संग्राम/२.४

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ९५ ]


चतुर्थ दृश्य
स्थान--हलधरका घर, राजेश्वरी और सलोनी आंगन में
लेटी हुई हैं, समय--आधारात।

राजेश्वरी--(मनमें) आज उन्हें गये दस दिन हो गये। मंगल मङ्गल पाठ,बुद्ध नौ,वृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिली, न कोई चिट्ठी न पत्तर। मेरा मन बार-बार यही कहता है कि यह सब सबलसिंहकी करतूत है। ऐसे दानी धर्मात्मा पुरुष कम होंगे। लेकिन मुझ नसीबों जलीके कारन उनका दान धर्म सब मिट्टीमें मिला जाता है। न जाने किस मनहूम घड़ीमें मेरा जनम हुआ! मुझमें ऐसा कौनसा गुन है? न मैं ऐसी सुन्दरी हूँ, न इतने बनाव सिंगारसे रहती हूँ। माना इस गाँवमें मुझसे सुन्दर और कोई स्त्री नहीं है। लेकिन शहरमें तो एकसे एक पड़ी हुई हैं। यह सब मेरे अभागका फल है। मैं अभागिनी हूं। हिरन कस्तूरीके लिये मारा जाता है। मैना अपनी बोलीके लिये पकड़ी जाती है। फूल अपनी सुगन्धके लिये तोड़ा जाता है। [ ९६ ]मैं भी अपने रूप-रङ्ग के हाथों मारी जा रही हूँ।

सलोनी--क्या नींद नहीं आती बेटी।

राजे०--नहीं, काकी मन बड़ी चिन्तामें पड़ा हुआ है। भला क्यों काकी, अब कोई मेरे सिरपर तो रहा नहीं, अगर कोई पुरुष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूँ?

सलोनी--बेटी गाँवके लोग उसे पीसकर पी जायँगे।

राजे०--गांववालोंपर बात खुल गई तब तो मेरे माथेपर कलङ्क लग ही जायगा।

सलोनी--उसे दण्ड देना होगा। उससे कपट-प्रेम करके उसे विष पिला देना होगा। विष भी ऐसा कि फिर वह आँखें न खोले। भगवानको, चन्द्रमाको, इन्द्रको, जिस अपराधका दंड मिला था क्या हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुँहसे मीठी-मीठी बातें करो पर मनमें कटार छिपाये रखो।

राजे०--(मनमें) हां अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपटसे ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सही, दानी सही, विद्वान सही। यह भी जानती हूं कि उन्हें मुझ से प्रेम है, सच्चा प्रेम है। यह मुझे पाकर मुग्ध हो जायँगे, मेरे इसारोंपर नाचेंगे, मुझपर अपने प्राण न्यौछावर करेंगे। क्या मैं इस प्रेमके बदले कपट कर सकूँगी। जो मुझपर जान देगा, मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी। यह बात मरदोंमें ही है कि जब वह किसी दूसरी

[ ९७ ]स्त्रीपर मोहित हो जाते हैं तो पहली स्त्रीके प्राण लेनेसे भी नहीं हिचकते। भगवान यह मुझसे कैसे होगा? (प्रगट) क्यों काकी, तुम अपनी जवानी में तो बडी सुन्दर रहीं होंगी?

सलोनी--यह तो नहीं जानती बेटी, पर इतना जानती हूं कि तुम्हारे काकाकी आँखोंमें मेरे सिवा और कोई स्त्री जँचती ही न थी। जबतक चार-पाँच लड़कों की माँ न हो गई पनघटपर न जाने दिया।

राजेश्वरी--बुरा न मानना काकी, योंही पूछती हूं, उन दिनों कोई दूसरा आदमी तुमपर मोहित हो जाता और काकाको जेहल भिजवा देता तो तुम क्या करतीं?

