संग्राम/१.५

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ४९ ]


पांचवां दृश्य
(प्रातःकाल का समय राजेश्वरी अपनी गायको रेवड़में
ले जा रही है। सबलसिहसे मुठभेड़)

सबल--आज तीन दिनसे मेरे चन्द्रमा बहुत बलवान हैं। रोज एक बार तुम्हारे दर्शन हो जाते हैं। मगर आज मैं केवल देवीके दर्शनोंहीसे संतुष्ट न हूँगा। कुछ वरदान भी लूंगा।

(राजेश्वरी असमञ्जसमें पड़कर इधर उधर ताकती है और
सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है।)

सबल--देवी, अपने उपासकोंसे यों नहीं लजाया करतीं। उन्हें धीरज देती हैं, उनकी दुःख कथा सुनती हैं, उनपर दयाकी दृष्टि फेरती हैं। राजेश्वरी, मैं भगवानको साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितनी श्रद्धा और प्रेम है उतना किसी उपासक- को अपनी इष्ट देवीसे भी न होगा। मैंने जिस दिनसे तुम्हें देखा है उसी दिनसे अपने हृदय-मन्दिरमें तुम्हारी पूजा करने लगा हूं। क्या मुझपर जरा भी दया न करोगी? [ ५० ]राजेश्वरी—दया आपकी चाहिये आप हमारे ठाकुर हैं। मैं तो आपकी चेरी हूँ। अब मैं जाती हूँ। गाय किसीके खेतमें पैठ जायगी। कोई देख लेगा तो अपने मनमें न जाने क्या कहेगा।

सबल—तीनों तरफ अरहर और ऊखके खेत हैं, कोई नहीं देख सकता। मैं इतनी जल्द तुम्हें न जाने दूंगा। आज महीनोंके बाद मुझे वह सुअवसर मिला है, बिना बरदान लिये न छोड़ूंगा। पहले यह बतलाओ कि इस काक मण्डली में तुम जैसी हंसनी क्यों कर आ पड़ी? तुम्हारे माता पिता क्या करते हैं?

राजे°—यह कहानी कहने लगूंगी तो बड़ी देर हो जायगी। मुझे यहां कोई देख लेगा तो अनर्थ हो जायगा।

सबल—तुम्हारे पिता भी खेती करते हैं?

राजे°—पहले बहुत दिनोंतक टापूमें रहे। वहीं मेरा जन्म हुआ। जब वहांके सरकारने उनकी जमीन छीन ली तो यहां चले आये। तबसे खेती बारी करते हैं। माताका वहीं देहान्त हो गया। मुझे याद आता है कुन्दन का सा रंग था। बहुत सुन्दर थीं।

सबल—समझ गया। (तृष्णापूर्ण नेत्रोंसे देखकर) तुम्हारा तो इन गंवारोंमें रहनेसे जी घबराता होगा। खेती बारी की मेहनत भी तुम जैसी कोमलांगी सुन्दरीको बहुत अखरती होगी। [ ५१ ]राजेश्वरी--(मनमें) ऐसे तो बड़े दयालु और सज्जन आदमी हैं लेकिन निगाह अच्छी नहीं जान पड़ती। इनके साथ कुछ कपट-व्योहार करना चाहिये। देखूं किस रंगपर चलते हैं। (प्रगट) क्या करूँ भाग्यमें जो लिखा था वह हुआ।

