सङ्कलन/५ क्रोध

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क्रोध

याद रखिए, क्रोध से और विवेक से शत्रुता है। क्रोध विवेक का पूरा शत्रु है। क्रोध एक प्रकार की प्रचंड आँधी है। जब क्रोध रूपी आँधी आती है, तब दूसरे की बात नहीं सुनाई पड़ती। उस समय कोई चाहे कुछ भी कहे, सब व्यर्थ जाता है। आँधी में भी किसी की बात नहीं सुन पड़ती। इसलिए ऐसी आँधी के समय बाहर से सहायता मिलना असंभव है। यदि कुछ सहायता मिल सकती है तो भीतर से ही मिल सकती है। अतएव मनुष्य को उचित है कि वह पहले ही से विवेक, विचार और चिंतन को अपने हृदय में इकट्ठा कर रक्खे जिसमें क्रोध-रूपी आँधी के समय वह उनसे भीतर से सहायता ले सके। जब कोई नगर किसी बलवान् शत्रु से घेर लिया जाता है, तब उस नगर में बाहर से कोई वस्तु नहीं आ सकती। जो कुछ भीतर होता है, वही काम आता है। क्रोधांध होने पर भी बाहर की कोई वस्तु काम नहीं आती। इसीलिए हृदय के भीतर सुविचार और चिंतन की आवश्यकता होती है।

क्रोध इतना बुरा विकार है कि वह सुविचार को जड़ से नाश करने की चेष्टा करता है। वह विष है; क्योंकि उसके नशे में भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता। वह मूर्तिमान् मत्सर है;
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उसके कारण क्षुद्र से क्षुद्र मनुष्य का भी लोग मत्सर करने लगते हैं। क्रोधी मनुष्य प्रत्येक बात पर, प्रत्येक दुर्घटना पर और प्रत्येक मनुष्य पर, बिना कारण अथवा बहुत ही थोड़े कारण से, बिगड़ उठता है। यदि क्रोध का कारण बहुत बड़ा हुआ तो वह उग्र रूप धारण करता है। और यदि उसका कारण छोटा हुआ तो चिड़चिड़ाहट ही तक उसकी नौबत पहुँचती है। अतएव, या तो वह प्रचंड होता है या उपहास- जनक। दोनों प्रकार से वह बुरा होता है। क्रोध मनुष्य के शरीर को भयानक कर देता है; शब्द को कुत्सित कर देता है; आँखों को विकराल कर देता है; चेहरे को आग के समान लाल कर देता है; बात-चीत को बहुत उग्र कर देता है। क्रोध न तो मनुष्यता ही का चिह्न है और न स्वभाव के सरल किंवा आत्मा के शुद्ध होने ही का चिह्न है। वह भीरुता अथवा मन की क्षुद्रता का चिह्न है। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक क्रोध आता है; नीरोग मनुष्यों की अपेक्षा रोगियों को; युवा पुरुषों की अपेक्षा बुड्ढों को; और भाग्यवानों की अपेक्षा अभागियों को। जो मनुष्य क्षुद्र हैं, उन्हीं को क्रोध शोभा देता है; सज्ञान, उदार और सत्पुरुषों को नहीं।

जिसे क्रोध आता है, वह उसे ही दुःखदायक नहीं होता; क्रोध के समय जो लोग वहाँ होते हैं, उनको भी वह दुःखदायक हो जाता है। चार अदमियों के सामने किसी छोटे से अपराध पर नौकर-चाकरों को बुरा-भला कहना और उन पर क्रोध
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करना किसी को अच्छा नहीं लगता। इस प्रकार क्रोध करना और उचित-अनुचित बोलना असभ्यता का लक्षण है। क्रोध ही के कारण स्त्री-पुरुष में बिगाड़ हो जाता है। क्रोध ही के कारण मित्रों का साथ, सभा-समाज का जाना, और जान- पहचानवालों के साथ उठना-बैठना असह्य हो जाता है। क्रोध ही के कारण सीधी-सादी हँसी की बातों से भयानक और शोककारक घटनायें पैदा हो जाती हैं। क्रोध ही के कारण मित्र द्रोह करने लगते हैं। क्रोध ही के कारण मनुष्य अपने आप को भूल जाता है; उसकी विचार-शक्ति जाती रहती है; और बात-चीत करने में वह कुछ का कुछ कहने लगता है। क्रोध ही के कारण मनुष्य, किसी वस्तु का चुपचाप ज्ञान प्राप्त न करके, व्यर्थ झगड़ा करने लगता है। जिनको ईश्वर ने प्रभुता दी है, उनको क्रोध घमंडी बना देता है। क्रोध सारासार विचार पर परदा डाल देता है; उपदेश और शिक्षा को क्लेश- दायक कर देता है; श्रीमान् को द्वेष का पात्र कर देता है। जो लोग भाग्यवान् नहीं, वे यदि क्रोधी हुए तो उन पर कोई दया नहीं करता। क्रोधी अनेक बुरे विकारों की खिचड़ी है। उसमें दुःख भी है, द्वेष भी है, भय भी है, तिरस्कार भी है, घमण्ड भी है, अविवेकता भी है, उतावली भी है, निर्बोधता भी है। क्रोध के कारण दूसरों को चाहे जितना क्लेश मिले, तथापि जिस मनुष्य को क्रोध आता है, उसी को सब से अधिक क्लेश मिलता है; और उसी की सबसे अधिक हानि भी होती है। [ २७ ]क्रोध से बचने अथवा क्रोध को दूर करने के लिए क्रोध करना उचित नहीं। अपने ऊपर भी क्रोध करने से क्रोध बढ़ता है, घटता नहीं।

क्रोध से बचने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन में दृढ़ता से पहले यह प्रण करे कि वह उस दिन क्रोध न करेगा, फिर चाहे उसकी कितनी ही हानि क्यों न हो। इस प्रकार प्रण करके उसे सजग रहना चाहिए। एक दिन बहुत नहीं होता। यदि वह एक दिन भी क्रोध को जीत लेगा तो दूसरे दिन भी वैसा ही प्रण करने के लिए उसमें साहस आ जायगा। तब उसे दो दिन क्रोध न करने के लिए प्रण करना उचित है। इस भाँति बढ़ाते बढ़ाते क्रोध न करने का स्वभाव पड़ जायगा। क्रोध मनुष्य का पूरा शत्रु है। उसके कारण मनुष्य का जीवन दुःखमय हो जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया, उसके लिए कठिन से कठिन काम करना सहल है।

क्रोध को बिलकुल ही छोड़ देना भी अच्छा नहीं। किसी को बुरा काम करते देख उसे पहले मीठे शब्दों से उपदेश देना चाहिए। यदि ऐसे उपदेश से वह उस काम को न छोड़े तो उस पर क्रोध भी करना उचित है। जिस क्रोध से अपने कुटुम्वियों, अपने इष्ट-मित्रों अथवा दूसरों का आचरण सुधरे; ईश्वर में पूज्य-बुद्धि उत्पन्न हो; दया, उदारता और परोपकार में प्रवृत्ति हो; वह क्रोध बुरा नहीं।

[जून १९०५.