संग्राम/२.९

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १३३ ]


नवा दृश्य
(स्थान--मधुबन,हलधरका मकान, गाँवके लोग जमा हैं।
समय--ज्येष्ठकी सन्ध्या।)

हलधर--(बाल बढ़े हुए, दुर्बल, मलिन मुख) फत्तू काका, तुमने मुझे नाहक छुड़ाया, वही क्यों न घुलने दिया। अगर मुझे मालूम होता कि घर की यह दसा है तो उधरसे ही देश-विदेशकी राह लेता, यहां अपना काला मुँह दिखाने न आता। मैं इस औरतको पतिव्रता समझता था। देवी समझकर उसकी पूजा करता था। पर यह नहीं जानता था कि वह मेरे पीठ फेरते ही यों मेरे पुरखाओंके माथेपर कलंक लगायेगी। हाय!

सलोनी--बेटा, वह सचमुच देवी थी ऐसी पतिवरता नारी मैं ने नहीं देखी। तुम उसपर सन्देह करके उसपर बड़ा अन्याय कर रहे हो। मैं रोज रातको उसके पास सोती थी। उसकी आखें रातकी रात खुली रहती थीं। करवटें बदला करती। मेरे बहुत कहने-सुनने पर कभी-कभी भोजन बनाती थी, पर दो [ १३४ ]चार कौर भी न खाया जाता। मुँह जूठा करके उठ आती। रात दिन तुम्हारी ही चर्चा तुम्हारी ही बात किया करती थी। शोक और दुःखमें जीवनसे निरास होकर उसने चाहे प्राण दे दिये हों पर वह कुलको कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उसपर यह दोस लगायें तो मुझे उनपर विस्सस न आयेगा।

फत्तू--काकी, तुम तो उसके साथ सोती ही बैठती थीं, तुम जितना जानती हो उतना मैं कहाँसे जानूंगा, लेकिन इस गांवमें सत्तर वरसकी उमिर गुजर गई, सैकड़ों बहुएं आईं पर किसी में वह बात नहीं पाई जो इसमें है। न ताकना, न झांकना, सिर झुकाये अपनी राह जाना, अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।

हलधर--काका, किसी तरह मनको समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में गिर गई तो यह सोचकर क्यों न मनको धीरज दूं कि उसका नग कच्चा था। हाय, अब इस घरमें पांव नहीं रखा जाता, ऐसा जान पड़ता है कि घरकी जान निकल गई।

सलोनी--जाते जाते घरको लीप गई है। देखो अनाज मटकोंमें रखकर इनका मुंह मिट्टीसे बन्द कर दिया है। यह घीकी हांडी है, लबालब भरी हुई, बिचारीने संघ कर रखा था। क्या कुल्टाएं गृहस्तीकी ओर इतना ध्यान देती हैं? एक तिनका [ १३५ ]भी तो इधर-उधर पड़ा नहीं दिखाई देता।

हलधर--(रोकर) काकी, मेरे लिये अब संसार सूना हो गया। वह गंगाकी गोदमें चली गई। अब फिर उसकी मोहिनी मूरत देखनेको न मिलेगी। भगवान बड़ा निर्दयी है। इतनी जल्द छीन लेना था तो दिया ही क्यों था।

फत्तू--बेटा, अब तो जो कुछ होना था वह हो चुका, अब सबर करो, और अल्लातालासे दुआ करो कि उस देवीको निजात दे। रोने-धोनेसे क्या होगा। वह तुम्हारे लिये थी ही नहीं। उसे भगवानने रानी बननेके लिये बनाया था। कोई ऐसी ही बात हो गई थी कि वह कुछ दिनोंके लिये इस दुनियामें आई थी। वह मीयाद पूरी करके चली गई। यही समझकर सबर करो

हलधर--काका, नहीं सबर होता। कलेजेमें पीड़ा हो रही है। ऐसा जान पड़ता है कोई उसे जबरदस्ती मुझसे छीन ले गया हो। हां, सचमुच वह मुझसे छीन ली गई है, और यह अत्याचार किया है सबलसिंह और उनके भाईने। न मैं हिरासतमें जाता न घर यो तबाह होता। उसका बध करनेवाले उसकी जान लेनेवाले यही दोनों भाई हैं। नहीं, इन दोनों भाइयोंको क्यों बदनाम करूं, सारी विपत्ति इस कानून की लाई हुई है जो गरीबोंको धनी लोगोंकी मुट्ठीमें कर देता है। फिर [ १३६ ]कानूनको क्यों बुरा कहूँ। जैसा संसार वैसा व्यवहार।

