यत्र तत्र जनता ।।
विचार - मन्ना हुई जनकजा।
बड़ी विषम थी विषय - गहनता ॥४१॥

कभी सुमित्रा - सुअन ऊबकर ।
वदन जनकजा का विलोकते ।।
कभी दिखाते नितान्त - चिन्तित ।
कभी विलोचन - वारि रोकते ॥४२॥

चला जा रहा दिव्य यान था।
अजस्र था टाप - रव सुनाता ।।
सकल - घंटियाँ निनाद रत थी।
कभी चक्र घरित जनाता ॥४३।।

१०७
सप्तम सर्ग

हरे भरे खेत सामने आ।
भभर, रहे भागते जनाते ।।
विविध रम्य आराम भूरि - तरु ।
पंक्ति - वद्ध थे खड़े दिखाते ।।४४।।

कहीं पास के जलाशयों से ।
विहंग उड़ प्राण थे बचाते ॥
लगा लगा व्योम - मध्य चक्कर ।
अतीव - कोलाहल थे मचाते ॥४५॥

कहीं चर रहे पशु विलोक रथ ।
चौक चौक कर थे घबराते ॥
उठा उठा कर स्वकीय पूँछे ।
इधर उधर दौडते दिखाते ॥४६॥

कभी पथ - गता ग्राम - नारियाँ।
गयंद - गतिता रही दिखाती ।।
रथाधिरूढ़ा कुलांगना की।
विमुग्ध वर - मूर्ति थी वनाती ॥४७॥

कनक-कान्ति, कोशल-कुमार का।
दिव्य - रूप सौदर्य - निकेतन ।।
विलोक किस पांथ का न बनता ।
प्रफुल्ल अंभोज सा विकच मन ॥४८॥

१०८
वैदेही-वनवास

अधीर - सौमित्र को विलोके ।
कहा धीर - धर धरांगजा ने ॥
बड़ी व्यथा हो रही मुझे है।
अवश्य है जी नही ठिकाने ॥४९॥

परन्तु कर्त्तव्य है न भूला ।
कभी उसे भूल मैं न देंगी।
नहीं सकी मैं निवाह निज व्रत ।
कभी नहीं यह कलंक लूंगी ॥५०॥

विपम समस्या सदन विश्व है।
विचित्र है सृष्टि कृत्य सारा ।।
तथापि विष - कंठ - शीश पर है।
प्रवाहिता स्वर्ग - वारि - धारा ।।५१।।

राहु केतु हैं जहाँ व्योम में ।
जिन्हें पाप ही पसंद आया ।
वही दिखाती सुधांशुता है।
वही सहस्रांशु जगमगाया ॥५२॥

द्रवण शील है स्नेह सिधु है।
हृदय सरस से सरस दिखाया ।।
परन्तु है त्याग - शील भी वह ।
उसे न कब पूत - भाव भाया ।।५३॥

१०९
सप्तम सर्ग

स्वलाभ तज लोक - लाभ - साधन ।
विपत्ति से भी प्रफुल्ल रहना ।।
परार्थ करना न स्वार्थ - चिन्ता।
स्वधर्म - रक्षार्थ क्लेश सहना ॥५४।।

मनुष्यता है करणीय कृत्य है।
अपूर्व - नैतिकता का विलास है।
प्रयास है भौतिकता विनाश का।
नरत्व - उन्मेप - क्रिया-विकास है ।।५५।।

विचार पतिदेव का यही है।
उन्हे यही नीति है रिझाती ।।
अशान्त भव में यही रही है।
सदा शान्ति का स्रोत बहाती ॥५६।।

उसे भला भूल क्यों सकूँगी।
यही ध्येय आजन्म रहा है।
परम - धन्य है वह पुनीत थल ।
जहाँ सुरसरी सलिल बहा है।।५७।।

विलोक आँखे मयंक - मुख को।
रही सुधा - पान नित्य करती ।।
बनी चकोरी अतृप्त रहकर ।
रही प्रचुर - चाव साथ अरती ॥५८॥

