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सङ्कलन/४ कांग्रेस के कर्ता

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संकलन
महावीर प्रसाद द्विवेदी
कांग्रेस के कर्ता

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ १७ से – २३ तक

 

कांग्रेस के कर्ता

कांग्रेस क्या चीज़ है, इसके बतलाने की ज़रूरत नहीं। कांग्रेस का अर्थ प्रायः सभी जानते हैं, चाहे वे अँगरेज़ी जानते हों, चाहे न जानते हों। हाँ, अख़बारों से उनका परिचय होना चाहिए। १९०४ की कांग्रेस, इसी महीने, अर्थात् दिसम्बर में, होनेवाली है। उसके होने के पहले ही हम यह लेख लिख रहे हैं। इसी से हम तदनुकूल शब्द प्रयोग करते हैं। इस बार उसका लीला-स्थल बम्बई है। वहाँ पालव बन्दर के मैदान में, एक सुदक्ष पारसी इंजिनीयर उसके लिए एक भव्य भवन बना रहे हैं। कुल सत्रह विषयों पर वाद-विवाद होगा। इन विषयों में से एक विषय यह है कि पार्लियामेंट में हिन्दुस्तानी प्रतिनिधि लिये जायँ। दूसरा यह है कि कांग्रेस की तरफ़ से हिन्दुस्तानी प्रतिनिधि इंगलैण्ड भेजे जायँ और वहाँ वे इस देश की आवश्यकताओं को, वक्तृतायें देकर, प्रकट करें। और भी कई विषय ऐसे हैं जिनसे इस देश का बहुत कुछ लाभ हो सकता है। परन्तु कांग्रेस का काम प्रार्थनायें करना है। उनको मंजूर करना या न करना गवर्नमेंट का काम है।

इस बार की कांग्रेस के सभापति आसाम के भूत-पूर्व चीफ कमिश्नर सर हेनरी काटन होंगे। आप इस पद को ग्रहण

करने के लिए इँगलैण्ड से आ रहे हैं। उनके साथ सर विलि- यम वेडरबर्न भी आवेंगे। काटन साहब के कारण इस कांग्रेस में विशेष सजीवता आ जाने की सम्भावना है। आप का पूरा नाम है एच० जे० एस० काटन, के० सी० एस० आई०।

काटन साहब की कई पुश्तें इस देश में बीत चुकी हैं। जोजेफ काटन इनके परदादा थे; जान काटन इनके दादा थे; और जोजेफ जान काटन इनके पिता थे। ये लोग इस देश में आकर बहुत दिनों तक अच्छे अच्छे पदों पर रहे थे। इनके पिता मदरास हाते में १८३१ से १८६३ तक सिविलियन थे। इनका जन्म १८४५ ईस्वी में, कुम्भकोण में, हुआ था। इनके एक भाई हैं। उनका नाम है जे० एस० काटन। वे भी इन्हीं की तरह हिन्दुस्तान से प्रीति रखते हैं। उन्होंने "इंगलिश सिटीज़न" नामक पुस्तक-माला में हिन्दुस्तान पर एक बहुत अच्छी किताब लिखी है। उसमें उन्होंने हिन्दुस्तानियों को अँगरेज़ों की बराबरी का बतलाया है। काटन साहब के भी दो लड़के इस समय इस देश में हैं। एक कलकत्ते में हाई कोर्ट के ऐडवोकेट हैं; दूसरे मदरास हाते में सिविलियन हैं।

काटन साहब ने आक्सफ़र्ड और लंडन में विद्याभ्यास किया। सिविल सरविस की परीक्षा पास करने पर, १८६७ में, वे मेदिनीपुर में असिस्टेंट कलेक्टर नियत हुए। धीरे धीरे उनकी तरक्की होती गई। अनेक ऊँचे ऊँचे पदों पर काम करके १८९३ में वे आसाम के चीफ कमिश्नर हुए। १८९६ में

