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संग्राम/३.४

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १७१ से – १७६ तक

 


चतुर्थ दृश्य
(स्थान—गंगातट, बरगदके घने वृक्षके नीचे तीन चार आदमी
लाठियां और तलवारें लिये बैठे हैं, समय—१० बजे रात।)

एक डाकू—१० बजे और अभीतक लौटी नहीं।

दूसरा—तुम उतावले क्यों हो जाते हो। जितनी ही देरमें लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है।

तीसरा—इसके बदनपर कोई पांच हजारके गहने तो होंगे?

चौथा—सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन ठनकर निकलेगी तो १० हजारसे कमका माल नहीं।

पहला—यह शिकार आज हाथ आ जाय तो कुछ दिनों चैनसे बैठना नसीब हो। रोज रोज रातरात भर घातमें बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीरको आराम न मिला तो बात ही क्या रही। दूसरा—भाग्यमें आराम बदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठोंकी तरह गद्दी मसनद लगाये बैठे होते। हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाय पर आराम नहीं मिल सकता।

तीसरा—कुकरम क्या हमीं करते हैं, यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगारके नामसे डाका मारते हैं, अमले घूसके नामसे डाका मारते हैं, वकील मेहनतानाके नामसे डाका मारता है। पर उन डकैतोंके महल खड़े हैं, हवागाड़ियोंपर सैर करते फिरते हैं, पेघवान लगाये मखमली गद्दियोंपर पड़े रहते हैं, सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी २ पदवियां देती है। तो हमी लोगोंपर विधाताकी निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है?

चौथा—काम करनेका ढङ्ग है। यह लोग पढ़े लिखे हैं इसलिये हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मन्दिर में पुजता है और वही नालियोंमें लगाया जाता है।

पहला—चुप, कोई आ रहा है।

(हलधरका प्रवेश, गाता है।)

सात सखी पनघट पर आईं कर सोलह सिंगार
अपना दुख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार।
पहली सखी बोली सुनो चार बहनों मेरा पिया सराबी है,

कफ़को कौड़ी पास न रखता दिलका बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता घरकी अजब खराबी है।
लोटा थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात बातपर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथमें दोना कुल्हड़, दूजे बोलत गुलाबी है।

पहला डाकू—कौन है, खड़ा।

हलधर—तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। काहो क्या कहते हो?

दूसरा डाकू—(साथियोंसे) जवान तो बड़ा गठीला और जीवटका है। (हलधरसे) किधर चले? घर कहां है?

हलधर—यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे? अपना मतलब कहो।

तीसरा डाकू—हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलासी लिये किसीको जाने नहीं देते।

हलधर—(चौकन्ना होकर) यहाँ क्या धरा है जो तलाशीको धमकाते हो। धनके नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस पांच सिर फोड़े दे नहीं सकता।

चौथा—तुम समझ गये हम लोग कौन हैं या नहीं?

हलधर—ऐसा क्या निरा बुद्धू ही समझ लिया है।

चौथा—तो गाँठमें जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो?

हलधर—तुम भी निरे गंवार हो। चीलके घोंसलेमें माँस ढूंढ़ते हो।

पहला—यारो संभलकर, पालकी आ रही है।

चौथा—बस ठूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों।

(ज्ञानीकी पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिये कहारोंपर

जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते

हैं। गुलाबी बरगदकी आड़में छिप जाती है।)

एक डाकू—ठकुराइन, जानकी खैर चाहती हो तो सब गहने चुपकेसे उतारके रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुँह बन्द करना पड़ेगा, और हम तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठाना चाहते।

दूसरा—सोचती क्या हो, यहाँ ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बन्दुक लिये आते हो। चटपट उतारो।

तीसरा—(पालकीका परदा उठाकर) यह यों न मानोगी ठकुराइन है न, हाथ पकड़कर बाँध दो, उतार लो सब गहने।

(हलधर लपककर उस डाकूपर लाठी चलाता है और

वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों
बाकी डाकू उसपर टूट पड़ते हैं। लाठियाँ
चलने लगती हैं।) हलधर—वह मारा, एक और गिरा।

एक डाकू—भाई तुम जीते हम हारे,शिकार क्यों भगाये देते हो। मालमें आधा तुम्हारा।

हलधर—तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियोंपर हाथ उठाते हो। मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा।

डाकू—यार १० हजारसे कमका माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदारको १००) २००) देकर टिर्का देंगे। बाकी सारा अपना है।

हलधर—(लाठी तानकर) भाग जाओ नहीं तो हड्डी तोड़के रख दूंगा।

(दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारोंको बुलाता है जो
एक मन्दिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।)

ज्ञानी—भैया आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी बिनती है कि मेरे घरतक चलो। तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूँगी।

हलधर—रानीजी यह तुम्हारी भूल है। मैं देवता हूँ, न दैत्य। मैं भी घातक हूं। पर मैं अबला औरतोंका घातक नहीं, हत्यारों हीका घातक हूं। जो धनके बलसे गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घरको भूतोंका डेरा बना देते हैं। जाओ, अबसे गरीबोंपर दया रखना, नालिस, कुड़की, जेहल, यह सब मत होने देना।

(नदीकी ओर चला जाता है। गाता हैं)

दूजी सखी बोली सुनो सखियो मेरा पिया जुआरी है।
रात २ भर फड़पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है।
घर और बार दांवपर हारा अब चोरीकी बारी है।
गहने कपड़ेको क्या रोऊँ पेटकी रोटी भारी है।
कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना कौड़ी सौत हमारी है।

ज्ञानी—(गुलाबीसे) आज भगवानने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जानकी भी कुशल न थी।

गुलाबी—यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरोंके पीछे कौन अपनी जान जोखिममें डालता है।

(पटाक्षेप)