सत्य के प्रयोग/ पोलक भी कूद पड़े

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय २१ : पोलक भी कूद पड़े। फेल । इस संस्थाके जीवनमें ऐसा भी एक युग गया था, जब जानबूझकर जिन चंद रक्खा गया था और दृढ़तापुर्वक हाश्के पहियेस ह स चलाया गया थः । मैं कह सकता हूं कि फिनिक्स जीवने यह ऊंचे-से-ॐवा नैतिक कल पोल भी कूद पड़े फिनिक्स जैसी संस्था स्थापित करनेके बाद मैं चुद थोड़े ही समय उसमें रह सका। इस बातपर मुझे हमेशा बड़ा दुःख रहा है। उसकी स्थापनाके समय मेरी यह कल्पना थी कि मैं भी वहीं दूंगा। वहीं रहकर जो-कुछ सेवा हो सके। बहू करूंगा और फिनिक्सकी सफलताको ही अपनी सेवा समझंग! ! परंतु इन विचारों के अनुसार निश्चित ब्यव्हार न सका। अपने अनुभवों मैंने यह बहुत बार देखा है कि हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है। परंतु इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया है कि जहां सत्यकी ही वाह अौर उपासना है वहां परिणाम चाहे हमारी धारणाके अनुसार न निकले, कुछ और ही निकले, परंतु वह अनिष्ट-- बुरा--नहीं होता और कभी-कभी तो शासे भी अधिक अच्छा हो जाता है। फिनिसमें जो अकल्पित परिणाम पैदा हुए और फिनिक्सको जो अकल्पित रूप प्राप्त हुआ, वह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि अनिष्ट नहीं । हां, यह बात अलबत्ता निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि उन्हें अधिक अच्छा कह सकते हैं या नहीं। | हमारी धारणा यह थी कि हम लोग खुद मिहनत करके अपनी रोजी अदायेंगे, इसलिए छापेखानेके आसपात हरएक निवासीको तीन-तीन एकड़ जमीनका टुकड़ा दिया गया। इसमें एक टुकड़ा मेरे लिए भी नापा गया । हम सब लय की इच्छा के खिलाफ उनपर टीनके घर बनाये गये । इच्छा तो हमारी बहू थी कि हम मिट्टी और फुसके, किसानों के लायक, अथवा ईंटके मकान बनावें; पर वह न हो सका । उसमें अधिक रुपया लगता था और अधिक समय भी जाता था । फिर सब लोग इस बातुके लिए आतुर थे कि कब अपने घर बसा लें और क्रोममें लग जाय । [ ३३० ]________________

