संग्राम/१.७

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ६१ ]


सातवां दृश्य
(समय--सन्ध्या, स्थान--मधुबन।
ओले पड़ गये हैं, गांवके स्त्री-पुरुष खेतोंमें जमा हैं।

फत्तू--अल्लाहने परसी परसाई थाली छीन ली।

हलधर--बना बनाया खेल बिगड़ गया।

फत्तू--छावत लागत ६ बरस और छिनमें होत उजाड़। कई सालके बाद तो अबकी खेती जरा रङ्गपर आई थी। कल इन खेतों को देखकर कैसी गज भरकी छाती हो जाती थी। ऐसा जान पड़ता था सोना बिछा दिया गया है। बित्ते बित्ते भरकी बालें लहराती थीं, पर अल्लाहने मारा सब सत्यानास कर दिया। बागमें निकल जाते थे तो बौरकी महँकसे चित्त खिल उठता था। पर आज बौरकी कौन कहे पत्तेतक झड़ गये।

एक बृद्ध किसान--मेरी यादमें इतने बड़े-बड़े ओले कभी न पड़े थे।

हलधर--मैंने इतने बड़े ओले देखे ही न थे, जैसे चट्टान [ ६२ ]काट-काटकर लुढ़का दिया गया हो।

फत्तू--तुम अभी हो कै दिनके। मैंने भी इतने बड़े ओले नहीं देखे।

एक बृद्ध किसान--एक बेर मेरी जवानीमें इतने बड़े ओले गिरे थे कि सैकड़ों ढोर मर गये। जिधर देखो मरी हुई चिड़ियां गिरी मिलती थीं। कितने ही पेड़ गिर पड़े। पक्की छतेंतक फट गई थीं। बखारों में अनाज सड़ गये, रसोईमें बरतन चकनाचूर हो गये। मुदा हाँ अनाजकी मड़ाई हो चुकी थी। इतना नकसान नहीं हुआ था।

सलोनी--मुझे तो मालूम होता है जमींदारकी नीयत बिगड़ गई है, तभी ऐसी तबाही हुई है।

राजे०--काकी, भगवान न जाने क्या करनेवाले हैं। बार-बार मने करती थी कि अभी महाजनसे रुपये न लो। लेकिन मेरी कौन सुनता है। दौड़े२ गये २००) उठा लाये जैसे अपनी धरोहर हो। देखें अब कहांसे देते हैं। लगान ऊपरसे देना है। पेट तो मजूरी करके भर जायगा लेकिन महाजनसे कैसे गला छूटेगा।

हलधर--भला पूछो तो काकी कौन जानता था कि क्या सुदनी है। आगम देखके तब रुपये लिये थे। यह आफत न आ जाती तो १००) का तो अकेले तेलहन निकल आता। छाती भर गेहूँ खड़ा था। [ ६३ ]फत्तू--अब तो जो होना था वह हो गया। पछतानेसे क्या हाथ आयेगा।

राजे०--आदमी ऐसा काम ही क्यों करे कि पीछेसे पछताना पड़े।

सलोनी--मेरी सलाह मानो। सब जने जाकर ठाकुरसे फिरियाद करो कि लगानकी माफी हो जाय। दयावान आदमी हैं। मुझे तो बिस्सास है कि माफ कर देंगे। दलहाईकी बेगा- रमें हम लोगोंसे बड़े प्रेमसे बातें करते रहे। किसीको छटाँक भर भी दाल न दलने दी। पछताते रहे कि नाहक तुम लोगोंको दिक किया। मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं तो फिर कहूँगी कि आदमी नहीं देवता हैं।

फत्तू--जमींदारके माफ़ करनेसे थोड़े माफी होती है; जब सरकार माफ करे तब न? नहीं तो जमींदारको मालगुजारी घरसे चुकानी पड़ेगी। तो सरकारसे इसकी कोई आसा नहीं। अमले लोग तहकिकात करनेको भेजे जायँगे। वह असामियोंसे खूब रिसवत पायेंगे तो नकसान दिखायेंगे नहीं तो लिख देंगे ज्यादा नकसान नहीं हुआ। सरकार बहुत करेगी।) की छूट कर देगी। जब।।।) देने ही पड़ेंगे तो।) और सही। रिसवत और कचहरीकी दौड़से तो बच जायेंगे। सरकारको अपना खजाना भरनेसे मतलब है कि परजाको पालनेसे। सोचती होगी यह [ ६४ ]सब न रहेंगे तो इनके और भाई तो रहेंगे ही। जमीन परती थोड़े पड़ी रहेगी।

एक वृद्ध किसान--सरकार एक पैसा भी न छोड़ेगी। इस साल कुछ छोड़ भी देगी तो अगले साल सूद समेत वसूल कर लेगी।

