संग्राम/३.५

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १७७ ]


पांचवा दृश्य
(स्थान—मधुबन, समय—९ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक

वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछालेपर बैठे हुए हैं,
फत्तू, मंगरू, हरदास आदि धूनीसे

ज़रा हटकर बैठे हैं।)

चेतनदास—संसार कपटमय है, किसी प्राणीका विश्वास नहीं। जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी, बड़े धर्मात्मा प्राणी हैं, उनकी चित्तवृत्तिको ध्यानसे देखो तो स्वार्थसे भरा पावोगे। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश और कीर्तिकी प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचरण मनुष्य संसारमें न होगा।

मंगरू—बाबा आप महात्मा हैं, आपकी जुबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राजमें हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।

हरदास—जेठीकी लगान माफ कर दी थी। अब असामियोंको भूसे चारेके लिये बिना व्याजके रुपये दे रहे हैं। [ १७८ ]फत्तू—उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियोंपर हमेसा परबरसकी निगाह रखते हैं।

चेतनदास—यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्ध कर लेता है और अपकीति भी नहीं होने देता। रुपये से,मीठे वचनसे, नम्रतासे लोगोंको वशीभूत कर लेता है।

मंगरू—महाराज आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदासे देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी कि किसीसे एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरहकी बेगार नहीं ली, और निगाहका तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं।

हरदास—कभी किसीपर निगाह नहीं डाली।

चेतनदास—भली प्रकार सोचो अभी हालहीमें कोई स्त्री यहाँसे निकल गई है।

फत्तू—(उत्सुक होकर) हाँ महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए।

चेतन—उसके पतिका भी पता नहीं है?

फत्तू—हाँ महाराज वह भी गायब है।

चेतन—स्त्री परम सुन्दरी है?

फत्तू—हां महाराज, रानी मालूम होती है।

चेतन—उसे सबलसिंहने घर डाल लिया है।

११ [ १७९ ]फत्तू—घर डाल लिया है?

मंगरू—झूठ है।

हरदास—विश्वास नहीं आता।

फत्तू—और हलधर कहाँ है?

चेतन—इधर उधर मारा मारा फिरता है। डकैती करने लगा है। मैंने उसे बहुत खोजा पर भेंट नहीं हुई।

(सलोनी गाती हुई आती है।)

मुझे जोगिन बनाके कहाँ गये रे जोगिया।

फत्तू—सलोनी काकी इधर आओ। राजेश्वरी तो सबलसिंहके घर बैठ गई।

सलोनी—चल झूठे, विचारीको बदनाम करता है।

मँगरू—ठाकुर साहबमें यह लत है ही नहीं।

सलोनी—मरदोंकी मैं नहीं चलाती, न इनके सुभावका कुछ पता मिलता है, पर कोई भरी गङ्गामें राजेश्वरीको कलंक लगाये तो भी मुझे विश्वास न आयेगा। वह ऐसी औरत नहीं।

फत्तू—विश्वास तो मुझे भी नहीं आता पर यह बाबाजी कह रहे हैं।

सलोनी—आपने आंखों देखा है।

चेतन—नित्य ही देखता हूँ। हाँ कोई दूसरा देखना चाहे [ १८० ]तो कठिनाई होगी। इसके लिये किरायेपर एक मकान लिया गया है, तीन लौडियाँ सेवा टहलके लिये हैं, ठाकुर प्रातःकाल जाता है और घड़ी भरमें वहाँसे लौट आता है। सन्ध्या समय फिर जाता है और ९.१० बजेतक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंहको समझाया पर वह इस समय किसीकी नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं सन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियोंका, ऐसे पाखंडियोंका संहार करूं। मैं पृथ्वीको ऐसे रंगे हुए सियारोंसे मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धनका बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्मका बल है। इसी बलसे मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगोंसे इस पापीको दण्ड देनेमें मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था कि देहातोंमें आत्माभिमानका अभी अन्त नहीं हुआ है, प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने ऊपर इतना घोर, पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबलने तुम लोगोंको मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभावने तुम्हारे आत्मसम्मानको कुचल डाला है। दयाकाआघात आत्याचारके आघातसे कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघातसे क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डालें। [ १८१ ]पर दयाकी चोट सिरको नीचा कर देती है, इससे मनुष्यकी आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमानका अन्त हो जाता है, वह नीच कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ तुममें कुछ लज्जाका भाव है या नहीं?

