सङ्कलन/२ प्राण-घातक माला

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प्राण-घातक माला

प्रसिद्ध चित्रकार राजा रविवर्मा ने "प्राण-घातक माला" अथवा अज-विलाप नामक एक नया चित्र, इसी वर्ष, बनाया है। यह चित्र बहुत ही भाव-भरा अतएव मनोहर है। चित्र की कथा इस प्रकार है --

एक देवाङ्गना को मनुष्य-योनि में उत्पन्न होने का शाप हुआ। जिस समय कोई दिव्य वस्तु का उससे स्पर्श हो, उस समय वह अपना मनुष्य-शरीर छोड़ कर फिर देवाङ्गना हो -- यह उसके शाप की अवधि हुई। यह देवाङ्गना अयोध्या के राजा अज की रानी इन्दुमती हुई। एक बार अज और इन्दु- मती नगर के पास उपवन में विहार कर रहे थे। इन्दुमती अज के अङ्क में थी। उसी समय नारद जी आकाश में गोकर्णे- श्वर महादेव के दर्शनों को जा रहे थे। उनकी वीणा पर दिव्य फूलों की एक माला थी। वायु के झोंके से वह माला स्थान-च्युत हो कर इन्दुमती के ऊपर आ गिरी। उसके गिरते ही इन्दुमती के प्राण चल बसे! उसके शाप की अवधि पूरी हो गई। प्राणाधिका इन्दुमती को, इस प्रकार, सहसा
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निर्जीव देख कर अज ने हृदय-विदारी विलाप करना आरम्भ किया। इन्दुमती को अङ्क में लिये हुए इसी विलाप-विह्वल अज का राजा रविवर्मा ने यह अद्भुत चित्र खींचा है।

इस कथा का आश्रय लेकर कालिदास ने रघुवंश के आठवें सर्ग में बड़ी ही मनोहारिणी कविता की है। उनके किये हुए अज-विलाप को सुन कर चित्त की अजब हालत हो जाती है। इस विलाप-वर्णन के कोई छब्बीस श्लोक हैं। उनमें से चुने चुने श्लोकों का भावार्थ हम नीचे देते हैं। महाकवि जी कहते हैं कि अत्यन्त साहजिक धीरता को भी छोड़ कर अज, गद्गद स्वर में, रोते हुए, विलपने लगे! तपाने से महा कठिन लोहा भी द्रवीभूत हो जाता है। फिर शोक से सन्तप्त हुए शरीर-धारियों का कलेजा पिघल उठेगा, इसमें कहना ही क्या है? अज का विलाप सुनिए --

"शरीर में छू जाने से महा कोमल फूल भी जब प्राण ले लेते हैं, तब, काल के लिए, जीवों को मारने का सभी कुछ साधन हो सकता है। वह चाहे तो तुच्छ से तुच्छ वस्तु से भी प्राण-हरण कर सकता है। अथवा यो कहिए कि, कोमल वस्तु को वह कोमल ही वस्तु से मारता है। देखो न, अति- शय कोमल तुषार से कमलिनी नष्ट हो जाती है। मेरे ऊपर पड़ी हुई विपत्ति से पहले ही यह उदाहरण हो चुका है। यदि यह माला प्राणहारिणी है तो मुझे क्यों नहीं मार डालती? मैं इसे हृदय पर रक्खे हूँ। ईश्वर की इच्छा से कभी कभी
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विष अमृत हो जाता है और अमृत विष! अथवा निर्दयी ब्रह्मा ने मेरे दुर्दैव के कारण इस माला से वज्र का-सा काम लिया। क्योंकि उसने पेड़ को तो नहीं, किन्तु उसकी आश्रित लता को मार गिराया! हे प्रिये! मैंने मन से भी कभी तेरे प्रतिकूल कोई काम नहीं किया। फिर तू क्यों मुझे छोड़े जाती है? पृथ्वी का पति तो मैं केवल शब्दगत -- अर्थात् कहने ही भर को -- था; पति तो मैं केवल तेरा था; तुझी में मेरी पूर्ण प्रीति थी। रात को, भौरों का शब्द जिनमें बन्द हो गया है, ऐसे मुकुलित कमल के समान, वायु से हिलती हुई अलकोंवाला यह तेरा मौन मुख मेरे हृदय के टुकड़े टुकड़े किये डालता है। निशा फिर भी निशानाथ को मिलती है; बिछोह हो जाने पर फिर भी चक्रवाकी चक्रवाक के पास पहुँचती है। इसी लिए वे अपने अपने विरह को किसी प्रकार सह भी लेते हैं। परन्तु, तू तो मुझे हमेशा के लिए छोड़ गई। फिर क्यों न मेरे शरीर में दुःसह दाह उत्पन्न हो? नये नये पल्लवों के कोमल बिछौने पर भी तेरा मृदुल अङ्ग दुखने लगता था। अतएव, तू ही कह, किस प्रकार तू इस विषम चिता पर चढ़ना सहन कर सकेगी? हे सुन्दरी! बजते हुए नूपुरधारी तेरे चरणों का जो अनुग्रह दूसरों को दुर्लभ था, उसका स्मरण सा करता हुआ, फूल रूपी आँसुओं को बरसानेवाला यह अशोक, तेरा शोक कर रहा है। तेरे सुख में सुखी और तेरे दुःख में दुःखी ती सखियाँ, प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान यह तेरा पुत्र,
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केवल तुझ में अनुराग रखनेवाला मैं -- ये सब सुख के सामान रहते भी तेरा, इस प्रकार, हम सब को छोड़ जाना निश्चय ही बड़ा निष्ठुर काम है। मेरा धीरज अस्त हो गया; विलास का भी नाश हो गया; गाना बजाना भी हो चुका; वसन्तादिक उत्सव भी समाप्त हुए; आभूषणों का प्रयोजन भी जाता रहा; शय्या भी सूनी हो गई। तू मेरी गृहिणी थी; तू मेरी मन्त्री थी; तू मेरी एकान्त की सखी थी; तू ललित कलाओं में मेरी प्यारी शिष्या थी। ऐसी तुझको इस निष्करुण मृत्यु ने हरण कर के मेरा क्या नहीं हरण किया?"

इस कविता का आनन्द अनुवाद में नहीं मिल सकता; फिर गद्य में तो और भी नहीं। उसके लिए मूल श्लोक ही पढ़ने चाहिएँ।

[नवंबर १९०३.