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संग्राम/२.१

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ ७४ से – ७७ तक

 


पहलादृश्य

स्थान--चेतनदासकी कुटी, गंगातट समय--संध्या।

सबल०--महाराज, मनोवृत्तियोंके दमन करनेका सबसे सरल उपाय क्या है?

चेतन--उपाय बहुत हैं, किन्तु मैं मनोवृत्तियों के दमन करनेका उपदेश नहीं करता। उनको दमन करनेसे भात्मा संकुचित हो जाती है। आत्माको ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोंको दमन कर दिया जाय तो मनुष्यकी चेतना शक्ति लुप्त हो जायगी। योगियोंने इच्छाओंको रोकने के लिये कितने ही यत्न लिखे हैं। हमारे योगग्रन्थ उन उपदेशोंसे परिपूर्ण हैं। मैं इन्द्रियोंको दमन करना अस्वाभाविक, हानिकर और आपत्ति जनक समझता हूँ।

सबल--(मनमें) आदमी तो विचारशील जान पड़ता है। मैं इसे रंगा हुआ समझता था। (प्रगट) यूरोपके तत्वज्ञानियोंने कहीं-कहीं इस विचारका पुष्टीकरण किया है, पर अबतक मैं उन विचारों को भ्रांतिकारक समझता था। आज आपके श्रीमुखसे उनका समर्थन सुनकर मेरे कितने ही निश्चित सिद्धान्तोंको आघात पहुंच रहा है।

चेतन--इन्द्रियों द्वारा ही हमको जगत्का ज्ञान प्राप्त होता है। वृत्तियोंको दमन कर देनेसे ज्ञानका एक मात्र द्वार ही बन्द हो जाता है। अनुभवहीन आत्मा कदापि उच्च पद नहीं प्राप्त कर सकती। अनुभवका द्वार बन्द करना विकासका मार्गबन्द, करना है, प्रकृतिके सब नियमोंके कार्य्यमें बाधा डालना है। वही आत्मा मोक्षपद प्राप्त कर सकती है जिसने अपने ज्ञान द्वारा, इन्द्रियों को मुक्त रखा हो। त्यागका महत्व आह्वानमें नहीं है। जिसने मधुर सङ्गीत सुनी ही न हो उसे सङ्गीतकी रुचि न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो तब है कि जब वह सङ्गीत कलाका भली-भाँति आस्वादन करने, उसमें लिप्त होने के पीछे वृत्तियोंको उधरसे हटा ले। वृत्तियोंको दमन करना वैसा ही है जैसे बालकको खड़े होने या दौड़नेसे रोकना। ऐसे बालकको चोट चाहे न लगे पर यह अवश्य ही अपंग हो जायगा।

सबल--(मनमें) कितने स्वाधीन और मौलिक विचार हैं। (प्रगट) तब तो आपके विचार में हमें अपनी इच्छाओंको अबाध्य कर देना चाहिये।

चेतन--मैं तो यहांतक कहता हूं कि आत्माके विकासमें पापोंका भी मूल्य है। उज्वल प्रकाश सात रंगोंके सम्मिश्रणसे बनता है। उसमें लाल रंगका महत्व उतना ही है जितना नीले या पीले रंगका। उत्तम भोजन वही है जिसमें षट्-रसोंका सम्मिश्रण हो। इच्छाओंको दमन करो, मनोवृत्तियोंको रोको, यह मिथ्या तत्त्ववादियों के ढकोसले हैं। यह सब अबोध बालकोंको डरानेके जू जू हैं। नदीके तटपर न जाओ, नहीं तो डूब जाओगे, यह मूर्ख माता-पिताकी शिक्षा है। विचारशील प्राणी अपने बालकको नदीके तट पर केवल ले ही नहीं जाते वरन् उसे नदीमें प्रविष्ट कराते हैं, उसे तैरना सिखाते हैं।

सबल--(मनमें) कितनी मधुर वाणी है। वास्तवमें प्रेम चाहे कलुषित ही क्यों न हो चरित्र-निर्माणमें अवश्य अपना स्थान रखता है। (प्रगट) तो पाप कोई घृणित वस्तु नहीं?

चेतन--कदापि नहीं। संसारमें कोई वस्तु घृणित नहीं है, कोई वस्तु त्याज्य नहीं है। मनुष्य अहंकारके वश होकर अपनेको दूसरोंसे श्रेष्ठ समझने लगता है। वास्तवमें धर्म और अधर्म, सुविचार और कुविचार, पाप और पुण्य, यह सब मानवजीवनकी मध्यवर्ती अवस्थाएं मात्र हैं।

सबल--(मनमें) कितना उदार हृदय है। (प्रगट) महाराज आपके उपदेशसे मेरे सन्तप्त हृदयको बड़ी शांति प्राप्त हुई।

(प्रस्थान)

चेतन--(आपही आप) इस जिज्ञासाका आशय खूब समझता हूं। तुम्हारी अशान्तिका रहस्य खूब जानता हूं। तुम फिसल रहे थे, मैंने एक धक्का और दे दिया। अब तुम नहीं संभल सकते।