संग्राम/४.३

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २४४ ]


तृतीय दृश्य


(स्थान—स्वामी चेतनदासकी कुटी, समय—संध्या)

चेतनदास—(मनमें) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिसवाले अधिक से अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिह ऐसे काँटोंसे डरनेवाला पुरुष नहीं है। पहले मैंने समझा था उस चालसे यहां उसका खूब अपमान होगा। पर यह अनुमान ठीक न निकला। दो घण्टे पहले शहरमें सबलकी जितनी प्रतिष्ठा थी, अब सससे सतगुनी है। अधिकारियोंकी दृष्टिमें चाहे वह गिर गया हो पर नगरनिवासियोंकी दृष्टि में अब वह देव-तुल्य है। यह काम हलधर ही पूरा करेगा। मुझे उसके पीछेका रास्ता साफ़ करना चाहिये।

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी—महाराज आप उस समय इतनी जल्द चले आये कि मुझे आपसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आप यदि सहाय न होते तो आज मैं कहींकी न रहती! पुलिसवाले किसी [ २४५ ]दूसरे व्यक्तिकी जमानत न लेते। आपके योगबलने उन्हें परास्त कर दिया।

चेतन—माई, यह सब ईश्वरकी महिमा है। मैं तो केवल उसका तुच्छ सेवक हूँ।

ज्ञानी—आपके सम्मुख इस समय मैं बहुत निर्लज्ज बनकर आई हूं। मैं अपराधिनी हूँ, मेरा अपराध क्षमा कीजिये। आप ने मेरे पतिदेवके विषयमें जो बातें कही थीं वह एक-एक अक्षर सच निकलीं। मैंने आपपर अविश्वास किया। मुझसे यह घोर अपराध हुआ। मैं अपने पतिको देव-तुल्य समझती थी। मुझे अनुमान हुआ कि आपको किसीने भ्रममें डाल दिया है। मैं नहीं जानती थी कि आप अन्तर्यामी हैं। मेरा अपराध क्षमा कीजिये।

चेतन—तुझे मालूम नहीं है, आज तेरे पतिने कैसा पैशाचिक काम कर डाला है? मुझे इसके पहले तुझसे कहनेका अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

ज्ञानी—नहीं महाराज, मुझे मालूम है। उन्होंने स्वयं मुझसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया। भगवन, यदि मैंने पहले ही आपकी चेतावनीपर ध्यान दिया होता तो आज इस हत्याकाण्डकी नौबत न आती। यह सब मेरी अश्रद्धाका दुष्परिणाम है। मैंने आप जैसे महात्मा पुरुषका अविश्वास किया, उसीका यह दण्ड [ २४६ ]है। अब मेरा उद्धार आपके सिवा और कौन कर सकता है। आपकी दासी हूँ, आपकी चेरी हूँ। मेरे अवगुणोंको न देखिये। अपनी विशाल दयासे मेरा बेड़ा पार लगाइये।

चेतन—अब मेरे वशकी बात नहीं। मैंने तेरे कल्याणके लिये, तेरी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिये बड़े-बड़े अनुष्ठान किये थे। मुझे निश्चय था कि तेरा मनोरथ सिद्ध होगा। पर इस पापाभिनयने मेरे समस्त अनुष्ठानोंको विफल कर दिया। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह कुकर्म तेरे कुलका सर्वनाश कर देगा।

ज्ञानी—भगवन्, मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्तापके आवेशमें अपना प्राणान्त न कर दें। उन्हें इस समय अपनी दुष्कृत्तिपर अत्यन्त ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे-बैठे देरतक रोते रहे। इस दुख और निराशाकी दशामें उन्होंने प्राणोंका अन्त कर दिया तो कुलका सर्वनाश हो जायगा। इस सर्वनाशसे मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है। आप जैसा दयालु स्वामी पाकर अब किसकी शरण जाऊँ? ऐसा कोई यत्न कीजिये कि उनका चित्त शांत हो जाय। मैं अपने देवरका जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा हृदय ही जानता है। मेरे पति भी भाईको पुत्रके समान समझते थे। वैमनस्यका लेश भी न था। पर अब तो [ २४७ ]जो कुछ होना था हो चुका। उसका शोक जीवन पर्य्यन्त रहेगा। अब कुलकी रक्षा कीजिये। मेरी आपसे यही याचना है।

चेतनदास—पापका दण्ड ईश्वरीय नियम है। इसे कौन भङ्ग करेगा।

ज्ञानी—योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमोंको भी झुका सकते हैं।

चेतन—इसका तुझे विश्वास है?

