सत्य के प्रयोग/ 'जाको राखे साइयां'

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथा : भाग ४ ‘जाको राखे साइयां इस समय तो मैंने निकट भविष्यमें देश जानेकी अथबा वहां जाकर स्थिर होने की अशा छोड़ दी थी । इधर मैं पत्नीको एक सालका दिलासा देकर दक्षिण अफ्रीका' आया था; परंतु साल तो बीत गया और मैं लौट र सका; इसलिए निश्चय किया कि बाल-बच्चोंको यहीं बुलबा लें । अल-अरचे आ गये । उनमें मेरा तीसरा पुत्र रामदास भी था। रास्ते जहाज कप्तानके साथ वह खूब हिल-मिल गया था और उनके साथ खिलवाड़ करते हुए उसका हाथ टूट गया था। कप्तानने उसकी खुव सेवा की थी । डाक्टरने हुड्ड जोड़ दी थी और जब वह जोहान्सबर्ग पहुंचा तो उसका हाथ लकड़ीकी पट्टी बांधकर रूमालमें लटकाया हुअा अक्षर रखा गया था । जहाजके डाक्टर की हिदायत थी कि जख्मका इलाज किली डाक्टरले ही कराना चाहिए । परंतु यह जाना मेरे मिट्टीके प्रयोग के दौर-दौरेका था । अपने जिन मवविकलोका विश्वास मुझ अनाड़ी वैद्यपर था उनसे भी मैं मिट्टी और पानीका प्रयोग करता था । तव रामदासके लिए दूसरा क्या इलाज हो सकता था ? रामदासही उम्र उस समय आठ बर्धकी थी। मैंने उससे पूछा--- " मैं तुम्हारे जमकर मरहम-पट्टी खुद करू तो तुम डरोगे तो नहीं ? " रामदासने इंकर मुॐ श्योर करनेकी छुट्टी दे दी । इस उम्में उसे अच्छे-बुरेकी पहचान नहीं हो स थी, फिर भी डाक्टर गौर नीम-हकीम का भेद वह अच्छी तरह जानता था । २३ : उसे मेरे प्रयोगोंका हल मालूम था और मुझपर उसका विश्वास था। इसलिए उसकी छ डर नहीं मालूम हो । मैंने उसकी पट्टी खोली । पर उस समय मेरे हाथ कांप रहे थे और दिल धड़क रहा था। मैंने जख्मको धोया और साफ मिट्टीकी पट्टी' रखकर पूर्ववत् पट्टी बांध दी । इस तरह रोज मैं जख्म साफ करके मिट्टीकी पट्टी चढ़ा देता । कोई महीने भरमें घाव सूख गया। किसी भी दिन उसमें कोई खराबी पैदा न हुई और दिन-दिन वह सूखता ही गया । जहाजके डाक्टरने भी कहा था कि डॉक्टरी । [ ३३३ ]
मरहम पट्टी से इतना समय तो लग ही जायेगा । | इससे घरेलू इलाजपर मेरा विश्वास और उसके प्रयोग करने का है। साहस बढ़ गया। इसके बाद तो मैंने अपने प्रयोगोंकी सीमा बहुत बड़ा दी थी । जख्म, बुखार, अजीर्ण, पीलिया इत्यादि रोगोंपर मिट्टी, पानी और उपवास प्रयोग कई छोटे-बड़े स्त्री-पुरुषोंपर किये और उनमें अधिकांश सफलता मिली । इतनैपर भी जो हिम्मल इस विषयने मुझे दक्षिण अफ्रीका थी वह अब नहीं रही और अनुभबसे ऐसा भी देखा गया हैं कि इन प्रयोगों में उतरा तो हैं हीं । | इन प्रयोगोंके वर्णन भेर हेतु यह नहीं हैं कि इनकी सफलता सिद्ध करू । में ऐसा दावा नहीं कर सकता कि इनमें से एक भी प्रयोग सुवशमें सफल हुआ हो, पर कोई डाक्टर भी तो अपने प्रयोगोंके लिए ऐसा दादा नहीं कर