सामग्री पर जाएँ

सत्य के प्रयोग/ कसौटीपर

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ४२० से – ४२२ तक

 

________________

अध्याय १० : कसौटीपर ४०३ में सर गुरुदास बनर्जीकी राय मुझे याद रह गई है। उन्हें नियमावली पसंद आई; परंतु उन्होंने सुझाया कि इन व्रतोंमें नम्रताके व्रतको भी स्थान मिलना चाहिए । उनके पत्र की ध्वनि यह थी कि हमारे युवकवर्गमें नम्रताकी कमी है। मैं भी जगह-जगह नम्रताके अभावको अनुभव कर रहा था; मगर व्रतमें स्थान देने नम्रताके नम्रता न रह जानेका आभास होता था । नम्रताका पूरा अर्थ तो है। शून्यता । शून्यता प्राप्त करनेके लिए दूसरे व्रत होते हैं। शून्यता मोक्षकी स्थिति है। मुमुक्षु या सेवकके प्रत्येक कार्य यदि नम्रता-निरभिमानतासे न हों तो वह मुमुक्षु नहीं, सेवक नहीं, वह स्वार्थी हैं, अहंकारी है । | आश्रममें इस समय लगभग तेरह तामिल लोग थे । मेरे साथ दक्षिण अफ्रीकासे पांच तामिल वालक अाये। वे तथा यहांके लगभग पच्चीस स्त्रीपुरुष मिलकर आश्रमका प्रारंभ हुआ था। सब एक भोजनशालामें भोजन करते थे और इस तरह रहनेका प्रयत्न करते थे, मानो सब एक ही कुटुंबके हों। कसौटीपर आश्रमकी स्थापनाको अभी कुछ ही महीने हुए थे कि इतनेमें हमारी एक ऐसी कसौटी हो गई, जिसकी हमने अाशा नहीं की थी । एक दिन मुझे भाई अमृतलाल ठक्करका पत्र मिला---एक गरीब और दयानतदार अंत्यज कुटुंबकी इच्छा आपके आश्रममें आकर रहने की है। क्या आप उसे ले सकेंगे ?' . चिट्ठी पढ़कर मैं चौंका तो; क्योंकि मैंने यह बिलकुल अशा न की थी कि ठक्कर बाप-जैसोंकी सिफारिश लेकर कोई अंत्यज कुटुंब इतनी जल्दी र जायगा। मैंने साथियों को यह चिट्ठी दिखाई। उन लोगों ने उसका स्वागत किया। मैंने अमृतलालभाईको चिट्ठी लिखी कि यदि वह कुटुंब आश्रमके नियमोंका पालन करने के लिए तैयार हो तो हम उसे लेनेके लिए तैयार हैं । बस, दूधाभाई, उनकी पत्नी दानीबहन और दुधमुंही लक्ष्मी आश्रममें आ गये । दूधाभाई बंबईमें शिक्षक थे । वह आश्रमके नियमोंका पालन करनेके : ‘लिए तैयार थे। इसलिए वह आश्रममें ले लिये गये । ________________

आत्म-कथा : भाग १ पर इससे सहायक मित्रमंडलीमें बड़ी खलबली मची। जिस कुएं में बंगलेके मालिकका भाग था उसमें से पानी भरने में दिक्कत आने लगी । चरस' हांकनेवालेको भी यदि हमारे पानीके छींटे लग जाते तो उसे छूत लग जाती है। उसने हमें गालियां देना शुरू किया। इधाभाईको भी वह सताने लगा। मैंने सबसे कह रक्खा था कि गालियां सह लेना चाहिए और दृढ़तापूर्वक पानी भरते रहना चाहिए । हमको चुपचाप गालियां सुनते देखकर चरसवाला शमिंदा हुआ और उसने हमारा पिंड छोड़ दिया; परंतु इससे आर्थिक सहायता मिलनी बंद हो गई । जिन भाइयोंने पहलेसे उन अछूतोंके प्रवेशपर भी, जो अाश्रमके नियमों का पालन करते हों, शंका खड़ी की थी उन्हें तो यह आशा ही नहीं थी कि अाश्रममें कोई अंत्यज आ जायगा । इधर आर्थिक सहायता बंद हुई, उधर हम लोगों बहिष्कारकी अफवाह मेरे कानपर आने लगी। मैंने अपने साथियोंके साथ यह विचार कर रखा था कि यदि हमारा बहिष्कार हो जाय और हमें कहीं से सहायता न मिले तो भी हमें अहमदाबाद न छोड़ना चाहिए। हम अछूतोंके मुहल्लोंमें जाकर बस जायेंगे और जो-कुछ मिल जायगा उसपर अथवा मजदूरी करके गूजर कर लेंगे । अंतको मगनलालने मुझे नोटिस दिया कि अगले महीने आश्रमखर्चके लिए हमारे पास रुपये न रहेंगे । मैंने धीरजके साथ जवाब दिया--" तो हम लोग अछूतोंके मुहल्लोंमें रहने लगेंगे ।” मुझपर यह संकट पहली ही बार नहीं आया था; परंतु हर बार अख़ीरमें जाकर उस सांवलियाने कहीं-न-कहींसे मदद भेज दी है ।। मगनलालके इस नोटिसके थोड़े ही दिन बाद एक रोज सुबह किसी बालकने आकर खबर दी कि बाहर एक मोटर खड़ी है । एक सेठ आपको बुला रहे हैं । मैं मोटरके पास गया । सेठने मुझसे कहा--- " मैं आश्रमको कुछ मदद देना चाहता हूं, आप लेंगे ? ' मैंने उत्तर दिया--"हां, आप दें तो मैं जरूर ले लूंगा । और इस समय तो मुझे जरूरत भी हैं ।' “मैं कल इसी समय यहां आऊंगा तो आप आश्रम में ही मिलेंगे न ? ?' मैने कहा--- " हां।" और सेठ अपने घर गथे । दूसरे दिन नियत समयपर मोटरका भोंपू बजा । बालकोंने मुझे खबर की । वह सेट अंदर नहीं आये । ________________

