सत्य के प्रयोग/ एक चेतावनी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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૨૭૨ आत्म-कथा : भाग ४ परंतु यह याद रखना चाहिए कि सभी दृष्टिबिंदु एक ही समय और एक ही मुकामपर सही नहीं होते। फिर कितनी ही पुस्तकों में विक्रीके और नामके लालचकी बुराई भी रहती है। इसलिए जो सज्जद इस पुस्तकको पढ़ना चाहें वे इसे विवेकपूर्वक पढ़े और यदि कोई प्रयोग करना चाहें तो किसी अनुभवीकी सलाह करें, या धीरज रखकर विशेष अभ्यास करनेके बाद प्रयोगकी शुरुआत करें । एक चेतावनी अपनी इस कथाके धारा-प्रवाहको फिलहाल एक अध्यायतक रोककर पहले इसी विषयपर कुछ और रोशनी डालनेकी आवश्यकता है ।। । पिछले अध्यायमें मिट्टीके प्रयोगोंके संबंधमें मैंने जो कुछ लिखा है उसी तरह भोजनके भी प्रयोग मैने किये हैं। इसलिए उनके संबंथमें भी यहां कुछ लिख डालना उचित है । इस विषयको और जो-कुछ बातें हैं वे प्रसंग-प्रसंगपर सामने आती जावेगी ।। | भोजन-संबंधी मेरे प्रयोगों और विचारोंका सविस्तार वर्णन यहां नहीं किया जा सकता ; क्योंकि इस विषयपर मैंने अपनी आरोग्य संबंधी सामान्यज्ञान नामक पुस्तकमें विस्तारपूर्वक लिखा है। यह पुस्तक मैने ‘इंडियन ओपीनियन के लिए लिखी थी । मेरी छोटी-छोटी पुस्तिकाओंमें यह पुस्तक पश्चिममें तथा यहां भी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई है। इसका कारण में आजतक नहीं समझ सका हैं । यह पुस्तक महत्व 'इंडियन ओपनियन के पाठकोंके लिए ही लिखी गई थी। परंतु उसे पढ़कर बहुतेरे भाईबहनोंने अपने जीवनमें परिवर्तन किया है और मेरे साथ चिट्ठी-पत्री भी की है, और कर रहे हैं। इसलिए उसके संबंधमें यहां कुछ लिखनेकी आवश्यकता पैदा हो गई है । इसका कारण यह है कि यद्यपि उसमें लिखे अपने विचारोंको बदलनेकी अवश्यकता मुझे अभीतक नहीं दिखाई पड़ी है, फिर भी अपने प्राचारमें मैंने बहुत-कुछ परिवर्तन कर लिया है, जिसे इस पुस्तकके बहुतेरे पढ़ने वाले नहीं जानते और यह आवश्यक हैं कि वे जल्दी जान लें । [ २९३ ]________________

अध्याय ८ : एक चेतावनी इस पुस्तकको मैंने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखा है, जिस तरह कि मैने और लेख भी लिखे हैं और यही धर्म-भाव मेरे प्रत्येक कार्यमें आज भी वर्तमान है। इसलिए इस बातपर मुझे बड़ा खेद रहता है और बड़ी शर्मं मालूम होती हैं कि आज मैं उसमें से कितने ही विचारोंपर पूरा अमल नहीं कर सकता हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य जबतक बालक रहता है उन्नत भातका जितना दुध पी लेता है, उसके अलावा फिर उसे दूसरे दूधकी आवश्यकता नहीं है। मनुष्यका भोजन हरे और सूखे यत-पके फलझे सिवा और दूसरा नहीं हैं। बादामाद बीज तथा अंगूरादि फलोसे उसे शरीर और बुद्धि पोषणके लिए झवश्यक द्रव्य मिल जाते हैं। जो मनुष्य ऐसे भोजनपर रह सकता है उसके लिए ब्रह्मचर्यादि अात्म-संयम बहुत आसान हो जाता है। जैसा आहार तैसी डकार', *जैसा भोजन तैसा जीवन इस कहावतमें बहुत तथ्य है । यह मेरे तथा मेरे साथियों अनुभवकी बात है। इन विचारोंका सविस्तर प्रतिपादन मैंने अपनी आरोग्यसंबंधी उपर्युक्त पुस्तकमें किया है । परंतु मेरी तकदीरमें यह नहीं लिखा था कि हिंदुस्तान में अपने प्रयोगोंको भुर्णतातक पहुंचा दें । छेड़ा जिलेमें सैन्य भर्ती का काम कर रहा था कि अपनी एक भूलकी बदौलत मृत्यु-शयापर जा पड़ा। विना दूधके जीवित रहने लिए मैंने अबतक बहुतेरे निबफल प्रयत्न किये हैं। जिन-जिन वैद्य-डाक्टरों और रसायनशास्त्रियोंसे मेरी जान-पहचान श्री, उन सबसे मैंने मदद मांगी । किसीने मुंगका पानी, किसीने महुरका तेल, किसीने बादामका दुध बुझायो । इन तमाम चीजों का प्रयोग करते हुए मैंने अपने शरीर निचोड़ डाला; परंतु उनसे मैं गथ्यासे न उठ सका ।। वैद्यने तो मुझे चरक इत्यादिसे ऐसे प्रमाण भी खोजकर बताये कि रोगनिवारणके लिए खाद्याखाच दोष नहीं, और काम पड़ने पर भसादि भी खा सकते हैं। ये वैद्य भला मुझे दूध त्यागनेपर मजबूत बने रहने में कैसे मदद दे सकते थे ? जहां 'बीफ टी’ और ‘बांड भी जायज समझी जाती हो, वहां मुझे दूधत्यागमें कहां मदद मिल सकती है ? गाय-भैंसका दूध तो मैं ले ही नहीं सकता था; क्योंकि मैंने अत ले रखा था । ब्रसका हेतु तो यहीं था कि इध-मात्र छोड़ दें। परंतु ब्रत लेते समय मेरे सामने गाय और भैंस माता ही थी, इस कारण था जीवित [ २९४ ]________________

