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संग्राम/२.८

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १२६ से – १३२ तक

 


आठवां दृश्य
(समय--संध्या, जेठका महीना। स्थान--मधुबन, कई
आदमी फत्तूके द्वारपर खड़ा है।)

मंगरू--फत्तू तुमने बहुत चक्कर लगाया, सारा संसार छान डाला।

सलोनी--बेटा तुम न होते तो हलधरका पता लगना मुसकिल था।

हरदास--पता लगाना तो मुसकिल नहीं था, हाँ जरा देर में लगता।

मंगरू--कहाँ कहाँ गये थे?

फत्तू--पहले तो कानपुर गया। वहाँके सब पुतलीघरोंको देखा। कहीं पता न लगा। तब लोगोंने कहा बम्बई चले जाव। वहां चला गया मुदा उतने बड़े सहरमें कहा-कहां ढूंढता। ४, ५ दिन पुतली घरों में देखने गया, पर हिसाव छूट गया। सहर काहेको है पूरा मुलुक है। जान पड़ता है ससार भरके आदमी वहीं आकर जमा हो गये हैं। तभी तो यहां गांवमें आदमी नहीं मिलते। सच मानों कुछ नहीं तो एक हजार मील तो होंगे। रात दिन उनकी चिमनियोंसे धुआं निकला करता है। ऐसा जान पड़ता है राक्षसों की फौज मुंहसे आग निकालती आकाशसे लड़ने जा रही है। आखिर निराश होकर वहांसे चला आया। गाड़ीमें एक बाबूजीसे बातचीत होने लगी। मैंने सब रामकहानी उन्हें सुनाई। बड़े दयावान आदमी थे। कहा किसी अकबार में छपा दो कि जो उनका पता बता देगा उसे ५०) इनाम दिया जायगा। मेरे मनमें भी बात जम गई। बाबूजी हीसे मसौदा बनवा लिया और यहां गाड़ीसे उतरते ही सीधे अकबारके दफ्तरमें गया। छपाईका दाम देकर चला आया। पांचवें दिन वह चपरासी यहां आया जो मुझसे खड़ा बातें कर रहा था। उसने रत्ती-रत्ती सब पता बता दिया। हलधर न कलकत्ता गया है न बम्बई, यहीं हिरासतमें है। वही कहावत हुई गोदमें लड़का सहरमें ढिंढोरा।

मंगरू—हिरासतमें क्यों है?

फत्तू—महाजनकी मेहरबानी और क्या। माघ-पूसमें कंचन सिंहके यहांसे कुछ रुपये लाया था। बस नादिहन्दीके मामले में गिरफ्तार करा दिया।

हरदास—उनके रुपये तो यहां और कई आदमियोंपर आते हैं, किसीको गिरफतार नहीं कराया। हलधरपर ही क्यों इतनी टेढ़ी निगाह की?

फत्तू--पहले सबको गिरफ्तार कराना चाहते थे, पर बादको सबलसिंहने मना कर दिया। दावा दायर करनेकी सलाह थी। पर बड़े ठाकुर तो दयावान जीव हैं, दावा भी मुल्तवी कर दिया, इधर लगान भी मुआफ कर दी। मुझसे जब चपरासीने यह हाल कहा तो जैसे बदनमें आग लग गई। सीधे कंचनसिंहके पास गया और मुंहमें जो कुछ आया कह सुनाया। सोच लिया था करेंगे क्या, यही न होगा अपने आदमियोंसे पिटवावेंगे तो मैं भी दो-चारका सिर तोड़के रख दूंगा, जो होगा देखा जायगा। मगर बिचारेने जुबान तक नहीं खोली। जब मैंने कहा, आप बड़े धर्मात्माकी पूँछ बनते हैं, सौ दो सौ रुपयोंके लिये गरीबों को जेहलमें डालते हैं इस आदमीका तो यह हाल हुआ, उसकी घरवालीका कहीं पता नहीं, मालूम नहीं कहीं डूब मरी, या क्या हुआ, यह सब पाप किसके सिर पड़ेगा, खुदा तालाको क्या मुंह दिखाओगे तो बिचारे रोने लगे। लेकिन जब रुपयों की बात आई तो उस रकममें एक पैसा भी छोड़नेकी हामी नहीं भरी।

सलोनी--इतनी दौड़धूप तो कोई अपने बेटेके लिये भी न करता। भगवान इसका फल तुम्हें देंगे।

हरदास--महाजनके कितने रुपये आते हैं?

फत्तू--कोई ढाई सौ होंगे। थोड़ी थोड़ी मदद कर दो तो आज ही हलधरको छुड़ा लूं। मैं बहुत जेरबारीमें पड़ गया हूँ नहीं तो तुम लोगोंसे न मांगता।

मंगरू-–भैया, यहाँ रुपये कहां, जो कुछ लेई पूंजी थी वह बेटीके गौनेमें खर्च हो गई। उसपर पत्थरने और भी चौपट कर दिया।

सलोनी--बनेके सीथो सब होते हैं, बिगड़ेका साथी कोई नहीं होता?