वे सी० एस० आई० हुए और १९०२ में के० सी० एस० आई०। चीफ़-कमिश्नरी से उन्होंने पेन्शन ले ली। काटन साहब की इस देश और इस देश के रहनेवालों पर बड़ी प्रीति है। आपने "न्यू इंडिया" नाम की एक किताब लिखी है। उसमें इस देश की वर्तमान दशा का बहुत ही अच्छा वर्णन है। उसे हिन्दु- स्तानी मात्र को पढ़ना चाहिए। आसाम में चाय के अनेक बाग़ हैं। उनमें जो कुली काम करते हैं, उन पर साहब लोग अक्सर बड़ी सख्ती करते हैं। यह बात काटन साहब से, चीफ़ कमिश्नरी की हालत में, देखी नहीं गई। उन्होंने कुलियों का खूब पक्ष लिया। इस पर उनसे उनके देशवासी सख्त नाराज़ हुए। पर उन्होंने इसकी ज़रा भी परवा नहीं की। खुले मैदान, कौंसिल में, उन्होंनें कुलियों की दशा का, उन पर होनेवाले अत्याचारों का और अपने सहानुभूतिसूचक विचारों का बड़े आवेश में आकर वर्णन किया। काटन साहब अच्छे समाज-संशोधक हैं और कांग्रेस के पक्षपाती हैं। जब तक वे इस देश में रहे, छोटे से लेकर बड़े तक, सबसे वे मिलते रहे। कभी किसी से मिलने से उन्होंने इनकार नहीं किया। एक दफे अपने मुँह से उन्होंने कहा --

"The excuse of फुरसत नहीं is abhorent to me" -- अर्थात् -- "फुरसत न होने का बहाना बतलाने से मुझे नफरत है।" ऐसे महामना और उदारचेता काटन साहब इस कांग्रेस के सभापति वरण किये गये हैं। १९०४ की कांग्रेस बम्बई में है। इसलिए उस प्रांत के दो एक प्रसिद्ध कांग्रेसवालों का परिचय भी, लगे हाथ, हम करा देना चाहते हैं। उनमें से प्रथम स्थान दादाभाई नौरोजी का है। वे इस कांग्रेस में न आ सकेंगे। पर वे उसके पूरे पक्षपाती हैं।

दादाभाई का जन्म, बम्बई में, १८२५ ईसवी में हुआ था। उनके पिता एक पारसी-पुरोहित थे। वहीं, बम्बई में, उनकी अँगरेजी शिक्षा समाप्त हुई। अनंतर वे एल्फिंस्टन कालेज में अध्यापक नियत हुए। अपने काम से उन्होंने कालेज के अधिकारियों को खूब खुश किया। कुछ समय तक वे विद्या- संबंधिनी एक गुजराती सभा के सभापति रहे। फिर उन्होंने रास्त-गुफ्तार नामक एक गुजराती अखबार निकाला। दो वर्ष तक वे उसके संपादक रहे; फिर छोड़ दिया। यह अखबार अब तक जारी है। १८५५ ईसवी में वे इंग्लैंड गये और वहाँ व्यापार करने लगे। तब से वे वहीं रहते हैं। यहाँ भी कभी कभी आ जाते हैं। १८७४ में, कुछ काल तक वे बरौदा में गायक- वाड़ के दीवान थे। वे "हौस आफ कामन्स" अर्थात् पार्लिया- मेंट के एक बार सभासद रह चुके हैं। अब फिर उसमें प्रवेश पाने का वे यत्न कर रहे हैं। वे पहले हिंदुस्तानी हैं जिनको पार्लियामेंट में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक बार, बंबई में, गवर्नर की कौंसिल में भी वे बैठ चुके हैं। यद्यपि वे बहुत बूढ़े हैं, तथापि देश-हित करने की प्रबल प्रेरणा से पुस्तकें लिख कर, बड़े बड़े अधिकारी अँगरेज़ों से मिल कर, और समय समय

पर व्याख्यान देकर, जो काम वे कर रहे हैं, वह जवानों से भी नहीं हो सकता। इस वर्ष (१९०४ में) अम्स्टरडाम में जो सभा हुई थी, उसमें वे भी गये थे। इनके ऋषि-तुल्य रूप को देखकर उनके खड़े होते ही सारी सभा खड़ी हो गई थी। इस देश की दुर्दशा का जो चित्र उन्होंने वहाँ खींचा, उससे सभा- सदों का हृदय द्रवीभूत हो गया। उन्होंने "पावर्टी ऐंड अन- ब्रिटिश रूल इन इंडिया" नाम की एक बहुत ही अच्छी पुस्तक लिखी है।

सर फ़ीरोज़ शाह मेहता, एम० ए०, एल-एल० बी०, के० सी० आई० ई०, इस बार कांग्रेस की स्वागत-कारिणी कमिटी के सभापति हैं। आप ही पहले दिन, सभासदों का स्वागत करेंगे और, अपनी पहली वक्तृता में, कांग्रेस सम्ब- न्धिनी भूमिका का भाष्य सुनावेंगे। आप पारसी हैं। पर इस देश में रहनेवाली सब जातियों की प्रतिष्ठा के वे पात्र हैं। बम्बई हाई कोर्ट के वे प्रधान बैरिस्टरों में से हैं। एक बार वाइसराय के कौंसिल के सभासद भी रह चुके हैं। आप बहुत बड़े वक्ता हैं; कांग्रेस के बहुत बड़े भक्त हैं; और देश-हित-कारक कामों के बहुत बड़े अभिभावक हैं।