फत्तू--बहुत निगाह करेगी तो तकाबी मंजूर कर देगी। उसकी भी सूद लेगी। हर बहाने से रुपया खींचती है। कचहरीमें झूठो कोई दरखास देने जावो तो बिना टके खर्च किये सुनाई नहीं होती। अफ़ीम सरकार बेचे, दारू, गाँजा, भांग, मदक, चरस सरकार बेचे। और तो और नोनतक बेचती है। इस तरह रुपया न खींचे तो अफसरोंकी बड़ी २ तलब कहाँसे दे। कोई १ लाख पाता है, कोई दो लाख, कोई तीन लाख। हमारे यहाँ जिसके पास लाख रुपये होते हैं वह लखपती कहलाता है, मारे धमंड के सीधे ताकता नहीं। सरकारके नौकरोंकी एक एक सालकी तलब दो दो लाख होती है। भला वह लगानकी एक पाई भी छोड़ेगी।

हलधर--बिना सुराज मिल हमारी दसा न सुधरेगी। अपना राजा होता तो इस कठिन समयमें अपनी मदद करता।

फत्तू--मदद करेंगे! देखते हो जबसे दारू, अफ़ीम की बिक्री बन्द हो गई है अमले लोग नसेका कैसा बखान करते फिरते [ ६५ ]हैं। कुरान शरीफमें नसा हराम लिखा है, और सरकार चाहती है कि देस नसेबाज हो जाय। सुना है साहबने आजकल हुकुम दे दिया है कि जो लोग खुद अफीम सराब पीते हों और दूस- रोंको पीने की सलाह देते हों उनका नाम खैरखाहोंमें लिख लिया जाय। जो लोग पहले पीते थे और अब छोड़ बैठे हैं, या दूसरों- को पीना मना करते हैं उनका नाम बागियोंमें लिखा जाता है।

हलधर--इतने सारे रुपये क्या तलबोंमें ही उठ जाता है?

राजे०--गहने बनवाते हैं।

ठीक तो कहती है क्या सरकारके जोरू बच्चे नहीं हैं। इतनी बड़ी फौज बिना रुपये के ही रखी है। एक-एक तोप लाखोंमें आती है। हवाई जहाज कई-कई लाख के होते हैं। सिपाहियों को कूचके लिये हवा गाड़ी चाहिये। जो खाना यहां रईसोंको मयस्सर नहीं होता वह सिपाहियोंको खिलाया जाता है। सालमें ६ महीने सब बड़े २ हाकिम पहाड़ोंकी सैर करते हैं। देखते तो हो छोटे-छोटे हाकिम भी बादसाहोंकी तरह ठाटसे रहते हैं, अकेली जानपर १०-१५ नौकर रखते हैं, एक पूरा बङ्गला रहनेको चाहिये। जितना बड़ा हमारा गांव है उससे ज्यादा जमीन एक बंगलेके हातेमें होती है। सुनते हैं सब १०-२०) बोतलकी सराब पीते हैं। हमको तुमको भर पेट रोटियां नहीं नसीब होती, वहां रात दिन दंग चढ़ा रहता है। हम तुम रेल[ ६६ ]गाड़ीमें धक्के खाते हैं। एक-एक डब्बेमें जहां दसकी जगह है वहाँ २०--२५--३०--४० ठूंस दिये जाते हैं। हाकिमोंके वास्ते सभी सजी-सजाई गाड़ियां रहती हैं, आरामसे गद्दीपर लेटे हुए चले जाते हैं। रेलगाडीको जितना हम किसानोंसे मिलता है उसका एक हिस्सा भी उन लोगोंसे न मिलता होगा। मगर तिसपर भी हमारी कहीं पूछ नहीं। जमानेकी खूबी है!

हलधर--सुना है मेमें अपने बच्चोंको दूध नहीं पिलातीं।

फत्तू--सो ठोक है, दूध पिलानेसे औरतका शरीर ढीला हो जाता है, वह फुरती नहीं रहती। दाइयां रख लेते हैं। वही बच्चोंको पालती पोसती हैं। मां खाली देख भाल करती रहती हैं। लूट है लूट!

सलोनी--दरखास दो मेरा मन कहता है छूट हो जायगी।

फत्तू--कह तो दिया दो चार आनेकी छूट हुई भी तो बरसों लग जायंगे। पहले पटवारी कागद बनायेगा उसको पूजो, सब कानूगो जांच करेगा, उसको पूजो, तब तहसीलदार नजर सानी करेगा, उसको पूजो, तब डिप्टीके सामने कागद पेस होगा, उसको पूजो, वहांसे तब बड़े साहबके इजलासमें जायगा, वहाँ अहलमद और अरदली और नाजिर सभीको पूज ना पड़ेगा। बड़े साहब कमसनरको रपोट देंगे, वहां भी कुछ कुछ पूजा करनी पड़ेगी। इस तरह मनजूरी होते-होते एक जुग बीत [ ६७ ]जायगा। इन सब झंझटोंसे तो यही अच्छा है कि

रहिमन चुप है बैठिये देखि दिननको फेर।
जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं देर॥

हलधर--मुझे तो ६०) लगान देने हैं। बैल बधिया बिक जायंगे तब भी पूरा न पड़ेगा।

एक किसान--बचेंगे किसके। अभी साल भर खानेको चाहिये। देखो गेहूंके दाने कैसे बिखड़े पड़े हैं जैसे किसीने मसल दिये हों।

हलधर--क्या करना होगा?

