सत्य के प्रयोग/ धार्मिक-मंथन

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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यह शिक्षा मेरे हृदय मैं इतने जोर के साथ अंकित हो गई कि अपने बीस साल के वकील-जीवन में अधिक समय में सैकड़ो फरीकर्न समझौता कराने में बीता । इसमें मैंने पाया कुछ नहीं। धन खोया हो, यह भी नहीं कह सकते; और आत्मा को तो किसी तरह नहीं खोया ।

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धार्मिक मंथन

अब फिर ईसाई-मित्रों के संपर्क पर विचार करने का समय आया है । मेरे भविष्य के संबंध में मि० बेकर की चिंता दिन-दिन बढ़ती जा रही थी । वह मुझे वेलिंग्टन कन्वेंशन ले गये । प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में, कुछ-कुछ वर्षों बाद, धर्म-जागृति अर्थात् आत्म-शुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किये जाते हैं। इसे धर्मकी पुनःप्रतिष्ठा अथवा धर्म का पुनरुद्धार कहा करते हैं। ऐसा एक सम्मेलन वेलिंग्टन था । उसके सभापति वहां के प्रख्यात धर्मनिष्ठ पादरी रेबरंड एंडु मरे थे । मि बेकर को ऐसी आशा था कि इस सम्मेलन में होनेवाली जाति, वहां आनेवाले लोगों का धार्मिक उत्साह, उनका शुद्धभाव, मुझपर ऐसा गहरा असर डालेगा। कि मैं ईसाई हुए बिना न रह सकूगा ।

परंतु मि० बेकर को अंतिम अधार था प्रार्थना-जल । प्रार्थना पर उनकी भारी श्रद्धा थी । उनका विश्वास था कि अंतःकारण-पूर्वक की गई प्रार्थना को ईश्बर अवश्य सुनता है । वह कहते, ‘प्रार्थना के ही बलपर मुल (एक विख्यात भावुक ईसाई) जैसे लोगों का काम चलता है ।' प्रार्थना की यह महिमा मैनें तटस्थ भाव से सुनी । मैंने उनसे कहा कि यदि मेरी अंतरात्मा पुकार उठे कि मुझे ईसाई हो जाना चाहिए तो दुनिया की कोई शक्ति मुझे रोक नहीं सकती । अंतरात्मा की पुकार के अनुसार चलने की आदत तो मैं कितने ही वर्षोंसे डाल चुका था। अंतरात्मा के अधीन होते हुए मुझे आनंद आता । उसके विपरीत आचरण करना मुझे कठिन और दुखदाई मालूम होता था ।

हम वेलिंग्टन गये । मुझ ‘श्याम साथी' को साथ रखना मि० बैंकर के लिए भारी पड़ा । कई बार उन्हें मेरे कारण असुविधा भोगनी पड़ती। रास्ते मैं [ १५७ ]
हमें नुकाम करना पड़ा था; क्योंकि मि बैंकर का संघ रविवार को सफर मैं करता था ’ और बीच में रविवार पड़ गया था । बीच में तथा स्टेशन पर मुझे होटलवाले होटल में ठहरने से तथा चख-चख होने के बाद ठहरने पर भी भोजनालय में भोजन करने देने से इनकार कर दिया; पर मि० बैंकर आसानी से हार मानने वाले न थे । वह होटल में ठहरनेवालों के हकपर अड़े रहे; परंतु मैने उनकी कठिनाइयों का अनुभव किया । वेलिंग्टन में भी मैं उनके पास ही कहा था। वहां उन्हें छोटी-छोटी-सी बातों मैं असुविधा होती थी। वह उन्हें ढा़कने शुभ प्रयत्न करते थे; फिर भी वे मेरे ध्यान में आ जाया करती थीं ।

सम्मेलन में भाबुक ईसाइयों का अच्छा सम्मिलन हुआ। उनकी श्रद्धा देख कर मुझे आनंद हुआ है मि० मरेसे परिचय हुआ। मैंने देखा कि मेरे लिए बहुतेरे लोग प्रार्थना कर रहे थे। उनके कितने ही भजन मुझे बहुत ही मीठे मालूम हुए ।