अल्म-कथा : भाग ४ यद्यपि 'इंडियन ओपीनियन' के संपादक त मलसुखलाल नाजर ही माने जाते थे, तथापि वह इस योजनामें सम्मिलित नहीं हुए थे। उनका घर डरबनमें ही था । डरबनमें 'इंडियन ओपीनियन की एक छोटी-सी शाखा भी थी । छापेखानेमें कंपोज करने यानी अक्षर जमानेके लिए यद्यपि वैतनिक कार्यकर्ता थे, फिर भी उसमें दृष्टि यह रखी गई थी कि अक्षर जमानेकी क्रिया सब संस्थावासी जान लें और करें; क्योंकि यह है तो आसान, पर इसमें समय बहुत जाता है; इसलिए जो लोग कंपोज करना नहीं जानते थे वे सब तैयार हो गये। में इस काममें अंततक सबसे ज्यादा पिछड़ा हुअा रहा और भगनलाल गांवी सबसे आगे निकल गये । मेरा हमेशा यह मत रहा है कि उन्हें खुद अपनी शक्तिकी जानकारी नहीं रहती थी। उन्होंने इससे पहले छापेखानेका कोई काम नहीं किया था, फिर भी वह एक कुशल कंपोजीटर बन गये और अपनी गति भी बहुत बड़ा ली। इतना ही नहीं, बल्कि थोड़े ही समय में छापेखाने की सब क्रियों में काफी प्रवीणता प्राप्त करके उन्होंने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया । | यह काम अभी ठिकाने लगा ही न था, मकान भी अभी तैयार न हुए थे। कि इतने में ही इस नये रचे कुटुंबको छोड़कर मुझे जोहान्सबर्ग भागना पड़ा। ऐसी हालत न थी कि मैं वहांका काम बहुत समयतक यों ही पटक रखता ।। | जोहान्सबर्ग आकर मैंने पोलकको इस महत्त्वपूर्ण परिवर्तनको सूचना दी । अपनी दी हुई पुस्तकका यह परिणाम देखकर उनके आनंदकी सीमा न रही । उन्होंने बड़ी उमंगके साथ पूछा- “तो क्या मैं भी इसमें किसी तरह योग नहीं दे सकता ? " मैंने कहा--- "हां, क्यों नहीं, अवश्य दे सकते हैं। अप चाहें तो इस योजनामें भी शरीक हो सकते हैं । । “ मुझे अप शामिल कर ले तो मुझे तैयार ही समझिए ।' पोलकने जवाब दिया । उनकी इस दृढ़ताने मुझे मुग्ध कर लिया। पोलकने ‘क्रिटिक' के मालिको एक महीनेका नोटिस देकर अपना इस्तीफा पेश कर दिया और मियाद खत्म होने पर फिनिक्स' आ पहुंचे । अपनी मिलनसारीसे उन्होंने सबका मन हर लिया और हमारे कुटुंबी बनकर वहां बस गये । सादगी तो उनके गोरेशमें भरी [ ३३१ ]________________

अध्याय २१ : पौलक भी कूद पड़े। हुई थी, इसलिए उन्हें फिनिक्सका जीवन जरा भी अटपटा या कठिन न मालूम हुया, बल्कि स्वाभाविक और रुचिकर जान पड़ा ! | पर खुद मैं ही उन्हें वहां अधिक समयक नहीं रख सका । भि० चने विलायतमें रहकर कानूनको अध्ययनको पूरा करनेक निश्चय किया। दर कामका बोझै मुझ अकेले बसकर न था। इसलिए मैंने पोज दमें रहने और वकालत करने के लिए कहा। इनमें मैंने यह सोचा था कि उनके वकील हो जानेके बाद अंतको हम दोनों फिनिक्स में ब्रा पहुंचते ।। हमारी ये सब कपैनाएं अंतको झूठी साबित हुई; परंतु एकके बादमें एक प्रकारकी ऐसी सरलता थी कि जिसपर उनका विकास बैठ जाता उसके मार्थ यह हुज्जत न करते और उनकी सम्मति अनुज चलने का प्रयत्न करते । पोलकने मुझे लिखा--" मुझे तो यही जीवन पसंद हैं और मैं यहीं सुल हैं। मुझे आशा है कि हम इस संस्थाका खूब विकास कर सके। परंतु यदि आपका यह खयाल हो कि मेरे वहां अलेसे हमारे ग्राद जल्दी सफल होंगे, तो में अनेको भी तैयार हूं। मैंने इस पत्रका स्वागत किया और पोलक फिनिक्स छोड़कर जोहान्सबर्ग ये और मेरे दफ्तर मेरे सहायकका काम करने लगे । इसी समय किन्नटायर नामक एक स्कॉच युबक हमारे साथ शरीक हुआ । इह थियाँसकिस्ट था और उसे मैं कानूनकी परीक्षाकी तैयारी मदद करता था। मैंने उसे पोलका अनुकरण करने का निमंत्रण दिया था ।। इस तरह फिनिक्सके दर्शको शीत्र प्राप्त कर लेने शुभ उद्देश्यले मैं उसके दिरोचक जीवनमें दिन-दिन गहरा पैठतः गया और यदि ईश्वरीय संकेत दूसरा न होता तो सादे जीवनके बहाने फैशाये इस मोहजालसे में खुद ही फंस परंतु हमारे आदर्शकी रक्षा इस तरह हुई कि जिसकी हममें से किसीने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन उस का दर्शन करनेके इङ्ले अभी कुछ और अध्याय लिखने पड़ेंगे ।

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