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संग्राम/२.३

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ ८७ से – ९४ तक

 


तृतीय दृश्य

स्थान--मधुबन गांव, समय--बैसाख प्रातःकाल।

फत्तू--पांचों आदमियोंपर डिगरी हो गई। अब ठाकुर साहब जब चाहें उनके बैल बधिये नीलाम करा लें।

एक किसान--ऐसे निर्दयी तो नहीं हैं। इसका मतलब कुछ और ही है।

फत्तू--इसका मतलब मैं समझता हूँ। दिखाना चाहते हैं कि हम जब चाहें असामियों को बिगाड़ सकते हैं। असामियोंको घमण्ड न हो। फिर गांवमें हम जो चाहें करें कोई मुंह न खोले।

(सबल सिंह के चपरासीका प्रवेश)

चपरासी--सरकारने हुक्म दिया है कि असामी लोग ज़रा भी चिन्ता न करें। हम उनकी हर तरह मदद करनेको तैयार हैं। जिन लोगों ने अभी तक लगान नहीं दिया है उनकी माफ़ी हो गई। अब सरकार किसीसे लगान न लेंगे। अगले सालके लगानके साथ यह बकाया न वसुल की जायगी। यह छूट सर-कारकी ओरसे नहीं हुई है। ठाकुर साहबने तुम लोगोंकी परव- रिशके ख्यालसे यह रिआयत की है। लेकिन जो असामी परदेस चला जायगा उसके साथ यह रिआयत न होगी। छोटे ठाकुरसाहबने देनदारोंपर डिगरी कराई है। मगर उनका हुक्म भी यही है कि डिगरी जारी न की जायगी। हां, जो लोग भागेंगे उनकी जायदाद नीलाम करा ली जायगी। तुम लोग दोनों ठाकुरोंको आशीर्वाद दो।

एक किसान--भगवान दोनों भाइयों की जुगुल जोड़ी सलामत रखे।

दूसरा--नारायन उनका कल्यान करें। हमको जिला लिया नहीं तो इस विपत्तिमें कुछ न सूझता था।

तीसरा--धन्य है उनकी उदारताको। राजा हो तो ऐसा दीनपालक हो। परमात्मा उनकी बढ़ती करे।

चौथा--ऐसा दानी देशमें और कौन है। नामके लिये सरकारको लाखों रुपये चन्दा दे आते हैं, हमको कौन पूछता है। बल्कि वह चन्दा भी हमीसे डणडे मार-मारकर वसूल कर लिया जाता है।

पहला--चलो, कल सब जने डेवढ़ीको जय मना आवें।

दूसरा--हाँ कल भोरे चलो। तीसरा--चलो देवीजीके चौरेपर चलकर जय जयकार मनाएं।

चौथा--कहाँ है कलधर, कहो ढोल मजीरा लेता चले।

(फत्तू हलधरके घर जाकर खाली हाथ लौट आता है)

पहला किसान--क्या हुआ। खाली हाथ क्यों आये?

फत्तू--हलघर तो आज दो दिनसे घर ही नहीं आया।

दूसरा किसान--उसकी घरवालीसे पूछा, कहीं नातेदारीमें तो नहीं गया?

फत्तू--वह तो कहती है कि कल सवेरे खांचा लेकर आम तोड़ने गये थे। तबसे लौटकर नहीं आये।

(सबके सब हलधरके द्वारपर आकर जमा हो जाते हैं।
सलोनी और फत्तू घरमें जाते हैं)

सलोनी--बेटी, तूने उसे कुछ कहा सुना तो नहीं। उसे बात बहुत लगती है, लड़कपनसे जानती हूँ। गुड़के लिये रोवे, लेकिन मां झमककर गुड़का पिण्डा सामने फेंक दे तो कभी न उठावे। तब वह गोदमें प्यार से बैठाकर गुड़ तोड़-तोड़ खिलाये तभी चुप हो।

फत्तू--यह बिचारी गऊ है, कुछ नहीं कहती-सुनती।

सलोनी--जरूर कोई न कोई बात हुई होगी, नहीं तो घर क्यों न आता। इसने गहनोंके लिये ताना दिया होगा, चाहे महीन साड़ी मांगी हो। भले घरकी बेटी है न, इसे महीन साड़ी अच्छी लगती है।

राजे०--काकी, क्या मैं ऐसी निकम्मी हूं कि देशमें जिस बातकी मनाही है वही करूंगी।

(फत्तू बाहर आता है)

मंगरू--मेरे जानमें तो उसे थानेवाले पकड़ ले गये।

फत्तू--ऐसा कुमारगी तो नहीं है कि थानेवालोंकी आंखपर चढ़ जाय।

हरदास--थानेवालोंकी भली कहते हो। राह चलते लोगोंको पकड़ा करते हैं। आम लिये देखा होगा कहा होगा चट थाने पहुंचा आ।

फत्तू--ऐसा दबैल तो नहीं है, लेकिन थाने ही पर जाता तो अबतक लौट आना चाहिये था।

मंगरू--किसीके रुपये पैसे तो नहीं आते थे?

