संग्राम/१.४

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

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चतुर्थ दृश्य
(स्थान―मधुबन। सबलसिहका चौपाल। समय―८ बजे
रात। फाल्गुनका प्रारम्भ)

चपरासी―हुजूर गांवमें सबसे कह आया। लोग जादूके तमाशेकी खबर सुनकर बहुत उत्सुक हो रहे हैं।

सबल―स्त्रियों को भी बुलावा दे दिया है न?

चप०―जी हां, अभी सबकी सब घरवालोंको खाना खिला-कर आई जाती हैं।

सबल―तो इस बरामदे में एक परदा डाल दो। स्त्रियोंको परदेके अन्दर बिठाना। घास चारे, दूध लकड़ी आदिका प्रबंध हो गया न?

चप०―हुज़र सभी चीजोंका ढेर लगा हुआ है। जब यह चीजें बेगारमें ली जाती थी तब एक १ मुट्ठी घासके लिये गाली और मारसे काम लेना पड़ता था। हुजूरने बेगार बन्द करके सारे गांवको बिन दामों गुलाम बना लिया है। किसीने भी दाम
[ ४२ ]लेना मंजूर नहीं किया। सब यही कहते हैं कि सरकार हमारे मेहमान हैं। धन्यभाग! जबतक चाहें सिर और आंखोंपर रहें। हम खिदमतके लिये दिलोजानसे हाजिर हैं। दूध तो इतना आ गया है कि शहरमें ४) को भी न मिलता।

सबल―यह सब एहसानकी बरकत है। जब मैंने बेगार बन्द करने का प्रस्ताव किया तो तुम लोग, यहांतक कि कञ्चन-सिंह भी, सभी मुझे डराते थे। सबको भय था कि असामी शोख हो जायँगे, सिरपर चढ़ जायँगे। लेकिन मैं जानता था कि एहसानका नतीजा कभी बुरा नहीं होता। अच्छा महराजसे कहो कि मेरा भोजन भी जल्द बना दें।

(चपरासी चला जाता है।)

सबल―(मनमें) बेगार बन्द करके मैंने गांववालों को अपना भक्त बना लिया। बेगार खुली रहती तो कभी न कभी राजेश्वरीको भी बेगार करनी ही पड़ती, मेरे आदमी जाकर उसे दिक़ करते। अब यह नौबत कभी न आयेगी। शोक यही है कि यह काम मैंने नेक इरादोंसे नहीं किया, इसमें मेरा स्वार्थ छिपा हुआ है। लेकिन अभीतक मैं निश्चय नहीं कर सका कि इसका अंत क्या होगा? राजेश्वरी के उद्धार करने का विचार तो केवल भ्रान्त है। मैं उसके अनुपम रूप-छटा, उसके सरल व्यवहार और उसके निर्दोष अंगविन्यासपर आसक्त हूँ। इसमें रत्तीभर भी [ ४३ ]सन्देह नहीं है। मैं कामवासनाकी चपेटमें आ गया हूँ और किसी तरह मुक्त नहीं हो सकता। खूब जानता हूं कि यह महा-घोर पाप है! आश्चर्य होता है कि इतना संयमशील होकर भी मैं इसके दांवमें कैसे आ पड़ा। ज्ञानीको अगर ज़रा भी सन्देह हो जाय तो वह तो तुरंत विष खा ले। लेकिन अब परिस्थितिपर हाथ मलना व्यर्थ है। यह विचार करना चाहिये कि इसका अन्त क्या होगा। मान लिया कि मेरी चाहें सीधी पड़ती गईं और वह मेरा कलमा पढ़ने लगी तो? कलुषित प्रेम? पापाभिनय! भगवन्! उस घोर नारकीय अग्निकुण्डमें मुझे मत डालना। मैं अपने मुखको और उस सरलहृदया बालिकाकी आत्माको इस कालिमासे वेष्ठित नहीं करना चाहता। मैं उससे केवल पवित्र प्रेम करना चाहता हूँ, उसकी मीठी-मीठी बातें सुनना चाहता हूं, उसके मधुर मुस्कानकी छटा देखना चाहता हूँ, और कलुषित प्रेम क्या है.........जो हो, अब तो नाव नदीमें डाल दी है, कहीं न कहीं पार लगेगी ही। कहाँ ठिकाने लगेगी? सर्वनाशके घाटपर! हां मेरा सर्वनाश इसी बहाने होगा। यह पाप पिशाच मेरे कुलको भक्षण कर जायगा। ओह!