सम्मेलन तीन दिन तक हुआ। सम्मेलन में सम्मिलित होनेवालों की धार्मिकता को तो मैं समझ सका, उसकी कद्र भी कर सक, परंतु अपनी मान्यता--- अपने धर्म---में परिवर्तन करने का कारन न दिखाई दिया। मुझे यह न मालूम हुआ कि मैं अपने को ईसाई कहलाने पर ही स्वर्ग को जा सकता हूं या मोक्ष पा सकता हूँ । जब मैंने यह बात अपने भले ईसाई मित्रों से कहीं तब उन्हें दुःख तो हुआ; पर में लाचार था ।

मेरी कठिनाइयां गहरी थीं। यह बात कि ईसामसीह ही एकमात्र ईश्वर का पुत्र है, जो उसको मानता है उसीका उद्धार होता है, मुझे न पटी । ईश्वर के यदि कोई पुत्र हो सकता है तो फिर हम सब उसके पुत्र हैं । ईसामसीह यदि ईश्वरसम हैं, ईश्वर ही है, तो मनुष्य-मात्र ईश्वरसम हैं, ईश्वर हो सकते हैं । ईसा को मृत्यु से और उसके लहू से संसार के पाप धुल जाते हैं, इस बात का अक्षरश: मानने के लिए बुद्धि किसी तरह तैयार न होती थी। रूपक के रूप में यह सत्य भले ही हो । फिर ईसाई मत के अनुसार तो मनुष्य को ही आत्मा होती है। दूसरे जीवों को नहीं, और देह के नाशके साथ ही उसका भी सर्वनाश हो जाता है; पर मेरा मन इसके विपरीत था ।

ईसाको त्यागी, महात्मा, दैवी शिक्षक मान' सकता था; परंतु एक अद्वितीय पुरुष नहीं । ईसा की मृत्यु से संसार को एक भारी उदाहरण मिला; परंतु उसकी [ १५८ ]मृत्यु मैं कोई गुह्ये चमत्कार-प्रभाव था, इस बात को मेंरा हृदय ने मान सकता था । ईसाइयों के पवित्र जीवन में से मुझे कोई ऐसी बात न मिली जो दूसरे धर्मवालोंके के जीवन में मिलती थी। उनकी तरह दुसरे धर्मवालोंके के जीवन में भी परिवर्तन होता हुआ मैंने देखा था । सिद्धांत की दृष्टि से ईसाई-सिद्धांतों में मुझे अलौकिकता न दिखाई दी । त्याग की दृष्टि से हिंदू-धर्मवालोंका का त्याग मुझे बढ़कर मालूम हुआ । अतः ईसाई-धर्म को मैं संपूर्ण अथवा सर्वोपरि धर्म न मान सका ।

अपना यह हृदय-मंथन मैंने, समय पाकर, ईसाई मित्रों के सामने रखा। उसका जवाब वे संतोषजनक न दे सके ।

परंतु एक ओर जहां मैं ईसाई-धर्म को ग्रहण न कर सका वहीं दूसरी ओर हिंदू-धर्म की संपूर्णता अथवा सर्वोपरिता को भी निश्चय मैं इस समय तक न कर सका। हिंदू-धर्म की त्रुटियां मेरी आंखों के सामने घूमा करतीं । अस्पृश्यता यदि हिंदू-धर्म का अंग हो तो वह मुझे सड़ा हुआ अथवा बढ़ा हुआ मालूम हुआ है। अनेक संप्रदायों और जात-पात का अस्तित्व मेरी समझ में न आया । वेद ही ईश्वर प्रणीत है, इसका क्या अर्थ ? वेद यदि ईश्वर-प्रणीत है, तो फिर कुरान और बाइबिल क्यों नहीं ?

