सत्य के प्रयोग/ मिट्टी और पानी के प्रयोग

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २८९ ]________________

अध्याय ७ : मिट्टी और पानी प्रयोग बुनियाद था तो तुरंत जाकर उससे माफी मांगते और अपना दिल साफ कर लेते । मुझे इनकी यह चेतावनी बिलकुल ठीक मालूम हुई। बदरीका रुपया तो मैं चुका मका था, परंतु यदि उस समय और एक हजार पौंड बरबाद किया होता तो उसको चुकानेकी हैसियत मेरी बिलकुल नहीं थी । और माथे कर्ज ही करना पड़ता । कर्जके चक्कर मैं अपनी जिंदगीमें कभी नहीं पड़ा और उससे मुझे हमेशा अरुचि ही रही है। इससे मैंने यह सबक सीखा कि सुधार-कायके लिए भी हमें अपनी ताकतके बाहर पांव ने बढ़ाना चाहिए। मैंने यह भी देखा कि इस कार्यमें गीताके तटस्थ निष्काम कर्मके मुख्य पाठका अनादर किया था। इस भूलने आगेको मेरे लिए प्रकाश-स्तंभको काम दिया । निरामिषाहारके प्रचारकी देदीपर इतना बलिदान करना पड़ेगा, इसका अनुमान मुझे न था ! मेरे लिए यह जबरदस्तीका पुण्य था । मिट्टी और पानी प्रयोग ज्यों-ज्यों मेरे जीवनमें सादगी बढ़ती गई त्यों-त्यों बीमारियांके लिए दवा लेनेकी ओर जो अरुचि मुझे पहले हीसे थी वह भी बढ़ती गई। जब मैं डरनमें वकालत करता था तब डाक्टर प्राणजीवनदास मेहता मुझसे मिलने आये थे । उस समय मुझे कमजोरी रहा करती थी और कभी-कभी बदन सूज भी जाया करता था। उसका इलाज उन्होंने किया था और उससे मुझे लाभ भी हुआ था । इसके बाद देश आ जानेतक मुझे नहीं याद पड़ता कि मुझे कहने लायक कोई बीमारी परंतु जोहान्सबर्ग में मुझे कब्ज रहा करता था और जब-तब सिरमें भी दर्द हुआ करता था। इधर-उधरकी दस्तावर दवायें ले-लाकर तबियतको सम्हालता रहता था । खाने-पीने में तो मैं परहेजगार शुरूसे ही रहा हूं; पर उससे मैं कतई रोग-मुक्त नहीं हुआ । सुन बराबर यह कहता रहता था कि इस दवाके जंजालसे छूट जाऊं तो बड़ा काम हो । लगभग इसी समय मैचेस्टर में नो ये कफास्ट एसोसिएशन की स्थापनाके समाचार मैंने पढ़े । उसकी खास [ २९० ]________________

आत्म-कथा : भाग ४ दलील यह थी कि अंग्रेज लोग बहुत बार खाते हैं और बहुतेरा खा जाते हैं, रातके बार-बारह बजेतक खाया करते हैं और फिर डाक्टरोंका घर खोजते फिरते हैं । इस बखेड़ेसे यदि कोई अपना पिंड छुड़ाना चाहें तो उन्हें ब्रेकफास्ट अर्थात् सुबहका नाश्ता छोड़ देना चाहिए। यह बात मुझपर सर्वांशमें तो नहीं पर कुछ अंशमें जरूर घटित होती थी । में तीन बार पेट भरकर खाता और दोपहरको चार भी पीता ।। मैं कभी अल्पाहारी न था । निरामिषाहारी होते हुए भी और बिना मसालेका खाना खाते हुए भी मैं जितनी हो सके चीजोंको स्वादिष्ट बनाकर खाता था । छः-सात बजेके पहले शायद ही कभी उठता । इससे मैंने यह नतीजा निकाला कि यदि में भी सुबहक खाना छोड़ दू तो जरूर मेरे सिरका दर्द जाता रहे। मैंने ऐसा ही किया भी । कुछ दिन जरा मुश्किल तो मालूम पड़ा; पर साथ ही सिरका दर्द बिलकुल चला गया। इससे मुझे निश्चय हो गया कि मेरी खुराक जरूर झावश्यकताले अधिक थी। परंतु कब्जकी शिकायत तो इस परिवर्तनसे भी दूर नहीं हुई । कूने के कटिस्नानका प्रयोग किया। उससे कुछ फर्क पड़ा; पर जितना चाहिए उतना नहीं । इस अरसेमें उस जर्मन भोजनालयवालेने या किसी दूसरे मित्रने मेरे हाथमें जुट-लिखित 'रिटर्न टू नेचर' (कुदरतकी अोर लौटो) नामक पुस्तक लाकर दी । उसमें मिट्टीके इलाजका वर्णन था। लेखकने इस बातका भी बहुत समर्थन किया है कि हरे और सूखे फल ही मनुष्यका स्वाभाविक भोजन है । केवल फलाहारको प्रयोग तो मैने इस समय नहीं किया; पर मिट्टीका इलाज तुरंत शुरू कर दिया । उसका जादूकी तरह मुझपर असर हुआ । उसकी विधि इस प्रकार है----खेतोकी साफ लाल या काली मिट्टी लाकर उसे अावश्यकतानुसार ठंडे पानी में भिगो लेना चाहिए। फिर साफ पतले भीगे कपड़े में लपेटकर पेटपर रखकर बांध लेना चाहिए। मैं यह पट्टी रातको सोते समय बांधता और सुबह अथवा रातको जब नींद खुल जाती निकाल डालता । इससे मेरा कब्ज निर्मूल हो गया। उसके बाद मैंने मिट्टीके ये प्रयोग खुद अपनेपर तथा अपने साथियोंपर किए है; किंतु मुझे ऐसा याद पड़ता है कि शायद ही कभी उनसे लाभ न पहुंचा हो । पर, हां, यहां देशों अनेके बाद ऐसे उपचारोंपरसे में आत्म-विश्वास [ २९१ ]________________

