संग्राम/४.४

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २५४ ]


चतुर्थ दृश्य

(स्थान—राजेश्वरीका मकान, समय—१० बजे रात।)

राजेश्वरी—(मनमें) मेरे ही लिये जीवनका निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है। संसारमें इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने- अपने धन्धों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गई हूँ। मेरा क्या दोष है? मैंने कभी अच्छा खाने-पहनने या आरामसे रहनेकी इच्छा की जिसके बदलेमें मुझे यह दण्ड मिला हो? मैं जबरदस्ती इस कारागारमें बन्द की गई हूँ। यह सब बिलासकी चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़ी गई हैं। एक धनी पुरुष मुझे अपने इशारोंपर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूँ और निर्बल हूँ। इसी अपराधकी यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन दे, उसे इतना सामर्थ्य भी दे कि धनकी रक्षा कर सके। निर्बल प्राणियोंको रत्न देना उनपर अन्याय करना है।

हा! कंचनसिंहपर आज न जाने क्या बीती। सबलसिंहने अवश्य ही उनको मार डाला होगा। मैंने उनपर कभी क्रोध [ २५५ ]चढ़ते नहीं देखा था। क्रोध तो मानों उनपर भूत सवार हो जाता है। मरदोंको उत्तेजित कर देना कितना सरल है। उनकी नाड़ियोंमें रक्तकी जगह रोष और ईर्षाका प्रवाह होता है। ईर्षाकी ही मिट्टीसे उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाताकी विषम लीला है।

(गाती है)

दयानिधि तेरी गति लखि न परी।

(सबलसिहका प्रवेश)

राजेश्वरी—आइये, आपकी ही बाट जो रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था। आपकी बातें याद करके शंका और भयसे चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था। पूछते डरती हूँ......

सबल—(मलिन स्वरसे) जिस बातकी तुम्हें शंका थी वह हो गई।

राजे०—अपने ही हाथों?

सबल—नहीं। मैंने क्रोधके आवेगमें चाहे मुंहसे जो बक डाला हो, पर अपने भाईपर मेरे हाथ नहीं उठ सके। पर इससे मैं अपने पापका समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझपर है। पुरुष कड़ेसे कड़ा आघात सह सकता है। बड़ीसे बड़ी मुसीबत झेल सकता है, पर यह चोट नहीं सह सकता। यही उसका मर्मस्थान है। [ २५६ ]एक तालेमें दो कुञ्जियाँ साथ-साथ चली जायं, एक म्यानमें साथ दो तलवारें रहें, एक कुल्हाड़ीमें साथ दो वेंट लगे, पर एक स्त्री के दो चाहनेवाले नहीं रह सकते, असम्भव है।

राजे०—एक पुरुषको चाहनेवाली तो कई स्त्रियाँ होती हैं।

सबल—यह उनके अपङ्ग होनेके कारण हैं। एक ही भाव दोनोंके मनमें उठते हैं। पुरुष शक्तिशाली है, वह अपने क्रोधको व्यक्त कर सकता है। स्त्री मनमें ऐंठकर रह जाती है।

राजे०—क्या आप समझते थे कि मैं कंचनसिंहको मुँह लगा रही हूँ। उन्हें केवल यहाँ बैठे देखकर आपको इतना उबलना न चाहिये था।

सबल—तुम्हारे मुँहसे यह तिरस्कार कुछ शोभा नहीं देता। तुमने अगर सिरेसे ही उसे यहां न घुसने दिया होता तो आज यह नौबत न आती। तुम अपनेको इस इलजामसे मुक्त नहीं कर सकती।

राजे०—एक तो आपने मुझपर सन्देह करके मेरा अपमान किया, अब आप इस हत्याका भार भी मुझपर रखना चाहते हैं। मैंने आपके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया था कि आप इतना अविश्वास करते।

सबल—राजेश्वरी, इन बातोंसे दिल न जलाओ। मैं दुखी हूं,मुझे तसकीन दो,मैं घायल हूँ, मेरे घावपर मरहम रखो। मैंने [ २५७ ]वह रत्न हाथसे खो दिया जिसका जोड़ अब संसारमें मुझे न मिलेगा। कंचन आदर्श भाई था। मेरा इशारा उसके लिये हुक्म था। मैंने जरा सा इशारा कर दिया होता तो वह भूलकर भी इधर पग न रखता। पर मैं अन्धा हो रहा था, उन्मत्त हो रहा था। मेरे हृदयकी जो दशा हो रही है वह तुम देख सकती तो कदाचित् तुम्हें मुझपर दया आती। ईश्वरके लिये मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार हो। तुम्हारे लिये मैंने इतना बड़ा बलिदान किया है। अब तुम मुझे पहलेसे कहीं अधिक प्रिय हो। मैंने पहले सोचा था केवल तुम्हारे दर्शनोंसे, तुम्हारी मीठी बातोंको सुननेसे, तुम्हारी तिरछी चितवनोंसे, मैं तृप्त हो जाऊँगा। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था। पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना और गुलगुलोंसे परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्यालेको उछाल कर भी चाहता था कि उसका पानी न छलके। नदीमें जाकर भी चाहता था कि दामन न भीगे। पर अब मैं तुमको पूर्णरूपसे चाहता हूँ। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूँ। मेरी विकल आत्माके लिये सन्तोषका केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथोंको मेरी दहकती हुई छातीपर रखकर शीतल कर दो।