फत्तू--बस यही बात है जैसा संसार वैसा व्यवहार। धनी लोगोंके हाथमें अखतियार है। गरीबोंको सताने के लिये जैसा कानून चाहते हैं बनाते हैं। बैठो, नाई बुलाये देता हूं बाल बनवा लो।

हलघर--नहीं काका, अब इस घरमें न बैठूंगा। किसके लिये घरवारके झमेलेमें पडूं। अपना पेट है, उसकी क्या चिन्ता। इस अन्यायी संसारमें रहने का जी नहीं चाहता। ढाई सौ रुपयोंके पीछे मेरा सत्यानास हो गया। ऐसा परबस होकर जिया ही तो क्या। चलता हूँ, कहीं साधु-बैरागी हो जाऊंगा, मांगता खाता फिरूंगा।

हरदास--तुम तो साधु वैरागी हो जावोगे? यह रुपये कौन भरेगा?

फत्तू--रुपये पैसेकी कौन बात है, तुमको इससे क्या मतलब? यह तो आपसका व्यवहार है, हमारी अटकपर तुम काम आये, तुम्हारी अटकपर हम काम आयेंगे। कोई लेन-देन थोड़ा ही किया है!

सलोनी--इसकी बिच्छूकी भांति डंक मारनेकी आदत है।

हलधर-नहीं इसमें बुरा माननेकी कोई बात नहीं है। फत्तू काका, मैं तुम्हारी नेकीको कभी भूल नहीं सकता। तुमने जो [ १३७ ]कुछ किया यह अपना बाप भी न करता। जबतक मेरे दममें दमः है तुम्हारा और तुम्हारे खानदानका गुलाम बना रहूँगा। मेरा घर द्वार, खेत बारी, बैल बधिये, जो कुछ है सब तुम्हारा है, और मैं तुम्हारा गुलाम हूँ। बस अब मुझे बिदा करो, जीता रहूँगा तो फिर मिलूंगा नहीं तो कौन किसका होता है। काकी, जाता हूं, सब भाइयोंको राम राम!

फत्तू--(रास्ता रोककर गदगद कण्ठसे) बेटा, इतना दिल छोटा न करो। कौन जाने, अल्लाताला बड़ा कारसाज है, कहीं बहूका पता लग ही जाय। इतने अधीर होनेकी कोई बात नहीं है।

हरदास--चार दिन में तो दूसरी सगाई हो जायगी।

हलधर--भैया, दूसरी सगाई अब उस जनममें होगी। इस जनममें तो अब ठोकर खाना ही लिखा है। अगर भगवानको यह न मंजूर होता तो क्या मेरा बना बनाया घर उजड़ जाता?

फत्तू--मेरा तो दिल बार बार कहता है कि दो-चार दिनमें राजेश्वरीका पता जरूर लग जायगा। कुछ खाना बनावो, खावो, सवेरे चलेंगे फिर इधर-उधर टोह लगायेंगे।

हरदास--पहले जाके तालाबमें अच्छी तरह असनान कर लो। चलूं जानवर हरसे आ गये होंगे।

(सब चले जाते हैं।)

[ १३८ ]हलधर--यह घर फाड़े खाता है, इसमें तो बैठा भी नहीं

जाता। इस वक्त काम करके आता था तो उसकी मोहनी मूरत देखकर चित्त कैसा खिल जाता था। कंचन, तूने मेरा सुख हर लिया, तूने मेरे घरमें आग लगा दी। ओहो, वह कौन उजली साड़ी पहने उस घरमें खड़ी है। वही है, छिपी हुई थी। खड़ी है, आती नहीं। (उस घरके द्वारपर जाकर) राम! राम! कितना भरम हुआ, सनकी गांठ रखी हुई है। अब उसके दर्शन फिर नसीब न होंगे। जीवनमें अब कुछ नहीं रहा। हा, पापी, निर्दयी! तूने सर्वनाश कर दिया, मुट्ठी भर रुपयोंके पीछे! इस अन्यायका मजा तुझे चखाऊंगा। तू भी क्या समझेगा कि गरीबोंका गला काटना कैसा होता है.........

(लाठी लेकर घरसे निकल जाता है)