संग्राम/१.२

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २४ ]



दूसरा दृश्य

(सबलसिंह अपने सजे हुए दीवानखानेमें उदास बैठे हैं।
हाथमें एक समाचारपत्र है, पर उनकी आँखें
दरवाजेके सामने बाग़की तरफ
लगी हुई है।)

सबलसिंह––(आप ही आप) देहातमें पंचायतोंका होना ज़रूरी है। सरकारी अदालतों का खर्च इतना बढ़ गया है कि कोई गरीब आदमी वहाँ न्यायके लिये जा ही नहीं सकता। जरासी भी कोई बात कहनी हो तो स्टाम्पके बग़ैर काम नहीं चल सकता।......उसका कितना सुडौल शरीर है, ऐसा जान पड़ता है कि एक एक अंग साँचे में ढला है। रंग कितना प्यारा है, न इतना गोरा कि आंखोंको बुरा लगे, न इतना सांवला.........होगा मुझे इससे क्या मतलब। वह पराई स्त्री है, मुझे उसके रूपलावण्यसे क्या वास्ता। संसारमें एकसे एक सुन्दर स्त्रियां हैं, कुछ यही एक थोड़ी है! ज्ञानी उससे किसी बातमें [ २५ ] कम नहीं, कितनी सरलहृदया, कितनी मधुरभाषिणी रमणी है। अगर मेरा जरासा इशारा हो तो भागमें कूद पड़े। मुझपर उसकी कितनी भक्ति, कितना प्रेम है। कभी सिरमें दर्द भी होता है तो बावली हो जाती है। अब उधर मन को जाने ही न दूंँगा।

(कुर्सीसे उठकर अलमारीसे एक ग्रन्थ निकालते हैं, उसके दो चार पन्ने इधर-उधरसे उलटकर पुस्तकको मेज़पर रख देते हैं और फिर कुर्सीपर जा बैठते हैं। अचलसिंह हाथमें एक हवाई बन्दूक लिये दौड़ा आता है।)

अचल––दादाजी, शाम हो गई। आज घूमने न चलियेगा?

सबल––नहीं बेटा! आज तो जानेका जी नहीं चाहता। तुम गाड़ी जुतवा लो। यह बन्दुक कहाँ पाई?

अचल––इनाममें। मैं दौड़ने में सबसे अव्वल निकला। मेरे साथ कोई २५ लड़के दौड़े थे। कोई कहता था मैं बाज़ी मारूँगा, कोई अपनी डींग मार रहा था। जब दौड़ हुई तो मैं सबसे आगे निकला , कोई मेरे गर्दको भी न पहुँचा, अपनासा मुँह लेकर रह गये। इस बन्दूकसे चाहूँ तो चिड़िया मार लूँ।

सबल––मगर चिड़ियों का शिकार न खेलना।

अचल––जी नहीं, योंही बात कहता था। विचारी चिड़ियोंने मेरा क्या बिगाड़ा है कि सनकी जान लेता फिरूं। मगर जो [ २६ ]चिड़ियां दूसरी चिड़ियोंका शिकार करती हैं उनके मारनेमें तो कोई पाप नहीं है।

सबल—(असमञ्जसमें पड़कर) मेरी समझमें तो तुम्हें शिकारी चिड़ियोंको भी न मारना चाहिये। चिड़ियों में कर्म अकर्मका ज्ञान नहीं होता। वह जो कुछ करती हैं केवल स्वभाव वश करती हैं, इसलिये वह दण्डकी भागी नहीं हो सकतीं।

अचल—कुत्ता कोई चीज़ चुरा ले जाता है तो क्या जानता नहीं कि मैं बुरा कर रहा हूं। चुपके चुपके, पैर दबाकर, इधर उधर चौकन्नी आंखोंसे ताकता हुआ जाता है, और किसी आदमीकी आहट पाते ही भाग खड़ा होता है। कौवेका भी यही हाल है। इससे तो मालूम होता है कि पशु-पक्षियों को भी भले बुरेका ज्ञान होता है; तो फिर इनको दण्ड क्यों न दिया जाय?