अध्यापक गोपाल कृष्ण गोखले बी० ए०, सी० आई० ई० का नाम कौन न जानता होगा ? स्वदेश-हितचिन्तकों में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। तिलक-विभ्राट् के समय वे इँगलैंड में थे। वहाँ उन्होंने कुछ अनुचित कह डाला था। इसलिए, यहाँ

आकर, उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली, जिससे गवर्नमेंट का क्षोभ उन पर से जाता रहा। वे पूना के स्वदेशी फ़रगुसन कालेज में प्रोफेसर हैं। बहुत कम वेतन लेकर वे वहाँ विद्या- दान देते हैं। देश-सेवा ही में उन्होंने अपना समय व्यतीत करने का प्रण कर लिया है। अपने प्रान्त से वे वाइसराय के कौंसल के मेम्बर हैं। वे अपूर्व वक्ता हैं। "यूनीवरसिटी बिल" पास होने के समय उन्होंने कौंसल में जैसी आवेशपूर्ण वक्तृता दी थी, वैसी आज तक किसी हिन्दुस्तानी से नहीं बन पड़ी। उससे कौंसल का "हाल" कँप उठा था; बिल को उपस्थित करनेवालों का चेहरा सुर्ख़ हो गया था; और लार्ड कर्जन तक से उसका यथोचित उत्तर न बन पड़ा था। उनकी वह वक्तृता एक अजूबा चीज़ है। वह सादर पढ़ने लायक है और चिरकाल तक रख भी छोड़ने लायक है। उसके कुछ ही दिन बाद गवर्न- मेंट ने उनको सी० आई० ई० कर दिया। बहुत अच्छा हुआ।

मिस्टर दिनशा एदलजी वाचा बम्बई के निवासी हैं। आप पारसी-वंशज हैं। कांग्रेस से आपका उसी तरह का सम्बन्ध है, जिस तरह का योगियों का ब्रह्मानन्द से होता है। शायद ही कोई कांग्रेस ऐसी हुई हो जिसमें आप उपस्थित न रहे हों। व्यापार-विषयक बातों में आपका तजरुबा बहुत बढ़ा चढ़ा है। आपके बोलने का ढंग ऐसा है कि सुननेवालों के नेत्र आपके चेहरे पर जाकर चिपक से जाते हैं। वक्तृता में, यथा समय, अङ्ग-विक्षेप करने की कला आपको खूब आती है। सर विलियम वेडरबर्न बम्बई के गवर्नर के प्रधान सेक्रेटरी थे। इस देशवालों ने विलायत में जो एक समाज संगठित किया है, उससे आपका घनिष्ट सम्बन्ध है। आप भारत के इतने शुभचिन्तक हैं कि उसके मंगल के लिए राजनैतिक आन्दोलनों में आपने अपने घर के कोई दो लाख से अधिक रुपये खर्च कर डाले हैं!

पार्लियामेंट सभा के सभ्य स्मिथ साहब भी इस बार कांग्रेस में आते हैं। आप भी भारत के बड़े शुभचिन्तक हैं। इस देश में मद्यपान-निवारण, करने के लिए आपने विलायत में एक सभा बनाई है। आप उसके सभापति हैं।

इस कांग्रेस के साथ जो प्रदर्शिनी होती है उसके, इस बार, दो भाग हैं -- एक पुरुषों का, दूसरा स्त्रियों का। पुरुषोंवाले को बम्बई के गवर्नर लार्ड लेमिंगटन खोलेंगे और स्त्रियोंवाले को उनकी लेडी साहबा खोलेंगी। स्त्रियों की प्रदर्शिनी एक नई चीज़ होगी। अनेक पारसी और महाराष्ट्र स्त्रियाँ इस काम में लगी हुई हैं। वही प्रहर्शिनी के लिए चन्दा इकट्ठा कर रही हैं; वही चीज़ें इकट्ठा कर रही हैं; और वही उनको हिफ़ाज़त से रखने और दिखलाने का प्रबन्ध कर रही हैं। ईश्वर करे, उनको इस काम में खूब सफलता हो।

अगली कांग्रेस इस प्रान्त में होनेवाली है।

[जनवरी १९०५.