सत्य के प्रयोग/ जबरदस्तसे मुकाबला

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ६ : जबरदस्त मुकाबला २६१ जबरदस्तसे मुकाबला अव एशियाई कर्मचारियोंकी अोर निगाह डालें । इन कर्मचारियोंका सबसे बड़ा थाना जोहान्सबर्ग में था ! मैं देखता था कि इन थानों. हिंदुस्तानी, चीनी आदि लोगोंका रक्षा नहीं, बल्कि भक्ष होता था। मेरे पास रोज शिकायतें आती--- “जिन लोगोंको अानेका अधिकार है वे तो दाखिल नहीं हो सकते और जिन्हें अधिकार नहीं है वे सौ-सौ पौंड देकर आते रहते हैं। इसका इलाज यदि आप न करेंगे तो कौन करेगा ?" मेरा भी मन भीतर यही कहता था। वह बुराई यदि दूर न हुई तो मेरा सबालमें रहना बेकार समझना चाहिए । मैं इसके सबूत इकट्ठे करने लगा। जब मेरे पास काफी सबूत जमा हो गए तब में पुलिस-कमिश्नरके पास पहुंचा ! मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें दया और न्यायका भाव है। मेरी बातोंको एकदम उड़ा देनेके बजाय उसने मन लगाकर सुनी और कहा कि इनका सबूत पेश कीजिए । मैंने जो गवाह पेश किये उनके बयान उसने खुद लिये ! उसे मेरी बात का इतमीनान हो गया; परंतु जैसा कि मैं जानता था वैसे ही वह भी जानता था कि दक्षिण अफ्रीकाम् गोरे पंचोके द्वरा गोरे अपराधियोको दंड दिलाना मुश्किल था; पर उसने कहा--- “ लेकिन फिर भी हमें अपनी तरफसे तो कोशिश करनी चाहिए। इस भयसे कि ये अपराधी ज्युरीके हाथों छूट जायंगे, उन्हें गिरफ्तार न कराना भी ठीक नहीं। मैं तो उन्हें जरूर पकड़वा लूंगा ।" | मुझे तो विश्वास था ही । दूसरे अफसरोंके ऊपर भी मुझे शक तो था; लेकिन मेरे पास उनके खिलाफ कोई सबल प्रमाण नहीं था । दोके विषयमें तो मुझे लेशमात्र संदेह न था। इसलिए उन दोनों नाम वारंट जारी हुए । मेरा काम तो ऐसा ही था, जो छिपा नहीं रह सकता था । बहुत-से लोग यह देखते थे कि मैं प्रायः रोज पुलिस-कमिश्नरके पास जाता हैं । इन द कर्मचारियोंके छोटे-बड़े कुछ जासूस लगे ही रहते थे। वे मेरे दफ्तरके आसपास मंडराया करते और मेरे आने-जानेके समाचार उन कर्मचारियोंको सुनाते रहते । [ २९६ ]________________