राजे०—मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है। [ २५८ ]करूंगा। पर राजेश्वरी, मुझे तुमसे इस निर्दयताकी आशा न थी। सौंदर्य्य और दयामें विरोध है, इसका मुझे अनुमान न था। मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारेपर कौन दया करेगा? जिस प्राणीने सगे भाईको ईर्षा और दम्भके वश होकर वध करा दिया वह इसी योग्य है कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखानेका ठिकाना न रहे। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओरसे आंखें फेर लें, उसके मुंहमें कालिमा पोत दी जाय और उसे हाथीके पैरोंसे कुचलवा दिया जाय। उसके पापका यही दंड है। राजेश्वरी, मनुष्य कितना दीन, कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था। अपनी नौकामें बैठा हुआ धीमी-धीमी लहरोंपर बहता, समीरके शीतल, मन्द तरङ्गोंका आनन्द उठाता चला जाता था। क्या जानता था कि एक ही क्षणमें वह मंद तरंगें इतनी भयङ्कर हो जायंगी, शीतल झोंके इतने प्रबल हो जायंगे कि नावको उलट देंगे। सुख और दुख, हर्ष और शोकमें उससे कहीं कम अन्तर है जितना हम समझते हैं। आंखोंका एक जरासा इशारा, मुंहका एक जरासा शब्द, हर्षको शोक और सुखको दुख बना सकता है। लेकिन हम यह सब जानते हुए भी सुखपर लौ लगाये रहते हैं। यहां तक कि फांसीपर चढ़नेसे एक क्षण पहले तक हमें सुखकी [ २५९ ]लालसा घेरे रहती है। ठीक वही दशा मेरी है। जानता हूं कि चन्द घण्टोंका और मेहमान हूं, निश्चय है कि फिर ये आंखें सूर्य्य और आकाशको न देखेंगी पर तुम्हारे प्रेमकी लालसा हृदयसे नहीं निकलती।

राजे०—(मनमें) इस समय यह वास्तवमें बहुत दुःखी हैं। इन्हें जितना दण्ड मिलना चाहिये था उससे ज्यादा मिल गया। भाईके शोकमें इन्होंने आत्मघात करनेकी ठानी है। मेरा जीवन तो नष्ट हो ही गया अब इन्हें मौत के मुंहमें झोंकनेकी चेष्टा क्यों करूं? इनकी दशा देखकर दया आती है। मेरे मनके घातकभाव लुप्त हो रहे हैं। (प्रगट) आप इतने निराश क्यों हो रहे हैं। संसारमें ऐसी बातें आये दिन होती रहती हैं। अब दिलको संभालिये। ईश्वरने आपको पुत्र दिया है, सती स्त्री दी है। क्या आप उन्हें मंझधार में छोड़ देंगे। मेरे अवलम्ब भी आप ही हैं। मुझे द्वार-द्वार ठोकर खाने के लिये छोड़ दीजियेगा। इस शोकको दिलसे निकाल डालिये।

सबल—(खुश होकर) तुम भूल जाओगी कि मैं पापी हत्यारा हूँ?

राजे०—आप बार-बार इसकी चर्चा क्यों करते हैं?

सबल—तुम भूल जाओगी कि इसने अपने भाईको मरवाया है? [ २६० ]राजे०—(भयभीत होकर) प्रेम दोषोंपर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर मुग्ध होता है। आज मैं अन्धी हो जाऊं तो क्या आप मुझे त्याग देंगे।

सबल—प्रिये, ईश्वर न करे, पर मैं तुमसे सच्चे दिलसे कहता हूँ कि कालकी कोई गति, विधाताकी कोई पिशाचलीला, तापोंका कोई प्रकोप मेरे हृदयसे तुम्हारे प्रेमको नहीं निकाल सकता, हां, नहीं निकाल सकता।

(गाता है)

दफ्न करने ले चले थे जब मेरे घरसे मुझे
काश तुम भी झांक लेते रौज्रने दरसे मुझे।
सांस पूरी हो चुकी, दुनियासे रुखसत हो चुका
तुम अब आये हो उठाने मेरे बिस्तरसे मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्नाको निकाल
तेरे दरतक खींच लाई थी वही घरसे मुझे।
हिकाकी शब कुछ यही मूनिस था मेरा, ऐ कज़ा
एक जरा रो लेने दे मिल मिलके बिस्तरसे मुझे।

राजे०—मेरे दिलमें आपका वही प्रेम है।

सबल—तुम मेरी हो जाओगी?

