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वैदेही वनवास/८ आश्रम प्रवेश

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वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ११४ से – १२६ तक

 
अष्टम सर्ग
आश्रम प्रवेश
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तिलोकी

था प्रभात का काल गगन - तल लाल था।
अवनी थी अति-ललित - लालिमा से लसी॥
कानन के हरिताभ - दलों की कालिमा ।
जाती थी अरुणाभ - कसौटी पर कसी ॥१॥

ऊँचे ऊँचे विपुल - शाल - तरु शिर उठा।
गगन - पथिक का पंथ देखते थे अड़े ॥
हिला हिला निज शिखा - पताका - मंजुला।
भक्ति-भाव से कुसुमाञ्जलि ले थे खड़े ॥२॥

कीचक की अति - मधुर - मुरलिका थी बजी।
अहि - समूह बन मत्त उसे था सुन रहा ।।
नर्तन - रत थे मोर अतीव - विमुग्ध हो।
रस - निमित्त अलि कुसुमावलि था चुन रहा ॥३॥

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अष्टम सर्ग

जहाँ तहाँ मृग खड़े स्वभोले नयन से-
समय मनोहर - दृश्य रहे अवलोकते ।।
अलस - भाव से विलस तोड़ते अंग थे।
भरते रहे छलॉग जब कभी चौकते ॥४॥

परम - गहन - वन या गिरी - गह्वर - गर्भ मे ।
भाग भाग कर तिमिर - पुंज था छिप रहा ॥
प्रभा प्रभावित थी प्रभात को कर रही ।
रवि - प्रदीप्त कर से दिशांक था लिप रहा ॥५॥

दिव्य बने थे आलिगन कर अंशु का।
हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस ।।
विहग - वृन्द की केलि - कला कमनीय थी।
उनका स्वागत - गान बडा ही था सरस ॥६॥

शीतल - मंद - समीर वर - सुरभि कर वहन ।
शान्त - तपोवन - आश्रम में था बह रहा ।।
बहु - संयत वन भर भर पावन - भाव से।
प्रकृति कान में शान्ति बात था कह रहा ॥७॥

जो किरणे तरु - उच्च - शिखा पर थी लसी।
ललित - लताओं को अब वे थी चूमती॥
खिले हुए नाना - प्रसून से गले मिल ।
हरित - तृणावलि में हँस हँस थी घूमती ॥८॥

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वैदेही-वनवास

मन्द - मन्द गति से गयंद चल चल कहीं।
प्रिय - कलभों के साथ केलि में लग्न थे॥
मृग - शावक थे सिह - सुअन से खेलते ।
उछल कूद में रत कपि मोद - निमग्न थे ॥९॥

आश्रम - मन्दिर - कलश अन्य-रवि-बिम्ब बन ।
अद्भुत - विभा - विभूति से विलस था रहा।
दिव्य - आयतन मे उसके कढ़ कण्ठ से।
वेद - पाठ स्वर सुधा स्रोत सा था बहा ॥१०॥

प्रात: - कालिक - क्रिया की मची धूम थी।
जन्हु - नन्दिनी के पावनतम - कूल पर ।।
स्नान, ध्यान, वन्दन, आराधन के लिये।
थे एकत्रित हुए सहस्रों नारि - नर ॥११॥

स्तोत्र - पाठ स्तवनादि से ध्वनित थी दिशा।
सामगान से मुखरित सारा - ओक था।
पुण्य - कीर्तनों के अपूर्व - आलाप से।
पावन - आश्रम बना हुआ सुरलोक था ॥१२

हवन क्रिया सर्वत्र सविधि थी हो रही।
बड़ा - शान्त बहु - मोहक - वातावरण था ।।
हुत - द्रव्यों से तपोभूमि सौरभित थी।
मूर्तिमान बन गया सात्विकाचरण था ॥१३॥

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अष्टम सर्ग

विद्यालय का वर - कुटीर या रम्य - थल ।
आश्रम के अन्यान्य - भवन उत्तम बड़े ॥
परम - सादगी के अपूर्व - आधार थे।
कीति - पताका कर में लेकर थे खड़े ॥१४॥

प्रात' - कालिक - दृश्य सबों का दिव्य था।
रवि - किरणे थीं उन्हें दिव्यता दे रही ।
उनके अवलम्बन से सकल - वनस्थली ।
प्रकृति करों से परम - कान्ति थी ले रही ॥१५॥