सबल--भाग्य तो अपने हाथका खेल है। जैसे चाहो वैसा बन सकता है। जब मैं तुम्हारा भक्त हूँ तो तुम्हें किसी बातकी चिंता न करनी चाहिये। तुम चाहो तो कोई नौकर रख लो। उसकी तलब मैं दे दूँगा, गाँवमें रहने की इच्छा न हो तो शहर चलो, हलधरको अपने यहां रख लूँगा, तुम आरामसे रहना। तुम्हारे लिये मैं सब कुछ करनेको तैयार हूँ, केवल तुम्हारी दया- दृष्टि चाहता हूँ। राजेश्वरी, मेरी इतनी उम्र गुजर गई लेकिन परमात्मा जानते हैं कि आजतक मुझे न मालूम हुआ कि प्रेम क्या वस्तु है। मैं इस रसके स्वादको जानता ही न था, लेकिन जिस दिनसे तुमको देखा है प्रेमानन्दका अनुपम सुख भोग रहा हूँ। तुम्हारी सुरत एक क्षणके लिये भी आंखोंसे नहीं उतरती। किसी काममें जी नहीं लगता, तुम्हीं चित्तमें बसी रहती हो। बगीचेमें जाता हूं तो मालूम होता है कि फूलमें तुम्हारी ही सुगंधि है, श्यामाकी चहक सुनता हूँ तो मालूम होता है कि तुम्हारी ही मधुर ध्वनि है। चन्द्रमाको देखता हूँ तो जान पड़ता है कि वह तुम्हारी ही मूर्ति है। प्रबल उत्कण्ठा होती है कि चलकर तुम्हारे [ ५२ ]चरणोंपर सिर झुका दूँ। ईश्वर के लिये यह मत समझो कि मैं तुम्हें कलङ्कित करना चाहता हूँ। कदापि नहीं! जिस दिन यह कुभाव, यह कुचेष्टा, मनमें उत्पन्न होगी उस दिन हृदयको चीर कर बाहर फेंक दूंगा। मैं केवल तुम्हारे दर्शनोंसे अपनी आंखों- को तृप्त करना, तुम्हारी सुललित वाणीसे अपने श्रवणको मुग्ध करना चाहता हूँ। मेरी यही परमाकांक्षा है कि तुम्हारे निकट रहूं, तुम मुझे अपना प्रेमी और भक्त समझो और मुझसे किसी प्रकारका परदा या सङ्कोच न करो। जैसे किसी सागरके निकटके वृक्ष उससे रस खींचकर हरे भरे रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारे समीप रहनेसे मेरा जीवन आनन्दमय हो जायगा।

(चेतनदास एक भजन गाते हुए दोंनो प्राणियोंको
देखते चले जाते हैं।)

राजेश्वरी--(मनमें) मैं इनसे कौशल करना चाहती थी पर न जाने इनकी बातें सुनकर क्यों हृदय पुलकित हो रहा है। एक एक शब्द मेरे हृदयमें चुभा जाता है। (प्रगट) ठाकुर साहेब, एक दीन मजूरी करनेवाली स्त्रीसे ऐसी बातें करके उसका सिर आसमानपर न चढ़ाइये। मेरा जीवन नष्ट हो जायगा। आप धर्मात्मा हैं, जसी हैं, दयावान हैं। आज घर-घर आपके जसका बखान हो रहा है, आपने अपनी प्रजापर जो दया की है उसकी महिमा मैं नहीं गा सकती। लेकिन यह बातें अगर [ ५३ ]किसीके कान में पड़ गईं तो यही परजा जो आपके पैरोंकी धूल माथेपर चढ़ानेको तरसती है आपकी बैरी हो जायगी, आपके पीछे पड़ जायगी। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। मुझे भूल जाइये। संसार में एकसे एक सुन्दर औरतें हैं। मैं गँवारिन हूँ। मजूरी करना मेरा काम है। इन प्रेमकी बातों को सुनकर मेरा चित्त ठिकाने न रहेगा। मैं उसे अपने वशमें न रख सकूंगी। वह चञ्चल हो जायगा और न जाने उस अचेत दशामें क्या कर बैठे। उसे फिर नामकी, कुलकी, निन्दा की लाज न रहेगी। प्रेम बढ़ती हुई नदी है। उसे आप यह नहीं कह सकते कि यहांतक चढ़ना, इसके आगे नहीं। चढ़ाव होगा तो वह किसीके रोके न रुकेगी। इसलिये मैं आपसे विनती करती हूँ कि यहीं तक रहने दीजिये। मैं अभीतक अपनी दशामें सन्तुष्ट हूं। मुझे इसी दशा- में रहने दीजिये। अब मुझे देर हो रही है, जाने दीजिये।