सबल—अगर ऐसा ही हो तो हमें उनको दण्ड देनेका क्या अधिकार है? हालांकि इस विषयमें हम कुछ नहीं कह सकते कि शिकारी चिड़ियों में वह ज्ञान होता है जो कुत्ते या कौवेमें है या नहीं।

अचल—अगर हमें पशु-पक्षी चोरोंको दण्ड देनेका अधिकार नहीं है तो मनुष्यमें चोरोंको क्यों ताड़ना दी जाती है। वह जैसा करेंगे उसका फल आप पायेंगे, हम क्यों उन्हें दण्ड दें?

सबल—(मनमें) लड़का है तो नन्हासा बालक मगर तर्क [ २७ ]खूब करता है। (प्रगट) बेटा! इस विषयमें हमारे प्राचीन ऋषियोंने बड़ी मार्मिक व्यवस्थाएं की हैं, अभी तुम न समझ सकोगे। जाओ सैर कर आओ, ओवरकोट पहन लेना, नहीं तो सरदी लग जायगी।

अचल—मुझे वहाँ कब ले चलियेगा जहां आप कल भोजन करने गये थे। मैं भी राजेश्वरीके हाथका बनाया हुआ खाना खाना चाहता हूँ। आप चुपकेसे चले गये, मुझे बुलायातक नहीं। मेरा तो जी चाहता है कि नित्य गांव ही में रहता। खेतों में घूमा करता।

सबल—अच्छा अब जब वहां जाऊंगा तो तुम्हें भी साथ ले लूंगा।

(अचलसिंह चला जाता है।)

सबल—(आप ही आप) लेखका दूसरा Point क्या होगा? अदालतें सबलोंके अन्यायकी पोषक हैं। जहां रुपयों के द्वारा फरियाद की जाती हो, जहां वकीलों, बारिस्टरों के मुंहसे बात की जाती हो, वहां गरीबों की कहां पैठ। यह अदालत नहीं, न्यायकी बलिवेदी है। जिस किसी राज्यकी अदालतोंका यह हाल हो……जब वह थाली परसकर मेरे सामने लाई तो मुझे ऐसा मालूम होता था जैसे कोई मेरे हृदयको खींच रहा हो। मगर उससे मेरा स्पर्श हो जाता तो शायद मैं मूर्च्छित हो जाता। [ २८ ]किसी उर्दू कविके शब्दोंमें "यौवन फटा पड़ता था।" कितना कोमल गीत है, न जाने खेतों में कैसे इतनी मिहनत करती है। नहीं यह बात नहीं। खेतों में काम करनेही से उसका चम्पई रंग निखरकर कुन्दन हो गया है। वायु और प्रकाशने उसके सौन्दर्यको चमका दिया है। सच कहा है हुस्न के लिये गहनोंकी आवश्यकता नहीं। उसके शरीरपर कोई आभूषण न था, किन्तु सादगी आभूषणोंसे कहीं ज्यादा मनोहारिणी थी। गहने सौन्दर्यकी शोभा क्या बढ़ायेंगे, स्वयं अपनी शोभा बढ़ाते हैं। उस सादे व्यंजन में कितना स्वाद था? रूपलावण्यने भोजन को भी स्वादिष्ट बना दिया था। मन फिर उधर गया, यह मुझे हो क्या गया है। यह मेरी युवावस्था नहीं है कि किसी सुन्दरी को देखकर लट्टू हो जाऊँ, अपना प्रेम हथेलीपर लिये प्रत्येक सुन्दरी स्त्रीकी भेंट करता फिरूं। मेरी प्रौढ़ावस्था है, ३५ वें वर्ष में हूँ। एक लड़के का बाप हूँ जो ६, ७, वर्षों में जवान होगा। ईश्वरने दिये होते तो ४, ५, सन्तानोंका पिता हो सकता था। यह लोलुपता है, छिछोरापन है। इस अवस्थामें, इतना विचारशील होकर भी मैं इतना मलिन-हृदय हो रहा हूं। किशोरावस्थामें तो मैं आत्मशुद्धिपर जान देता था, फूँक फूँककर क़दम रखता था, आदर्श जीवन व्यतीत करता था और इस अवस्थामें जब मुझे आत्मचिन्तनमें मग्न होना चाहिये, मेरे सिरपर यह [ २९ ]भूत सवार हुआ है। क्या यह मुझसे उस समयके संयमका बदला लिया जा रहा है, अब मेरी परीक्षा की जा रही है!