२७६ आ-कथा : भाग ४ यहां मुझे यह भी कह देना चाहिए कि उन कर्मचारियोंकी ज्यादती यहांतक बढ़ गई कि उन्हें बहुत जासूस नहीं मिलते थे। हिंदुस्तानियों और चीनियोंकी यदि मुझे मदद न मिलती तो ये कर्मचारी नहीं पकड़े जा सकते थे । | इन दो कर्मचारियोंमें से एक भाग निकला। पुलिस कमिश्नरने उसके नाम वाहका वारंट निकालकर उसे पकड़ मंगाया और मुकदमा चला। सबूत भी काफी पहुंच गया था । इधर ब्यूरीके पर एकके 7 जानेको त प्रमाण भी था। फिर भी वे दोनों बरी हो गये । । इससे में स्वभावत: बहुत निराश हुआ। पुलिस-कमिश्नरको भी दुःख हुआ । वकीलोंके रोजगारके प्रति मेरे मनमें घृणा उत्पन्न हुई । बुद्धिका उपयोग अपराधको छिपाने में देख मुझे यह बुद्धि ही खलने लगी ।। उन दोनों कर्मचारियोंके अपराधकी शोहरत इतनी फैल गई थी कि उनके छूट जानेपर भी सरकार उन्हें अपने पदपर न रख सकी। वे दोनों अपनी जगहसे निकाले गये । इससे एशियाई थाने की गंदगी कुछ कम हुई और लोगोंको भी अब धीरज बंधा और हिम्मत भी आई ।। . इससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गई है मेरी वकालत भी चमकी । लोगोंके में सैकड़ों पौंड रिश्वतसे जाते थे, वे सबके सब नहीं तो भी बहुत अधिक बच । ए । रिश्वतखोर तो अब भी हाथ मार ही लेते थे; पर यह कहा जा सकता है। कि ईमानदार लोगोंके लिए अपने ईमानको कायम रखने की सुविधा हो गई थी । | वे कर्मचारी इतने अधम थे; लेकिन, मैं कह सकता हैं, उनके प्रति मेरे मनमें कुछ भी व्यक्तिगत दुभव नहीं था। मेरे इस स्दैवको वे जानते थे और जब उनकी असहाय अवस्थामें सहायता करनेका मुझे अवसर मिला तो मैंने उनकी सहायता भी की है। जोहान्सबर्गको म्युनिसिपैलिटीमें यदि मैं उनका विरोध न करू तो उन्हें नौकरी मिल सकती थी। इसके लिए उनका एक मित्र मुझसे मिला और मैंने उन्हें नौकरी दिलाने में मदद करना मंजूर किया । और उनकी नौकरी लग भी गई ।। इसका यह असर हुआ कि जिन गोरे लोगोंके संपर्क में आया ने मेरे विषयमें निःशंक होने लगे । यद्यपि उनके महकमोंके विरुद्ध मुझे कई बार लड़ना पंड़ता, कठोर शब्द कहने पड़ते, फिर भी वे मेरे साथ मधुर संबंध रखते : [ २९७ ]________________

अध्याय १० : एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित्त २७७ ॐ । ऐसा बर्ताव करता है। स्वभाव ही बन गया है, इसका ज्ञान मुझे उस समय न था । ऐसा बताद सत्याग्रहकी नई है, यह अहिंसा का ही एक अंग-विन है, यद् ती ६ बादक समझ पाया है ! मनुष्य और उसका काम ये दे जुदा चीजें हैं। अच्छे कामके प्रति मनमें दर और बुरेके प्रति तिरस्कार अवश्य ही होना चाहिए; पर अच्छे-बुरे काम करने के प्रति हमेशा बन अादर अथवा ब्याका भाव होना चाहिए। यह बात समझ में तो बड़ी रार है। लेकिन उनके अनुसार बहुत ही कम होता है। इससे जगत्में हम इतना जहर फैला हुआ देखते हैं । सत्यकी खोज मलमें ऐसी अहिंसा व्याप्त है । यह मैं प्रतिक्षा अनुभव करता हूं कि जबतक यह अहिंसा हाथ न लगी तबतक सत्य हाथ नहीं आ मुकता । किसी तंत्र या प्रणालीका विरोध तो अच्छा है; लेकिन उसके संचालकका विरोध करना नानो खुद अपना ही विरोध करना है । कारण यह है कि हम सबकी सृष्टि एक ही कूची के द्वारा हुई हैं। हम सब एक ही ब्रह्मदेवकी प्रजा है । संचालक अर्थात् उस व्यक्तिके अंदर तो अनंत शक्ति भरी हुई है। इसलिए यदि हम उसका अनादर--तिरस्कार करेंगे तो उसकी शक्तियोंका, गुणोंका भी अनादर होगा। ऐसा करने से तो उस संचालककों एवं प्रकारांतरले सारे जगत्को हानि पहुंचेगी ।। एक पुण्यस्मरा और प्रायश्चित्त मेरे जीवन ऐसी अनेक घटनाएं होती रहीं हैं, जिनके कारण में विविध धमियों तथा जातियोंके निकट परिचयमें आ सका हूँ । इन सब अनुभवोंपरसे अह कह सकते हैं कि मैंने घरके या बाहर, देशी या विदेशी, हिंदू या मुसलमान तथा ईसाई, पारसी या यहूदियोंसे भेद-भावका रयाल तक नहीं किया। मैं कह सकता हूं कि मेरा हृदय इस प्रकारके भेद-भावको जानता ही नहीं। इसको मैं अपना एक गुण नहीं मानता हूं; क्योंकि जिस प्रकार अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि

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