सकता । मेरे कहने को भाव सिर्फ यही है कि जो लोग नये अपरिचित प्रयोग करना चाहते हैं। उन्हें अपने ही उसकी शुरूआत करनी चाहिए। ऐसा करने से सत्य जल्दी प्रकाशित होती है और ऐसे प्रयोग करने वाले ईश्वर खतरोंसे बचा लेता है । मिट्टी के प्रयोगों में जो जोखिम थी यहीं यूरोपियन लोगोंके निकट समागममें भी थी । भेद सिर्फ दोनों प्रकारका था । परंतु इन खतरोंका तो मेरे मनमें विचारतक नहीं आया ।। पोलकको मैंने अपने साथ रहनेका निमंत्रण दिया और हम सगे भाईकी तरह रहने लगे । पोलकका विवाह जिस देदीके साथ हुआ उससे उनकी मैत्री बहुत समय थी । उचित समयपर विवाह कर लेनेका निश्चय दोनोंने कर रक्खा था; परंतु मुझे याद पड़ता है कि पोलक कुछ रुपया जुटा लेनकी फिराकमें धे । रस्किनके ग्रंथोंका अध्ययन र विचारों ननन उन्होंने मुझमें बहुत अधिक कर रखा था; परंतु पश्चिमके वातावरण में रल्किनके विचारोंके अनुसार जीवन वितानेकी कल्पना मुश्किलले ही हो सकती थी । एक रोज मैंने उनसे कहा, “जिसके साथ प्रेम-गांठ बंध गई है उसका नियोग केवल धनावले सहना उचित नहीं है। इस तरह अगर विचार किया जाय तव तो कोई गरीब बेचारा विवाह कर ही नहीं सकता है फिर आप तो मेरे साथ रहते हैं। इसलिए वर-खर्चका खयाल ही नहीं है । सो मुझे तो यही उचित मालूम पड़ता है कि आप शादी कर लें।” पोलकसे मुझे कभी कोई बात दुवारा कहनेका मौका नहीं आया। उन्हें [ ३३४ ]________________

३१४ तुरंत मेरी दलील पट गई । भावी श्रीमती पोल विलायतमें थीं, उनके भाई चिट्ठी-पत्री हुई। वह सहमत हुईं और थोड़े ही महीनों वह विवाहके लिए जोहान्सबर्ग आ गई । विवाहमें खर्च कुछ भी नहीं करना पड़ा । विवाहके लिए खात कपड़ेक्षक नहीं बनाये गये और धर्म-विधिकी भी कोई आबश्यकता नहीं सनी । श्रीमती पोलक जन्मतः ईसाई और पोलक यहूदी थे। दोनों नीति-धर्मके मानने वाले थे। । परंतु इस विवाहके समय एक मनोरंजक घटना होनई थी। ट्रांसवालमें जो कर्मचारी गोरोंके विवाहकी रजिस्ट्री करता वह काले विवाहकी नहीं करता था । इस विवाहमें दोनोंका पुरोहित या साक्षी मैं ही था । हम चाहते तो किसी गोरे-मित्रकी भी तजवीज कर सकते थे; परंतु पोलक इस बातको बरदाश्त नहीं कर सकते थे, इसलिए हम तीनों उस कर्मचारीके पास गये । जिस विवाहका मध्यस्थ एक कला आदमी हो उसमें वर-वधू दोनों गोरे ही होंगे, इस बातका विश्वास सहसा उस कर्मचारीको कैसे हो सकता था ? उसने कहा कि मैं जांच . करने के बाद विवाह रजिस्टर करूंगा। दूसरे दिन बड़े दिनका त्यौहार था । विवाहकी सारी तैयारी किये हुए वर-वधू विवाहको रजिस्ट्री की तारीखका इस तरह बदला जाना सबको बड़ा नागवार गुजरा। बड़े मजिस्ट्रेट नेरा परिचय था । वह इस विभागका अफसर था। मैं इस दंपतीको लेकर उनके पास गया । किस्सा सुनकर वह हंसे