सत्य के प्रयोग/ घरमें फेरफार और बाल-शिक्षा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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और उसमें बालकको भी शामिल करनेका उद्योग किया गया । बाजार से रोटी (डबल रोटी खरीदने के बदले में हाथसे बिना खमीरकी रोटी, कुनेकी बताई पद्धतिसे, बनाना शुरू किया । ऐसी रोटीमें 'भिलका आटा के नहीं दे सकता है फिर भिल टेके बजाय हाका अदा इस्तेमाल करने में सादगी, तंदुरुस्ती और धन, सबकी अधिक रक्षा होती थी । इसलिए ७ पौंड खर्च करके हाथसे अटा पीसनेकी एक इक्की खरीदी । इसका पहिया भारी था । इसलिए चलाने एकको दिक्कत होती श्री और दो आदमी उसे आसानीसे चला सकते थे। चक्की चलानेका काम खासकर पोलक, मैं और बच्चे करते थे। कभी-कभी कस्तूरवाई भी आ जाती है हालांकि यह प्रायः उस समय रसोई करने लगी रहती । श्रीमती मोलको नेचर वह भी उसमें जुट जाती । यह कसरत चालक के लिए बहुत अच्छी साबित हुई । उनले मैंने यह अथवा कोई दुसरा का जबरदस्त कभी नहीं करवाया; परंतु के एक खेल समझ कर उसका पहिया घुमाते रहते । थक जानेर पहिया छोड़ देनेकी उन्हें छुट्टी थी। मैं नहीं कह सकता, क्या बात है कि क्या बालक और क्या दूसरे लोग, जिनका परिचय हम आग' करेंगे, किसी कभी मुझे निराश नहीं किया है ।। यह नहीं कह सकते कि मंद और ढीठ लड़के मेरे नसीब में न हों; परंतु इनमें से बहुतेरे अपने जिस्मैका काम बड़ी उमंगसे करते । इस युगके ऐसे थोड़े ही बालक मुझे याद पड़ते हैं, जिन्होंने काम जी चुराया हो या कहा हो कि 'अब . थक गये । घर साफ रखनेके लिए एक नौकर था । वह कुटुंबीकी तरह रहता था। और बच्चे उसके काममें पूरी-पूरी मदद करते थे । पाखाना उठा ले जाने के लिए। म्युनिसिलिटी नौकर आता था; परंतु पाखानेका कमरा साफ रखना, बैठक धोना बरा झा नौकरने नहीं लिया जाता था और न इसकी प्राश ही रक्खी जाती थी । यह काम हम लोग खुद करते थे; क्योंकि उसमें भी बच्चोंको तालीम मिलती थी ! इसका फल यह हुअा कि मेरे किसी भी लड़केको शुरूसे ही पाखाना साफ करनेकी विन न्द्र रहीं और आरोग्य के सामान्य नियम भी वे सहज ही सीख गये । जोहान्सबर्ग में कोई बीमार तो शायद ही पड़ते; परंतु यदि कोई बीमार होता तो उसकी सेवा दिने बालक अवश्य शामिल होते और वे इस कामको [ ३३७ ]________________

