संग्राम/१.३

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

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तृतीय दृश्य

समय-८ बजे दिन, स्थान-सबलसिंहका मकान-कंचनसिंह

अपनी सजी हुई बैठकमें दुशाला ओढ़े, आंखोपर सुनहरी
ऐनक चढ़ाये मसनद लगाये बैठे है, मुनीमजी बहीमें

कुछ लिख रहे हैं।

कञ्चन―"समस्या यह है कि सूदका दर कैसे घटाया जाय। भाई साहब मुझसे नित्य ताकीद किया करते हैं कि सूद कम लिया करो। किसानोंकी ही सहायताके लिये उन्होंने मुझे इस कारोबार में लगाया। उनका मुख्य उद्देश्य यही है। पर तुम जानते हो धनके बिना धर्म नहीं होता। इलाकेकी आमदनी घरके जरूरी खर्चके लिये भी काफी नहीं होती। भाई साहबने किफ़ायतका पाठ नहीं पढ़ा। उनके हजारों रुपये साल तो केवल अधिकारियोंके सत्कार की भेंट हो जाते हैं। घुड़दौड़ और पोलो और क्लबके लिये धन चाहिये। मगर उनके आसरे रहूँ तो सैकड़ों रुपये जो मैं स्वयं साधुजनोंके अतिथि-सेवामें
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खर्च करता हूँ कहांसे आये।"

मुनीम―वे बुद्धिमान पुरुष हैं पर न जाने वे फजूल खर्ची क्यों करते हैं?

कञ्चन―मुझे बड़ी लालसा है कि एक विशाल धर्मशाला बनवाऊँ। उसके लिये धन कहांसे आयेगा? भाई साहबके आज्ञानुसार नाममात्रके लिये ब्याज लूँ तो मेरी यह सब काम-नाए धरी ही रह जायें। मैं अपने भोग विलासके लिये धन नहीं बटोरना चाहता, केवल परोपकार के लिये चाहता हूँ। कितने दिनोंसे इरादा कर रहा हूँ कि एक सुन्दर वाचनालय खोल दूँ। पर पर्याप्त धन नहीं। यूरोपमें केवल एक दानवीरने हजारों वाचनालय खोल दिये हैं। मेरा हौसला इतना बड़ा तो नहीं पर कमसे कम एक उत्तम वाचनालय खोलनेकी अवश्य इच्छा है। सूद न लूँ तो मनोरथ पूरे होने के और क्या साधन हैं? इसके अतिरिक्त यह भी तो देखना चाहिये कि मेरे कितने रुपये मारे जाते हैं। जब असामीके पास कुछ जायदाद ही न हो तो रुपये कहांसे वसूल हों। यदि यह नियम कर लूँ कि बिना अच्छी जमानतके किसीको रुपये ही न दूँगा तो गरीबोंका काम कैसे चलेगा। अगर गरीबोंसे व्यवहार न करूँ तो अपना काम नहीं चलता। यह बिचारे रुपये चुका तो देते हैं। मोटे आदमियोंसे लेन-देन कीजिये तो अदालत गये बिना कौड़ी नहीं
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वसूल होती।

(हलधरका प्रवेश)

कञ्चन―कहो हलधर, कैसे चले?

हलधर―कुछ नहीं सरकार, सलाम करने चला आया।

कञ्चन―किसान लोग बिना किसी प्रयोजनके सलाम करते नहीं चलते। फारसी कहावत है-सलामे दोस्ताई बेरारज़ नेस्त।

हलधर―आप तो जानते ही हैं फिर पूछते क्यों हैं? कुछ रुपयोंका काम था।

कंचन―तुम्हें किसी पण्डितसे साइत पूछकर चलना चाहिये था। यहां आजकल रुपयोंका डौल नहीं है। क्या करोगे रुपये लेकर?

हलधर―काकाकी बरसी होनेवाली है। और भी कई काम हैं।

कंचन―स्त्रीके लिये गहने भी बनवाने होंगे?