सलोनी--करती क्या, एक कटारी अंचलके नीचे छिपा लेती। जब वह मेरे ऊपर प्रेमके फूलों की वर्षा करने लगता, मेरे सुख विलासके लिये संसारके अच्छे अच्छे पदार्थ जमा कर देता, मेरे एक कटाक्षपर, मेरे एक मुस्क्यानपर, एक भावपर फूला न समाता, तो मैं उससे प्रमकी बातें करने लगती। जब उसपर नसा छा जाता, वह मतवाला हो जाता तो कटार निकालकर उसकी छातीमें भोंक देती।

राजे०--तुम्हें उसपर तनिक भी दया न आती?

सलोनी--बेटी, दया दीनोंपर की जाती है कि अत्याचारियोंपर। धर्म प्रेमके ऊपर है, उसी भांति जैसे चन्द्रमा सूरजके ऊपर [ ९८ ]है। चन्द्रमाकी जोति देखने में अच्छी लगती है, लेकिन सूरजकी जोतिसे संसारका पालन होता है।

राजे०--(मनमें) भगवान, मुझसे यह कपट व्यवहार कैसे निभेगा। अगर कोई दुष्ट, दुराचारी आदमी होता तो मेरा काम सहज था। उसकी दुष्टता मेरे क्रोध को भड़का देती। भय तो इस पुरुषकी सज्जनतासे है। इससे बड़ा भय उसके निष्कपट प्रेमसे है। कहीं प्रमकी तरङ्गोंमें बह तो न जाऊँगी, कहीं विला-समें तो मतवाला न हो जाऊँगी। कहीं ऐसा तो न होगा कि महलों को देखकर मनमें इस झोपड़ेका निरादर होने लगे, तकियों पर सोकर यह टूटी खाट गड़ने लगे,अच्छे-अच्छे भोजन के सामने इस रुखे-सूखे भोजनसे मन फिर जाय, लौंडियोंके हाथों पान तरह फेरे जानेसे यह मेहनत मजूरी अखरने लगे। सोचने लगूं ऐसा सुख पाकर क्यों उसपर लात मारूं। चार दिनकी जिन्दगानी है, उसे छल कपट, मरने मारनेमें क्यों गंवाऊं। भगवानकी जो इच्छा थी वह हुआ और हो रहा है। (प्रगट) काकी, कटार भोंकते हुए तुम्हें डर न लगता?

सलोनी--डर किस बातका? क्या मैं पंछीसे भी गई बीती हूँ। चिड़ियाको सोनेके पिंजरेमें रखो,मेवे और मिठाई खिलाओ, लेकिन वह पिंजरेका द्वार खुला पाकर तुरन्त उड़ जाती है। अब

बेटी सोओ, आधी रातसे ऊपर हो गई। मैं तुम्हें गीत सुनाती हूँ। [ ९९ ]

(गाती है)

मुझे लगन लगी प्रभु पावनकी।

राजे०--(मनमें) इन्हें गानेकी पड़ी है। कंगाल होकर जैसे आदमीको चोरका भय नहीं रहता, न आगमकी कोई चिन्ता, एसी भांति जब कोई आगे पीछे नहीं रहता तो आदमी निश्चिन्त हो जाता है। (प्रगट) काकी, मुझे भी अपनी भांति प्रसन्नचित्त रहना सिखा दो।

सलोनी--ऐ, नौज बेटी, चिन्ता धन और जनसे होती है। जिसे चिन्ता न हो वह भी कोई आदमी है। यह अभागा है, उसका मुंह देखना पाप है। चिन्ता बड़े भागोंसे होती है। तुम समझती होगी बुढ़िया हरदम प्रसन्न रहती है सभी तो गाया करती है। सच्ची बात यह है कि मैं गाती नहीं रोती हूँ। आदमीको बड़ा आनन्द मिलता है तो रोने लगता है उसी भांति जब दुःख अथाह हो जाता है तो गाने लगता है। इसे हंसी मत समझो, यह पागलपन है। मैं पगली हूँ। पचास आदमियोंका परिवार आंखोंके सामनेसे उठ गया। देखें भगवान इस मिट्टीकी कौन गत करते हैं।

(गातीहै)

मुझे लगन लगी प्रभु पावनकी।
एजी पावनकी, घर लावनकी॥

[ १०० ]

छोड़ काज अरु लाज जगतको
निश दिन ध्यान लगावनकी॥मुझे लगन०॥
सुरत उजाली खुल गई ताली
गगन महलमें जावनकी॥मुझे०॥
झिल मिल कारी जोति निहारी
जैसे बिजली सावनकी
मुझे लगन लगी प्रभु पावनकी।

बेटी! तुम हलधरका सपना तो नहीं देखती हो?

