सङ्कलन/१७ व्योमयान द्वारा मुसाफिरी

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[ १०३ ]द्वारा वायु की गति का पता लगानेवाले इस बात का निश्चय न कर द कि समय अच्छा है, वायु-गति व्योमयान की यात्रा के मुवाफ़िक़ है और आँधी-पानी की सम्भावना नहीं। बहुधा व्योमयान के उड़ने के निश्चित समय में, वायु गति के बदल जाने अथवा दुर्दिन हो जाने के कारण, फेर-फार भी करना पड़ता है। दफ्तर के बाहर कितने ही चित्र लटके रहते हैं जिनमें व्योमयानों के किसी झील, नदी अथवा पहाड़ पर उड़ने का दृश्य अङ्कित रहता है। वहीं पर एक कर्मचारी मौजूद रहता है। यात्रियों के यात्रा-सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देना ही उसका काम है।

व्योमयान के यात्री अपने साथ अधिक असबाब नहीं रखते। प्रत्येक यात्री अपने साथ हलका बेग, ओवरकोट, तसवीर खींचने का केमेरा आदि थोड़ी सी छोटी चीजें मुफ्त ले जा सकता है। अधिक असबाब होने से किराया बहुत देना पड़ता है। अधिक कपड़े साथ रखने की भी इजाज़त नहीं। दो हज़ार फुट ऊपर अवश्य कुछ सर्दी मालूम पड़ती है, परन्तु इतनी अधिक नहीं कि साधारण कपड़ों के रहते विशेष कष्ट हो। हवा की कमी नहीं होती; उसका प्रवाह किसी मुख्य दिशा की ओर नहीं होता। सौ फुट ऊपर ही सूर्य की प्रखरता लोगों की आँखों को चौंधिया देती है। इसी लिए यात्री लोग चौड़े किनारे को टोपियाँ लगाते हैं, जिससे नेत्रों की रक्षा होती रहे। [ १०४ ]प्रातःकाल, सूर्योदय के पूर्व ही, व्योमयान यात्रा की तैयारी करता है। उसका गोदाम बिजली के प्रकाश से चमक उठता है। उन हौज़ों और नलों में पानी भरा जाता है जो उड़ते समय अपने बोझ से यान का बोझ साधते हैं। इस बात की अच्छी तरह परीक्षा कर ली जाती है कि इन हौज़ों और नलों में कोई नुक्स़ तो नहीं। फिर चमड़े के नलों द्वारा लोहे के पीपों में बन्द गेस व्योमयान के इंजिन में पहुँचाया जाता है। उसमें गेस के पहुँचते ही घोर नाद होना आरम्भ होता है। यन्त्रकार लोग यन्त्रों की परीक्षा करते हैं। इतने में सूर्योदय हो जाता है। कप्तान आता है और मुसाफिर लोग भी एक एक करके आने लगते हैं। व्योमयान का एक दरवाजा खुलता है और उसमें से एक छोटी सीढ़ी नीचे भूमि पर लटका दी जाती है। लोग उसी पर चढ़ कर व्योमयान के भीतर पहुँचते हैं। यात्रियों की संख्या चौबीस से अधिक नहीं होती। उनके भोजनादि के प्रबन्ध के लिए एक बावर्ची भी व्योमयान पर रहता है।

अव आदमियों का एक दल और आता है। व्योमयान को गोदाम से बाहर ले जाकर उस स्थान पर पहुँचाना, जहाँ से वह उड़ता है, इन लोगों का काम है। यात्री अपने मित्रों और स्नेहियों से विदा होते हैं। सीटी बजती है। तमाशबीन पीछे हट जाते हैं। नीचे लटकी हुई सीढ़ी लपेट कर ऊपर उठा ली जाती है। आये हुए दल के लोग व्योमयान के अगले हिस्से के चारों तरफ़ फैल जाते हैं और उनमें से हर एक
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नीचे लटकी हुई रस्सियों में से एक एक को थाम लेता है। फिर सीटी बजती है। गोदाम के बड़े बड़े फाटक ज़ोर से खड़- खड़ाते हुए खुल पड़ते हैं और आगे का रास्ता बिलकुल साफ़ हो जाता है। तीसरी दफे सीटी होती है। व्योम-यान चलने लगता है। वह इतना धीरे धीरे सरकता है कि गोदाम की दीवारों की शहतीरों के देखे बिना यह नहीं मालूम होता कि वह चल रहा है या खड़ा है। रस्सियों को पकड़नेवाले आदमी ही अपना सारा बल लगा कर छः सौ मन भारी व्योमयान को आगे खींचते हैं। व्योमयान सीधा आगे बढ़ता है; वह इधर उधर गोदाम की दीवारों की ओर नहीं झुकता। उसके नीचे छोटे छोटे पहिये लगे रहते हैं जो पटरियों पर चलते हैं। गोदाम से लेकर उस स्थान तक, जहाँ से वह उड़ता है, पटरियाँ बिछी रहती हैं। पटरियों और पहियों के कारण वह सहज ही में घसीटा जाता है; इधर उधर झुकता नहीं।

