संग्राम/५.१

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद
[ २८३ ]
 

पंचम अङ्क

[ २८५ ]


पहलादृश्य
(स्थान—डाकुओंका मकान, समय—२।। बजे रात, हलधर
डाकुओंके मकानके सामने बैठा हुआ है।)

हलधर—(मनमें) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था कि बड़े आदमियों में भाई-भाईमें भी इतना प्रेम होता है। दोनोंके आंसू ही नहीं थमते थे। बड़ी कुशल हुई कि मैं मौकेसे पहुँच गया। नहीं तो वंशका अन्त हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयोंसे ऐसा प्रेम हो गया है मानों मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह सकता है कि वह फिर एक दूसरेके दुश्मन न हो जायंगे। रोगकी जड़ तो मनमें जमी हुई है। उसको काटे बिना रोगीकी जान कैसे बचेगी। राजेश्वरीके रहते हुए इनके मनकी मैल न मिटेगी। दो चार दिनमें इनमें फिर अनबन हो जायगी। इस अभागिनीने मेरे कुलमें दाग लगायी। अब इस कुलका सत्यानास कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जबतक जियेगी मुझे कल[ २८६ ]
ङ्कित करती रहेगी। बिरादरीमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरीसे निकाल देंगे। हुक्का-पानी बन्द कर देंगे। हेठी और बदनामी होगी वह घाटेमें। यह तो यहां महलमें रानी बनी बैठी अपने कुकर्मका आनन्द उठाया करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊं? अबतक उसको मारनेका जी न चाहता था। औरतपर हाथ उठाना नीचताका काम समझता था। पर अब वह नीचता करनी पड़ेगी। उसके किये बिना खेल बिगड़ जायगा।

(चेतनदासका प्रवेश)

चेतनदास—यहां कौन बैठा हुआ है?

हलधर—मैं हूं हलधर।

चेतन—खूब मिले। बताओ सबलसिंहका क्या हाल हुआ? वध कर डाला?

हलधर—नहीं, उन्हें मरनेसे बचा लिया।

चेतन—(खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई। सबलसिंह कहां हैं?

हलधर—मेरे घर।

चेतन—ज्ञानी जानती है कि वह जिन्दा हैं?

हलधर—नहीं, उसे अबतक इसकी खबर नहीं मिली।

चेतन—तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न होगी। [ २८७ ]वह घर में नहीं है। न जाने कहाँ गई? उसे यह खबर मिल जायगी तो कदाचित उसकी जान बच जाय। मैं उसीकी टोहमें जा रहा हूँ। इस अन्धेरी रातमें कहां खोजूं?

(प्रस्थान)

हलधर—(मनमें) यह डायन न जाने कितनी जानें लेकर संतुष्ट होगी। ज्ञानी देवी है। उसने सबल सिंहको कमरे में न देखा होगा। समझी होगी वह गंगामें डूब मरे। कौन जाने इसी इरादेसे वह भी घरसे निकल खड़ी हुई हो। चलकर अपने आदमियोंको उसका पता लगानेके लिये दौड़ा दूं। उसकी जान मुफ्तमें चली जायगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी-मारी फिरे और कुलटा महलमें सुखकी नींद सोये।

(अचल दूसरी ओरसे हवाई बन्दूक लिये आता है)

हलधर—कौन?

अचल—अचल सिंह कुंवर सबल सिंहका पुत्र।

हलघर—अच्छा, तुम खूब आ गये। पर अंधेरी रातमें तुम्हें डर नहीं लगा?

अचल—डर किस बात का? मुझे डर नहीं लगता। बाबूजीने मुझे बताया है कि डरना पाप है।

हलधर—जाते कहाँ हो?

अचल—कहीं नहीं। [ २८८ ]हलधर—तो इतनी रात गये घरसे क्यों निकले?

अचल—तुम कौन हो?

हलधर—मेरा नाम हलधर है।

अचल—अच्छा, तुम्हींने माताजीकी जान बचाई थी।

हलधर—जान तो भगवानने बचाई, मैंने तो केवल डाकुओंको भगा दिया था। तुम इतनी रात गये अकेंले कहां जा रहे हो?

अचल—किसीसे कहोगे तो नहीं?

हलधर—नहीं, किसीसे न कहूँगा।

अचल—तुम बहादुर आदमी हो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास है। तुमसे कहनेमें शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचाजीको और बाबुजीको विष देकर मार डाला है। अम्मांजीने शोकसे प्राण त्याग दिये। वह स्त्री थीं क्या कर सकती थी। अब मैं उसी बेश्याके घर जा रहा हूँ। इसी वक्त बन्दूकसे उसका सिर उड़ा दूंगा। (बन्दूक तानकर दिखाता है)

हलधर—तुमसे किसने कहा?

अचल—मिश्राइनने। चाचाजी कलसे घरपर नहीं हैं। बाबूजी भी १० बजे रातसे नहीं हैं। न घरमें अम्मांका पता है। मिश्राइन सब हाल जानती हैं।

हलधर—तुमने वेश्याका घर देखा है? [ २८९ ]अचल—नहीं, घर तो नहीं देखा है।

हलधर—तो उसे मारोगे कैसे?

अचल—किसीसे पूछ लूंगा।

हलधर—तुम्हारे चाचाजी और बाबूजी तो मेरे घरमें हैं।

अचल—झूठ कहते हो। दिखा दोगे?

हलधर—कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।

अचल—चलो, क्या दिखाओगे। वह लोग अब स्वर्गमें होंगे। हां, राजेश्वरीका घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।

हलधर—अच्छा मेरे साथ आओ मगर बन्दूक ले लूंगा।

(दोनों घरमें जाते हैं,सबलसिह और कञ्चन चकित होकर

अचलको देखते है, अचल दौड़कर बापकी

गरदनसे चिमट जाता है)

हलधर—(मनमें) अब यहाँ नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे। बाहर चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मनमें) यह बच्चातक उसे बेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और भी गुल खिलेगा। अगर दोनों भाइयोंने उसे त्याग दिया तो पेटके लिये उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयदार नहीं है कि जहर खाकर मर जाय। जिसे मैं देवी समझता था वह ऐसी कुलकलङ्किनी निकली! तूने मेरे साथ ऐसा छल किया! अब [ २९० ]दुनियाको कौन मुंह दिखाऊं। सबकी एक ही दवा है। न बांस रहे न बाँसुरी बजे। तेरे जीनेसे सबकी हानि है। किसीका लाभ नहीं। तेरे मरनेसे सवका लाभ है, किसीकी हानि नहीं। उससे कुछ पूछना व्यर्थ है। रोयेगी, गिड़गिड़ायेगी, पैरों पड़ेगी। जिसने लाज बेच दी वह अपनी जान बचाने के लिये सभी तरह- की चालें चल सकती है। कहेगी मुझे सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाये, मैं तो आती न थी। न जाने क्या-क्या बहाने करेगी। उससे सवाल-जवाब करनेकी जरूरत नहीं। चलते ही काम तमाम कर दूँगा...............

(हथियार सँभालकर चल खड़ा होता है)

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