सत्य के प्रयोग/ गिरमिट-प्रथा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथर : भाग ५ इसी प्रश्नके संबंधों एक और बात भी आश्रममें स्पष्ट हो गई। इस विषयमें जो-जो नाजुक सवाल पैदा हुए उनका भी हल मिला। कितनी ही अकल्पित असुविधाअोंका स्वागत करना पड़ा । ये तथा और भी सत्यकी शोधके सिलसिले में हुए प्रयोगोंका वर्णन आवश्यक तो है; पर मैं उन्हें यहां छोड़ देता हूं । इस बातर मुझे दुःख तो है; परंतु अब आगेके अध्यायोंमें यह दोष थोड़ा-बहुत रहता ही रहेगा--- कुछ जरूरी बातें मुझे छोड़ देनी पड़ेगी; क्योंकि उनमें योग देने वाले बहुतेरे पत्र अभी मौजूद हैं और उनकी इजाजतके बिना उनके नाम और उनसे संबंध रखनंवाली बातोंका वर्णन आजादीसे करना अनुचित मालूम होता हैं। सबकी स्वीकृति समय-समयपर मांगना अथवा उनसे संबंध रखनेवाली बाते उनको भेजकर सुधरवाना एक असंभव बात हैं, फिर यह इस आत्मकथाकी मर्यादाके भी बाहर है। इसलिए अब अागेकी कथा यद्यपि मेरी दृष्टि सत्यके शोधकके लिए जानने योग्य है, फिर भी मुझे डर है कि वह अधूरी छपती रहेगी। इतना होते हुए भी ईश्वरकी इच्छा होगी तो असहयोगके युगतक पहुंचनेकी मेरी इच्छा व आशा है । । गिरमिट-प्रथा अब इस नये बसे हुए श्रमको छोड़ कर, जो कि अब भीतरी और बाहरी तूफानोंसे निकल चुका था, गिरमिट-प्रथा या कुली-प्रथापर थोड़ा-सा विचार करनेका समय आ गया है। गिरमिटिया उस कुली या मजूरको कहते हैं, जो पांच या उससे कम वर्षके लिए मजूरी करने का लेखी इकरार करके भारतके बाहर चला जाता है। नेटालके ऐसे गिरमिटियों परसे तीन पौंडका वार्षिक कर १९१४में उठा दिया गया था; परंतु यह प्रथा अभी बंद नहीं हुई थी । १९१६ में भारतभूषण पंडित मालवीयजीन इस सवालको धारा-सभामें उठाया था, और लाडे हाडंजने उनके प्रस्तावको स्वीकार करके यह घोषणा की थी यह प्रथा ‘समय आते ही उठा देनेका वचन मुझे सम्राट्की ओर से मिला है। परंतु मेरी तो यह स्पष्ट मोटेरेया कि इस प्रथाको तत्काल बंद कर देनेका निर्णय हो जाना चाहिए । हिंदु नों परवाही से इस प्रथाको बहुत वर्षोंतक दरगुजर करता रहा। [ ४२४ ]________________

अध्याय ११ : गिरमिट-प्र ४०७ पर अब मैंने यह देखा कि लोगोंमें इतनी जाग्रति आगई है कि अब यह बंद की जा सकती है, इसलिए मैं कितने ही नेताओंसे इस विषयमें मिला, कुछ अखबारों इस संबंध लिखा और मैंने देखा कि लोकमत इस प्रथाका उच्छेद कर देनेके पक्षमें था। मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या इसमें सत्याग्रह का कुछ उपयोग हो सकता है ? मुझे उसके उपयोगके विषय में तो कुछ संदेह नहीं था; परंतु यह बात मुझे नहीं दिखाई पड़ती थी कि उपयोग किया कैसे जाय । इस बीच वाइसरायने ‘समय आनेपर' इन शब्दोंका : अर्थ. भी स्पष्ट कर दिया। उन्होंने प्रकट किया कि दूसरी व्यवस्था करने में जितना समय लगेगा, उतने समयमें यह प्रथा निर्मूल कर दी जायगी । इसपरसे फरवरी १९१७ में भारतभूषण मालवीयजीने