जिस प्रकार ईसाई मित्र मुझ पर असर डालने का उद्योग कर रहे थे, उसी प्रकार मुसलमान मित्र भी कोशिश कर रहे थे । अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए ललचा रहे थे । उसकी खूबियों की चर्चा तो वह हमेशा करते रहते ।

मैंने अपनी दिक्कतें रायचंदभाई को लिखीं। हिंदुस्तान में दूसरे धर्मशास्त्रियों से भी पत्र-व्यवहार किया। उनके उत्तर भी आये; परंतु रायचंदभाई के पुत्र ने मुझे कुछ शांति दी। उन्होंने लिखा कि धीरज रक्खो, और हिंदू-धर्म का गहरा अध्ययन करो । उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था--- : हिंदू-धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, जो अत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्म में नहीं हैं निष्पक्ष होकर विचार करते हुए मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूँ ।'

मैंने सेल-कृत कुरान खरीदी और पढ़ना शुरू किया। दूसरी इस्लामी पुस्तके भी मंगाई । विलायत के ईसाई मित्रों से लिखा-पढ़ी की' । उनमें से एक एडवर्ड मेटलैंड से जान-पहचान कराई । उनके साथ चिट्ठी-पत्री हुई। उन्होंने [ १५९ ]
एना किंग्सफर्ड के साथ मिलकर 'परफेक्ट वे' (उत्तम मार्ग) नामक पुस्तक लिख थी । वह मुझे पढ़ने के लिए भेजी । प्रचलित ईसाई-धर्म को उसने खंडन था । 'बाइबिल का नवीन अर्थ' नामक पुस्तक भी उन्होंने मुझे भेजी । ये पुस्तके मुझे पसंद आईं। उनसे हिंदू-मत को पुष्टि मिली । टॉलस्टाय की वैकुंठ तुम्हारे हृदय में है ' नामक पुस्तक ने मुझे मुग्ध कर लिया। उसकी बड़ी गहरी छाप मुझपर पड़ी। इस पुस्तक की स्वतंत्र विचार-शैली, उसकी प्रौढ़ नीति, उसके सत्य के सामने मि० कोट्स की दी हुई तमाम पुस्तके शुष्क मालूम हुई ।

इस प्रकार मेरा यह अध्ययन मुझे ऐसी दिशा में ले गया जिसे ईसाई मित्र नहीं चाहते थे । एडवर्ड मेटलैंड के साथ मेरा पत्र-व्यवहार काफी समय तक रहा । कवि (रायचंद) के साथ तो अंत तक रहा। उन्होंने कितनी ही पुस्तके भेजी । उन्हें भी पढ़ गया। उनमें ‘पंचीकरण', 'मणिरत्नमाला', 'योगवासिष्ठ' की मुमुझु-प्रकरण, हरिभद्र सुरिका ‘षड्दर्शन-समुच्चय' इत्यादि थे ।

इस प्रकार यद्यपि मैं ऐसे ते चल पड़ा, जिसका खयाल ईसाई मित्रों न किया था, फिर भी उनके समागमने जो धर्म-जिज्ञासा मुझमें जागृत कर दी थी उसके लिए तो मैं उनका चिर-कालीन ऋणी हैं। उनसे मेरा यह संबंध मुझे हमेशा याद रहेगा ! ऐसे मीठे और पवित्र संबंध आगे और भी बढ़ते गये, घटे नहीं हैं।

१६
“को जाने कलकी ?”
खबर नह इस जुग पल की
मसझ मन! को जाने कल की?

मुकदमा खत्म हो जाने के बाद मेरे प्रिटोरिया मैं रहने का कोई प्रयोजन न रहा था। सो मैं डरबन गया। वहां जाकर घर (भारतवर्ष) लौटने की तैयारी की; पर अब्दुल्ला सेठ भला मुझे आदर-सत्कार किये बिना क्यों जाने देने लगे ? उन्होंने सिडनहैम में मेरे लिए खान-पान का एक जलसा ? किया । सारा दिन उसमें लगनेवाला था ।

मेरे पास कितने ही अखबार रक्खे हुए थे। उन्हें मैं देख रहा था । एक

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