ज्ञानी—हां महाराज मुझे पूरा विश्वास है।

चेतन—श्रद्धा है?

ज्ञानी—हां महाराज पूरी श्रद्धा है।

चेतन—भक्तको अपने गुरुके सामने अपना तन, मन, धन, सभी समर्पण करना पड़ता है। यही अर्थ, धर्म, काम और मोक्षके प्राप्त करनेका एकमात्र साधन है। भक्त गुरूकी बातोंपर, उपदेशोंपर, व्यवहारोंपर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरूको ईश्वर-तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपनेको वैद्यके हाथोंमें छोड़ देता है, उसी भांति भक्त भी अपने शरीरको अपनी बुद्धिको और आत्माको गुरूके हाथों में छोड़ देता है। तुम अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तोंके धर्मका पालन करना पड़ेगा। [ २४८ ]ज्ञानी—महाराज मैं अपना तन मन धन सब आपके चरणों पर अर्पण करती हूँ।

चेतन—शिष्यका अपने गुरूके साथ आत्मिक सम्बन्ध होता है। उसके और सभी सम्बन्ध पार्थिव होते हैं। आत्मिक सम्बन्धके सामने पार्थिव सम्बन्धोंका कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्षके सामने सांसारिक सुखोंका कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद-प्राप्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है। इसी उद्देश्यको पूरा करनेके लिये प्राणीको ममत्वका त्याग करना चाहिये। पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, शत्रु, मित्र यह सभी सम्बन्ध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्गकी बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्षपद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरूकी कृपादृष्टि ही उस महान पदपर पहुँचा सकती है। तू अभीतक भ्रांतिमें पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और सम्पत्तिकोही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दुख और शोकका मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांतिसे निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्षमार्ग दिखाई देने लगेगा। तब इन सांसारिक सुखोंसे तेरा मन आप ही आप हट जायगा। तुझे इनकी असारता प्रगट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।

ज्ञानी—महाराज, आपकी अमृतवाणीसे मेरे चित्तको बड़ी [ २४९ ]शान्ति मिल रही है।

चेतन—मैं तेरा सर्वस्व हूं। मैं तेरी सम्पत्ति हूं, तेरी प्रतिष्ठा हूँ, तेरा पति हूँ, तेरा पुत्र हूँ, तेरी माता हूँ, तेरा पिता हूँ, तेरा स्वामी हूं, तेरा सेवक हूँ, तेरा दान हूँ, तेरा ब्रत हूँ। हाँ, मैं तेरा स्वामी हूँ और तेरा ईश्वर हूँ। तू राधिका है मैं तेरा कन्हैया हूँ, तू सती है मैं तेरा शिव हूँ, तू पत्नी है, मैं तेरा पति हूँ, तू प्रकृति है, मैं पुरुष हूं, तू जीव है, मैं आत्मा हूं, तू स्वर है, मैं उसका लालित्य हूँ, तू पुष्प है, मैं उसका सुगन्ध हूँ।

ज्ञानी—भगवान, मैं आपके चरणों की रज हूँ। आपकी सुधा वर्षासे मेरी आत्मा तृप्त हो गई।

चेतन—तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे अपने कुकृत्योंका भागी बनाकर तेरी आत्माका सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी—(मनमें) वास्तवमें उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिये मैं अपनी मुक्ति क्यो बिगाडूं। अब उन्होंने अधर्म पथपर पग रखा है। मैं उनकी सहगामिनी क्यों बनूं? (प्रगट) स्वामीजी, अब मैं आपकी ही शरण आई हूँ, मुझे उबारिये।

चेतन—प्रिये, हम और तुम एक हैं, कोई चिन्ता मत करो। ईश्वरने तुम्हें मंझधारमें डूबनेसे बचा लिया। वह देखो सामने ताकपर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतार [ २५० ]कर अपने कोमल हाथोंसे मुझे पिलाओ और प्रसाद स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अन्तःकरण आलोकमय हो जायगा। सांसारिकताकी कालिमा एक क्षणमें कट जायगी और भक्तिका उज्वल प्रकाश प्रस्फुटित हो जायगा। यह वह सोमरस है जो ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।