फत्तू-और किसीको तो नहीं, ठाकुर कंचनसिंहके २००) आते हैं।

मंगरू--कहीं उन्होंने गिरफ्तार करा लिया हो।

फत्तू--सम्मन तो आया नहीं, नालिस कब हुई, डिग्री कब हुई। औरोंपर नालिस हुई तो सम्मन आया, पेशी हुई, तुजवीज सुनाई गई। हरदास--बड़े आदमियों के हाथमें सब कुछ है, जो चाहें करा दें। राज उन्हींका है, नहीं तो भला कोई बात है कि सौ पचास रुपयेके लिये आदमी गिरफ्तार कर लिया जाय, बाल बच्चोंसे अलग कर दिया जाय, उसका सब खेती बारीका काम रोक दिया जाय।

मंगरू--आदमी चोरी या और कोई कुन्याय करता है तब उसे कैदको सजा मिलती है। यहां महाजन बेकसूर हमें थोड़ेसे रुपयों के लिये जेहल भेज सकता है। यह कोई न्याय थोड़े ही है।

हरदास--सरकार न जाने ऐसे कानून क्यों बनाती है। महाजनके रुपये आते हैं, जायदादसे ले, गिरफ्तार क्यों करे।

मँगरू--कहीं डमरा टापूवाले न बहका ले गये हों।

फत्तू--ऐसा भोला नहीं है कि उनकी बातोंमें आ जाय।

मंगरू--कोई जान-बूझकर उनकी बातोंमें थोड़े ही आता है। सब ऐसी-ऐसी पट्टी पढ़ाते हैं कि अच्छे-अच्छे धोखेमें आ जाते हैं। कहते हैं इतना तलब मिलेगा, रहनेको बंगला मिलेगा, खानेको वह मिलेगा जो यहाँ रईसों को भी नसीब नहीं, पहनने-को रेशमी कपड़े मिलेंगे, और काम कुछ नहीं, बस खेतमें जाकर ठणढे-ठणढे देख भाल आये।

फत्तू--हां, यह तो सच है। ऐसी-ऐसी बातें सुनकर वह आदमी क्यों न धोखेमें आ जाय जिसे कभी पेट भर भोजन न मिलता तो। घास भूसेसे पेट भर लेना कोई खाना है। किसान पहर रातसे पहर राततक छाती फाड़ता है तब भी रोटी कपड़ेको नहीं होता, उसपर कहीं महाजनका डर, कहीं जमींदारकी धौंस, कहीं पुलिसकी डाँट डपट, कहीं अमलोंकी नजर भेंट, कही हाकिमोंकी रसद बेगार। सुना है जो लोग टापूमें भरती हो जाते हैं उनकी बड़ी दुर्गत होती है। झोपड़ी रहनेको मिलती है और रात-दिन काम करना पड़ता है। जरा भी देर हुई तो अपसर कोड़ोंसे मारता है। पांच साल तक आनेका हुकुम नहीं है, उसपर तरह-तरहकी सखती होती रहती है। औरतोंकी बड़ी बेइज्जती होती है, किसीकी आबरू बचने नहीं पाती। अपसर सब गोरे हैं, यह औरतों को पकड़ ले जाते हैं। अल्लाह न करे कि कोई उन दलालोंके फन्देमें फंसे। पांच छ सालमें कुछ रुपये जरूर हो जाते हैं, पर उस लतखोरीसे तो अपने देसकी रूखी ही अच्छी। मुझे तो विस्सास ही नहीं आता कि हलधर उनके फांसेमें आ जाय।

हरदास--साधु लोग भी आदमियोंको बहका ले जाते हैं।

फत्तू--हां सुना तो है मगर हलधर कभी साधुओं की संगतमें नहीं बैठा। गाँजे-चरसकी भी चाट नहीं कि इसी लालचसे जा बैठता हो। मंगरू--साधु आदमियोंको बहकाकर क्या करते हैं?

फत्तू--भीख मगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैं, बर्तन मंजवाते हैं, गांजा भरवाते हैं। भोले आदमी समझते हैं बाबाजी सिद्ध हैं, प्रसन्न हो जायंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जायगा, मुकुत बन जायगी वह घातेमें। कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थों के लालचमें साधुओंके साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनोंमें यही टहलुवे सन्त बन बैठते हैं और अपने टहलके लिये किसी दूसरेको मूंड़ते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही है, न कामचोर ही है।

हरदास--कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगा। तुम्हारा उसके साथ आठों पहरका उठना-बैठना है।

फत्तू--मेरी समझमें तो वह परदेश चला गया। २००)कंचन सिंहके आते थे। ब्याज समेत २५०) हुए होंगे। लगानकी धौंस अलग। अभी दुधमुहा बालक है, संसारका रंग ढङ्ग नहीं देखा, थोड़ेमें ही फूल उठता है और थोड़े ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगा कहीं परदेश चलूं और मेहनत मजूरी करके सौ दो सौ ले आऊ। दो चार दिन में चिट्ठी पत्तरी आयेगी।

मंगरू--और तो कोई चिन्ता नहीं, मर्द है जहाँ रहेगा वहीं कमा खायगा, चिन्ता तो उसके घरवालीकी है। अकेले कैसे रहेगी? हरदास--मैके भेज दिया जाय।

मंगरू--पूछो, जायगी?

फत्तू--पूछना क्या है कभी न जायगी। हलधर होता तो जाती। उसके पीछे कभी नहीं जा सकती।

राजे०--(द्वारपर खड़ी होकर) हां काका ठीक कहते हो। अभी मैके चली जाऊं तो घर और गांववाले यही न कहेंगे कि उनके पीछे गांवमें दस पांच दिन भी कोई देख-भाल करनेवाला नहीं रहा तभी तो चली आई। तुम लोग मेरी कुछ चिन्ता न करो। सलोनी काकीको घरमें सुला लिया करूंगी। और डर ही क्या है। तुम लोग तो हो ही।