अध्याय १३ : कसौटी पर ४०१ में ही उनसे मिलने के लिए गया। मेरे हाथमें १३,०००)के नोट रखकर बह विदा हो गये । इस मददकी मैंने बिलकुल भाशा न की थी । मदद देनेका यह तरीका भी नया ही देखा । उन्होंने आश्रम में इससे पहले कभी पैर न रखा था। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि मैं उनसे एक बार पहले भी मिला था । न तो वह आश्रमके अंदर आये, न कुछ पूछ-ताछा । बाहरसे ही रुपया देकर चलते बने। इस तरह का यह पहला अनुभव मुझे था । इस मददले अछूतोंके मुहल्लेमें जानेका विचार स्थगित रहा; क्योंकि लगभग एक वर्षके खर्चका रुपया मुझे मिल गया था । परंतु बाहरकी तरह आश्रमके अंदर भी खलबली मची' । यद्यपि दक्षिण अफ्रीकामें अछूत वगैरा मेरे यहां आते रहते, और खाते थे, परंतु यहां अछूत कुटुंबका आना और आकर रहना पत्नीको तथा दूसरी स्त्रियोंको पसंद न हुआ । दानीबहनके प्रति उनका तिरस्कार तो नहीं, पर उदासीनता मेरी सूक्ष्म अांखें और तीक्ष्ण कान, जो ऐसे विषयोंमें खासतौरपर सतर्क रहते हैं, देखते और सुनते थे । आर्थिक सहायताके अभाबसे न तो मैं भयभीत हुआ, न चिंताग्रस्त ही, परंतु यह भीतरी क्षोभ कठिन था। दानीबहन मामूली स्त्री थी । दूधाभाईकी पढ़ाई भी मामूली थी; पर वह ज्यादा समझदार थे। उनका धीरज मुझे पसंद आया । कभी-कभी उन्हें गुस्सा आ जाता; परंतु आमतौर पर उनकी सहनशीलताकी अच्छी ही छाप मुझपर पड़ी है। मैं दूधाभाईको समझाता कि छोटे-छोटे अपमानोंको हमें पड़ जाना चाहिए। वह समझ जाते और दानीबहन को भी सहन करनेकी प्रेरणा करते ।। इस कुटुंबको आश्रममें रखकर अाश्रमने बहुत सबक सीखे हैं। और आरंभ-कालमें ही यह बात साफतौरसे स्पष्ट हो जानेसे कि आश्रममें अस्पृश्यताके लिए जगह नहीं है, आश्रमकी मर्यादा बंध गई और इस दिशामें उसका काम बहुत सरल हो गया। इतना होते हुए भी, आश्रमका खर्च बढ़ते जाते हुए भी, ज्यादातर सहायता उन्हीं हिंदुओंकी तरफसे मिलती आ रही है जो कट्टर माने जाते हैं यह यह बात स्पष्ट रूपसे शायद इसी बातको सूचित करती है कि अस्पृश्यताकी जड़ . अच्छी तरह हिल गई है । इसके दूसरे प्रमाण तो बहुतेरे हैं. परंतु जहाँ अछूतके साथ खानपानमें परहेज नहीं रखा जाता वहां भी वे हिंदू-भाई मदद करें, जा अपने को सनातनी मानते हैं, तो यह प्रमाण न-कुछ नहीं समझा जा सकता ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।