राजे०--बहुत बुरे-बुरे सपने देखती हूँ। इसी डरके मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।

सलोनी--कलसे तुल्सा माताको दिया चढ़ा दिया करो। पतवार मंगलको पीपलमें पानी दे दिया करो। महाबीर सामीको लड्डूकी मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रतापसे लौट आवे। अच्छा अब महाबीरजीका नाम लेकर सो जाव। रात बहुत गई है। दो घरीमें भोर जो जायगा।

(सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।)

राजे०--(आप ही आप) बुढ़िया सो रही है, अब मैं चलनेकी तैयारी करूं। छत्री लोग रनपर जाते थे तो खूब सज कर जाते थे। मैं भी कपड़े लत्ते से लैस हो जाऊं। वह पांचों हथियार लगाते थे। मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वही पहन लेती [ १०१ ]हूँ। वह केसरका तिलक लगाते थे। मैं सिन्दूरका टीका लगा लेती हूँ। वह मलिच्छोंका संहार करने जाते थे मुझे देवताका संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय हो।............ लेकिन छत्री लोग तो हँसते हुए घरसे विदा होते थे। मेरी आँखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता है! इसे सातवें दिन लीपती थी, त्यौहारोंपर पोतनी मिट्टीसे पोतती थी। वैसी उमंगसे आँगनमें फुलवारी लगाती थी। अब कौन इनकी इतनी सेवा करेगा। दो ही चार दिनों में यहां भूतोंका डेरा हो जायगा। हो जाय! जब घरका प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूँ? आह, पैर बाहर नहीं निकलते; जैसे दीवारें खींच रही हो। इनसे गले मिल लूँ।

गाय भैंस कितने साधसे ली थी। अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चोंको भी न खेलाने पाई। बिचारी हुड़क-हुड़क कर मर जायगीं! कौन इन्हें मुँह अँधेरे भूसा खली देगा, कौन इन्हें तालाब में नहलायेगा। दोनों मुझे देखते ही खड़ी हो गईं। मेरी ओर मुँह बढ़ा रही हैं, पूछ रही हैं कि आज कहांकी तैयारी है। हाय! कैसे प्रेमसे मेरे हाथोंको चाट रही हैं! इनकी आँखोंमें कितना प्यार है! आओ आज चलते चलाते तुम्हें अपने हाथोंसे दाना खिला दूँ! हा भगवान, दाना नहीं खाती, मेरी ओर मुँह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस [ १०२ ]तरह बहला कर हमें छोड़े जाती है। इनके पाससे कैसे जाऊँ? रस्सी तुड़ा रही हैं, हुँकार मार रही हैं। वह देखो, बैल भी उठ बैठे। वह गये, इन विचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सुहलाया करते थे। लोग कहते हैं तुम्हें आनेवाली बातें मालुम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओ वह कहाँ हैं, कैसे हैं, कब आयँगे? क्या अब कभी उनकी सुरत देखनी न नसीब होगी। ऐसा जान पड़ता है इनकी आँखोंमें आँसू भरे हैं। जाओ, अब तुम सभोंको भगवानके भरोसे छोड़ती हूँ। गांववालोंको दया आवेगी तुम्हारी सुधि लेंगे, नहीं तो यहीं भूखे खड़ी रहोगी। फत्तू मियाँ तुम्हारी सेवा करेंगे। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगा। यह दो आँखें भी न करेंगे कि अपने बैलोंको दाना और खली दें, तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल दें। लो अब विदा होती हूँ। भोर हो रहा है, तारे मद्धिम पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने बिसूरनेसे काम न चलेगा। अब तो मैं हूँ और प्रेम-कौशलका रजछेत्र है। भगवतीका और उनसे भी अधिक अपनी दृढ़ताका भरोसा है।