सबल--राजेश्वरी, प्रेमके मदसे मतवाला आदमी उपदेश नहीं सुन सकता। क्या तुम समझती हो कि मैंने बिना सोचे-समझे इस पथपर पग रखा है। मैं दो महीनोंसे इसी रैस बैसमें हूँ। मैंने नीतिका, सदाचरणका, धर्मका, लोकनिन्दाका, आश्रय लेकर देख लिया, कहीं संतोष न हुआ तब मैंने यह पथ पकड़ा। मेरे जीवनका बनाना बिगाड़ना अब तुम्हारे ही हाथ है। अगर तुमने मुझपर तरस न खाया तो अन्त यही होगा कि मुझे आत्महत्या [ ५४ ]जैसा भीषण पाप करना पड़ेगा। क्योंकि मेरी दशा असह्य हो गई है। मैं इसी गाँवमें घर बना लुँगा, यहीं रहूँगा, तुम्हारे लिये भी मकान, धन सम्पत्ति, जगह जमीन; किसी पदार्थकी कमी न रहेगी। केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि चाहता हूँ।

राजेश्वरी--(मनमें) इनकी बातें सुनकर मेरा चित्त चंचल हुआ जाता है। आप ही आप मेरा हृदय इनकी ओर खिंचा जाता है,पर यह तो सर्वनाशका मार्ग है। इससे मैं इन्हें कटु वचन सुना कर यहीं रोक देती हूँ। (प्रगट) आप विद्वान हैं, सज्जन हैं, धर्मात्मा हैं, परोपकारी हैं, और मेरे मनमें आपका जितना मान है वह मैं कह नहीं सकती। मैं अबसे थोड़ी देर पहले आपको देवता समझती थी। पर आपके मुँहसे ऐसी बातें सुनकर दुःख होता है। मैंने आपसे अपना हाल साफ-साफ कह दिया। उस- पर भी आप वही बातें करते जाते हैं। क्या आप समझते हैं कि मैं अहीर जात और किसान हूँ तो मुझे अपने धरम-करम- का कुछ विचार नहीं है और मैं धन और सम्पत्तिपर अपने धरमको बेच दूँगी। आपका यह भरम है। अगर आपको मैं इतनी सिरिद्धासे न देखती होती तो इस समय आप यहाँ इस तरह बेधड़क मेरे धरमको सत्यानास करनेकी बातचीत न करते। एक पुकारपर सारा गाँव यहाँ आजाता और आपको मालूम हो जाता कि देहातके गँवार अपनी औरतों की लाज [ ५५ ]कैसे रखते हैं। मैं जिस दशामें भी हूँ, संतुष्ट हूँ, मुझे किसी वस्तुकी तृषना नहीं है। आपका धन आपको मुबारक रहे। आपका कुशल इसोमें है कि अभी आप यहाँसे चले जाइये। अगर गाँववालोंके कानोंमें इन बातोंकी ज़रा भी भनक पड़ी वो वह मुझे तो किसी तरह जीता न छोड़ेंगे पर आपके भी जानके दुश्मन हो जायँगे। आपकी दया, उपकार-सेवा एक भी आपको उनके कोपसे न बचा सकेगा।

(चली जाती है)

सबल--(आप ही आप) इसकी संगति मेरे चित्तको हटा- नेकी जगह और भी बलके साथ अपनी ओर खींचती है। ग्रामीण स्त्रियां भी इतनी दृढ़ और आत्माभिमानी होती हैं, इसका मुझे ज्ञान न था। अबोध बालकको जिस काम के लिये मना करो वही अदबदा कर करता है। मेरे चित्तकी दशा उसी बालकके समान है। वह अवहेलनासे हतोत्साह नहीं, वरन् और भी उत्तेजित होता है।

(प्रस्थान)