संग्राम/४.७

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २७७ ]


सातवां दृश्य
(स्थान—सबल सिंहका मकान, समय—२॥ बजे रात, सबल
सिंह अपने बागमें हौज़के किनारे बैठे हुए हैं।)

सबल—(मनमें) इस जिन्दगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अन्धेरा है, कहीं प्रकाशकी झलक तक नहीं। सारे मंसूबे, सारे इरादे खाकमें मिल गये। अपने जीवनको आदर्श बनाना चाहता था, अपने कुलको मर्यादाके शिखरपर पहुँचाना चाहता था, देश और राष्ट्रकी सेवा करना चाहता था, समग्र देशमें अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था। देशको उन्नतिके परमस्थानपर देखना चाहता था। उन बड़े-बड़े इरादोंका कैसा करुणाजनक अन्त हो रहा है। फले फूले वृक्षकी जड़में कितनी बेदरदीसे आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी ज़िन्दगी तबाह कर दी। मेरी दशा उस भांझीकीसी है जो नावको बोझनेके बाद शराब पी ले और नशेमें नावको भंवरमें डाल दे। भाईकी हत्या करके भी अभीष्ट न पुरा हुआ। जिसके लिये इस पाप कुण्डमें कूदा वह भी अब मुझसे घृणा करती है। [ २७८ ]कितनी घोर निर्दयता है। हाय! मैं क्या जानता था कि राजेश्वरी मनमें मेरे अनिष्टका दृढ़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था कि वह मेरे साथ त्रिया चरित्र खेल रही है। हां, एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्वकी रक्षा करने के लिये, अपने अपमानका बदला लेनेके लिये, कितना भयङ्कर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है पर किसीको अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रतपर आघात होते देखकर जानपर खेल जाती हैं। कैसे प्रेममें सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था प्रेमके हाथों बिक गई हो। ऐसी सुन्दरी, ऐसी सरला, ऐसी मृदु प्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसी कोमल हृदया रमणियाँ भी छल-कौशलमें इतनी निपुण हो सकती हैं!

उसकी निठुरता मैं सह सकता था। किन्तु ज्ञानीकी घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षासूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्रीका अबतक आराध्य देव था, जिसकी मुझपर अखण्ड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझपर अर्पण था, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीनेपर धिक्कार है।

एक बार प्यारे अचलको भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिलमें बड़े-बड़े अरमान थे। मैं तुम्हारा चरित्र आदर्श [ २७९ ]बनाना चाहता था पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे अपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें!

लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंका, जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल सा मालुम हो रहा है। वास्तवमें जीवन ही खेल है, विधाताका क्रीडाक्षेत्र। (पिस्तौल निकालकर) हां दोनों गोलियां हैं; काम हो जायगा। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरीको मिलेगी तो एक क्षणके लिये उसे शोक तो होगा ही, चाहे फिर हर्ष हो। प्रोखोंमें आंसू भर आयेंगे। अभी मुझे पापी, अत्याचारी, विषयी समझ रही है, सब ऐव ही ऐव दिखाई दे रहे हैं। मरनेपर कुछ तो गुणोंकी याद आयेगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजेमें चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था। शहरमें मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्तिपर पानी फिर जायगा। यह ऐब सारे गुणोंको छिपा लेगा, जैसे सुफेद चादरपर काला धब्बा, था सर्वाङ्ग सुन्दर चित्रपर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ेगी, फिर शायद कभी न सचेत हो। यह उसके लिये वज्राघात होगा। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करे, मुझे कितना ही दुरात्मा समझे पर [ २८० ]उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है; वह मेरी अकल्याण नहीं देख सकती। जबसे मैंने उसे अपना वृत्तान्त सुनाया है वह कितनी चिन्तित, कितनी सशंक हो गई है। प्रेमके सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरीके घर खींच ले जाती।

(हलधर चारदीवारी कूदकर बागमें आता है और धीरे

धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबलके कमरेकी

तरफ जाता है)

हलधर—(मनमें) यहां किसीकी आवाज़ आ रही है, (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे! यह तो सबल सिंह ही है। साफ़ उसीकी आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है। अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूँगा। कमरेमें न जाना पड़ेगा। इसी हौजमें फेंक दूँगा। सुनूं क्या कह रहा है।

सबल—बस, अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ़ रहा है। ईश्वर तुम दगाके सागर हो, क्षमाकी मूत्ति हो। मुझे क्षमा करना, अपनी दीनवत्सलतासे मुझे वञ्चित न करना। कहा निशाना लगाऊँ। सिरमें लगानेसे तुरत अचेत हो जाऊँगा। कुछ न मालूम होगा प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलनेमें कष्ट नहीं होता। बस, छातीपर निशाना मारूँ।

(पिस्तौलका मुँह छातीकी तरफ फेरता है। सहसा हलधर
भाला फेंककर झपटता है और सबल सिह के
[ २८१ ]

(हाथसे पिस्तौल छीन लेता है)

सबल—(अचम्भेसे) कौन?

हलधर—मैं हूँ हलधर।

सबल—तुम्हारा काम तो मैं ही किये देता था। तुम हत्यासे बच जाते। उठा लो पिस्तौल।

हलधर—आपके ऊपर मुझे दया आती है।

सबल—मैं पापी हूं। कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानास हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्ज़त लूटी, अपने सगे भाईका वध कराया। मैं दयाके योग्य नहीं हूँ।

हलधर—कंचन सिंहको मैंने नहीं मारा।

सबल—(उछलकर) सच कहते हो?

हलधर—वह आप ही गंगामें कूदने जा रहे थे। मुझे उनपर भी दया आ गई। मैंने समझा था आप मेरा सर्वनाश करके भोगविलासमें मस्त हैं। तब मैं आपके खूनका प्यासा हो गया था। पर अब देखता हूँ तो आप अपने कियेपर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दुःखी हैं कि प्राणतक देनेको तैयार हैं। ऐसा आदमी दयाके योग्य है। उसपर क्या हाथ उठाऊँ।

सबल—(हलधरके पैरोंपर गिरकर) तुमने कंचनकी जान बचा ली। इसके लिये मैं मरते दमतक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था कि तुम्हारा हृदय इतना कोमल और उदार है। [ २८२ ]तुम पुण्यात्मा हो, देवता हो। मुझे ले चलो। कंचनको देख लूँ। हलधर, मेरे पास अगर कुबेरका धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुलको सर्वनाशसे बचा लिया।

हलधर—मैं सवेरे उन्हें साथ लाऊँगा।

सबल—नहीं, मैं इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं है।

हलधर—चलिये।

(दोनों फाटक खोल कर चले जाते हैं)