इसी समय अति - उत्तम एक कुटीर मे।
जो नितान्त - एकान्त - स्थल मे थी बनी।।
थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्र के।
परम - धीर-गति से विदेह की नन्दिनी ॥१६॥

कुछ चल कर ही शान्त - मूर्ति - मुनिवर्या की।
उन्हें दिखाई पड़ी कुशासन पर लसी।
जटा - जूट शिर पर था उन्नत - भाल था।
दिव्य - ज्योति उज्वल - आँखों में थी बसी ॥१७॥

दीर्घ - विलम्बित - श्वेत -उमश्र, मुख - सौम्यता।
थी मानसिक - महत्ता की उद्बोधिनी ।।
शान्त - वृत्ति थी सहृदयता की सूचिका।
थी विपत्ति - निपतित की सतत प्रबोधिनी ।।१८।।

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वैदेही-वनवास

देख जनक - नन्दिनी सुमित्रा - सुअन को।
वंदन करते मुनि ने अभिनन्दन किया।
सादर स्वागत के बहु - सुन्दर - वचन कह ।
प्रेम के सहित उनको उचितासन दिया ।।१९।।

बहुत - विनय से कहा सुमित्रा - तनय ते ।
आर्या का जिस हेतु से हुआ आगमन ।।
ऋपिवर को वे सारी बाते ज्ञात हैं।
स्वाभाविक होते कृपालु हैं पुण्य - जन ॥२०॥

पुण्याश्रम का वास धर्म - पथ का ग्रहण ।
परम - पुनीत - प्रथा का पालन शुद्ध - मन ।।
क्यों न बनेगा सकल - सिद्धि प्रद वहु फलद ।
महा - महिम का नियमन - रक्षण - संयमन ॥२१॥

है मेरा विश्वास अनुष्ठित - कृत्य यह ।
होगा रघुकुल - कलस के लिए कीर्तिकर ।।
करेगा उसे अधिक गौरवित विश्व में।
विशद - वंश को उज्वल - रत्न प्रदान कर ॥२२॥

मुनि ने कहा वशिष्ठ देव के पत्र से।
सब बाते हैं मुझे ज्ञात, यह सत्य है -
लोक तथा परलोक - नयन आलोक है।
भव - सागर मे पोत समान अपत्य है ।।२३।।

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अष्टम सर्ग

वंश - वृद्धि, प्रतिपालन - प्रिय - परिवार का।
वर्द्धन कुल की कीर्ति कर विशद - साधना ।।
मानव वन करना मानवता अर्चना ।
है सत्संतति कर्म, लोक - आराधना ॥२४॥

ऐसा ही सुत सकल - जगत है चाहता।
किन्तु अधिक वांछित है नृपकुल के लिये ।।
क्योंकि नृपति वास्तव मे होता है नृपति ।
वही धरा को रहता है धारण किये ॥२५॥

इसीलिये कुछ धर्म, प्राण, नृपकुल - तिलक ।
गर्भवती' निज प्रिय - पत्नी को समय पर ।।
कुलपति आश्रम में प्रायः है भेजते ।
सव - लोक - हित - रत हो जिससे वंशधर ।।२६।।

रघुकुल - रंजन के अति - उत्तम - कार्य का।
अनुमोदन करता हूँ सच्चे - हृदय से ।
कहियेगा नृप - पुंगव से यह कृपा कर।
सब कुछ होता सांग रहेगा समय से ॥२७॥

पुत्रि जनकजे ! मैं कृतार्थ हो गया हूँ।
आप कृपा करके यदि आई हैं यहाँ ।।
वे थल भी हैं अब पावन - थल हो गये।
आपका परम - शुचि - पग पड़ पाया जहाँ ॥२८॥

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वैदेही-वनवास

आप मानवी हैं तो देवी कौन है।
महा - दिव्यता किसे कहाँ ऐसी मिली ।।
पातिव्रत अति पूत सरोवर अंक में।
कौन पति - रता - पंकजिनी ऐसी खिली ॥२९॥

पति - देवता कहाँ किसको ऐसी मिली।
प्रेम से भरा ऐसा हृदय न और है।
पति - गत प्राणा ऐसी हुई न दूसरी ।
कौन धरा की सतियों की सिरमौर है॥३०॥

किसी चक्रवर्ती की पत्नी आप हैं।
या लालित हैं महामना मिथिलेश की।
इस विचार से हैं न पूजिता वंदिता।
आप अर्चिता हैं अलौकिकादर्श से ॥३१॥

