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संग्राम/४.५

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ २६७ से – २७१ तक

 


पांचवां दृश्य
(स्थान—गंगा के करारपर एक बड़ा पुराना मकान, समय—१२
बजे रात, हलधर और उनके साथी डाकू बैठे हुए हैं।)

हलधर—अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिये।

एक डाकू रंगी—हमलोग भी तैयार हो जायँ न? शिकारी आदमी है, कहीं पिस्तौल चला बैठे तो।

हलधर—देखी जायगी। मैं जाऊंगा अकेले।

(कंचनका प्रवेश)

हलधर—अरे, आप अभी तक सोये नहीं?

कंचन—तुम लोग भैयाको मारनेपर तैयार हो, मुझे नींद कैसे आये।

हलधर—मुझे आपकी बातें सुन कर अचरज होती है। आप ऐसे पापी आदमीकी रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाईकी जान लेनेपर तुल जाय।

कंचल—तुम नहीं जानते, वह मेरे भाई नहीं, मेरे पिताके तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ किया उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघातका और कोई दण्ड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था। अपराध सब मेरा है। तुमने मुझपर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदलेमें तुम जो कुछ कहो करनेको तैयार हूं। मैं अपनी सारी कमाई जो २० हजारसे कम नहीं है तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रुपये एक धर्मशाला और देवालय बनवानेके लिये संचित कर रखे थे। पर भैयाके प्राणोंका मूल्य धर्मशाला और देवालयसे कहीं अधिक है।

हलधर—ठाकुर साहब ऐसा कभी न होगा। मैंने धनके लोभसे यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमानका बदला लेना चाहता हूँ। मेरा मर्य्याद इतना सस्ता नहीं है।

कंचन—मेरे यहाँ जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूँगा।

हलधर—आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गई। मेरे कुलमें दाग लग गया। बाप-दादोंके मुँह में कालिख लग गया। इज्जतका बदला जान है, धन नहीं। जबतक सबलसिंहकी लाशको अपनी आंखोंसे तड़पते न देखूँगा मेरे हृदयकी ज्वाला न शान्त होगी।

कंचन—तो फिर सवेरे तक मुझे भी जीता न पावोगे।

(प्रस्थान)

हलधर—भाईपर जान देते हैं।

रंगी—तुम भी तो हकनाहककी जिद्द कर रहे हो। २० हजार नगद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतनेकी ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगोंको दे दो। २० हजार में तो ऐसी-ऐसी बीस औरतें मिल जायंगी।

हलधर—कैसी बेगैरतोंकी सी बात करते हो। स्त्री चाहे सुन्दर हो, चाहे कुरूप, कुल मरजादकी देवी है। मरजाद रुपयोंपर नहीं बिकती।

रंगी—ऐसा ही है तो उसीको क्यों नहीं मार डालते। न रहे बांस न बजे बांसुरी।

हलधर—उसे क्या मारूं। स्त्रीपर हाथ उठानेमें क्या जाकांमरदी है।

रङ्गी—तो क्या उसे फिर रखोगे?

हलधर—मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घरमें रखनेकी बात ही क्या,अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा है, हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने आप घरसे निकल खड़ी हुई। मैंने कबका उसे दिलसे निकाल दिया। अब उसकी याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीरमें ज्वाला उठने लगती है। अगर उसे मारकर कलेजा ठण्डा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोधकी आगमें जलता ही क्यों।

रंगी—मैं तो रुपयोंका इतना बड़ा ढेर कभी हाथसे न जाने देता। मान-मर्य्याद सब ढकोसला है। दुनियानें ऐसी बातें आये दिन होती रहती हैं। लोग औरतको घरसे निकाल देते हैं। बस।

हलधर—क्या कायरोंकीसी बातें करते हो। रामचन्द्रने सीताजीके लिये लङ्काका राज बिधन्स कर दिया। द्रोपदीकी मानहानि करने के लिये पांडवोंने कौरवों का निर्बन्स कर दिया। जिस आदमीके दिलमें इतना अपमान होनेपर भी क्रोध न आये, वह मरने-मारनेपर तैयार न हो जाय,उसका खून न खौलने लगे, वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गति क्यों हो रही है? जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता है, ठोकर मारता है। क्या अहलकार, क्या जमींदार सभी कुत्तोंसे नीच समझते हैं। इसका कारन यही है कि हम बेहया हो गये हैं। अपनी चमड़ीको प्यार करने लगे हैं। हममें भी गैरत होती, अपने मान-अपमानका विचार होता तो मजाल थी कि कोई हमें तिरछी आँखोंसे देख सकता। दूसरे देशोंमें सुनते हैं गालियोपर लोग मरने-मारनेको तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसीको गाली नहीं दे सकता। किसी देवताका अपमान कर दो तो जान न बचे। यहांतक कि कोई किसीको लासखुन नहीं कह सकता नहीं तो खूनकी नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, जूते खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्मका नाश अपनी आंखोंसे देखते हैं, पर कानोंपर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ीके पीछे सब तरहकी दुर्गत सहते हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीनेसे मौतको हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रानको जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घरमें रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाटपर सोती थी वह अब......(क्रोधसे उन्मत्त होकर) तुमलोग लौटनेतक यहीं रहो। कंचनसिंहको देखते रहना।

(चला जाता है)