११०
वैदेही-वनवास

किसी दिवस यदि न देख पातीं।
अपार आकुल वनी दिखातीं ।।
विलोकती पंथ उत्सुका हो।
ललक ललक काल थी बिताती ॥५९।।

बहा बहा वारि जो विरह में।
बने ए नयन वारिवाह से।
बार बार बहु व्यथित हुए, जो।
हृदय विकम्पित रहे आह से ॥६०॥

विचित्रता तो भला कौन है।
स्वभाव का यह स्वभाव ही है।
कब न वारि बरसे पयोद बन ।
समुद्र की ओर सरि वही है ॥६१॥

वियोग का काल है अनिश्चित ।
व्यथा - कथा वेदनामयी है।
बहु - गुणावली रूप - माधुरी।
रोम रोम में रमी हुई है ॥६२॥

अतः रहूँगी वियोगिनी मैं।
नेत्र वारि के मीन बनेगे।
किन्तु दृष्टि रख लोक - लाभ पर ।
सुकीर्ति - मुक्तावली जनेंगे ॥६३॥

१११
सप्तम सर्ग

सरस सुधा सी भरी उक्ति के।
नितान्त - लोलुप श्रवण रहेंगे।
किन्तु चाव से उसे सुनेगे ।
भले - भाव जो भली कहेंगे ॥६४।।

हृदय हमारा व्यथित बनेगा।
स्वभावतः वेदना सहेगा ।।
अतीव - आतुर दिखा पड़ेगा।
नितान्त - उत्सुक कभी रहेगा ।।६६।।

कभी आह ऑधियाँ उठेगी।
कभी विकलता - घटा घिरेगी ।।
दिखा चमक चौक - व्याज उससे ।
कभी कुचिन्ता - चपला फिरेगी॥६६॥

परन्तु होगा न वह प्रवंचित ।
कदापि गन्तव्य पुण्य - पथ से ॥
कभी नहीं भ्रान्त हो गिरेगा।
स्वधर्म - आधार दिव्य रथ से ॥६७।।

सदा करेगा हित सर्व-भूत का।
न लोक आराधन को तजेगा।
प्रणय - मूर्ति के लिये मुग्ध हो।
आर्त - चित्त आरती सजेगा ॥६८॥

११२
वैदेही-वनवास

अवश्य सुख वासना मनुज को ।
सदा अधिक श्रान्त है वनाती ।।
पड़े स्वार्थ - अंधता तिमिर में।
न लोक हित-मूर्ति है दिखाती ।।६९।।

कहाँ हुआ है उबार किसका।
सदा सभी की हुई हार है।
अपार - संसार वारिनिधि में।
आत्मसुख मॅवर दुर्निवार है॥७०।।

बड़े बड़े पूज्य - जन जिन्होंने ।
गिना स्वार्थ को सदैव सिकता।
न रोक पाये प्रकृति प्रकृति को।
न त्याग पाये स्वाभाविकता ॥७१॥

चौपदे


मैं अबला हूँ आत्मसुखों की।
प्रबल लालसाये प्रतिदिन आ॥
मुझे सताती रहती हैं जो।
तो इसमें है विचित्रता क्या ॥७२॥

किन्तु सुनो सुत जिस पति-पद की।
पूजा कर मैंने यह जाना ।।
आत्मसुखों से आत्मत्याग । ही।
सुफलद अधिक गया है माना ॥७३॥

सप्तम सर्ग ११३

उसी पूत - पद - पोत सहारे।
विरह - उदधि को पार करूँगी ।
विधु - सुन्दर वर - वदन ध्यान कर ।
सारा अंतर - तिमिर हरूँगी ॥७४।।

सर्वोत्तम साधन है उर मे।
भव - हित पूत - भाव का भरना ॥
स्वाभाविक - सुख - लिप्साओं को।
विश्व - प्रेम में परिणत करना ।।७५।।

दोहा


इतना सुन सौमित्र की दूर हुई दुख - दाह ।
देखा सिय ने सामने सरि - गोमती - प्रवाह ॥७६।।