गिरमिट-प्रथाको कतई उठा देनेका कानून पेश करनेकी इजाजत बड़ी धारा-सभामें मांगी, तो वायसरायने उसे नामंजूर कर दिया। तब इस मसले को लेकर मैंने हिंदुस्तानमें भ्रमण शुरू कर दिया । | भ्रमण शुरू करनेके पहले वाइसरायसे मिल लेना मैंने उचित समझा। उन्होंने तुरंत मुझे मिलने का समय दिया । उस समय मि० मेफी, अब सर जानः । मेफी, उनके मंत्री थे । मि० मेफीके साथ मेरा ठीक संबंध बंध गया था। लार्ड चेम्सफोर्डके साथ इस विषयपर संतोषजनक बातचीत हुई। उन्होंने निश्चयपूर्वक तो कुछ नहीं कहा--- परंतु उनसे मदद मिलनेकी आशा जरूर मेरे मनमें बंधी । भ्रमणका आरंभ मैंने बंबईसे किया। बंबईमें सभा करनेका जिम्मा भि० जहांगीरजी पेटिटने लिया । इंपीरियल सिटीजनशिप असोसियेशनके नामपर सभा हुई। उसमें जो प्रस्ताव उपस्थित किये जानेवाले थे, उनका मसदिदा बनानेके लिए एक समिति बनाई गई। उसमें डा० रीड, सर लल्लूभाई शामलदास, नटराजन इत्यादि थे। मि० पेटिट तो थे ही । प्रस्तावमें यह प्रार्थना की गई थी कि, गिरमिट-प्रथा बंद कर दी जाय; पर सवाल यह था कि कब बंद की जाय ? इसके संबंधमें तीन सूचनायें पेश हुई--(१) ‘जितनी जल्दी हो सके', (२) ‘इकतीस जुलाई', और (३) तुरंत' । 'इकत्तीस जुलाई' वाली सूचना मेरी थी। मुझे तो निश्चित तारीखकी जरूरत थी कि जिससे उस मियादतक यदि कुछ न हो तो इस बातकी सूझ पड़ सके कि आगे क्या किया जाय और क्या किया जा [ ४२५ ]________________

४०६ आत्म-कथा : भाग ५ सकला है। सर लल्लूभाईकी राय थी कि ‘तुरंत' शब्द रक्खा जाय। उन्होंने कहा कि ‘इकत्तीस जुलाई से तो तुरंत' शब्दमें अधिक जल्दीका भाव आता है । इसपर मैंने यह समझानेकी कोशिश की कि लोग तुरंत' शब्दका तात्पर्य न समझ सकेंगे । लोगोंसे यदि कुछ काम लेना हो तो उनके सामने निश्चयात्मक शब्द रखना चाहिए। तुरंत' का अर्थ सब अपनी मर्जीके अनुसार कर सकते हैं। सरकार एक कर सकती है, लोग दूसरा कर सकते हैं। परंतु इकत्तीस जुलाई का अर्थ सब एक ही करेंगे और उस तारीख तक यदि कोई फैसला न हो तो हम यह विचार कर सकते हैं कि अब हमें क्या कार्रवाई करनी चाहिए। यह दलील डा० रीडको तुरंत जंच गई। अंतको सर लल्लूभाईको भी, 'इकत्तीस जुलाई रुची और प्रस्तावमें वही तारीख रक्खी गई। सभामें यह प्रस्ताव रखा गया और सब जगह इकत्तीस जुलाई की मर्यादा घोषित हुई । बंबईसे श्रीमती जायजी पेटिटकी अथक मिहनतसे स्त्रियोंका एक प्रतिनिधिमंडल वायसरायके पास गया। उसमें लेडी ताता, स्वर्गीय दिलशाह बेगम वगैरा थौं । सत्य बहनोंके काम तो मुझे इस समय याद नहीं है; परंतु इस प्रतिनिधिमंडलका असर बहुत अच्छा हुआ और वायसराय साहबने उसका आशा-वर्धक उत्तर दिया था। करांची, कलकत्ता वगैरा जगह भी मैं हो आया था। सब जगह अच्छी सभायें हुई और जगह-जगह लोगों में खूब उत्साह था । जब मैंने इस कामको उठाया तब ऐसी सभायें होने की और इतनी संख्यामें लोगोंके आनेकी आशा मैंने नहीं की थी । | इस समय मैं अकेला ही सफर करता