राजे०—और अब किसकी हूं?

सबल—तुम पूर्णरूपसे मेरी हो जाओगी? [ २६१ ]राजे०—आपके सिवा अब मेरा कौन है?

सबल—तो प्रिये, मैं अभी मौतको कुछ दिनोंके लिये द्वारसे टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम अब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगा जहां अपना कोई परिचित प्राणी न हो। चलो आबू चलें, जी चाहे काश्मीर चलो, दो-चार महीने रहेंगे, फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगे। पर इस नगरमें मैं नहीं रह सकता। यहांकी एक-एक पत्ती मेरी दुश्मन है।

राजे०—घरके लोगोंको किसपर छोड़ियेगा?

सबल—ईश्वरपर! अब मालुम हो गया कि जो कुछ करता। है ईश्वर करता है। मनुष्य के किये कुछ नहीं हो सकता।

राजे०—यह समस्या कठिन है। मैं आपके साथ बाहर नहीं जा सकती।

सबल—प्रेम तो स्थानके बन्धनोंमें नहीं रहता।

राजे०—इसका यह कारण नहीं। अभी आपका चित्त अस्थिर है, न जाने क्या रंग पकड़े। वहां परदेशमें कौन अपना हितैषी होगा, कौन विपत्तिमें अपना सहायक होगा। मैं गवांरिन, परदेश करना क्या जानूं। ऐसा ही है तो आप कुछ दिनोंके लिये बाहर चले जायं।

सबल—प्रिये, यहांसे जाकर फिर आना नहीं चाहता, [ २६२ ]किसीसे बताना भी नहीं चाहता कि मैं कहां जा रहा हूं। मैं तुम्हारे सिवा और सारे संसारके लिये मर जाना चाहता हूं।

(गाता है।)

किसीको देके दिल कोई नवा संजे फुगां क्यों हो।
न हो जब दिल ही सीनेमें तो फिर मुंहमें ज़बां क्यों हो।
वफ़ा कैसी, कहांका इश्क़, जब सिर फोड़ना ठहरा,
तो फिर ऐ संग दिल तेरा ही संगे आस्तां क्यों हो।
क़फ़समें मुझसे रूदादे चमन कहते न डर हरदम,
गिरी है जिस पै कल बिजली वह मेरा आशियां क्यों हो।
यह फ़ितना आदमीकी खानः वीरानीको क्या कम है,
हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों हो।
कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैरके मिलनेमें रुसवाई,
वजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहियो कि हां क्यों हो।

राजे०—(मनमें) यहां हूं तो कभी न कभी नसीब जागेंगे ही। मालूम नही वह (हलधर) आजकल कहां हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, मुझे अपने मनमें क्या समझ रहे हैं। कुछ भी हो जब मैं जाकर सारी राम कहानी सुनाऊंगी तो उन्हें मेरे निरपराध होनेका विश्वास हो जायगा। इनके साथ जाना अपना सर्वनाश कर लेना है। मैं इनकी रक्षा करना चाहती हूँ, पर अपना सत खोकर नहीं, इनको बचाना चाहती हूँ, पर अपनेको डुबाकर [ २६३ ]नहीं। अगर मैं इस काममें सफल न हो सकूं तो मेरा दोष नहीं है। (प्रगट) मैं आपके घरको उजाड़नेका अपराध अपने सिर नहीं लेना चाहती।

सबल—प्रिये, मेरा घर मेरे रहनेसे ही उजड़ेगा, मेरे अंतर्धान होनेसे वह बच जायगा। इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है।

राजे०—फिर अब मैं आपसे डरती हूँ, आप शक्की आदमी हैं। न जाने किस वक्त आपको मुझपर शक हो जाय। जब अपने जरासी शकपर............