२७१ अध्याय ७ : मिट्टी और पानी प्रयोग । खो बैठा हैं। प्रयोग करनेका, एक जगह स्थिर होकर बैठनेका भुझे अवसर भी नहीं मिल सका हैं। फिर भी मिट्टी और पानी उपचापर मेरा विश्वास बहुतांशमें ना ही बना हुआ है, जितना कि आरंभमें था आज भी एक सीमाके अंदर र, खुद अपनेपर मिट्टीके प्रयोग करता हूं और मौका पड़ जानेपर अपने साथियोंके भी उसी सलाह देता हैं । ” अपनी जिदमें दो बार बहुत सख्त वीमार ९ -* हैं। फिर भी मेरी यह दृढ़ धारणा है कि मनुष्यको दवा लेने की शायद है। आवश्यकता होती हैं। पथ्य और पानी, मिट्टी इत्यादि श्रेलू उपचारोसे ही हजार नौ-सौ-निन्यानवे बीमारियां अच्छी हो सकती है । । बार-बार वैद्य, हकीम या डाक्टरके यहां दौड़-दौड़कर जाने और शरीर में अनेक वर्ण और रसायन भरने से मनुष्य अपने जीवनको कम कर देता है। इतना ही नहीं, बल्कि अपने मनपर अपना अधिकार भी खो बैठता हैं । इससे वह अपने मनुष्यत्वको भी बा देता है और शरीरका स्वामी रहने के बजाय उसका गुलाब बन जाता है ।। यह अध्याय में २-शय्यापर पड़; हा लिख रहा है। इससे कोई इन विकी अवहेलना न करें। अपनी बीमारियोंके कारणोंका मुझे पता हैं । में अपनी ही खराबियोके कारण वीर पडा हैं, इस तक ज्ञान और भन भुझे हैं और मैं इसी कारण अपना धीरज नहीं छोड़ बैठा हूं । इस बीमारीको मैने ईश्वरका अनुग्रह माना है और दवा-दारू करनेके लालचसे दूर रहा हूं। मैं यह भी जानता हूं कि मैं अपनी इस हबके कारण अपने डाक्टर-मित्रोंका जी उकत देता है; पर वे उदार-भावसे नेरी हरुको सञ्ज कर लेते हैं और मुझे छोड़ नहीं देते ।। पर मुझे अपना बर्तमान स्थितिका लंबा-चौड़ा वर्णन करनेकी यहां आबश्यकता नहीं । इसलिए अब हम फिर १९०४-५में आ जावे । परंतु इस विषय में आगे बढ़ने से पहले पाठकको एक चेतावनी देना जरूरी हैं। इसको पढ़कर जो लोग जुस्टकी पुस्तक लें, वे उसकी सब बातोंको बेदबाक्य न समझ लें । सभी लेखों और पुस्तकोंमें लेखककी दृष्टि प्रायः एकांगी रहती है। मेरे खयाल हरएक चीज कम-से-कम सात दृष्टिबिंदुओंसे देखी जा सकती है और उन-उन दृष्टिबिंदुओंके अनुसार वह बात सच भी होती है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।