एक किसान—महाराज अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं। ऐसे दयावान पुरुषकी बुराई हमसे न होगी! औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे?

मंगरू—बस तुमने मेरे मनकी बात कही।

हरदास—वह सदासे हमारी परवरिस करते आये हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जायें?

दूसरा किसान—बागी हो भी जायें तो रहें कहां। हम तो उसकी मुट्ठीमें हैं। जब चाहे हमें पीस डाले। पुस्तैनी अदावत हो जायगी।

मंगरू—अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरोंकी लाज कोई क्या ढांकेगा।

हरदास—स्वामीजी आप संन्यासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारोंसे बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।

मंगरू—हां और क्या, आप तो अपने तपोबलसे ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप दे दें तो कुकर्मी [ १८२ ]खड़े खड़े भस्म हो जायं।

सलोनी—जा चिल्लू भर पानीमें डूब मर कायर कहींका। हलधर तेरे सगे चाचाका बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा। मुंहमें कालिख नहीं लगा लेता ऊपरसे बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घरमें बैठना चाहिये था। मर्द वह होते हैं, जो अपनी आनपर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो फिर मुंह खोला तो लुका लगा दूँगी।

मंगरू—सुनते हो फत्तू काका इनकी बातें। जमींदारसे बैर बढ़ाना इनके समझमें दिल्लगी है। हम पुलिसवालोंसे चाहे न डरें, अमलोंसे चाहे न डरें, महाजनसे चाहे बिगाड़ कर लें, पटवारीसे चाहे कहा-सुनी हो जाय, पर जमींदारसे मुंह लगना अपने लिये गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैं, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदारसे तो हमारा जन्म-मरनका व्यवहार है। उसके हाथमें तो हमारी रोटियां हैं। उससे ऐंठकर कहां जायँगे? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो पर सबलसिंहसे हम लड़ाई नहीं ठान सकते।

चेतनदास—(मनमें) मनोनीत आशा न पूरी हुई। हलधरके कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेगमें आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सबके सब कायर [ १८३ ]निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्तेसे इस बाधाको हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस कामके तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है पर है पोढ़ी नहीं तो इतने घमण्डसे बातें न करती। मियां गांठका पूरा तो नहीं पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजनामें पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर इन दोनोंसे कुछ धन मिल जाय तो सबइन्सपेक्टरको मिलाकर, कुछ माया जालसे कुछ लोभसे, काबूमें कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जाय। कुछ न होगा भण्डा तो फूट जायगा। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रगट) इस पापीको दण्ड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा। अब कोई दूसरी ही युक्ति काममें लानी चाहिये।

सलोनी—महाराज, मैं दीन दुखिया हूँ, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिये ही हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आये तो दे सकती हूं।

फत्तू—स्वामी जी मुझसे भी जो हो सकेगा करनेको तैयार हूँ। हाथोंमें तो अब मकदूर नहीं रहा पर और सब तरह हाजिर हूं।

चेतन—मुझे इस पापीका संहार करनेके लिये किसीकी [ १८४ ]मददकी आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तपके बलसे एक क्षणमें इसे रसातलको भेज सकता हूँ, पर शास्त्रोंमें ऐसे कामों के लिये योगबलका व्यवहार करना वर्जित है। इसीसे विवश हूँ। तुम धनसे मेरी कुछ सहायता कर सकते हो?

सलोनी—फत्तू की ओर सशंक दृष्टिसे ताकते हुए। महाराज थोड़ेसे रुपये धाम करनेको रख छोड़े थे। वह आपकी भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य हीका काम है।

फत्तू—काकी तेरे पास कुछ रुपये ऊपर हों तो मुझे उधार दे दे।

सलोनी—चल बातें बनाता है। मेरे पास रुपये कहांसे आयेंगे। कौन घरके आदमी कमाई कर रहे हैं। ४० साल बीत गये बाहरसे एक पैसा भी घरमें नहीं आया।

फत्तू—अच्छा नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसमके पेड़ बेच दूंगा।

चेतन—अच्छा तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन भरमें तुम लोग प्रबन्ध करके जो कुछ हो सके इस धर्म-कार्यके निमित्त दे देना। कल संध्याको मैं अपने आश्रमपर चला जाऊँगा।

(प्रस्थान)

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