रत्न - जटित - हिन्दोल में पली आप थी।
प्यारी - पुत्तलिका थी मैना हगों की ।।
मिथिलाधिप - कर - कमलों से थी लालिता।
कुसुम से अधिक कोमलता थी पगों की ॥३२॥

कनक - रचित महलों में रहती थी सदा ।
चमर दुला करता था प्रायः शीश पर ।।
कुसुम - सेज थी दुग्ध - फेन - निभ - आस्तरण ।
थी विभूतियाँ अलकाधिपति - विमुग्धकर ॥३३॥

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अष्टम सर्ग

मुख अवलोकन करती रहती थी सदा ।
कौशल्या देवी तन मन, धन, वार कर ॥
सव प्रकार के भव के सुख, कर - बद्ध हो ।
खड़े सामने रहते थे आठो पहर ॥३४॥

किन्तु देखकर जीवन - धन का वन - गमन ।
आप भी बनी सब तज कर वन - वासिनी ॥
एक दो नहीं चौदह सालों तक रहीं।
प्रेम - निकेतन पति के साथ प्रवासिनी ॥३५॥

वन जाती थीं सकल भीतियाँ भूतियाँ।
कानन मे आपदा सम्पदा सी सदा ।।
आपके लिये प्रियतम प्रेम - प्रभाव से।
वनती थीं सुखदा कुवस्तुये दुखदा ॥३६।।

पट्ट - वस्त्र बन जाता था वल्कल - वसन ।
साग पात में मिलता व्यजन स्वाद था।
कान्त साथ तृण - निर्मित साधारण उटज ।
बहु - प्रसाद पूरित बनता प्रासाद था ।।३७।।

शीतल होता तप - ऋतु का उत्ताप था।
लू लपटे बन जाती थीं प्रात - पवन ।।
बनती थी पति साथ सेज सी साथरी।
सारे कॉटे होते थे सुन्दर सुमन ॥३८॥

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वैदेही-वनवास

जीवन भर में छ महीने ही हुआ है।
पति - वियोग उस समय जिस समय आपको।
हरण किया था पामर - लंकाधिपति ने।
कर सहस्र - गुण पृथ्वी तल के पाप को ॥३९।।

किन्तु यह समय ही वह अद्भुत समय था।
हुई जिस समय ज्ञात महत्ता आपकी ॥
प्रकृति ने महा - निमम बनकर जिस समय ।
आपके महत - पातिव्रत की माप की ॥४०॥

वह रावण जिससे भूतल था कॉपता।
एक वदन होते भी जो दश - वदन था।
हो द्विबाहु जो विशति बाहु कहा गया ।
धृति शिर पर जो प्रबल वज्र का पतन था ॥४१॥

महा - घोर गर्जन तर्जन प्रतिवार कर।
दिखा दिखा करवाले विद्युद्दाम सी॥
कर कर कुत्सित रीति कदर्य प्रवृत्ति से।
लोक प्रकम्पित करी क्रियायें तामसी ॥४२।।

रख त्रिलोक की भूति प्रायशः सामने ।
राज्य - विभव को चढ़ा चढ़ा पद पद्म पर ।।
न तो विकम्पित कभी कर सका आपको ।
न तो कर सका वशीभूत वहु मुग्ध कर ॥४३॥'

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जिसकी परिखा रहा अगाध उदधि बना।
जिसका रक्षक स्वर्ग - विजेता - वीर था । '
जिसमे रहते थे दानव - कुल - अग्रणी ।
जिसका कुलिशोपम अभेद्य - प्राचीर था ॥४४॥

जिसे देख कम्पित होते दिग्पाल थे।
पचभूत जिसमे रहते भयभीत थे।
कॅपते थे जिसमे प्रवेश करते त्रिदश।
जहाँ प्रकृत - हित पशुता में उपनीत थे।।४५।।

उस लका में एक तरु तले आपने ।
कितनी अधियाली राते दी हैं बिता ।।
अकली नाना दानबियों के बीच में ।
बहुशः - उत्पातों से हो हो शंकिता ॥४६॥

कितनी फैला बदन निगलना चाहती।
कितनी वन विकराल बनाती चिन्तिता ।।
ज्वालाये मुख से निकाल ऑखे चढ़ा।
कितनी करती रहती थीं आतंकिता ॥४७॥