मँगरू--जो चाहे समझो, पर मेरे पास कुछ नहीं है।

हरदास--अगर १०,२०) दे भी दें तो कौन जल्दी मिले जाते हैं। बरसोंमें मिलें तो मिलें। उसमें सबसे पहले अपनी जमा लेंगे, तब कहीं औरोंको मिलेगा।

मंगरू--भला इस दौड़धूप में तुम्हारे कितने रुपये लगे होंगे?

फत्तू--क्या जाने, मेरे पास कोई हिसाब-किताब थोड़ा ही है?

मँगरू--तब भी अन्दाजसे?

फत्तू--कोई १००) लगे होंगे।

मँगरू--(हरदासको कनखियोंसे देखकर) बिचारा हलधर तो बिना मौत मर गया। १००) इन्होंने चढ़ा दिये, १५०) महाजनके होते हैं, गरीब कहाँतक भरेगा? फत्तू--मुसीबतमें जो मदद की जाती है वह अल्लाह की राहमें की जाती है। उसे कर्ज नहीं समझा जाता।

हरदास--तुम अपने १००) तो सीधे ही कर लोगे?

सलोनी--(मुंह चिढ़ाकर) हाँ दलालीके कुछ पैसे तुझे भी मिल जायंगे। मुंह धो रखना। हाँ बेटा, उसे छोड़ाने के लिये २५०) की क्या फिकर करोगे? कोई महाजन खड़ा किया है?

फत्तू--नहीं काकी, महाजनोंके जाल में न पड़ूंगा। कुछ तुम्हारी बहूके गहने पाते हैं वह गिरो रख दूंगा। रुपये भी उसके पास कुछ-न-कुछ निकल ही आयेंगे। बाकी रुयये अपने दोनों नोट बेंचकर खड़े कर लूंगा।

सलोनी--महीने ही भरमें तो तुझे फिर बैल चाहने होंगे।

फत्तू-–देखा जायगा। हलधरके बैलोंसे काम चलाऊँगा।

सखोनी--बेटा तुम तो हलधरके पीछे तबाह हो गये।

फत्तू--काकी, इन्हीं दिनोंके लिये तो छाती फाड़ २ कमाने हैं? और लोग थाने अदालतमें रुपये बर्बाद करते हैं। मैंने तो एक पैसा भी बर्बाद नहीं किया। हलधर कोई गैर तो नहीं है, अपना ही लड़का है। अपना लड़का इस मुसीबतमें होता तो उसको छुड़ाना पड़ता न। समझ लूँगा अपनी बेटीके निकाहमें लग गये।

सलोनी-(हरदासको ओर देखकर) देखा, मर्द ऐसे होते हैं। ऐसे ही सपूतोंके जन्मसे माताका जीवन सुफल होता है। तुम दोनों हलधरके पट्टीदार हो, एक ही परदादाके परपोते हो। पर तुम्हारा लोहू सफेद हो गया है। तुम तो मनमें खुश होगे कि अच्छा हुआ बह गया, अब उसके खेतोंपर हम कबजा कर लेंगे।

हरदास--काकी, मुँह न खुलवाओ। हमें कौन हलधरसे वाह-वाही लूटनी है, न एकके दो वसूल करने हैं, हम क्यों इस झमेले में पढ़ें। यहाँ न ऊधोका लेना, न माधोका देना, अपने कामसे काम है। फिर हलधरने कौन यहां किसीकी मदद कर दी? प्यासों मर भी जाते तो पानीको न पूछता। हाँ दूसरोंके लिये चाहे घर लुटा देते हों।

मँगरू--हलधरकी बात ही क्या है, अभी कलका लड़का है। उसके बापने भी कभी किसीकी मदद की? चार दिनकी आई बहू है, वह भी हमें दुसमन समझती है।

सलोनी--(फत्तू से) बेटा, सांझ हुई, दिया-बत्ती करने जाती हूं। तुम थोड़ी देरमें मेरे पास आना, कुछ सलाह करूँगी।

फत्तू--अच्छा एक गीत तो सुनाती जाव। महीनों हो गये तुम्हारा गाना नहीं सुना।

सलोनी--इन दोनोंको अब कभी अपना गाना न सुनाऊँगी।

हरदास--लो हम कानों में उँगली रखे लेते हैं।

सलोनी--हां, कान खोलना मत।

(गाती है)

ढूंढ फिरी सारा संसार, नहीं मिला कोई अपना।
भाई भाई बैरी है गये, बाप हुआ जमदूत॥
दया धरमका उठ गया डेरा, सज्जनता है सपना।
नहीं मिला कोई अपना॥

(जाती है)