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सङ्कलन/१६ विलायत में उपाधियों का क्रय-विक्रय

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काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ९७ से – १०२ तक

 

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विलायत में उपाधियों का क्रय-विक्रय

वर्तमान काल वाणिज्य-काल है। तरह तरह के वणिज-व्यापार से लोग रुपया कमाते हैं। संसार में ऐसी वस्तुओं की संख्या बहुत ही थोड़ी है जो रुपये से प्राप्त नहीं की जा सकतीं। जो चीज़ें रुपये से अप्राप्य समझी जाती हैं, उनमें से भी बहुत सी रुपये द्वारा, किसी न किसी तरह, प्राप्त हो जाती हैं। किसे विश्वास हो सकता है कि उपाधि जैसी श्रेष्ठ और सम्मानसूचक वस्तु भी रुपये द्वारा घर बैठे प्राप्त की जा सकती है? सभ्य राष्ट्र अपनी प्रजा में से ऐसे ही जनों को उपाधियाँ प्रदान करते हैं जिन्होंने यथार्थ में देश या राष्ट्र की कोई अच्छी सेवा की हो, अथवा विद्वत्ता और औदार्य आदि के उच्च आदर्श दिखाये हों। परन्तु ऐसी बहुमान-व्यञ्जक उपाधियों का अब क्रय-विक्रय भी होने लगा है! सभ्य-शिरोमणि इँगलैंड देश ही में आजकल उपाधियों का बाज़ार लगा है। पियर्सन्स मैगेज़ीन नामक एक मासिक-पत्र में इस पर एक लेख निकला है।

कोई पचास वर्ष से इँगलैंड में उपाधियों का क्रय-विक्रय होने लगा है। इसी से इँगलैंड में उपाधिधारियों की संख्या
दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। क्रय-विक्रय का काम बड़ी ही गुप्त रीति से होता है। किसी को कानोकान खबर नहीं होने पाती।

इँगलैंड में लिबरल और कानसर्वेटिव नाम के दो बड़े राजनैतिक दल हैं। इन्हीं दोनों दलों के हाथ में घूम फिर कर इँगलैंड का शासन-सूत्र प्रायः रहता है। ये दोनों दल अपना अपना बल बढ़ाने का सदा यत्न किया करते हैं। इस काम के लिए इन्हें धन की आवश्यकता पड़ती है। इनके अनुयायी चन्दा कर के धन बटोरते हैं और अपने अपने पक्ष के ख़र्च के लिए सञ्चित करते रहते हैं। इन दोनों पक्षों के ऐसे आय-व्यय का हिसाब गुप्त रक्खा जाता है। वह कभी प्रकाशित नहीं किया जाता और न कोई उसे कभी देख सकता है। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि दोनों दलों का कोश खूब भरा-पूरा रहता है।

संसार की शायद ही कोई जाति पूरी उदार कही जा सकती हो। मनुष्य एस ही ईश्वर की सन्तति है। पर उसमें नीच और उच्च के भेद की प्रथा सब जगह, और सब जातियों में किसी न किसी रूप में, अवश्य है। सबको बराबर समझने की डींग हाँकनेवाली जातियाँ भी सङ्कीर्णता की दलदल में फँसी हुई हैं। अमेरिका स्वतन्त्र है और वहाँवाले उदार-हृदय कहलाते हैं। परन्तु जब काले-गोरे का प्रश्न उठता है, तब वहाँ के गोरों की उदारता प्रायः हवा खाने चली जाती है। परन्तु हाँ, इस में सन्देह नहीं कि कहीं का समाज घोर अन्धकार में

ठोकरें खा रहा है और कहीं का आगे बढ़ा हुआ है। अँगरेज़ी समाज में भी कम त्रुटियाँ नहीं हैं। वहाँ भी कुलीनता का थोड़ा- बहुत राग अवश्य अलापा जाता है। भारत के कुलीन ब्रह्मा जी के द्वारा गढ़े जाते हैं। परन्तु कुलीन अँगरेज़ संसार ही में निर्मित किये जाते हैं। निम्न श्रेणी में उत्पन्न हुए ग्रेट ब्रिटनवासी थोड़ा ही ऐश्वर्य पाने पर मध्यम श्रेणियों में और उच्च श्रेणीवाले उच्चतम श्रेणी में कूद जाने की अभिलाषा रखते हैं। उनके लिए और अनेक उपाय तो हैं ही, परन्तु एक उपाय यह भी है कि दो में से किसी एक राजनैतिक दल का पक्ष ग्रहण करके और उस के गुप्त कोश में गुप्त दान देकर कोई न कोई उपाधि प्राप्त कर लें। दान सीधे किसी के हाथ में नहीं दिया जाता -- कितने ही हाथों से होकर वह ठिकाने पहुँचता है। दान देने और लेनेवाले का कभी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता। सारा काम एक मध्यस्थ कर देता है। जितना बड़ा दान होता है, उतना ही फल भी उससे प्राप्त होता है। पन्द्रह हज़ार पौंड देने से नाइट, तीस हजार देने से बेरोनेट और एक लाख देने से लार्ड की पदवी प्राप्त हो सकती है। जो व्यक्ति मध्यस्थ का काम करता है, उसे दलाली मिलती है। दान की रकम कई किस्तों में अदा की जा सकती है; परन्तु दान-दाता को यह बात किसी तरह मालूम नहीं होने पाती कि दान की रक़म किस तरह खर्च की जाती है। उपाधि पाने के पूर्व ही रक़म का बड़ा भाग दे देना पड़ता है; क्योंकि एक दो दफे ऐसा भी हुआ है कि लोगों ने