सबल—(शोकातुर होकर) राजेश्वरी, उसकी चर्चा न करो। उसका प्रायश्चित्त कुछ हो सकता है तो वह यही है कि अब शक और भ्रमको अपने पास फटकने भी न दूं। इस बलिदानसे मैंने समस्त शंकाओंको जीत लिया है। अब फिर भ्रममें पड़ूं तो मैं मनुष्य नहीं पशु हूँगा।

राजे०—आप मेरे सतीत्वकी रक्षा करेंगे? आपने मुझे वचन दिया था कि मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता हूँ।

सबल—प्रिये, प्रेमको बिना पाये संतोष नहीं होता। जबतक मैं गृहस्थीके बन्धनोंमें जकड़ा था, जबतक भाई, पुत्र, बहिनका मेरे प्रेमके एक अंशपर अधिकार था तबतक मैं तुम्हें न पूरा प्रेम दे सकता था और न तुमसे सर्वस्व मांगनेका साहस कर सकता था। पर अब मैं संसारमें अकेला हूं, मेरा सर्वस्व तुम्हारे [ २६४ ]अर्पण है। प्रेम अपना पूरा मूल्य चाहता है, आधेपर संतुष्ट नहीं हो सकता।

राजे०—मैं अपने सतको नहीं खो सकती।

सबल—प्रिये प्रेमके आगे सत, व्रत, नियम, धर्म सब उस तिनकेके समान हैं जो हवासे उड़ जाते हैं। प्रेम पवन नहीं, आँधी है। उसके सामने मान-मर्य्यादा, शर्म-हयाकी कोई हस्ती नहीं।

राजे०—यह प्रेम परमात्माकी देन है। उसे आप धन और रोबसे नहीं पा सकते।

सबल—राजेश्वरी, इन बातोंसे मेरा हृदय चूर-चूर हुआ जाता है। मैं ईश्वरको साक्षी देकर कहता हूं कि मुझे तुमसे जितना अटल प्रेम है उसे मैं शब्दोंमें प्रगट नहीं कर सकता। मेरा सत्यानास हो जाय अगर धन और सम्पत्तिका ध्यान भी मुझे आया हो। मैं यह मानता हूं कि मैंने तुम्हें पानेके लिये बेजा दबावसे काम लिया पर इसका कारण यही था कि मेरे पास और कोई साधन न था। मैं विरहकी आगमें जल रहा था, मेरा हृदय फुंका जाता था, ऐसी अवस्थामें यदि मैं धर्म अधर्मका विचार न करके किसी व्यक्तिके भरे हुए पानीके डोलकी ओर लपका तो तुम्हें उसको क्षम्य समझना चाहिये।

राजे०—वह डोल किसी भक्तने अपने इष्टदेवको चढ़ानेके [ २६५ ]लिये एक हाथसे भरा था। जिसे आप प्रेम कहते हैं वह काम-लिप्सा थी। आपने अपनी लालसाको शान्त करने के लिये एक बसे-बसाये घरको उजाड़ दिया, उसके प्राणियोंको तितर-वितर कर दिया। यह सब अनर्थ आपने अधिकारके बलपर किया। पर याद रखिये ईश्वर भी आपको इस पापका दण्ड भोगनेसे नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बातकी आशा रखी जो कुलटाएं ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख- की पुतली निकल जाय तो इसमें सुरमा क्या शोभा देगा? पौधेकी जड़ काटकर फिर आप उसे दूध और शहदसे सीचें तो क्या फायदा। स्त्रीका सत हरकर आप उसे विलास और भोगमें डुबा ही दें तो क्या होता है। मैं अगर यह घोर अपमान चुप- चाप सह लेती तो मेरी आत्माका पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमानका बदला लेने आई। हां, आप चौंके नहीं, मैं मनमें यही संकल्प करके आई थी।

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी—देवी, तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूँ।

सबल—ज्ञानी! तुम यहां?

ज्ञानी—क्षमा कीजिये। मैं किसी और विचारसे नहीं आई। आपको घरपर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।

सबल—यहांका पता कैसे मालूम हुआ? [ २६६ ]ज्ञानी—कोचवानकी खुशामद करनेसे।

सबल—राजेश्वरी, तुमने मेरी आंखें खोल दी। मैं भ्रममें पड़ा हुआ था। तुम्हारा संकल्प पूरा होगा। तुम सती हो। तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी। मैं पापी हूँ, मुझे क्षमा करना......(नीचेकी ओर जाता है)

ज्ञानी—मैं भी चलती हूं। राजेश्वरी, तुम्हारे दर्शन पाकर कृतार्थ हो गई। (धीरेसे) बहिन, किसी तरह इनकी जान बचाओ। तुम्हीं इनकी रक्षा कर सकती हो (राजेश्वरीके पैरों पर गिर पड़ती है)

राजे०—रानीजी, ईश्वरने चाहा तो सब कुशल होगा।

ज्ञानी—तुम्हारे आशीर्वादका भरोसा है।

(प्रस्थान)