था, इससे अलौकिक अनुभव प्राप्त होता था। खुफिया पुलिस तो पीछे लगी ही रहती थी; पर इनके साथ झगड़नेकी मुझे कोई जरूरत नहीं थी। मेरे पास कुछ भी छिपी बात नहीं थी। इसलिए वे न मुझे सताते और न मैं उन्हें सताता था । सौभाग्यसे उस समय मुझपर महात्मा' की छाप नहीं लगी थी, हालांकि जहां लोग मुझे पहचान लेते वहां इस नामका घोष होने लगता था । एक दफा रेलमें जाते हुए बहुतसे स्टेशनोंपर खुफिया मेरा टिकट देखने आते और नंबर वगैरा लेते । मैं तो वे जो सवाल पूछते. जवाब तुरंत दे देता। इससे साथी मुसाफिरोंने समझा कि मैं कोई सीधासादा साधु या फकीर हूं । जब दो-चार स्टेशनपर खुफिया आये तो वे मुसाफ़िर [ ४२६ ]________________

अध्याय ११ : गिरगिट-प्रथा बिगड़े और उस खुफियाको गाली देकर डांटने लगे--- "इस बेचारे साधुको नाहक क्यों सताते हो ? ' और मेरी तरफ मुखातिब होकर कहा--- " इन बदमाशोंको टिकट मत बताओ ।' मैंने धीमेसे इन यात्रियों से कहा- “उनके टिकट देखनैसे मुझे कोई कष्ट नहीं होता, वे अपना फर्ज अदा करते हैं, इससे मुझे किसी तरहका दुःख नहीं है। उन मुसाफिरोंको यह बात जंची नहीं। वे मुझपर अधिक तरस खाने लगे और आपसमें बातें करने लगे कि देखो, निरपराध लोगोंको भी ये कैसे हैरान करते हैं ! इन खुफियोंसे तो मुझे कोई तकलीफ न मालूम हुई; परंतु लाहौरसे लेकर देहलीतक मुझे रेलवेकी भीड़ और तकली फका बहुत ही कडुआ अनुभव हुा । कराचीसे लाहौर होकर मुझे कलकत्ता जाना था । लाहौरमें गाड़ी बदलनी पड़ती थी। यहां गाड़ोम मेरी कहीं दाल नहीं गलती थी। मुसाफिर जबरदस्ती घुस पड़ते थे। दरवाजा बंद होता तो खिड़कीमेंस अंदर घस जाते थे । इधर मुझे नियत तिथिको कलकत्ता पहुंचना जरूरी था । यदि यह ट्रेन छूट जाती तो मैं कलकत्ते समयपर नहीं पहुंच सकता था । मैं जगह मिलनेकी अशा छोड़ रहा था। कोई मुझे अपने डब्बे में नहीं लेता था। अखीरको मुझे जगह खोजता हुआ देखकर एक मजदूरने कहा--- "मुझे बारह आने दो तो मैं जगह दिला दें ।" मैंने कहा--- "जगह दिला दो तो मैं बारह आने जरूर दूंगा।” बेचारा मजदूर मुसाफिरोंके हाथ-पांव जोड़ने लगा; पर कोई मुझे जगह देनेके लिए तैयार नहीं होते थे। गाड़ी छूटनेकी तैयारी थी । इतनेमें एक डब्बेके कुछ मुसाफिर बोले-- * यहां जगह नहीं है। लेकिन इसके भीतर घुसा सकते हो तो घुसा दो; खड़ा रहना होगा।' मजदूरने मुझसे पूछा--- " क्योंजी ? " मैंने कहा--- "हां, घुसा दो !' तब उसने मुझे उठाकर खिड़कीमेंसे अंदर फेंक दिया। मैं अंदर घुसा और मजदूरने बारह आने कमाये ।। | मेरी यह रात बड़ी मुश्किलोंसे बीती । दूसरे मुसाफिर तो किसी तरह ज्यों-त्यों करके बैठ गये; परंतु मैं ऊपरकी बैठककी जंजीर पकड़कर खड़ा ही रहा । बीच-बीचमें यात्री लोग मुझे डांटते भी जाते-- "अरे, खड़ा क्यों है, बैठ क्यों नहीं जाता ?" मैंने उन्हें बहुतेरा समझाया कि बैठनेकी जगह नहीं है। परंतु उन्हें

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