यह निर्मुल शंकाएं हैं। संसारमें एकसे एक कुकर्मी व्यभिचारी पड़े हुए हैं, उनका सर्वनाश नहीं होता। कितनों ही को मैं जानता हूँ जो विषयभोगमें लिप्त हो रहे हैं। ज्यादासे ज्यादा उन्हें [ ४४ ]यह दण्ड मिलता है कि जनता कहती है बिगड़ गया, कुलमें दारा लगा दिया। लेकिन उनकी मान-प्रतिष्ठामें जरा भी अन्तर नहीं पड़ता। यह पाप मुझे करना पड़ेगा। कदाचित् मेरे भाग्यमें यह बदा हुआ है। हरिइच्छा। हां इसका प्रायश्चित्त करनेमें कोई कसर न रखूँगा, दान, व्रत, धर्म, सेवा, इनके परदेमें मेरा अभिनय होगा। प्रदान, व्रत, परोपकार सेवा यह सब मिलकर कपट प्रेमकी कालिमाको नहीं धो सकते। अरे, लोग अभी से तमाशा देखने आने लगे। खैर आने दूँ भोजनमें देर हो जायगे। कोई चिन्ता नहीं। १२ बजें सब (Film) खतम हो जायंगे। चलूँ सबको बैठाऊँ (प्रगट) तुम लोग यहाँ आकर फर्शपर बैठो, स्त्रियाँ परदेमें चली जायँ (मनमें) हैं वह भी है! कैसा सुन्दर अङ्ग विन्यास है। आज गुलाबी साड़ी पहने हुए है। अच्छा अबकी तो कई आभूषण भी हैं। गहनोंसे उसके शरीरकी शोभा ऐसी बढ़ गई है मानों वृक्षमें फूल लगे हों।

(दर्शक यथास्थान बैठ जाते हैं, सबलसिंह
चित्रोंको दिखाना शुरू करते हैं।)

(पहला चित्र--कई किसानोंका रेलगाड़ीमें सवार होनेके लिये धक्कमधक्का करना, बैठने का स्थान न मिलना, गाड़ीमें खड़े रहना, एक चपरासीको जगहके लिये घुस देना, उसका इनको एक माल गाड़ी में बैठा देना। एक स्त्रीका छुट जाना और [ ४५ ]रोना। गार्डका गाड़ीको न रोकना।)

हलधर--बिचारोंको कैसी दुर्गति हो रही है। हो तो, लात घूंसे चलने लगे। सब मार खा रहे हैं।

फत्तू--यहां भी घुस दिये बिना नहीं चलता, किराया दिया, घूस ऊपरसे, लात घूंसे खाये उसकी कोई गिनती नहीं। पड़ा अंधेर है। रुपये बड़े जतनसे रखे हुए हैं। कैसा जल्दी निकाल रहा है कि कहीं गाड़ी न खुल जाय।

राजेश्वरी (सलोनीसे)--हाय हाय, बिचारी छूट गई, गोदमें लड़का भी है। गाड़ी नहीं रुकी। सब बड़े निर्दयी हैं। हाय भग- वन् उसका क्या हाल होगा।

सलोनी--एक बेर इसी तरह मैं भी छूट गई थी। हरदुआर जाती थी।

राजेश्वरी--ऐसी गाड़ीपर कभी न सवार हो, पुण्य तो आगे पीछे मिलेगा; यह विपत्ति अभीसे सिरपर आ पड़ी।

(दूसरा चित्र-गांवका पटवारी खाटपर बस्ता खोले बैठा है। कई किसान आस-पास खड़े हैं। पटवारी सभोंसे सालाना नजर वसूल कर रहा है।)

हलधर--लालाका पेट तो फूलके कुप्पा हो गया है। चुटिया इतनी बड़ी है जैसे बैलकी पगहिया।