अब व्योमयान गोदाम से बाहर उस स्थान में पहुँच जाता है जहाँ से उसे उड़ना है। उसके यन्त्र आदि फिर देखे जाते हैं। यन्त्र चलने पर घोर नाद आरम्भ होता है। लोग रस्सियों को छोड़ कर दूर हट जाते हैं। तब अन्तिम सीटी होती है। धीरे धीरे व्योमयान भूमि से उठता है। थोड़ी देर तक उसकी चाल बड़ी धीमी रहती है, परन्तु फिर, उसकी तेज़ गति को देख कर आश्चर्य होता है। साधारणतः वह ४० मील फी घण्टे के हिसाब से उड़ता है। [ १०६ ]उड़ते हुए व्योमयान के भीतर का दृश्य चलते हुए जहाज़ के कमरे के दृश्य से भिन्न नहीं। साज़-सामान सब वैसा ही स्वच्छ, शुद्ध और सुखदायक मालूम होता है। जहाज़ से जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है, जल ही जल नज़र आता है। व्योमयान से भी नीचे पृथ्वी, समुद्र के सदृश, जान पड़ती है। मैदानों में उड़ते समय व्योमयान बिलकुल हिलता-डुलता नहीं मालूम पड़ता। पहाड़ों के निकट, अथवा उन्हें पार करते समय, अवश्य उसमें थरथराहट उत्पन्न हो जाती है। झीलों और अन्य बड़े बड़े जलाशयों का दृश्य बड़ा ही मनोहर होता है। ऐसे अवसर पर तूफ़ान चलने और उससे व्योमयान के पथ में अन्तर पड़ जाने का भय रहता है। इसलिए समुद्र अथवा झील पार करते समय व्योमयान के कर्मचारी खूब चौकन्ने रहते हैं। पहाड़ और समुद्र आदि के ऊपर गुज़रते समय व्योमयान की गति मन्द कर दी जाती है। खुले मैदान में पहुँचते ही फिर उसकी गति बढ़ा दी जाती है।

यात्रियों के लिए भोजन का प्रबन्ध तो रहता ही है। भोजन का समय होते ही बावर्ची सब यात्रियों के सामने छोटी छोटी मेज़ें बिछा देता है। उन पर सफ़ेद कपड़ा बिछा रहता है और चाँदी के पात्र रक्खे रहते हैं। बावर्ची उनपर भोजन रख देता है। आपस में वात-चीत करते हुए यात्री भोजन करते हैं। भोजन समाप्त होने के बाद बावर्ची सब चीज़ों को हटा कर उचित स्थानों पर रख देता है। लोग मनोरञ्जन का भी सामान
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कर लेते हैं। कुछ आदमी ताश खेलने लगते हैं और कुछ बात- चीत करके अपना जी बहलाते हैं। ऐसे मनचले आदमियों की भी कमी नहीं होती जो व्योमयान के एक भाग में लगे हुए बे-तार के यन्त्र की खड़खड़ाहट सुनते हुए मृद्य की बोतलें खाली करते चले जाते हैं।

अब वह नगर दिखाई पड़ने लगता है जिसमें व्योमयान को उतरना है। थोड़ी देर बाद वह उस नगर के ऊपर चक्कर मारने लगता है। उस समय का दृश्य बड़ा ही हृदयाकर्षक होता है। नगर के बाजारों और गलियों की चहल-पहल देखते ही बन पड़ती है। कोई भी गाड़ी या ठेंला दृष्टि से नहीं बचता। पैदल चलनेवाले भी व्योमयानवालों की नज़र से नहीं छिपे रहते। नगर के बाग़ और बाग़ीचे भी, चाहे वे कितने ही गुप्त स्थान पर हों, ऊपर से खूब दिखाई पड़ते हैं। नीचे की कोई भी चीज़, जो आकाश से देखी जा सकती है, नज़र से छिपी नहीं रहती। इसी कारण पारस्परिक राष्ट्रीय नियमों के अनुसार व्योमयानों का क़िलों पर से उड़ना मना है।

अब व्योमयान धीरे-धीरे अपने अड्डे पर उतरना आरम्भ करता है । उस समय उसमें झोंके से आते हैं। लोग गिरने से बचने के लिए खम्भों और कुर्सियों को पकड़ लेते हैं। रस्सियाँ पकड़ने के लिए लोग नीचे एकत्र होने लगते हैं। व्योमयान का पानी नीचे गिर जाता है। उसकी गति बन्द हो जाती है और वह उतरने लगता है। रस्सियाँ नीचे लटका दी जाती
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हैं। लोग उन्हें पकड़ कर उस ओर खींचते हैं जिस ओर हवा चलती होती है। बड़ी युक्ति से व्योमयान पहियों और पट- रियों पर उतार लिया जाता है। अब उसका सब पानी नीचे गिरा दिया जाता है और वह पहियों, पटरियों और रस्सी खींचनेवालों की सहायता से गोदाम में पहुँचता है। यात्रियों के मित्र उनका स्वागत करने के लिए वहाँ खड़े रहते हैं। सीढ़ी लगाई जाती है और यात्री उतर आते हैं।

[ अक्टोबर १९१२.
 


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