और चिट्ठी लिख दी। तब जाकर वह विवाह रजिस्टर हुन्न । | आजतक तो थोड़े-बहुत परिचित गोरे पुरुष ही हम लोगोंके साथ रहे। थे ; पर अव एक अपरिचित अंग्रेज महिला हमारे परिवार में दाखिल हुई। मुझे तो बिलकुल याद नहीं पड़ता कि खुद मेरा कभी उनके साथ कोई झगड़ा हुआ हो; परंतु जहां अनेक जातिके और प्रकृतिके हिंदुस्तानी आया-जाया करते थे और जहां मेरी पत्नीको अभी ऐसे जीवनका अनुभव थोड़ा था, जहां उन दोनों को कभी-कभी उद्वेगके अवसर मिले हों तो आश्चर्य नहीं; परंतु मैं बह सकता हूं कि एक ही जाति और कुटुंबके लोगोंमें कटु अनुभव जितने होते हैं, उनसे तो अधिक इस विजातीय कुटुंबमें नहीं हुए; बल्कि ऐसे जिन प्रसंग का स्मरण मुझे ' हैं वे बहुत मामूली' कहे जा सकते हैं। बात यह है कि सजातीय-विजातीय यह तो [ ३३५ ]________________

अध्याय २३ । धरहैं हैरकार और बाल-रिक्ष हमारे मनकी तरंगें है। वास्तवमें तो हुम सब एक ही परिवारों लोग हैं । अब, वेस्टका विवाह भी यहीं क्यों न मजा लू ? उस समय ब्रह्मचर्यविषयक भेरे विचार परिपक्व नहीं हुए थे। इसलिए कुंवारे मित्रों का विवाह *रा देना उन दिनों मेरा एक पेशा हो वैठा था। वे जब अपनी जन्मभूमि माता-पिता मिलने के लिए गये तो मैंने उन्हें शाह दी थी कि जहांतक हो सके विवाह करके ही लौटना; क्योंकि फिनिक्स हम सत्रका घर हो गया था और हम सब किसान बन बैठे थे, इसलिए विवाह या वंश-वृद्धि हमारे लिए भयका विषय नहीं था। | बेस्ट लेस्टरकी एक सुंदरी विवाह लाये । इल कुमारिकाके परिवार लोग लेटरके जूतेके एक बड़े कारखाने में काम करते थे । श्रीमती बेस्ट भी कुछ समयतक उस जूते के कारखानेमें काम कर चुकी थीं । उभे मैंने मुंदरी' कहा है, क्योंकि मैं उसके गुणों का पुजारी हूं, और सच्चा सौंदर्य तो मनुष्यका गुण ही होता है। वेस्ट अपनी सासको भी साथ लाये थे। यह भल’ बुढ़िया अभी जिंदा है। अपनी उद्यमशीलता और हंसमुख स्वभावते वह हम सबक शमय करती थी। इधर तो मैंने गोरे मित्रों का विवाह कराया, उधर हिंदुस्तानी मित्रोंको अपने बाल-बच्चों को बुलवा लेने के लिए उत्साहित किया । इसने फिनिक्स एक छोटा-सा गांव बन गया था । वहां पांच-सात हिंदुस्तानी-कुटुंब रहने और वृद्धि पाने लगे थे । घरमें फेरफार और बाल-शिक्षा डरबनमें जो घर बनाया था उसमें भी कितने ही फेरफार कर डाले थे । पर यहां खर्च बहुत रक्खा था; फिर भी झुकाव सादगीकी ही तरफ थर । परंतु जोहान्सबर्ग में सर्वोदयके आदर्श और विचारों ने बहुत परिवर्तन कराया । | एक बैरिस्टर में जितनी सादगी रखी जा सकती थी उतनी तो रखी ही गई थी; फिर भी कितनी ही सामग्री के बिना काम चलाना कठिन था । सच्ची सादगी तो मन की बढ़ी। हर काम हाथ करनेका शौक बढ़ा

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