राजे०--होगा क्या जैसी करनी है वैसी भरनी होगी। तुम तो खेतमें बाल लगते ही बावले हो गये। लगान तो था ही ऊपरसे महाजनका बोझ भी सिर पर लाद लिया।

फत्तू--तुम मैके चली जाना। हम दोनों जाकर कहीं मजूरी करेंगे। अच्छा काम मिल गया तो साल भरमें डोंगा पार है।

राजे०--हां और क्या, गहने तो मैंने पहने हैं, गायका दूध मैंने खाया है, बरसी मेरे ससुरकी हुई है, अब तो भरौतीके दिन आये तो मैं मैके भाग जाऊँ। यह मेरा किया न होगा। तुम लोग जहाँ जाना वहीं मुझे भी लेते चलना। और कुछ न होगा तो पकी-पकाई रोटियां तो मिल जायँगी।

सलोनी--बेटी, तूने यह बात मेरे मनकी कही। कुलवन्ती [ ६८ ]नारीके यही लच्छन हैं। मुझे भी अपने साथ लेती चलना।

(गाती है)

चलो पटनेकी देखो बहार, सहर गुलजार रे।

फत्तू--हां दाई खूब गा, गानेका यही अवसर है। सुखम तो सभी गाते हैं।

सलोनी--और क्या बेटा अब तो जो होना था हो गया। रोनेसे लौट थोड़े ही आयेगा।

(गाती है)

उसी पटनेमें तमोलिया बसत है।
बीड़ोंकी अजब बहार रे।
पटना सहर गुलजार रे॥

फत्तू--काकीका गाना तानसेन सुनता तो कानोंपर हाथ रखता। हां दाई।

(गाती है)

उसी पटने में बजजवा बसत है।
कैसी सुन्दर लगी है बाजार रे।
पटना सहर गुलजार रे।

फत्तू--बस एक कड़ी और गा दे काकी। तेरे हाथ जोड़ता हूं। जी बहल गया।

सलोनी--जिसे देखो गानेको ही कहता है, कोई यह नहीं [ ६९ ]पूछता कि बुढ़िया कुछ खाती पीती भी है या आसीरवादोंसे ही जीती है।

राजे०--चलो मेरे घर काकी क्या खावोगी?

सलोनी--हलधर, तू इस हीरेको डिबियामें बन्द कर ले, ऐसा न हो किसीकी नजर लग जाय। हां बेटी, क्या खिलायेगी?

राजे०--जो तुम्हारी इच्छा हो।

सलोनी--भरपेट?

राजे०–हाँ और क्या?

सलोनी--बेटी तुम्हारे खिलानेसे अब मेरा पेट न भरेगा। मेरा पेट भरता था जब रुपये का पसेरी भर घी, मिलता था। अब तो पेट ही नहीं भरता। चार पसेरी अनाज पीसकर जांतपरसे उठती थी। चार पसेरीकी रोटियां पकाकर चौकसे निकलती थी। अब बहुएं आती हैं तो चूल्हे के सामने जाते उनको ताप चढ़ आती है, चक्कीपर बैठते ही सिरमें पीडा होने लगती है। खानेको तो मिलता नहीं बल-बूता कहांसे आये। न जाने उपज हो नहीं होती कि कोई ढो ले जाता है। बीस मनका बीघा उतरता था। २०) भी हाथमें आ जाते थे, तो पछाईं बैलों- की जोड़ी द्वारपर बँध जाती थी। अब देखने को रुपये तो बहुत मिलते हैं, पर ओलेकी तरह देखते-देखते गल जाते हैं। अब तो [ ७० ]भिखारीको भीख देना भी लोगोंको अखरता है।

फत्तू—सच कहना काकी, तुम काकाको मुट्ठीमें दबा लेती थी कि नहीं?

सलोनी—चल, उनका जोड़ दस बीस गांवमें न था। तुझे तो होस आता होगा, कैसा डील-डौल था। चुटकीसे सुपारी फोड़ देते थे।

(गाती है।)

चलो चलो सखी अब जाना,
पिया भेज दिया परवाना। (टेक)
एक दूत जबर चल आया, सब लस्कर संग सजायारी।
किया बीच नगरके ठाना
गढ़ कोट किले गिरवाये, सब द्वार बन्द करवायेरी।
.....................
अब किस विधि होय रहाना।
जब दूत महलमें आवे, तुझे तुरत पकड़े ले जावेरी।
तेरा चले न एक बहाना॥
पिया भेज दिया परवाना॥

[ ७२ ]


द्वितीय अङ्क