उपाधियाँ पाकर रकम देने से इनकार कर दिया। उपाधि-लोलुप लोग ऐसा भी करते हैं कि जब उन्हें एक दल उपाधि दिलाने में देर, या किसी कारण से टाल-टूल, करता है, तब वे दूसरे दल का आश्रय ग्रहण करते हैं।

गत दस वर्षों में ९६ नये लार्ड बनाये गये। इनमें से ४९ को उनकी जाति और देश-सेवा के लिए यह पदवी मिली; परन्तु, सुनते हैं, कि शेष ने रुपये दे कर ही इस गौरव-सूचक पदवी को ख़रीदा। किसी समय सर राबर्ट पील इँगलैंड के महा-मन्त्री थे। उनके शासन-काल के पाँच वर्षों में केवल पाँच आदमियों को लार्ड की पदवी मिली। परन्तु, इस समय, लार्ड की उपाधि का वितरण फ़ी महीने एक के हिसाब से हो रहा है। उसमें भी इन नये लाडौं में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है जिन्होंने रुपये ही के बल से पदवी पाई है। जेम्स डगलस नाम के एक महाशय ने पियर्सन्स मैगेज़ीन में ऐसी ही बातें लिखी हैं।

उपाधि देते हैं सम्राट्, परन्तु दिलाते हैं महा-मन्त्री और मन्त्रि-मण्डल। इसमें सन्देह नहीं कि उपाधियों के क्रय-विक्रय की बात महा-मन्त्री को मालूम रहती है। लार्ड रोज़बरी इँग्लैंड के महा-मन्त्री थे। वे इस गुप्त क्रय-विक्रय से बड़े दुःखी रहते थे। यदि वे प्रयत्न करते तो कदाचित् इस प्रथा को बन्द भी करा देते; परन्तु यथार्थ में महा-मन्त्री लोग इस प्रथा के रोकने में असमर्थ से हैं। इस कुप्रथा का मिटाना स्वयं

अपने ही पैरों पर कुठार चलाना है; क्योंकि जब उपाधियों के लालच से अपनी थैलियों का मुँह खोल देनेवाले धनवान लोग राजनैतिक दलों को दान देना बन्द कर देंगे, तब, आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण, इन दलों का बल बहुत कम हो जायगा और सदा एक दूसरे के जल्दी जल्दी पतन का भय लगा रहेगा। हाँ, प्रत्येक दल अपने अपने अनुयायियों से भी चंदा बटोर कर धन एकत्र कर सकता है; परन्तु यह काम घोर चढ़ा-ऊपरी और परिश्रम का है, और इस तरह बहुत ही थोड़ा रुपया मिल सकता है। जब तक आराम से बैठे बैठे रुपयों की ढेरी मिलती जाय, तब तक परिश्रम करके भी थोड़ा ही रुपया पाना किसे पसन्द हो सकता है ? उपाधि के विषय में प्रजा चूँ तक नहीं कर सकती। किसी को उपाधि मिलने पर वह नाराज़ या खुश चाहे जितना हो ले, पर उसे यह बात जानने का कोई अधिकार नहीं कि अमुक व्यक्ति को किस लिए अमुक उपाधि मिली। सम्राट् भी नियमबद्ध हैं। वे भी उपाधि- दान के मामले में दखल नहीं दे सकते। वहाँ का कानून ही ऐसा है।

उपाधियों के क्रय-विक्रय के कारण अन्याय भी बहुत होता है। प्रायः ऐसा हुआ है कि उपयुक्त पात्रों को उपयुक्त उपाधि नहीं दी गई। इस कारण उन बेचारों को बहुत कुछ मन- स्ताप हुआ।

विलायत में अब इस प्रथा के विरुद्ध लोगों ने ज़ोर से

आन्दोलन करना आरम्भ कर दिया है। लोगों ने दोनों राज- नैतिक दलों से अपने अपने कोश का हिसाब प्रकाशित करने के लिए अनुरोध किया है। हिसाब प्रकाशित करने से भण्डा फूट जायगा। इस कारण दोनों दल अभी तक इस सम्बन्ध में आनाकानी करते जाते हैं। लोगों ने एक दूसरी भी युक्ति निकाली है। वे उन व्यक्तियों से, जो कामन्स सभा के सदस्य होने के लिए उनसे वोट माँगते हैं, इस बात का वचन लेने लगे हैं कि वे सदस्य होकर पारलियामेंट में दोनों दलों के गुप्त कोशों की जाँच के विषय में घोर आन्दोलन करेंगे। इन बातों से प्रकट होता है कि उपाधियों के क्रय-विक्रय का बाजार थोड़े दिनों में ठण्ढा पड़ जायगा। तथास्तु।

[ जूलाई १९१२.
 


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