अध्याय २३ : धर फेरफार और’ - बड़ी खुशीसे करते । | यह तो नहीं कह सकते कि उनके अक्षर-छान्न अर्थात् पुस्तकी शिक्षकी मैंने कोई परवाह नहीं की; परंतु हां, मैंने उसका त्याग करतेमें कुछ संकोच नहीं किया। इस मौके लिए मेरे लड़के भेरी नियत कर सकते हैं और कई बार उन्होंने अपना असंतोष प्रदर्शन भी किया है। मैं जानता हूं कि हमें कुछ अंश मेरा दोष है । उन्हें पुस्तकी शिक्षा देने की इच्छा मुझे डर हुआ करतीं, कोशिश भी करता; परंतु इस कामें हमेशा कुछ-न-कुछ दिन ब ह । उ* लिए धर दूसरी शिक्षाका प्रबंध नहीं किया था। इसलिए उन्हें अपने साथ पैदल दफ्तर् ले जाता । दफ्तर :ई मील भी है इसलिए सुबह-शाम पिलर च मीलकी कारन उनको र हो जाया करती । के चलते हुए उन्हें कुछ लिखाने की कोशिश करता; पर वह भी जब दूसरे कोई साथ चलने वाले न होते । दफ्तरों मबक्किलों सौर मुशियोंके संपर्क में ३ आते, मैं बः देता था तो कुछ पड़ते, इधर-उधर घूमते, बाजले कोई सामान-सौ लाना हो तो लाते । सबसे जेठे हरिदको छोड़कर सब बच्चे इसी तरह परवरिश पाये । हरिलाल देशमें रह गया था । यदि में अक्षर-ज्ञान के लिए एक घंटा भी नियमित रूप से दे पाता तो मैं मानता कि उन्हें आदर्श शिक्षण मिला है। किंतु मैं यह नियम न रख सका, इसका दुःख्ने उनको और मुको रह गया है। सबसे बड़े बेटेने तो अपने जीकी जलन मेरे तथा सर्वसाधारण सामने प्राड की है। दूसरोंने अपने हृदयकी उदारतासे काम लेकर, इस दोषको अनिवार्य समझकर उसुको सहन कर लिई है। पर इस कमी के लिए मुझे पता नहीं होता और यदि कुछ है भी तो इतना ही कि मैं एक आदर्श पिता साबित न हुन्न । परंतु यह मेरा मत है कि मैंने अक्षरज्ञानकी आहुति भी लोक-सेवा के लिए दी है। हो सकता है कि उसके सूलों अज्ञान हो; पर में इतना कह सकता हूं कि वह सद्भावपूर्ण थी। उनके चरित्र और जीवनके निर्माश करनेके लिए जो-कुछ उति और आवश्यक था, उसमें मैंने कोई कसर नहीं रहने दी हैं और मैं मानता हूं कि प्रत्येक माता-पिताका यह अनिवार्य कर्तब्य है । मेरी इतनी कोशिशके बावजूद मेरे बालों के जीवन में जो खामियां दिखाई दी हैं, मेरा यह दृढ़ मत है कि वे इस दंपतीकी खामियोंका प्रतिबिंब है। [ ३३८ ]________________

आत्म-कथा : भाई ४ बालकोंको जिस तरह मां-बापकी आकृति विरासत में मिलती है, उसी तरह उनके गुण-दोष भी विरासतमें अवश्य मिलते हैं। हां, आस-पासके वाताबरणके कारण तरह-तरहकी घट-बढ़ी जरूर हो जाती है। परंतु मूल पूंजी तो वही रहती हैं, जो उन्हें बाप-दादोंसे मिली होती है। यह भी मैंने देखा है कि कितने ही बालक दोषोंकी इस विरासतसे अपनेको बचा लेते हैं। पर यह तो आत्मक मूल स्वभाव है, उसकी बलिहारी है ।। मेरे और पोलकके दरमियान इन लड़कोंके अंग्रेजी-शिक्षण के विषय में गरमागरम बातचीत होती रही है। मैंने शुरूसे ही यह माना है कि जो हिंदुस्तानी माता-पिता अपने बालकोंको बचपनसे ही अंग्रेजी पढ़ना और बोलना सिखा देते हैं वे उनका और देशका द्रोह करते हैं। मेरा यह भी मत है कि इससे बालक अपने देश की धामिक और सामाजिक विरासतुसे वंचित रह जाते हैं और उस अंशतक देशकी' और जगत्की सेवा करने के कम योग्य अपनैको बनाते हैं। इस कारण मैं हमेशा जान-बूझकर बालक के साथ गुजरातीमें ही बातचीत करता । पोलकको यह पसंद न आता ! वह कहते---- ‘अर बालकोंके भविष्यको बिगाड़ते है।' वह मुझे बड़े आग्रह और प्रेमसे समझाते कि अंग्रेजी-जैसी व्यापक भाषाको यदि बच्चे बचपन से ही सीख ले तो संसारमें जो आज जीवन-संघर्ष चल रहा है । उसकी एक बड़ी मंज़िल वे सहज में ही तय कर लेंगे । मुझे यह दलील न पटी' । । अब मुझे याद नहीं पड़ता कि अंतको मेरा जवाब उन्हें जंच गया या मेरी हुङको देखकर वह खामोश हो रहै । यह बातचीत कोई बीस बरस पहले की है। अब तो मेरे उस समयके में विचार अनुभवसे और भी दृढ़ हो गये हैं और भले ही भेरे बालक अक्षर-ज्ञानमें कच्चे रह गये हों, फिर भी उन्हें मातृ-या जो सामान्य ज्ञान' सहज ही मिल गया हैं उससे उनको र देशको लइ * हीं है हैं और आज ६ परदेशी-जैसे नहीं हो रहे हैं। वे दुभाषिया तो आसानी से हो गये थे; क्योंकि बड़े अंग्रेज मित्र-मंडलके सहवास नैसे और ऐसे देशमें रहनेसे जहां अंग्रेजी विशेषरूप से बोली जाती है, वे अंग्रेजी बोलना और मामूली लिखना सीख . गये थे।

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