कितनी दॉतो को निकाल कटकटा कर ।
लेलिहान - जिह्वा दिखला थीं कूदती ।।
कितनी कर वीभत्स - काण्ड थीं नाचती।
आप देख जिसको ऑखे थी मूंदती ॥४८॥

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वैदेही-वनवास

आस पास दानव - गण करते शोर थे।
कर दानवी - दुरन्त - क्रिया की पूर्तियाँ ।।
रहे फेकते लूक सैकड़ों सामने ।
दिखा दिखा कर बहु - भयंकरी - मूर्तियाँ ।।४९।।

इन उपद्रवो उत्पातों का सामना ।
आपका सवलतम सतीत्व था कर रहा ।।
हुई अन्त में सती - महत्ता विजयिनी ।
लंकाधिप - वध - वृत्त लोक - मुख ने कहा ॥५०॥

पुत्रि आपकी शक्ति महत्ता विज्ञता।
धृति उदारता सहृदयता बढ़- चित्तता ।।
मुझे ज्ञात है किन्तु प्राण - पति प्रेम की ।
परम - प्रबलता तदीयता एकान्तता ।।५१।।

ऐसी है भवदीय कि मैं संदिग्ध हूँ।
क्यों वियोग - वासर व्यतीत हो सकेगे।
किन्तु कराती है प्रतीति धृति आपकी ।
अंक कीर्ति के समय - पत्र पर अकेंगे ॥५२।।

जो पति प्राणा है पति - इच्छा पूर्ति तो।।
क्या न प्राणपण से बह करती रहेगी।
यदि वह है संतान - विपयिणी क्यो न तो।
प्रेम - जन्य - पीड़ा संयत बन सहगी ।।५३।।

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अष्टम सर्ग

देख रहा हूँ मैं पति की चर्चा चले।
वारि हगों में बार बार आता रहा ।।
किन्तु मान धृति का निदेश पीछे हटा।
आगे बढ़कर नही धार बनकर बहा ॥५४॥

है मुझको विश्वास गर्भ - कालिक नियम ।
प्रति दिन प्रतिपालित होंगे संयमित रह ।।
होगा जो सर्वस्व अलौकिक - खानि का।
रघुकुल - पुंगव लाभ करेगे रत्न वह ॥५५।।

इतनी बाते कह मुनि पुंगव ने बुला।
तपस्विनी आश्रम - अधीश्वरी से कहा ।।
आश्रम मे श्रीमती जनक - नन्दिनी को।
आप लिवा ले जायँ कर समादर - महा ॥५६।।

जो कुटीर या भवन अधिक उपयुक्त हो।
जिसको स्वयं महारानी स्वीकृत करे ॥
उन्हें उसी में कर सुविधा ठहराइये।
जिसके दृश्य प्रफुल्ल - भाव उर मे भरे ॥५७।।

यह सुन लक्ष्मण से विदेहजा ने कहा ।
तुमने मुनिवर की दयालुता देख ली।
अत चले जाओ अव तुम भी, और मैं-
तपस्विनी आश्रम से जाती हूँ चली ॥५८।

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वैदेही-वनवास

प्रिय से यह कहना महान - उद्देश्य से।
अति पुनित - आश्रम में है उपनीत - तन ।
किन्तु प्राण पति पद - सरोज का सर्वदा ।
बना रहेगा मधुप सेविका मुग्ध - मन ॥५९॥

मेरी अनुपस्थिति में प्राणाधार को।
विविध - असुविधाये होंवेंगी इसलिये ।।
इधर तुम्हारी दृष्टि अपेक्षित है अधिक ।
सारे सुख कानन में तुमने हैं दिये ॥६०॥

यद्यपि तुम प्रियतम के सुख - सर्वस्व हो ।
स्वयं सभी समुचित सेवाये करोगे।
किन्तु नहीं जी माना इससे की विनय ।
स्नेह - भाव से ही आशा है भरोगे ॥६१॥

सुन विदेहजा - कथन सुमित्रा - सुअन ने।
अश्रु - पूर्ण - हग से आज्ञा स्वीकार की।
फिर सादर कर मुनि - पद सिय - पग वन्दना।
अवध - प्रयाण - निमित्त प्रेम से विदा ली ॥६२।।

दोहा


कर मुनिवर की वन्दना रख विभूति - विश्वास ।
जाकर आश्रम में किया जनक-सुता ने वास ॥६३॥