(ज्ञानी बोतल उतारकर चेतनदासके कमण्डलमें उंडेलती है,
चेतनदास पी जाते हैं)

चेतन—यह प्रसाद है, तुम भी पान करो।

ज्ञानी—भगवन्, मुझे क्षमा कीजिये।

चेतन—प्रिये, यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।

ज्ञानी—(कमण्डल मुंहसे लगाकर पीती है। तुरत उसे अपने शरीरमें एक विशेष स्फूर्तिका अनुभव होता है।) स्वामिन् यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।

चेतन—प्रिये, यह ऋषियोंका पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिरकाल तक तरुण बने रहते थे। उनकी शक्तियाँ कभी क्षीण न होती थीं। थोड़ासा और दो। आज बहुत दिनोंके बाद यह शुभ अवसर प्राप्त हुआ है।

(ज्ञानी बोतल उठाकर कमण्डलमें उँडेलती है। चेतन-

दास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ासा

निकालकर पीती है)
[ २५१ ]चेतन—(ज्ञानीके हाथोंको पकड़कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानों फूलकी पंखड़ियाँ हैं।

(ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है)

प्रिये, झिकको नहीं, यह वासना जनित प्रेम नहीं है। यह शुद्ध, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी—मेरे हृदयमें बड़े वेगसे धड़कन हो रही है।

चेतन—यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेमकी तरङ्गे हैं जो बक्ष के किनारोंसे टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूलकी भाँति कोमल है। उस वेगका सहन नहीं कर सकता। इन हाथोंके स्पर्श से मुझे वह आनन्द मिल रहा है जिसमें चन्द्रका निर्मल प्रकाश, पुष्पोंका मनोहर सुगन्ध, समीरके शीतल मन्द झोंके और जल- प्रवाहका मधुर गान, सभी समाविष्ट हो गये हैं।

ज्ञानी—मुझे चक्कर सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरोंमें बही जाती हूँ।

चेतन—थोड़ासा सोमरस और निकालो। सञ्जीवनी है।

(ज्ञानी बोतलसे कमण्डलमें उँडेलती है, चेतनदास पी
जाता है, ज्ञानी भी दो तीन घुँट पीती है।)
चेतन—आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुखके एक क्षणपर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ। [ २५२ ]
(ज्ञानीके गले में बांहें डालकर आलिङ्गन करना चाहता है,

ज्ञानी झिझक कर पीछे हट जाती है।)

चेतन—प्रिये, यह भक्ति मार्गकी तीसरी परीक्षा है!

(ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है)

चेतन—प्रिये..................

ज्ञानी—(उच्च स्वरसे) कोचवान गाड़़ी लावो।

चेतन—इतनी अधीर क्यों हो रही हो? क्या मोक्षपदके निकट पहुँचकर फिर उसी मायावी संसारमें लिप्त होना चाहती हो? यह तुम्हारे लिये कल्याणकारी न होगा।

ज्ञानी—मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न हो, यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्त, कुटिल, भ्रष्ट, दुष्ट, पापी हो। तुम्हारे इस भेषका अपमान नहीं करना चाहती, पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियोंको इस भांति दगा देकर, अपनी आत्माको नर्ककी ओर ले जा रहे हो। तुमने मेरे शरीरको अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदाके लिये विकृत कर दिया। तुम्हारे मनोविकारोंके सम्पर्कसे मेरी आत्मा सदाके लिये दूषित हो गई। तुमने मेरे व्रतकी हत्या कर डाली। अब मैं अपनेहीको अपना मुंह नहीं दिखा सकती। सतीत्व जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानवचरित्रका कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे हृदयमें [ २५३ ]मनुष्यत्वका कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसीको सम्बोधित कर- के विनय करती हूँ कि अब अपनी आत्मापर दया करो और इस दुष्टाचरणको त्यागकर सद्वृत्तियोंका आवाहन करो।

(कुटीसे बाहर निकल कर गाड़ी में बैठ जाती है)

कोचवान—किधर ले चलूं?

ज्ञानी—सीधे घर चलो।