२७४ आत्म-३३ : भाग ४ रहने की अशाने मनको ज्यों-त्यों करके फुसला लिया । इससे व्रतके अक्षरार्थको ले बकरीका दूध लेनेका निश्चय किया, यद्यपि वकरी-माताको दूध लेते समय भी मेरा मन कह रहा था कि व्रतकी आमाका यह हनन है । पर मुझे तो रौलट-ऐक्टके खिलाफ आंदोलन खड़ा करना था । यह मोह मुझे नहीं छोड़ रहा था। इससे जीने की भी इच्छा बनी रही और जिसे मैं अपने जीवनका महा प्रयोग मानता हूं, वह बात रुक गई ।। | ‘खाने-पीने के साथ आत्मावा कुछ संबंध नहीं । वह न खाती है न पीती है । जो चीज पेटमें जाती है वह नहीं, बल्कि जो वचन अंदरसे निकलते हैं वे लाभहानि करते हैं, इत्यादि दलीलोंको मैं जानता हूं । इनमें तथ्यांश है; परंतु दलीलोके झगड़े में पड़े बिना ही यहां तो मैं अपना निश्चय ही लिख रखना चाहता हूं कि जो मनुष्य ईश्वरसे डरकर चलना चाहता है, जो ईश्वरका प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता है, उस साधक या मुमुक्षुके लिए अपनी खुराकका चुनाव, त्याग और ग्रहण--- उतना ही आवश्यक है जितना कि विचार और वाचाका चुनाव, त्याग और ग्रहण आवश्यक हैं । पर जिन बातों में मैं खुद गिर गया हूं उनसे दूसरोंको मैं अपने सहारे चलनेकी सलाह न दूंगा। यही नहीं, बल्कि चलनेसे रोकूगा । इस कारण आरोग्यसंबंधी सामान्य ज्ञान के आधारपर प्रयोग करनेवाले भाई-बहनोंको में सावधान कर देना चाहता हूं । जव दुधका त्याग सर्वांशमें लाभदायक मालूम हो अथवा अनुभवी वैद्य-डाक्टर उसके छोड़ने की सलाह दे तब तो ठीक, नहीं तो सिर्फ मेरी पुस्तक पढ़कर कोई सज्जन दूध न छोड़ दें। हिंदुस्तानका मेरा अनुभव अबतक तो मुझे यही बताता है कि जिनकी जठराग्नि मंद हो गई हो और जो बिछौनेपर ही पड़े रहने लायक हो गये हैं उनके लिए दूधके बराबर हलका और पोषक पदार्थ . दूसरा नहीं। इसलिए पाठकोंसे मेरी विनती और सलाह है कि इस पुस्तकमें जो दूधकी मर्यादा सुचित की गई है, उसपर वे आरड़ न रहें । इन प्रकरणोंको पइनेवाले कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम या दूसरे अनुभवी सज्जन इधकी एवज़में उतनी ही पोषक और पाचक वनस्पति----केवल अपने अध्ययनके आधारपर नहीं बल्कि; अनुभवके अाधारपर-जानते हों तो मुझे .. सुचित कर उपकृत करे ।

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