फत्तू--इतने आदमी खड़े गिड़गिड़ा रहे हैं पर सिर नहीं [ ४६ ]उठाते मानों कहींके राजा हैं! अच्छा, पेटपर हाथ धरकर खोट गया। पेट अफर रहा है, बैठा नहीं जाता। चुटकी बजाकर दिखाता है कि भेंट लाओ। देखो एक किसान कमरसे रुपया निकालता है। मालूम होता है, बीमार रहा है, बदनपर मिरजई भी नहीं है। चाहे तो छातीके हाड़ गिन लो। वाह मुंशीजी। रुपया फेंक दिया, मुंह फेर लिया, अब बात न करेंगे। जैसे बंद- रिया रूठ जाती है और बन्दरकी ओर पीठ फेरकर बैठ जाती है, विचारा किसान कैसा हाथ जोड़कर मना रहा है, पेट दिखा- कर कहता है, भोजनका ठिकाना नहीं, लेकिन लाला साहब कब सुनते हैं।

हलधर--बड़ा गलाकाटू जात है।

फत्तू--जानता है कि चाहे बना दूं, चाहे बिगाड़ दूं। यह सब हमारी ही दशा तो दिखाई जा रही है।

(तीसरा चित्र--थानेदार साहब गांवमें एक खाटपर बैठे हैं। चोरीके मालकी सफ़तीश कर रहे हैं। कई कान्स्टेबल वर्दी पहने हुए खड़े हैं। घरों में खानातलाशी हो रही है। घरकी सब चीजें देखी जा रही हैं। जो चीज जिसको पसन्द आती है उठा लेता है। और तोंके बदनपर के गहने भी उतरवा लिये जाते हैं।)

फत्तू--इन जालिमोंसे खुदा बचाये।

एक किसान--आये हैं अपने पेट भरने। बहाना कर दिया

[ ४७ ]कि चोरीके मालका पता लगाने आये हैं।

फत्तू--अल्लाह मियांका कहर भी इनपर नहीं गिरता। देखो विचारों की खानातलाशी हो रही है।

हलधर--खानातलाशी काहे की, लूट है। उसपर लोग कहते हैं कि पुलुस तुम्हारे जान मालकी रक्षा करती है।

फत्तू--इसके घरमें कुछ नहीं निकला।

हलधर--यह दूसरा घर किसी मालदार किसानका है। देखो हांडीमें सोनेका कण्ठा रखा हुआ है। गोप भी हैं। महतो इसे पहनकर नेवता खाने जाते होंगे। चौकीदारने उड़ा लिया। देखो औरतें आंगनमें खड़ी की गई है। उनके गहने उतारनेको कह रहा है।

फत्तू--बिचारा महतो थानेदारके पैरोंपर गिर रहा है और अंजुलीभर रुपये लिये खड़ा है।

राजेश्वरी--(सलोनीसे) पुलुस वाले जिसकी इज्जत चाहे ले लें।

सलोनी--हां, देखते तो साठ बरस हो गये। इनके ऊपर तो जैसे कोई है ही नहीं।

राजे०--रुपये ले लिये, बिचारियों की जान बची। मैं तो इन सभोंके सामने कभी न खड़ी हो सकूं चाहे कोई मार ही डाले।

सलोनी--तसवीरें न जाने कैसे चलती हैं। [ ४८ ]राजे०--कोई कल होगी और क्या।

हलधर--अब तमाशा बन्द हो रहा है।

एक किसान--आधी रात भी हो गई। सवेरे ऊख काटनी है।

सबल--आज तमाशा बन्द होता है। कल तुम लोगोंको और भी अच्छे २ चित्र दिखाये जायंगे जिससे तुम्हें मालूम होगा कि बीमारीसे अपनी रक्षा कैसे की जा सकती है। घरोंकी और गाँवकी सफाई कैसी होनी चाहिये, कोई बीमार पड़ जाय तो उसकी देख-रेख कैसे करनी चाहिये। किसीके घरमें आग लग जाय तो उसे कैसे बुझाना चाहिये। मुझे आशा है कि आज की तरह तुम लोग कल भी आओगे।

(सब लोग जाते हैं)