हलधर―(हंसकर) सरकार आप तो मनकी बात ताड़ लेते हैं।

कंचन―तुम लोगोंके मनकी बात जान लेना ऐसा कोई कठिन काम नहीं, केवल खेती अच्छी होनी चाहिये। यह फसल अच्छी है, तुम लोगों को रुपयेकी जरूरत होनी स्वाभाविक है। किसानने खेतमें पौधे लहराते हुए देखे और उसके पेटमें चूहे
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कूदन लगे, नहीं तो ऋण लेकर बरसी करने या गहने बनवाने का क्या काम, इतना सब नहीं होता कि अनाज घरमें आ जाय तो यह सब मंसूबे बांधे। मुझे रुपयोंका सूद दोगे, लिखाई दोगे, नजराना दोगे, मुनीमजीकी दस्तुरी दोगे, दसके आठ लेकर घर जाओगे, लेकिन यह नहीं होता कि महीने दो महीने रुक जायं। तुम्हें तो इस घड़ी रुपयेकी धुन है, कितना ही सम- झाऊँ, ऊंच-नीच सुझाऊं मगर कभी न मानोगे। रुपये न दूं तो मनमें गालियां दोगे और किसी दूसरे महाजनकी चिरौरी करोगे।

हलधर―नहीं सरकार यह बात नहीं है, मुझे सचमुच ही बड़ी जरूरत है।

कंचन―हां हां तुम्हारी जरूरतमें किसे सन्देह है, जरूरत न होती तो यहां आते ही क्यों, लेकिन यह ऐसी जरूरत है जो टल सकती है, मैं इसे जरूरत नहीं कहता, इसका नाम ताव है जो खेतीका रंग देखकर सिरपर सवार हो गया है।

हलधर―आप मालिक हैं जो चाहें कहें। रुपयोंके बिना मेरा काम न चलेगा। बरसीमें भोज-भात देना ही पड़ेगा, गहना पाती बनवाये बिना बिरादरीमें बदनामी होती है, नहीं तो क्या इतना मैं नहीं जानता कि कर लेनेसे भरम उठ जाता है। करज करेजेकी चीर है। आप तो मेरी भलाई के लिये इतना
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समझा रहे हैं, पर मैं बड़ा संकटमें हूं।

कंचन―मेरी रोकड़ उससे भी ज्यादा संकटमें है। तुम्हारे लिये बङ्कघरसे रुपये निकालने पड़ेंगे। कोई और होता तो मैं उसे सूखा जवाब देता लेकिन तुम मेरे पुराने असामी हो तुम्हारे बापसे भी मेरा व्यवहार था, इसलिये तुम्हें निराश नहीं करना चाहता। मगर अभीसे जताये देता हूं कि जेठीमें सब रुपया सूद समेत चुकाना पड़ेगा। कितने रुपये चाहते हो?

हलधर―सरकार २००) दिला दें।

कंचन―अच्छी बात है, मुनीमजी लिखा-पढ़ी करके रुपये दे दीजिये। मैं पूजा करने जाता हूं।

(जाता है।)

मुनीम―तो तुम्हें २००) चाहिये न। पहले ५) सैकड़े नज़राना लगता था। अब १०) सैकड़े हो गया है।

हलधर―जैसी मरजी।

मुनीम―पहले २) सैकड़े लिखाई पड़ती थी, अब ४) सैकड़े हो गई है।

हलधर―जैसा सरकारका हुकुम।

मुनीम―स्टाम्पके ५) लगेंगे।

हलधर―सही है।

मुनीम―चपरासियोंका हक़ २) होगा। [ ३९ ]हलधर―जो हुकुम।

मुनीम―मेरी दस्तूरी भी ५) होती है, लेकिन तुम गरीब आदमी हो, तुमसे ४) ले लूँगा! जानते ही हो मुझे यहाँसे कोई तलब को मिलती नहीं, बस इसी दस्तूरीका भरोसा है।

हलधर―बड़ी दया है।

मुनीम―१) ठाकुरजीको चढ़ाना होगा।

हलधर―चढ़ा दीजिये। ठाकुर तो सभीके हैं।

मुनीम―और १) ठकुराइनके पानका खर्च।

हलधर―ले लीजिये। सुना है गरीबोंपर बड़ी दया करती हैं।

मुनीम―कुछ पढ़े हो?

हलधर―नहीं महाराज; करिया अच्छर भैंस बराबर है।

मुनीम―तो इस इस्टामपर बायें अंगूठे का निशान करो।

(सादे स्टाम्पपर निशान बनवाता है।)

मुनीम―(सन्दूकसे रुपये निकालकर) गिन लो।

हलधर―ठीक ही होगा।

मुनीम―चौखटपर जाकर तीन बार सलाम करो और घर-की राह लो।

(हलधर रुपये अंगोछेमें बाधता हुआ जाता है। कञ्चनसिंहका प्रवेश।)

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मुनीम―ज़रा भी कान-पूछ नहीं हिलाई।

कंजन―इन मूर्खों पर ताव सवार होता है तो इन्हें कुछ नहीं सूझता, आँखोंपर परदा पड़ जाता है। इनपर दया आती है पर करूं क्या? धन के बिना धर्म भी तो नहीं होता।