(ज्ञानी का प्रवेश)

ज्ञानी—तुम्हारी यह सब किताबें कहीं छुपा दूँ। जब देखो तब एक न एक पोथा खोले बैठे रहते हो। दर्शनतक नहीं होते।

सबल—तुम्हारा अपराधी मैं हूँ, जो दण्ड चाहे दो। यह बिचारी पुस्तकें बेक़सूर हैं।

ज्ञानी—गुलबिया आज बग़ीचेकी तरफ़ गई थी। कहती थी, आज वहां कोई महात्मा आये हैं। सैकड़ों आदमी उनके दर्शनोंको जा रहे हैं। मेरी भी इच्छा हो रही है कि जाकर दर्शन कर आऊँ।

सबल—पहले मैं जाकर ज़रा उनके रंग-ढंग देख लूँ तो फिर तुम जाना। गेरुए कपड़े पहनकर महात्मा कहलानेवाले बहुत हैं।

ज्ञानी—तुम तो आकर यही कह दोगे कि वह बना हुआ है, पाखण्डी है, धूर्त्त है, उसके पास न जाना। तुम्हें न जाने क्यों महात्माओंसे चिढ़ है।

सबल—इसीलिये चिढ़ है कि मुझे कोई सच्चा साधु नहीं दिखाई देता।

ज्ञानी—इनकी मैंने बड़ी प्रशंसा सुनी है। गुलाबी कहती [ ३० ]थी कि उनका सुंह दीपककी तरह दमक रहा था। सैकड़ों आदमी घेरे हुए थे पर वह किसीसे बाततक न करते थे।

सबल—इससे यह तो साबित नहीं होता कि वह कोई सिद्ध पुरुष हैं। अशिष्टता महात्माओं का लक्षण नहीं है।

ज्ञानी—खोजमें रहनेवाले को कभी-कभी सिद्ध पुरुष भी मिल जाते हैं। जिसमें श्रद्धा नहीं है उसे कभी किसी महात्मा से साक्षात् नहीं हो सकता। तुम्हें सन्तानकी लालसा न हो पर मुझे तो है। दूध-पूतसे किसीका मन भरते आजतक नहीं सुना।

सबल—अगर साधुओंके आशीर्वादसे सन्तान मिल सकती तो आज संसारमें कोई निस्सन्तान प्राणी खोजनेसे भी न मिलता। तुम्हें भगवानने एक पुत्र दिया है। उनसे यही याचना करो कि उसे कुशलसे रखें। हमें अपना जीवन अब सेवा और परोपकारकी भेंट करना चाहिये।

ज्ञानी—(चिढ़कर) तुम ऐसी निर्दयतासे बातें करने लगते हो इसीसे कभी इच्छा नहीं होती कि तुमसे अपने मनकी कोई बात कहूँ। लो, अपनी किताबें पढ़ो जिनमें तुम्हारी जान बसती है, जाती हूँ।

सबल—बस रुठ गईं। चित्रकारों ने क्रोधकी बड़ी भयंकर कल्पना की है पर मेरे अनुभवसे यह सिद्ध होता है कि सौन्दर्य क्रोधहीका रूपान्तर है। कितना अनर्थ है कि ऐसी मोहिनी [ ३१ ]
मूर्तिको इतना विकराल स्वरूप दे दिया जाय?

ज्ञानी―(मुसुकुराकर) नमक-मिर्च लगाना कोई तुमसे सीख ले। मुझे भोली पाकर बातोंमें उड़ा देते हो। लेकिन आज मैं न मानूंगी।

सबल―ऐसी जल्दी क्या है? मैं स्वामीजीको यहीं बुला लाऊँगा, खूब जी भरकर दर्शन कर लेना। वहां बहुतसे आदमी जमा होंगे, उनसे बातें करने का भी अवसर न मिलेगा। देखने वाले हंसी उड़ायेंगे कि पति तो साहब बना फिरता है और स्त्री साधुओंके पीछे दौड़ा करती है।

ज्ञानी―अच्छा तो कब बुला दोगे?

सबल―कलपर रखो।

(ज्ञानी चली जाती है)

सबलसिंह―(आपही आप)सन्तानकी क्यों इतनी लालसा होती है? जिसके सन्तान नहीं है वह अपनेको अभागा समझता है, अहर्निश इसी क्षोभ और चिन्तामें डूबा रहता है। यदि यह लालसा इतनी व्यापक न होती तो आज हमारा धार्मिक जीवन कितना शिथिल, कितना नीरव होता। न तीर्थ-यात्राओं की इतनी धूम होती, न मन्दिरोंकी इतनी रौनक, न देवताओंमें इतनी भक्ति, न साधु-महात्माओंपर इतनी श्रद्धा, न दान और व्रतकी इतनी धूम। यह सब कुछ सन्तान-लालसा का ही
[ ३२ ]
चमत्कार है। खैर, कल चलूँगा, देखूँ इन स्वामीजी के क्या रंग ढंग हैं।............अदालतों की बात सोच रहा था। यह आक्षेप किया जाता है कि पंचायतें यथार्थ न्याय न कर सकेंगी, पंच लोग मुँहदेखी करेंगे और वहाँ भी सबलोंकी ही जीत होगी। इसका निवारण यों हो सकता है कि स्थायी पंच न रखे जायँ। जब जरूरत हो दोनों पक्षोंके लोग अपने-अपने पंचोंको नियत कर दें।......किसानोंमें भी ऐसी कामिनियां होती हैं, यह मुझे न मालूम था। यह निस्सन्देह किसी उच्च कुलकी लड़की है। किसी कारणवश इस दुरावस्थामें आ फँसी है। विधाताने इस अवस्थामें रखकर उसके साथ अत्याचार किया है। उसके कोमल हाथ खेतोंमें कुदाल चलाने के लिये नहीं बनाये गये हैं, उसकी मधुरवाणी खेतोंमें कौवे हाँकनेके लिये उपयुक्त नहीं है, जिन केशोंसे झूमरका भार भी न सहा जाय उसपर उपले और अनाजके टोकरे रखना महान अनर्थ है, मायाकी विषम लीला है, भाग्यका क्रूर रहस्य है। वह अबला है, विवश है, किसीसे अपने हृदयकी व्यथा कह नहीं सकती। अगर मुझे मालूम हो जाय कि वह इस हालतमें सुखी है, तो मुझे संतोष हो जायगा। पर यह कैसे मालूम हो। कुलवती स्त्रियां अपनी विपत्ति कथा नहीं कहतीं, भीतर ही भीतर जलती हैं पर जबानसे हाय नहीं करतीं।.........मैं फिर उसी उधेड़-बुनमें पड़ गया। समझमें
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नहीं आता मेरे चित्तकी यह दशा क्यों हो रही है। अबतक मेरा मन कभी इतना चंचल नहीं हुआ था। मेरे युवाकालके सह वासीतक मेरी अरसिकतापर आश्चर्य करते थे। अगर मेरी इस लोलुपताकी जरा भी भनक उनके कान में पड़ जाय तो मैं कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूँ। यह आग मेरे हृदयमें ही जले, और चाहे हृदय जलकर राख हो जाय पर उसकी कराह किसीके कानमें न पड़ेगी। ईश्वरकी इच्छाके बिना कुछ नहीं होता। यह प्रेमज्योति उद्दीप्त करने में भी उसकी कोई न कोई मसलहत जरूर होगी।

(घंटी बजाता है)

एक नौकर―हजूर हुकुम?

सबल―घोड़ा खींचो।

नौकर―बहुत अच्छा।